Sunday, November 25, 2018

The earliest reference of Bhat can be found in Chandragupta's empire. In 'Mudrarakshasa', while describing different divisions in Chandragupta's army, a reference can be found to Bhat-Bala. Here 'Bala' means a division, hence 'Bhat-Bala' would mean a division composed of 'Bhat'. Chanakya had brought with him his disciples from Taxilla, who served as his loyal companions throughout his life. These disciples were also charged with training armies of Brahmins, to reduce the upper hand maintained by Kshatriyas in the indian politics. It can be conjenctured that the 'Bhat' spread all over the india is due to the reason that they were posted throughout the Maurya Empire as required.

They lived along the Sarswati river (Kashmir,Rajasthan,Gujrat and Sindh,Present Pakistan) and composed Sutras and vedas along the Sarswati River.Till Mauryan period they were the Sanskrit only speaking priests and as they migrated they passed their knowledge to their sons/descendents and other classification and class of Brahmins emerged .Brahmbhatt Brahmins are also called Saraswat Brahmins and all the Brahmins of Kashmir,Gujrat,Rajasthan and northern part of Indian subcontinent fall under Sarswat Division of the Panch Gaud.

A large part of the community has migrated over the centuries and largely settled in Bihar,UP,Maharastra,Goa and other Deccan part.

The Grief stricken Kashmiri Pundits are non other than Brahmbhatts/Bhatts technically who never migrated from the valley and their forefathers lived as sage in the vedic period. Kashmiri Pundit is just a popular name given to them initially they are Brahmbhatt/Bhatt Brahmins of Saraswat Division of the Brahmin Classification having surnames such as Bhatt,Bhar,Dhar,Koul et

          👑👑 भट्ट. 👑👑
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
भूमिहार इतिहास में कुछ नाम आते है मयूर भट्ट आर्यभट्ट बाणभट्ट न्याय भट्ट etc प्राचीन काल में भट्ट उपनाम उन ब्राह्मणों का था जो जीविका के लिए पुरोहित कर्म पर निर्भर नहीं थे
कुछ विद्वान ‘भट’ शब्द का अभिप्राय भूलवश ‘भाट’ समझतें हैं, मगर भट शब्द का वास्तविक अभिप्राय ‘योद्धा’ से है।

Thursday, November 22, 2018

In 1541 ce, when Sultan Sher Shah Suri was ruling the country after defeating the Moghul emperor Nasir ud-din Muhammad Humayun in the battle of Chausa, the foundation of village KHAIRA DEEH was laid down by Babu Madhav Rai, elder son of Kunwar Narayan Shah of Kuresar-Naraianpur branch of Mulhan Dikshit family.[5]
Khardiha belongs to Tallukedar Babu Madhav Rai's faimily. In sixth generation of Babu Madhav Rai's descendant elder brother Babu Ugrasen Rai got the zamindari ofKundesar and younger brother Babu Vikram Rai moved to 'Kharhiyan'. In spite of being a small village compared to the nearby Joga Musahib, Awathahi, Gondaur, Kanuaan, Amarupur and Siyadeeh, Khardiha is considered an important place by neighbouring villages.[6]

Saturday, November 17, 2018

प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं। साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं-धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार के हैं-ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ। ब्राह्मण ग्रन्थ दो प्रकार के हैं-श्रुति जिसमें वेद ब्राह्मण उपनिषद इत्यादि आते हैं और स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण महाभारत पुराण स्मृतियाँ आदि आती हैं। लौकिक साहित्य भी चार प्रकार के हैं-ऐतिहासिक साहित्य विदेशी विवरण, जीवनी और कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य।
प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के प्रमुख साधन साहित्यिक ग्रन्थ हैं जिन्हें दो उपखण्डों में रखा जा सकता है-धार्मिक साहित्य और लौकिक  साहित्य। इनका पृथक-पृथक उल्लेख करना आवश्यक है।
ब्राह्मण या धार्मिक साहित्य
ब्राह्मण ग्रन्थ प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्रदान करने में अत्यधिक सहयोग देते हैं। भारत का प्राचीनतम साहित्य प्रधानतः धर्म-संबंधी ही है। ऐसे अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जिनके द्वारा प्राचीन भारत की सभ्यता तथा संस्कृति की कहानी जानी जाती है। वे निम्नलिखित मुख्य हैं-
(क)    वेद– ऐसे ग्रन्थों में वेद सर्वाधिक प्राचीन हैं और वे सबसे पहले आते हैं। वेद आर्यों के प्राचीनत ग्रन्थ हैं जो चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद से आर्यों के प्रसार; पारस्परिक युद्ध; अनार्यों, दासों, दासों और दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक संगठन की विशिष्ट मात्रा में जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार अथर्ववेद से तत्कालीन संस्कृति तथा विधाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
(ख)    ब्राह्मण– वैदिक मन्त्रों तथा संहिताओं की गद्य टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है। पुरातन ब्राह्मण में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैतरीय आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय के अध्ययन से राज्याभिषेक तथा अभिषिक्त नृपतियों के नामों का ज्ञान प्राप्त होता है। शथपथ के एक सौ अध्याय भारत के पश्चिमोत्तर के गान्धार, शाल्य तथा केकय आदि और प्राच्य देश, कुरु, पांचाल, कोशल तथा विदेह के संबंध में ऐतिहासिक कहानियाँ प्रस्तुत करते हैं। राजा परीक्षित की कथा ब्राह्मणों द्वारा ही अधिक स्पष्ट हो पायी है।
(ग)    उपनिषद-उपनिषदों में ‘बृहदारण्यक’ तथा ‘छान्दोन्य’, सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थों से बिम्बिसार के पूर्व के भारत की अवस्था जानी जा सकती है। परीक्षित, उनके पुत्र जनमेजय तथा पश्चातकालीन राजाओं का उल्लेख इन्हीं उपनिषदों में किया गया है। इन्हीं उपनिषदों से यह स्पष्ट होता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य सभ्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। आर्यों के आध्यात्मिक विकास प्राचीनतम धार्मिक अवस्था और चिन्तन के जीते जागते जीवन्त उदाहरण इन्हीं उपनिषदों में मिलते हैं।
(घ)    वेदांग-युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं की शाखाओं का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वे ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष। वैदिक शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथकृ-पृथक वर्ग स्थापित हुआ और इन्हीं वर्गों के पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ। कल्पसूत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया-श्रौत सूत्र जिनका संबंध महायज्ञों से था, गृह्य सूत्र जो गृह संस्कारों पर प्रकाश डालते थे, धर्म सूत्र जिनका संबंध धर्म तथा धार्मिक नियमों से था, शुल्व सूत्र जो यज्ञ, हवन-कुण्ठ बेदी, नाम आदि से संबंधित थे। वेदांग से जहाँ एक ओर प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त होता है, वहाँ दूसरी ओर इसकी सामाजिक अवस्था का भी।
(ङ)    रामायणः महाभारत—वैदिक साहित्य के उत्तर में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्य साहित्य का प्रणयन हुआ। सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में ये दोनों महाकाव्य अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि ने की जिसमें अयोध्या की रामकथा है। इसमें राज्य सीमा, यवनों और शकों के नगर, शासन कार्य रामराज्य आदि का वर्णन है। मूल महाभारत का प्रणयन व्यास मुनि ने किया। महाभारत का वर्तमान रूप प्राचीन इतिहास कथाओं उपदेशों आदि का भण्डार है। इस ग्रन्थ से भारत की प्राचीन सामाजिक तथा धार्मिक अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ता है। इन दोनों महाकाव्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे आर्य संस्कृति के दक्षिण में प्रसार का निर्देश करते हैं। रामायण में तत्कालीन पौर जनपदों और महाभारत से ‘सुधमां’ और ‘देवसभा’ का हमें जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उससे पता चलता है कि राजा किस सीमा तक स्वेच्छाचारी था और कहां तक उसके प्रभाव और कार्य की सीमायें इन राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रजा प्रतिनिधित्व द्वारा परिमित थी।
(च)  पुराण– महाकाव्यों के पश्चात् पुराण आते हैं जिनकी संख्या अठारह है। इनकी रचना का श्रेय ‘सूत’ लोमहर्षण अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया जाता है। पुराणों में पाँच प्रकार के विषयों का वर्णन सिद्धान्ततः इस प्रकार है-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित। सर्ग बीज या आदि सृष्टि का पुराण है प्रतिसर्ग प्रलय के बाद की पुनर्सृष्टि को कहते हैं, वंश में देवताओं या ऋषियों के वंश वृक्षों का वर्णन  है, मन्वन्तर में कल्प के महायुगों का वर्णन है जिनमें से प्रत्येक में मनुष्य का पिता एक मनु होता है और वंशानुचरित पुराणों के वे अंग हैं जिनमें राजवंशों की तालिकायें दी हुई हैं और राजनीतिक अवस्थाओं, कथाओं और घटनाओं के वर्णन हैं। उपर्युक्त पांच पुराण के विषय होते हुए भी अठारहों पुराणों में वंशानुचरित का प्रकरण प्राप्त नहीं होता। यह दुर्भाग्य ही है क्योंकि पुराणों में जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण विषय है, वह वंशानुचरित है। वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड तथा भागवत पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड़-पुराण में भी पौरव, इक्ष्वाकु और बार्हदय राजवंशों की तालिका प्राप्त होती है। पर इनकी तिथि पूर्णतया अनिश्चित है। पुराणों की भविष्यवाणी शैली में कलियुग के नृपतियों की तालिकाओं के साथ शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, कण्व, आन्ध्र तथा गुप्तवंशों की वंशावलियाँ भी प्राप्त होती हैं। शिशुनागों में ही बिम्बिसार एवं अजातशत्रु का उल्लेख  मिलता है। इस प्रकार पुराण चौथी शताब्दी की स्थितियों का उल्लेख करते हैं। मौर्य वंश के संबंध में विष्णु पुराण में अधिक उल्लेख मिलते हैं। ठीक इसी प्रकार मत्स्य पुराण में मान्ध्र वंश का पूरा उल्लेख मिलता है। वायु पुराण गुप्त सम्राटों की शासन प्रणाली पर प्रकाश डालते हैं। इन पुराणों में शूद्रों और म्लेच्छों की वंशावली भी दी गयी है। आभीर, शक, गर्दभ, यवन, तुषार, हूण आदि के उल्लेख इन्हीं सूचियों में मिलते हैं।
(छ) स्मृतियाँ–ब्राह्मण ग्रन्थों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्व है। मनु, विष्णु, याज्ञवल्क्य नारद, वृहस्पति, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं जो धर्म शास्त्र के रूप में स्वीकार की जाती हैं। मनुस्मृति में जिसकी रचना संभवतः दूसरी शताब्दी में की गयी है, धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का पता चलता है। नारद तथा वहस्पति स्मृतियों से जिनकी रचना करीब छठी सदी ई. के आस-पास हुई थी, राजा और प्रजा के बीच होने वाले उचित संबंधों और विधियों के विषय में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त पराशर, अत्रि हरिस, उशनस, अंगिरस, यम, उमव्रत, कात्यान, व्यास, दक्ष, शरतातय, गार्गेय वगैरह की स्मृतियाँ भी प्राचीन भारत की सामाजिक और धार्मिक अवस्थाओं के बारे में बतलाती हैं।

अब्राह्मण ग्रन्थ- 

धार्मिक साहित्य के ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अब्राह्मण ग्रन्थों से उस समय की विभिन्न अवस्थाओं का पता चलता है।

(क)    बौद्ध ग्रन्थ-बौद्धमतावल्बियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसमें भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियाँ निहित हैं। ‘त्रिपिटक’ इनका महान ग्रन्थ है। सुत, विनय तथा अमिधम्म मिलाकर ‘त्रिपिटक’ कहलाते हैं। बौद्ध संघ, मिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में प्राप्त होते हैं। सुत्त पिटक में बुद्धदेव के धर्मोपदेश हैं। गौतम निकायों में विभक्त हैं-
प्रथम दीर्घ निकाय में बुद्ध के जीवन से संबद्ध एवं उनके सम्पर्क में आये व्यक्तियों के विशेष विवरण हैं। दूसरे संयुक्त निकाय में छठी शताब्दी पूर्व के राजनीतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है, किंतु सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी इससे अधिक होती है। तीसरे मझिम निकाय को भगवान बुद्ध को दैविक शक्तियों से युक्त एक विलक्षण व्यक्ति मानता है।
चौथे, अंगुत्तर निकाय में सोलह महानपदों की सूची मिलती हैं। पाँचवें, खुद्दक निकाय लघु ग्रंथों का संग्रह है जो छठी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर मौर्य काल तक का इतिहास प्रस्तुत करता है। अमिधम्म पिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त हैं। कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी हैं। मिलिंदमन्ह में यूनानी शाशक मिनेण्डर और बौद्ध मिक्षु नागसेन के वार्तालाप का उल्लेख है।
 ‘दीपवंश’ मौर्य काल के इतिहास की जानकारी देता है। ‘महावंश’ भी मौर्यकालीन इतिहास को बतलाता है। ‘महाबोधिवंश’ मौर्य काल का ही इतिहास माना जाता है। ‘महावस्तु’ में भगवान  बुद्ध के जीवन को बिन्दु बनाकर छठी शताब्दी ई. पूर्व के इतिहास को प्रस्तुत किया गया है। ‘ललित विस्तार’ में बुद्ध की ऐहिक लीलाओं का वर्णन है जो महायान से संबद्ध है। पाली की ‘निदान कथा’ बोधि सत्वों का वर्णन करती है। यातिमोक्ख, महावग्ग, चुग्लवग्ग, सुत विभंग एवं परिवार में भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों का उल्लेख है। ये पाँचों ग्रन्थ ‘विनय’ के अन्तर्गत आते हैं।
अमिधम्म के सात संग्रह है जिनमें तत्वज्ञान की चर्चा की गयी है। ऐतिहासिक ज्ञान के लिए त्रिपिटकों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि इसमें बौद्ध संघों के संगठनों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में जातक कथाओं का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान है जिनकी संख्या 549 है। ‘‘इनका महत्व केवल इसीलिए नहीं है कि उनका साहित्य और कला श्रेष्ठ है, प्रत्युत तीसरी शताब्दी ई. पूर्व की सभ्यता के इतिहास की दृष्टि से भी उनका वैसा ऊँचा मान है।’’ जातक में भगवान बुद्ध के जन्म के पूर्व की कथाएँ उल्लिखित हैं।
(ख) जैन ग्रन्थ– प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन ग्रन्थ भी उपयोगी हैं। ये प्रधानतः धार्मिक हैं। इन ग्रन्थों में ‘परिशिष्ट पर्वत’ विशेष महत्वपूर्ण हैं। ‘भद्रबाहु चरित्र’ दूसरा प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ है जिसमें जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चन्द्रगुप्त मौर्य के संबंध  में भी उल्लेख मिलता है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कथा-कोष, पुण्याश्रव-कथाकोष, त्रिलोक प्रज्ञस्ति, आवश्यक सूत्र, कालिका पुराण, कल्प सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि अनेक जैन ग्रन्थ भारतीय इतिहास की सामग्रियां प्रस्तुत करते हैं। इनके अतिरिक्त दीपवंश, महावंश, मिलन्दिपन्हो,  दिव्यावदान आदि ग्रन्थ की इन दोनों धर्मों तथा मौर्य साम्राज्य के संबंध में यत्र-तत्र उल्लेख करते हैं।
लौकिक साहित्य
ऐतिहासिक सामग्रियों की उपलब्धि के दृष्टिकोण से लौकिक साहित्य को प्रमुखतः निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) ऐतिहासिक ग्रन्थः ऐसे अनेक विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है जिनमें केवल सम्राट तथा शासन से संबंधित तथ्यों का ही उल्लेख किया गया है। ऐसे ग्रन्थों में कल्हण कृत ‘राजतरंगिणी’ नामक ग्रन्थ सर्वप्रथम आता है जो पूर्णतः ऐतिहासिक है। इसमें कथा-वाहिक रूप में प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों राज्य शासकों और प्रशस्तियों के आधार पर ऐतिहासिक वृतान्त प्रस्तुत किये गये हैं। इसकी रचना। 1148 ई. में प्रारम्भ की गयी थी। कश्मीर के सारे नरेशों के इतिहास जानकारी इस प्रसिद्ध ग्रन्थ से होती है। इसमें क्रमबद्धता का पूरी तरह निर्वाह किया गया है। इसी श्रेणी में तमिल ग्रन्थ भी आते हैं। ये हैं नन्दिवक लाम्बकम्, ओट्टक्तूतन का कुलोत्तुंगज- पिललैत्त मिल, जय गोण्डार का कलिंगत्तुंधरणि, राज-राज-शौलन-उला और चोलवंश चरितम्। इसी श्रेणी में सिंहल के दो ग्रन्थ-दीपवंश और महावंश भी आते हैं जिनमें बौद्ध भारत का उल्लेख मिलता है।
गुप्तकालीन विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ सिकन्दर के आक्रमण के शीघ्र बाद ही भारतीय राजनीति का उद्घाटन करता है। पोरस, जिसने सिकन्दर के दाँत खट्टे कर दिये थे। मुद्राराक्षस के प्रमुख पात्रों में एक है। साथ ही साथ, चन्द्रगुप्त मौर्य चाणक्य तथा कुछ तत्कालीन नृपतियों का भी इसमें उल्लेख मिलता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी इस संबंध में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसकी रचना मुद्राराक्षस के पूर्व ही की गयी थी। इस ग्रन्थ में रचनाकार ने तत्कालीन शासन-पद्धति पर प्रकाश डाला है। राजा के कर्त्तव्य, शासन-व्यवस्था, न्याय आदि अनेक विषयों के संबंध में कौटिल्य ने प्रकाश डाला है। वास्तव में मौर्यकालीन इतिहास का यह ग्रन्थ एक दर्पण है।
पाणिनी का ‘अष्टाध्यायी’ एक व्याकरण ग्रन्थ होते हुए भी मौर्य पूर्व तथा मौर्यकालीन राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश डालता है। इसी तरह पातंजलि का ‘महाभाष्य’ भी राजनीति के संबंध में चर्चा करता है। ‘शुक्रनीतिसार’ भी एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ है जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज का वर्णन मिलता है। ज्योतिष ग्रन्थ गार्गी संहिता पुराण का एक भाग है जिसमें यवनों के आक्रमण का उल्लेख किया गया है। कालिदास का ‘मालविकाग्निमित्र’ साहित्यिक होते हुए भी ऐतिहासिक सामग्रियाँ प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ में कालिदास ने पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र तथा विदर्भराज की राजकुमारी मालविका की प्रेम कथा का उल्लेख किया है।
(ख)    विदेशी विवरण–देशी लेखकों के अतिरिक्त विदेशी लेखकों के साहित्य से भी प्राचीन भारत के इतिहास पृष्ठ निर्मित किये गये हैं। अनेक विदेशी यात्रियों एवं लेखकों ने स्वयं भारत की यात्रा करके या लोगों से सुनकर भारतीय संस्कृति में ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें यूनान, रोम, चीन, तिब्बत, अरब आदि देशों के यात्री शामिल हैं। यूनानियों के विवरण सिकन्दर के पूर्व, उसके समकालीन तथा उसके पश्चात की परिस्थितियों से संबंधित हैं। स्काइलेक्स पहला यूनानी सैनिक था जिसने सिन्धु नदी का पता लगाने के लिए अपने स्वामी डेरियस प्रथम के आदेश से सर्वप्रथम भारत की भूमि पर कदम रखा था। इसके विवरण से पता चलता है  कि भारतीय समाज में उच्चकुलीन जनों का काफी सम्मान था। हेकेटियस दूसरा यूनानी लेखक था जिसने भारत और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की चर्चा की है। हेरोडोटस जो एक प्रसिद्ध यूनानी लेखक था, ने यह लिखा है कि भारतीय युद्ध प्रेमी थे। इसी लेखक के ग्रन्थ से यह भी पता चलता है कि भारत का उत्तरी तथा पश्चिमी देशों से मधुर संबंध था। टेसियस ईरानी सम्राट जेरेक्सस का वैद्य था जिसने सिकन्दर के पूर्व के भारतीय समाज के संगठन रीति रिवाज, रहन-सहन इत्यादि का वर्णन किया है। पर इसके विवरण अधिकांशतः कल्पना प्रधान और असत्य हैं। 
सिकन्दर के समय में भी ऐसे अनेक लेखक थे जिन्होंने भारत के संबंध में ग्रन्थों की रचना की। ये लेखक सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय ही उसके साथ भारतवर्ष आये थे। इनमें अरिस्टोबुलस, निआर्कस, चारस, यूमेनीस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सिकन्दर के पश्चात् कालीन यात्रियों और लेखकों में मेगास्थनीज, प्लनी, तालिमी, डायमेकस, डायोडोरस, प्लूटार्क, एरियन, कर्टियस, जस्टिन, स्ट्रेबो आदि के नाम उल्लेख मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। इसकी ‘इण्डिका’ भारतीय संस्थाओं भूगोल समाज के वर्गीकरण, पाटलिपुत्र आदि के संबध में प्रचुर सामग्रियाँ देती हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ का मूल रूप अप्राप्य है, पर इसके उद्धरण अनेक लेखकों के ग्रन्थों में आये हैं। डायमेकस राजदूत के रूप में बिन्दुसार के दरबार में कुछ दिनों तक रहा जिसने अपने समय की सभ्यता तथा राजनीति का उल्लेख किया है। इस लेखक की भी मूल पुस्तक अनुपल्बध है तामली ने भारतीय भूगोल की रचना की। प्लिनी ने अपने ‘प्राकृतिक इतिहास’ में भारतीय पशुओं, पौधों, खनिज आदि का वर्णन किया। इसी प्रकार एरेलियन के लेख तथा कर्टियस, जस्टिन और स्ट्रेबो के विवरण भी प्राचीन भारत इतिहास के अध्ययन की सामग्रियाँ प्रदान करते हैं। ‘इरिथियन’ सागर का पेरिप्लस’ नाम ग्रंथ जिसके रचयिता का नाम अज्ञात है, भारत के वाणिज्य के संबंध में ज्ञान देता है।

Saturday, November 10, 2018


मध्यकालीन भारत के बारे में जिन विदेशियों ने भारत संबंधी कुछ विवरण लिखित रूप में छोड़ा, उनमें तीन लोगों का विशेष महत्व है – यूरोप का मेगस्थनीज, चीन का फाह्यान  और अरब का अल- बिरूनी । इनमें सबसे पुराना मेगस्थनीज (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) और सबसे बाद का अल-बिरूनी (ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी) है । अतः इन यात्रियों के विवरण से भारत के लगभग डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास के कुछ पहलू सामने आ जाते हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि इन यात्रियों के विवरणों का परिचय प्राप्त करने के लिए हम उनके मूल ग्रंथों के बजाय अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर रहे हैं । यह अंग्रेजी के प्रति हमारे मोह और  विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं के प्रति उदासीनता का एक उदाहरण है ।


मेगस्थनीज (350 – 290 ई. पू.)
मेगस्थनीज वैसे तो ग्रीक विद्वान था, पर उसका जन्म एशिया माइनर (वर्तमान तुर्की) में हुआ था । भारत में वह सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में आया था । हमारे  इतिहास में यों तो चंद्रगुप्त नाम से कई सम्राट हुए हैं, पर मध्यकालीन भारत में चंद्रगुप्त नाम के जिन दो सम्राटों का विशेष महत्व है उनमें से एक का सम्बन्ध प्रसिद्ध विद्वान चाणक्य के शिष्य और मौर्य वंश के संस्थापक से है, तो दूसरे का गुप्त वंश के संस्थापक से । इनमें मेगस्थनीज का सम्बन्ध किस चंद्रगुप्त से है, इस विषय में इतिहासकार एकमत नहीं हैं । अधिकतर विद्वान जहाँ इसे चंद्रगुप्त मौर्य से जोड़ते हैं, वहीँ कुछ विद्वानों का कहना है कि मेगस्थनीज ने अपने वर्णन में सम्राट का नाम “ सैंड्रोकोटस “ (Sandrakottos)  लिखा है और उसके पुत्र का नाम सैमड्राकिपटस (Samdrakyptos) लिखा है जो क्रमशः चंद्रगुप्त और समुद्रगुप्त (गुप्तवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त का पुत्र) के ग्रीक उच्चारण लगते हैं, चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र का नाम तो बिम्बसार / बिन्दुसार था । इसके अतिरिक्त, मेगस्थनीज ने न तो कहीं “ मौर्य “ शब्द का उल्लेख किया, और न चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु / प्रधानमंत्री चाणक्य का कोई ज़िक्र किया जिनके बिना चन्द्रगुप्त मौर्य की चर्चा अधूरी लगती है । इतिहासकारों के पास इस विषय में विवाद के अन्य भी कुछ तर्क हैं, पर मेगस्थनीज़ भारत में रहा – इस पर किसी को संदेह नहीं है ।


कहते हैं कि सिकंदर – पुरु युद्ध (326 ई.पू.) के लगभग बीस वर्ष बाद 305 ई. पू. में सिकंदर के एक सेनापति सेल्यूकस – प्रथम ने भारत पर पुनः आक्रमण करने का दुस्साहस किया । अब उसका सामना सम्राट चंद्रगुप्त से हुआ । युद्ध में उसकी करारी हार हुई और उसे संधि करने के लिए विवश होना पड़ा जिसके अनुसार उसने अपनी बेटी का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया, और मेगस्थनीज को अपना राजदूत बनाकर चंद्रगुप्त के दरबार में नियुक्त कर दिया । मेगस्थनीज भारत में कितने समय रहा, इस बारे में निश्चित रूप से कुछ पता नहीं । भारत में उसने जो कुछ देखा – सुना और अनुभव किया उसके आधार पर उसने चार खण्डों में एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था “ इंडिका “ ; यह पुस्तक उसने भारत में रहते हुए लिखी या बाद में, यह भी नहीं पता । ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में यूरोप में पुस्तकों को सुरक्षित रखने की न तो ठीक व्यवस्था थी, और न पूरे-पूरे ग्रन्थ कंठस्थ करने की जैसी परम्परा भारत में विकसित हुई, वैसी परंपरा वहां कभी रही । इसका परिणाम यह हुआ कि मेगस्थनीज के लगभग चार सौ वर्ष बाद ग्रीक इतिहासकार एरियन ( जन्म – मृत्यु का समय विवादास्पद : 86 – 160 ई. अथवा 95 – 175 ई.)  ने जब सिकंदर की गाथा “ इंडिका “ नाम से ही लिखने का निश्चय किया, तो उसे मेगस्थनीज की इंडिका खोजने पर भी नहीं मिली । बस यत्र – तत्र उसके अनेक  उद्धरण / सारांश अन्य ग्रीक लेखकों की पुस्तकों में मिले, उन्हीं का उपयोग उसने अपनी पुस्तक में किया । बाद में 19 वीं शताब्दी में इन्हीं उद्धरणों का क्रमबद्ध संकलन करके डा. श्वानबेक ने जर्मन भाषा में एक ग्रन्थ तैयार किया जिसका कालांतर में अंग्रेजी अनुवाद जे एम मैकक्रिंडेल ने किया । इस प्रकार संकलित / अनूदित रूप में जो ग्रन्थ तैयार हुआ उसका नाम है, “ एंशिएंट इंडिया एज़ डिस्क्राइब्ड बाई मेगस्थनीज एंड एरियन “। आज वस्तुतः इसी ग्रन्थ के आधार पर मेगस्थनीज के विचार / उद्धरण दिए जाते हैं (इंडिका नाम से एक तीसरी पुस्तक भी है पर वह अलबिरुनी के ग्रन्थ “किताब-उल-हिंद “ पर आधारित है, उसका मेगस्थनीज से कोई सम्बन्ध नहीं) ।

जिसे इन विद्वानों ने “ एंशिएंट इंडिया “ (प्राचीन भारत) कहा है, उसे वस्तुतः प्राचीन नहीं, मध्यकालीन कहना चाहिए क्योंकि हमारा इतिहास तो बहुत पुराना है । भारतीय इतिहासकारों के अनुसार पांच हजार वर्ष तो महाभारत काल को ही हो चुके, रामायणकाल उससे भी बहुत पहले का है, और सिन्धुघाटी और वैदिक युग और भी पुराना, (इसे सिद्ध करने के लिए भारतीय इतिहासकार अनेक प्रमाण देते हैं), जबकि विदेशी इतिहासकार मेगस्थनीज के जिस समय की बात कर रहे हैं वह तो उनके अनुसार ही अब से लगभग सवा दो हजार वर्ष पहले की बात है, तो उसे “ प्राचीन ” कैसे कह सकते हैं ?  इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि विदेशी इतिहासकारों ने अपनी समझ के अनुसार भारतीय इतिहास का कालक्रम निर्धारित कर तो दिया, पर उसकी अनेक विसंगतियाँ अब उजागर होती जा रही हैं । उदाहरण के लिए, उन्होंने गौतम बुद्ध का समय ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व  निर्धारित किया है, जबकि चीन के विद्वानों का यह मानना है (और वे इसके प्रमाण देते हैं) कि चीन में बौद्ध धर्म ईसा से लगभग 1100 – 1200  वर्ष पूर्व पहुँच चुका था जिसका स्पष्ट अर्थ है कि गौतम बुद्ध का समय ईसा से कम से कम डेढ़ – दो हजार वर्ष पहले होना चाहिए ; पर विदेशी इतिहासकारों की “ जिद “ थी कि पूरे विश्व के इतिहास को लगभग पांच हजार साल में समेटना है क्योंकि वे जिस ईसाई धर्म के अनुयायी थे उसकी मान्यता के अनुसार सृष्टि का निर्माण ईसा पूर्व 23 अक्टूबर 4004  को  प्रातःकाल 9.00  बजे हुआ था । मानव सभ्यता विकसित होने में भी समय लगा. अतः जब इस दुनिया को बने ही लगभग छह हजार साल हुए हैं, तो इतिहास उससे अधिक पुराना कैसे हो सकता है ? यों इस कसौटी पर भी मेगस्थनीज़ का समय मध्यकाल ही ठहरता है, प्राचीनकाल नहीं ।

अस्तु, काल निर्धारण की इस गुत्थी को यहीं छोड़ हम मेगस्थनीज के नाम से मिले भारत संबंधी विवरण की बात करें ।


मेगस्थनीज के विवरण से हमें भारत के साथ – साथ तत्कालीन यूरोप के बारे में भी कई जानकारियाँ मिलती हैं । जैसे, उस समय यूरोप के लोग गन्ने और कपास की खेती से बिलकुल अनभिज्ञ थे, इसीलिए मेगस्थनीज ने भारत में गन्ने के गुड़ को देखकर आश्चर्य से लिखा कि “ यहाँ बिना शहद की मक्खियों के भी शहद तैयार होता है। ” इसी तरह कपास देखकर लिखा कि “ भारत में पौधों से वनस्पति – ऊन तैयार की जाती है। ” यूरोप में तब दास प्रथा प्रचलित थी, और दासों के भी दो वर्ग थे slaves (दास) और Helots (अधिदास) ; जबकि भारत में यह प्रथा सर्वथा अज्ञात थी ।  अतः मेगस्थनीज को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि “ भारत में कोई दास नहीं, सब लोग स्वतंत्र हैं। ” यूरोप में लोगों के देहांत के बाद उनका स्मारक बनाने की प्रथा थी जो कब्र के रूप में अब तक मौजूद है ; भारत में मेगस्थनीज ने देखा कि यहाँ भौतिक स्मारक बनाने का रिवाज ही नहीं, लोग आदरपूर्वक उस व्यक्ति के गुणों का स्मरण करते हैं, उन गुणों का बखान करते हैं, उन गुणों के “ गीत “ गाते हैं । ये गुण ही उस व्यक्ति का स्मारक होते हैं । यूरोप में अनेक बार अकाल पड़ते थे, मेगस्थनीज को विस्मय हुआ कि भारत में अकाल ही नहीं पड़ता क्योंकि यहाँ ऐसी आपदा से बचने के उपाय पहले से ही कर लिए जाते थे ।

भारत की सामाजिक स्थिति के बारे में मेगस्थनीज ने कतिपय ऐसी बातें भी लिखी हैं जिन्हें पढ़कर आज के माहौल में हमारी आँखें भी खुली की खुली रह जाती हैं । उसने बताया है कि लोग शराब नहीं पीते । वे बहुत ईमानदार, सदाचारी और धर्मपरायण हैं । यहाँ लिखित दस्तावेजों के बजाय मौखिक बातों पर विश्वास किया जाता है । ऋण लेने के लिए किसी की गवाही या वचनपत्र की आवश्यकता नहीं । क़ानून लिखित नहीं है, पर कठोर है। घरों में ताले नहीं लगाए जाते, फिर भी चोरी की कोई वारदात नहीं होती । झूठी गवाही देने पर अंगविच्छेद की सजा दी जाती है । भारत की नदियाँ स्वच्छ हैं, बहुत बड़ी हैं और जहाजरानी के काम आती हैं । गंगा और सिंधु नदियां तो मिस्र की नील नदी से भी बड़ी हैं ।
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फाह्यान (337 –. 422 ई.)  :
मेगस्थनीज के लगभग छह सौ वर्ष बाद चीनी यात्री फाह्यान भारत आया और यदि पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा निर्धारित कालनिर्णय प्रामाणिक माना जाए तो फाह्यान 400 ईसवी में ( अर्थात गौतम बुद्ध के देहांत के लगभग 900 वर्ष बाद  ) भारत आया । अनुमान है कि वह 405  ई. से 411 ई. तक अर्थात लगभग छह वर्ष भारत में रहा । यहाँ उस समय गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय (380 – 412 ई.) का शासन था । स्वयं फाह्यान के बारे में कोई उल्लेखनीय जानकारी अन्य स्रोतों से उपलब्ध नहीं, अतः भारत के बारे में उसने जो ग्रन्थ लिखा वही मानों उसका स्मारक है । फाह्यान जब चीन से भारत के लिए स्थल मार्ग से चला तो उसके साथ पांच और भिक्षु भी थे, पर दो भिक्षु तो मार्ग की कठिनाइयां न झेल पाने के कारण बीच रास्ते से ही वापस लौट गए, दो का रास्ते में देहांत हो गया, जो एक बचा वह बाद में स्थायी रूप से भारत में ही बस गया । अतः वापसी यात्रा फाह्यान को अकेले ही करनी पड़ी जो उसने जलमार्ग से की ।

फाह्यान ने भारत आकर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया क्योंकि वह बौद्ध धर्म से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की, विशेष रूप से “ विनय पिटक ” (बुद्ध द्वारा निर्धारित नियम पुस्तक) की  “ शुद्ध एवं प्रामाणिक प्रति “ प्राप्त करना चाहता था । यह ध्यान देने योग्य है कि यों तो बौद्ध धर्म से संबंधित तमाम साहित्य पालि भाषा में लिखा गया जो तत्कालीन समाज की लोकभाषा थी, गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश भी पालि में ही दिए ; पर लोकभाषा में एकरूपता कम, विविधता अधिक होती  है, मानकता की कमी होती है, एक ही वस्तु के लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नाम होते हैं, और अनेक बार एक ही शब्द का अलग-अलग स्थानों पर अर्थ बदल जाता है । अतः शुद्ध और प्रामाणिक प्रति प्राप्त करने के लिए फाह्यान को संस्कृत का सहारा लेना पड़ा । इससे यह भी पता चलता है कि हमारे देश में संस्कृत को विशेष सम्मान क्यों दिया जाता है, उसे “ भारत की सांस्कृतिक भाषा / भारतीय संस्कृति की प्रतीक “ क्यों कहा जाता है। संस्कृत के इसी महत्व के कारण भारतीय ज्ञान-विज्ञान से परिचित होने के इच्छुक अन्य विदेशी यात्रियों ने भी यहाँ आकर संस्कृत का अध्ययन किया ।

फाह्यान के यात्राविवरण के अंग्रेजी रूपांतर का नाम है A Record of Buddhist Kingdoms, Being an Account by the Chinese Monk Fa-Xian of his Travels in India and Ceylon in Search of the Buddhist Books of Discipline यद्यपि फाह्यान ने भगवान बुद्ध से संबंधित स्थानों का ही वर्णन किया है, फिर भी इससे पांचवीं सदी के भारत के जनजीवन का भी पता चलता है ।

फाह्यान ने भारतीयों के सदाचार और परोपकारी वृत्ति की बहुत प्रशंसा की है । उसने लिखा है कि भारतीय सात्विक भोजन करते हैं, प्याज – लहसुन तक नहीं खाते, मांसाहार और मदिरापान करने का तो प्रश्न ही नहीं, इसलिए बाजार में मांस की दुकानें और मदिरालय नहीं हैं (यह बात विशेष ध्यान देने की है क्योंकि कहा जाता है कि यज्ञों में पशुबलि के विरोध में ही बौद्ध और जैन मतों का उदय हुआ जिनमें से बौद्ध मतानुयायी तो अब घोषित रूप से मांसाहारी ही हैं) ।  केवल “ चांडाल ” लोग आखेट करते हैं और मांस खाते हैं । इसी कारण उन्हें नगर में रहने की अनुमति नहीं है, वे नगर के बाहर रहते हैं। अगर उन्हें कभी नगर / बाजार में आना होता है, तो उनके लिए आवश्यक है कि लकड़ी बजा-बजाकर अपने आने की सूचना दें । इसे “ अछूत प्रथा “ भी कहा जा सकता है जो उनके अपवित्र गंदे रहन-सहन के कारण प्रचलित हुई होगी ।

फाह्यान ने एक ऐसी चीज़ का उल्लेख विस्मयपूर्वक किया है जो उस समय विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती, और वह थी विपन्न लोगों के लिए धर्मार्थ चिकित्सालय एवं पशु – पक्षियों के लिए चिकित्सालय । भारत में धनी लोगों ने विभिन्न नगरों में “ धर्मार्थ चिकित्सालय “ स्थापित किए थे जहाँ जरूरतमंदों की चिकित्सा तो निःशुल्क होती ही थी, भोजन भी दिया जाता था । उस समय विश्व में कहीं भी धर्मार्थ चिकित्सालय / पशु चिकित्सालय नहीं थे । वस्तुतः यह संकल्पना तो अगले 500 वर्ष तक भी विश्व में कहीं नहीं पनप पाई । अतः कहा जा सकता है कि अन्य अनेक चीज़ों की तरह धर्मार्थ चिकित्सालय एवं पशु चिकित्सालय भी भारत की विश्व को  मौलिक देन हैं । यात्रियों की सुविधा के लिए मुख्य मार्ग के पास ही धर्मशालाओं की तथा वहां उपलब्ध भोजन और रहने की मुफ्त व्यवस्था की भी फाह्यान ने विशेष चर्चा की है । उसका कहना है कि इस प्रकार के धर्मार्थ कार्य धार्मिक (बौद्ध/ जैन / हिंदू) आधार पर नहीं, मानवीय आधार पर मिल-जुल कर किए जाते थे, अतः ऐसे कार्यों में सभी संप्रदायों के लोग सहायता करते थे ।

फाह्यान ने मगध की समृद्धि की विशेष चर्चा की है । उसने पाटलिपुत्र में सम्राट अशोक के प्राचीन महल की और “ कपोत विहार “ नामक एक भवन की स्थापत्यकला की भूरि – भूरि प्रशंसा की है । अशोक के महल में भारी – भारी पत्थरों का प्रयोग, पत्थरों पर अति सुन्दर खुदाई और पच्चीकारी देखकर उसने लिखा कि ऐसा भवन बनाना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं, यह तो निश्चितरूप से देवताओं ने ही बनाया होगा । कपोत विहार में उसने पांच मंजिलें बताई हैं जिनमें पहली मंजिल का आकार हाथी जैसा, दूसरी का सिंह जैसा, तीसरी का घोड़े जैसा, चौथी का बैल जैसा और पांचवीं का कपोत (कबूतर) जैसा था । इसमें 1500 भवन थे। सबसे ऊपर एक झरना था जिसका पानी सब मंजिलों में पहुंचता था। उस युग में पांच मंजिले भवन के ऊपर झरने की व्यवस्था – है न आश्चर्य की बात !

लोग आमतौर पर खुशहाल थे, सहृदय थे, पड़ोसी किसी भी धर्म (हिंदू / बौद्ध / जैन) का अनुयायी हो, उसके साथ सद्भावना रखते थे । चीन में उन दिनों बौद्ध भिक्षुओं को हिकारत की नजर से देखा जाता था, इसलिए उनकी उपेक्षा की जाती थी, और उनका अनादर होता था, पर भारत में उनका सम्मान देखकर फाह्यान ने इच्छा व्यक्त की कि मेरा अगला जन्म बौद्ध के रूप में भारत में हो । यहाँ पूरे देश में कहीं भी आने –जाने या बसने पर कोई रोक नहीं थी (फाह्यान के साथ आया चीनी भिक्षु भी यहाँ बस गया) । टैक्स बहुत कम थे। जो किसान राजकीय भूमि को जोतते थे, उन्हें ही अपनी उपज का एक अंश लगान के रूप में देना होता था । न्याय सर्वसुलभ था । अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार दंड दिया जाता था । मृत्युदंड तो किसी को नहीं दिया जाता था, हाँ, कोड़ों की सज़ा दी जाती थी, पर बहुत कम । लगातार राजद्रोह करने वाले अपराधी का दाहिना हाथ काट दिया जाता था ।





मध्यकालीन भारत के बारे में जिन विदेशियों ने भारत संबंधी कुछ विवरण लिखित रूप में छोड़ा, उनमें तीन लोगों का विशेष महत्व है – यूरोप का मेगस्थनीज, चीन का फाह्यान  और अरब का अल- बिरूनी । इनमें सबसे पुराना मेगस्थनीज (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) और सबसे बाद का अल-बिरूनी (ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी) है । अतः इन यात्रियों के विवरण से भारत के लगभग डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास के कुछ पहलू सामने आ जाते हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि इन यात्रियों के विवरणों का परिचय प्राप्त करने के लिए हम उनके मूल ग्रंथों के बजाय अंग्रेजी अनुवाद पर निर्भर रहे हैं । यह अंग्रेजी के प्रति हमारे मोह और  विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं के प्रति उदासीनता का एक उदाहरण है ।


मेगस्थनीज (350 – 290 ई. पू.)
मेगस्थनीज वैसे तो ग्रीक विद्वान था, पर उसका जन्म एशिया माइनर (वर्तमान तुर्की) में हुआ था । भारत में वह सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में आया था । हमारे  इतिहास में यों तो चंद्रगुप्त नाम से कई सम्राट हुए हैं, पर मध्यकालीन भारत में चंद्रगुप्त नाम के जिन दो सम्राटों का विशेष महत्व है उनमें से एक का सम्बन्ध प्रसिद्ध विद्वान चाणक्य के शिष्य और मौर्य वंश के संस्थापक से है, तो दूसरे का गुप्त वंश के संस्थापक से । इनमें मेगस्थनीज का सम्बन्ध किस चंद्रगुप्त से है, इस विषय में इतिहासकार एकमत नहीं हैं । अधिकतर विद्वान जहाँ इसे चंद्रगुप्त मौर्य से जोड़ते हैं, वहीँ कुछ विद्वानों का कहना है कि मेगस्थनीज ने अपने वर्णन में सम्राट का नाम “ सैंड्रोकोटस “ (Sandrakottos)  लिखा है और उसके पुत्र का नाम सैमड्राकिपटस (Samdrakyptos) लिखा है जो क्रमशः चंद्रगुप्त और समुद्रगुप्त (गुप्तवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त का पुत्र) के ग्रीक उच्चारण लगते हैं, चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र का नाम तो बिम्बसार / बिन्दुसार था । इसके अतिरिक्त, मेगस्थनीज ने न तो कहीं “ मौर्य “ शब्द का उल्लेख किया, और न चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु / प्रधानमंत्री चाणक्य का कोई ज़िक्र किया जिनके बिना चन्द्रगुप्त मौर्य की चर्चा अधूरी लगती है । इतिहासकारों के पास इस विषय में विवाद के अन्य भी कुछ तर्क हैं, पर मेगस्थनीज़ भारत में रहा – इस पर किसी को संदेह नहीं है ।


कहते हैं कि सिकंदर – पुरु युद्ध (326 ई.पू.) के लगभग बीस वर्ष बाद 305 ई. पू. में सिकंदर के एक सेनापति सेल्यूकस – प्रथम ने भारत पर पुनः आक्रमण करने का दुस्साहस किया । अब उसका सामना सम्राट चंद्रगुप्त से हुआ । युद्ध में उसकी करारी हार हुई और उसे संधि करने के लिए विवश होना पड़ा जिसके अनुसार उसने अपनी बेटी का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया, और मेगस्थनीज को अपना राजदूत बनाकर चंद्रगुप्त के दरबार में नियुक्त कर दिया । मेगस्थनीज भारत में कितने समय रहा, इस बारे में निश्चित रूप से कुछ पता नहीं । भारत में उसने जो कुछ देखा – सुना और अनुभव किया उसके आधार पर उसने चार खण्डों में एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था “ इंडिका “ ; यह पुस्तक उसने भारत में रहते हुए लिखी या बाद में, यह भी नहीं पता । ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में यूरोप में पुस्तकों को सुरक्षित रखने की न तो ठीक व्यवस्था थी, और न पूरे-पूरे ग्रन्थ कंठस्थ करने की जैसी परम्परा भारत में विकसित हुई, वैसी परंपरा वहां कभी रही । इसका परिणाम यह हुआ कि मेगस्थनीज के लगभग चार सौ वर्ष बाद ग्रीक इतिहासकार एरियन ( जन्म – मृत्यु का समय विवादास्पद : 86 – 160 ई. अथवा 95 – 175 ई.)  ने जब सिकंदर की गाथा “ इंडिका “ नाम से ही लिखने का निश्चय किया, तो उसे मेगस्थनीज की इंडिका खोजने पर भी नहीं मिली । बस यत्र – तत्र उसके अनेक  उद्धरण / सारांश अन्य ग्रीक लेखकों की पुस्तकों में मिले, उन्हीं का उपयोग उसने अपनी पुस्तक में किया । बाद में 19 वीं शताब्दी में इन्हीं उद्धरणों का क्रमबद्ध संकलन करके डा. श्वानबेक ने जर्मन भाषा में एक ग्रन्थ तैयार किया जिसका कालांतर में अंग्रेजी अनुवाद जे एम मैकक्रिंडेल ने किया । इस प्रकार संकलित / अनूदित रूप में जो ग्रन्थ तैयार हुआ उसका नाम है, “ एंशिएंट इंडिया एज़ डिस्क्राइब्ड बाई मेगस्थनीज एंड एरियन “। आज वस्तुतः इसी ग्रन्थ के आधार पर मेगस्थनीज के विचार / उद्धरण दिए जाते हैं (इंडिका नाम से एक तीसरी पुस्तक भी है पर वह अलबिरुनी के ग्रन्थ “किताब-उल-हिंद “ पर आधारित है, उसका मेगस्थनीज से कोई सम्बन्ध नहीं) ।

जिसे इन विद्वानों ने “ एंशिएंट इंडिया “ (प्राचीन भारत) कहा है, उसे वस्तुतः प्राचीन नहीं, मध्यकालीन कहना चाहिए क्योंकि हमारा इतिहास तो बहुत पुराना है । भारतीय इतिहासकारों के अनुसार पांच हजार वर्ष तो महाभारत काल को ही हो चुके, रामायणकाल उससे भी बहुत पहले का है, और सिन्धुघाटी और वैदिक युग और भी पुराना, (इसे सिद्ध करने के लिए भारतीय इतिहासकार अनेक प्रमाण देते हैं), जबकि विदेशी इतिहासकार मेगस्थनीज के जिस समय की बात कर रहे हैं वह तो उनके अनुसार ही अब से लगभग सवा दो हजार वर्ष पहले की बात है, तो उसे “ प्राचीन ” कैसे कह सकते हैं ?  इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि विदेशी इतिहासकारों ने अपनी समझ के अनुसार भारतीय इतिहास का कालक्रम निर्धारित कर तो दिया, पर उसकी अनेक विसंगतियाँ अब उजागर होती जा रही हैं । उदाहरण के लिए, उन्होंने गौतम बुद्ध का समय ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व  निर्धारित किया है, जबकि चीन के विद्वानों का यह मानना है (और वे इसके प्रमाण देते हैं) कि चीन में बौद्ध धर्म ईसा से लगभग 1100 – 1200  वर्ष पूर्व पहुँच चुका था जिसका स्पष्ट अर्थ है कि गौतम बुद्ध का समय ईसा से कम से कम डेढ़ – दो हजार वर्ष पहले होना चाहिए ; पर विदेशी इतिहासकारों की “ जिद “ थी कि पूरे विश्व के इतिहास को लगभग पांच हजार साल में समेटना है क्योंकि वे जिस ईसाई धर्म के अनुयायी थे उसकी मान्यता के अनुसार सृष्टि का निर्माण ईसा पूर्व 23 अक्टूबर 4004  को  प्रातःकाल 9.00  बजे हुआ था । मानव सभ्यता विकसित होने में भी समय लगा. अतः जब इस दुनिया को बने ही लगभग छह हजार साल हुए हैं, तो इतिहास उससे अधिक पुराना कैसे हो सकता है ? यों इस कसौटी पर भी मेगस्थनीज़ का समय मध्यकाल ही ठहरता है, प्राचीनकाल नहीं ।

अस्तु, काल निर्धारण की इस गुत्थी को यहीं छोड़ हम मेगस्थनीज के नाम से मिले भारत संबंधी विवरण की बात करें ।


मेगस्थनीज के विवरण से हमें भारत के साथ – साथ तत्कालीन यूरोप के बारे में भी कई जानकारियाँ मिलती हैं । जैसे, उस समय यूरोप के लोग गन्ने और कपास की खेती से बिलकुल अनभिज्ञ थे, इसीलिए मेगस्थनीज ने भारत में गन्ने के गुड़ को देखकर आश्चर्य से लिखा कि “ यहाँ बिना शहद की मक्खियों के भी शहद तैयार होता है। ” इसी तरह कपास देखकर लिखा कि “ भारत में पौधों से वनस्पति – ऊन तैयार की जाती है। ” यूरोप में तब दास प्रथा प्रचलित थी, और दासों के भी दो वर्ग थे slaves (दास) और Helots (अधिदास) ; जबकि भारत में यह प्रथा सर्वथा अज्ञात थी ।  अतः मेगस्थनीज को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि “ भारत में कोई दास नहीं, सब लोग स्वतंत्र हैं। ” यूरोप में लोगों के देहांत के बाद उनका स्मारक बनाने की प्रथा थी जो कब्र के रूप में अब तक मौजूद है ; भारत में मेगस्थनीज ने देखा कि यहाँ भौतिक स्मारक बनाने का रिवाज ही नहीं, लोग आदरपूर्वक उस व्यक्ति के गुणों का स्मरण करते हैं, उन गुणों का बखान करते हैं, उन गुणों के “ गीत “ गाते हैं । ये गुण ही उस व्यक्ति का स्मारक होते हैं । यूरोप में अनेक बार अकाल पड़ते थे, मेगस्थनीज को विस्मय हुआ कि भारत में अकाल ही नहीं पड़ता क्योंकि यहाँ ऐसी आपदा से बचने के उपाय पहले से ही कर लिए जाते थे ।

भारत की सामाजिक स्थिति के बारे में मेगस्थनीज ने कतिपय ऐसी बातें भी लिखी हैं जिन्हें पढ़कर आज के माहौल में हमारी आँखें भी खुली की खुली रह जाती हैं । उसने बताया है कि लोग शराब नहीं पीते । वे बहुत ईमानदार, सदाचारी और धर्मपरायण हैं । यहाँ लिखित दस्तावेजों के बजाय मौखिक बातों पर विश्वास किया जाता है । ऋण लेने के लिए किसी की गवाही या वचनपत्र की आवश्यकता नहीं । क़ानून लिखित नहीं है, पर कठोर है। घरों में ताले नहीं लगाए जाते, फिर भी चोरी की कोई वारदात नहीं होती । झूठी गवाही देने पर अंगविच्छेद की सजा दी जाती है । भारत की नदियाँ स्वच्छ हैं, बहुत बड़ी हैं और जहाजरानी के काम आती हैं । गंगा और सिंधु नदियां तो मिस्र की नील नदी से भी बड़ी हैं ।

Thursday, November 8, 2018

इसका अनुवाद यह हैं कि अन्तिम मनुष्य गणना के अनुसार भड़भूजा लोग भटनागर, जगजादों, कैथिया, कान्दू, राठौर, सक्सेना और श्रीवास्तव इन छोटे-छोटे दलों में विभक्त हैं। बहुतेरे अपने वास्तविक अथवा काल्पनिक सम्बन्ध भदौरिया, चौबे, चौहान, कंजर, कायथ, खत्री और लोधियों के साथ सिद्ध करते हैं।
इसी तरह गौड़ ब्राह्मणों में चमर गौड़ और गूजर गौड़ इत्यादि संज्ञाएँ हैं। क्या इन सब नामों को देखकर आस्तिक और विचार बुद्धि से यह सन्देह करना उचित हैं कि भड़भूजा, कायस्थ, श्रीवास्तव, सक्सेना, चौबे, चौहान, खत्री और राठौर एवं गूजर, चमार और गौड़ ब्राह्मण इत्यादि एक ही हैं? इन सब बातों को ही देखकर यही मानना होगा कि नामों के एक हो जाने या गोत्रों के भी एक हो जाने से जाति एक नहीं समझी जा सकती। क्योंकि जो गाजीपुर, बनारस या मुजफ्फरपुर में उत्पन्न होने वा रहने वाले हैं और उनकी जातियाँ भिन्न-भिन्न हैं और सम्भव हैं कि बहुतेरों के गोत्र भी एक ही हों। अब यदि वे लोग किसी कारण से अन्यत्रा चले जाये तो गाजीपुरी, बनारसी या मुजफ्फरपुरी इस एक ही नाम से वे सभी बोले जायेगे। जैसा कि लोग कहा करते हैं कि यह तो बनारसी माल, बनारसी साड़ी या बनारसी जवान हैं। इसी तरह भोजपुरी इत्यादि। ऐसा होने पर भी वे सभी कदाचित् भी एक नहीं समझे जाते या जा सकते हैं। उसी तरह मिथिला, कान्यकुब्ज अथवा गौड़ वगैरह देशों में भी रहने वाले सभी जाति वाले एक ही नाम से कहे जाने पर भी एक जाति या दल के समझे जाते या जा सकते हैं। ठीक वही दशा दोनवार और किनवार आदि नामों के भी विषय में समझना चाहिए, कि ब्राह्मण या क्षत्रिय अथवा अन्य जातीय भी एक स्थान में रहने से एक नाम से पुकारे जाने लगे, जैसा कि अभी दिखलाया जायेगा। और यद्यपि सभी एक नाम वाले भूमिहार ब्राह्मण और क्षत्रियों के गोत्र एक नहीं हैं, जैसा कि इसी प्रकरण में विदित होगा, तथापि जिनके गोत्र एक से हैं उनके विषय में वही बात हो सकती हैं जैसी कि अन्य लोगों में कह चुके हैं, कि एक ही गोत्र वाले भी भिन्न-भिन्न जाति वाले एक स्थान में रह सकते हैं और उसी से उनका नाम भी एक ही पड़ सकता हैं। 
यह भी बात हुई होगी कि जब वे लोग किसी स्थान से हट चले, तो क्षत्रियों ने देखा कि हमारे पूर्वस्थान वाले अयाचक ब्राह्मण कहाँ बसे हैं। और जहाँ उन्हें पाया, आप भी उन्हीं के पास ही बस गये। क्योंकि अन्य देश में जाने पर भी वहाँ पर लोग विशेष कर स्वदेश के ही लोगों का साथ ढूँढ़ा करते हैं। इसीलिए एक नाम वाले अयाचक ब्राह्मण और क्षत्रिय एक ही जगह पाये जाते हैं। जैसा कि मैथिल और गौड़ एवं कान्यकुब्ज नाम वाली सभी जातियाँ प्राय: पास ही पास पाई जाती हैं। अयाचक ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बहुत से गोत्रों के एक ही होने का एक यह भी कारण हो सकता हैं, कि कोई ब्राह्मण प्रथम याचक (पुरोहित) रहा होगा और क्षत्रियों की पुरोहिती करता रहा होगा। परन्तु समय पाकर वह अयाचक हो गया, जैसा कि सर्वदा से हुआ करता हैं, तो अपने सगोत्र अयाचक ब्राह्मणों से मिल गया, जैसा कि अभी तक बराबर हुआ करता हैं। परन्तु प्रथम पुरोहित होने से उसी का गोत्र उन क्षत्रियों का भी कहलाता था, इसलिए उसके पश्चात् आज तक एक ही गोत्र कहलाता ही रह गया।
सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक बात यह हैं कि दोनवार और किनवार इत्यादि नाम वाले जो क्षत्रिय हैं, ये प्रथम अयाचक ब्राह्मण ही थे। परन्तु किसी कारणवश इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिये गये वा हो गये। बनारस-रामेश्वर के पास गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते हैं, जिन मिश्रजी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार ब्राह्मणों से पृथक् होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे, इसलिए उन्होंने रंज होकर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली। परन्तु उसने कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़कर हिस्सा दिलवा देंगे। इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग होकर क्षत्रियों में मिल गये यह उचित भी हैं। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा। क्योंकि उसका मूध्र्दाभिषिक्त नाम याज्ञवल्क्य ने कहा हैं और 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्य' इत्यादि अमरकोष के प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूध्र्दाभिषिक्त नाम क्षत्रिय का ही हैं। मनु भगवान् ने तो :
पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते॥अ.10॥
इत्यादि श्लोकों में उसे स्पष्ट ही क्षत्रिय बतलाया हैं। ये गौतम क्षत्रिय केवल काशी-रामेश्वर के पास दो-चार ग्रामों में रहते हैं।
इसी तरह किनवार क्षत्रियों की भी बात हैं। वे केवल बलिया जिले के छत्ता और सहतवार आदि दो ही चार गाँवों में प्राय: पाये जाते हैं। जिनके विषय में विलियम इरविन साहब (William Iruine Esqr.) कलक्टर 1780-85 ई. ने बन्दोबस्त की रिपोर्ट (Reports on the Settlement) में लिखा हैं कि किनवार ब्राह्मणों के एक पुरुष
कलकल राय ने किसी क्षत्रिय जाति की कन्या से ब्याह कर लिया। जिससे उनके वंशज भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो गये और उन्हीं पूर्वोक्त दो-चार ग्रामों में पाये जाते हैं। इसी तरह दोनवार क्षत्रिय भी किसी कारणवश दोनवार ब्राह्मणों से अलग कर दिये गये। जो मऊ (आजमगढ़) के पास कुछ ही ग्रामों में पाये जाते हैं, परन्तु वहाँ दोनवार ब्राह्मण लोग 12 कोस में विस्तृत हैं। इसी तरह बरुवार क्षत्रियों को भी जानना चाहिए। वे भी केवल आजमगढ़ जिले के थोड़े से ग्रामों में हैं। परन्तु बरुवार नाम के ब्राह्मण तो उसी जिले के सगरी परगने के 14 कोस में भरे पड़े हुए हैं। सकरवार क्षत्रिय भी उसी तरह किसी कारण विशेष ये सकरवार ब्राह्मणों से विलग हो गये, जो गहमर वगैरह दो-एक ही स्थानों में पाये जाते हैं। जबकि सकरवार नाम के ब्राह्मण गाजीपुर के जमानियाँ परगने और आरा के सरगहाँ परगने के प्राय: 125 गाँवों में भरे पड़े हुए हैं। जो दोनवार अयाचक ब्राह्मण जमानियाँ परगने के ताजपुर और देवरिया प्रभृति बीसों ग्रामों में पाये जाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग किसी वजह से निकलकर क्षत्रियों में मिल गये और गाजीपुर शहर से पश्चिम फतुल्लहपुर के पास दो-चार ग्रामों में अब भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार अन्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के से नाम वाले क्षत्रियों को जानना चाहिए।
सारांश यह हैं कि सभी दोनवार आदि नाम वाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं, परन्तु इन नामों वाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं। इससे स्पष्ट हैं कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से विलग हो गये हैं। इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएँ और गोत्र वे ही हैं जो दोनवार आदि नाम वाले ब्राह्मणों के हैं। इस संख्या वगैरह का पता हमने स्वयं उन-उन स्थानों में भ्रमण कर और जानकार लोगों से मिलकर लगाया हैं। जिसे इच्छा हो वह प्रथम जाँच कर ले, पीछे कुछ कहे या लिखे। यद्यपि सकरवार क्षत्रिय आगरे के आस-पास तथा अन्य प्रान्तों में बहुत पाये जाते हैं, तथापि उन लोगों का गहमर आदि ग्रामों वाले सकरवार क्षत्रियों से कुछ सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि ये सब सकरवार कहे जाते हैं और आगरे वाले सिकरीवार; कारण कि उनका आदिम स्थान फतहपुर सिकरी या सीकरी हैं और इनका स्थान सकराडीह हैं। साथ ही, आगरे वालों का गोत्र शाण्श्निडल्य हैं और गहमर वालों का सांकृत, जैसा कि सकरवारों के निरूपण में आगे दिखलायेंगे। अत: सकरवारों को सिकरीवारों से पृथक् ही मानना होगा।
बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा हैं कि जब बहुत से भूमिहार (ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार, तो फिर वे एक ही क्यों न समझे जाये? पर उनकी यह भूल हैं। क्योंकि एक तो सामान्यत: वैदेशिकों को यही पता नहीं चलता कि गोत्र या मूल किसे कहते हैं। दूसरे वे लोग यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग गोत्रों से ही पुकारे जाते हैं, जैसे भारद्वाज, गौतम और कौशिक इत्यादि। इससे उन्हें यह भ्रम हो गया कि दोनवार और किनवार भी गोत्रों के ही नाम हैं। इसी से उन्होंने ऐसा बक डाला, जिसे देखकर आजकल के अर्ध्ददग्धा लकीर के फकीर भी वही स्वर आलापने लग जाते हैं। परन्तु वास्तव में किनवार और दोनवार आदि संज्ञाएँ प्रथम निवास के स्थानों या डीहों से पड़ी हैं, जिन्हें मिथिला में मूल कहते हैं, और मेरठ वगैरह में निकास, न कि ये गोत्रों के नाम हैं। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य निकास, न कि गोत्रों के नाम हैं। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों की गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल, चकवार और सनैवार आदि संज्ञाएँ भी स्थानों के नाम से ही पड़ी हैं, न कि ये सब गोत्रों के नाम हैं।
अब हम पाठकें को इन दोनवार आदि नामों का कुछ संक्षिप्त विवरण सुना देना चाहते हैं, जिससे सब शंकाएँ आप ही आप निर्मूल हो जायेंगी। इस जगह इस बात को पुन: स्मरण कर लेना चाहिए, कि यवन राज्य काल में जब अनेक कारणों से इतस्तत: भगेड़ मच रही थी, तो उन दिनों विशेष धर्मभीरु होने के कारण ब्राह्मणों ने अपनी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाये, जिनमें एक प्रकार के समीपवर्ती ब्राह्मण सम्मिलित हुए। यह बात प्रथम परिच्छेद में ही सविस्तार दिखलाई जा चुकी हैं। उसी समय में प्रत्येक ब्राह्मण दल के साथ डीह (पूर्वजों के निवास स्थान) के कहने का भी प्रचार चला। जैसे पिण्डी के तिवारी या खैरी के ओझा आदि। क्योंकि इससे ठीक-ठीक पता लग जाता था कि ये ब्राह्मण वास्तव में कान्यकुब्ज या सर्यूपारी हैं, क्योंकि इनके पूर्वजों के स्थान पिण्डी और खैरी आदि सर्यूपार और कान्यकुब्ज आदि देशों में ही हैं। इसी 'डीह' को मिथिला में मूल और पच्छिम में निकास कहते हैं, जिसका अर्थ 'आदिम निवास स्थान' हैं, जैसा कि 'डीह' का अर्थ हैं। परन्तु यह 'डीह' या 'मूल' का व्यवहार प्राय: केवल ब्राह्मणों में ही प्रचलित था। इसीलिए अब तक भी सिवाय ब्राह्मण के अन्य जातियों में उसका व्यवहार प्राय: कहीं भी नहीं पाया जाता हैं। इससे भी स्पष्ट हैं कि जो क्षत्रियों में किनवार वगैरह नाम हैं, उनके पड़ने का वही कारण हैं जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। क्षत्रिय लोगों के वंशों के नाम प्राय: उनके प्रधान पुरुषों के नाम से ही होते हैं, न कि किसी डीह। जैसे कि रघुवंशी, यदुवंशी इत्यादि।
अस्तु, जिस तरह कान्यकुब्ज लोग डीह का व्यवहार इस प्रकार करते हैं कि क्यूना के दीक्षित, सीरू के अवस्थी और देवकुली के पाण्डे। इसी तरह सर्यूपारी भी। मैथिल लोग वैसा न कहकर मूल पूछने पर या तो उस स्थान का नाम-भर बतला देते हैं, जैसे दिघवे, जाले इत्यादि। अथवा जालेवार, दिघवैत, सनैवार, चकवार इत्यादि कहते हैं कि जिसका अर्थ यह हैं कि दिघवा, जाले या चाक आदि स्थानों में रहने वाले। और कहीं-कहीं पर अनरिया, कोदरिया और ब्रह्मपुरिया आदि भी कहते हैं। जिनके अर्थ हैं कि अनारी, कोदरा और ब्रह्मपुर के रहने वाले। इसी तरह करमहे और दघिअरे इत्यादि भी समझे जाने चाहिए। तात्पर्य यह हैं कि वे लोग 'डीह' या 'मूल' को बहुत तरह से कहा करते हैं। और प्रथम यह बात दिखला चुके हैं कि अयाचक दल वाले ब्राह्मणों ने भी 'डीह', 'मूल' के कहने की रीति प्राय: वही स्वीकार की जो मैथिलों में थी और तदनुसार ही दोनवार, किनवार, कुढ़नियाँ, कोलहा, तटिहा, एकसरिया, जैथरिया, ननहुलिया और जिझौतिया आदि कहने लगे। कान्यकुब्जों आदि से भी इनका व्यवहार मिलता हैं। अत: उनकी तरह भी ये लोग कहीं-कहीं बोले जाते हैं। जैसे भारद्वाज गोत्री कान्यकुब्ज या सर्यूपारी बाँदा के आसपास और जौनपुर जिले में दो-एक जगह रबेली पंचपटिया वगैरह में दुमटेकार के तिवारी ही कह जाते हैं और बहुत से भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मण भी पाण्डे या तिवारी ही कह जाते हैं और अपने को दुमटेकार कहते हैं जो कहीं-कहीं बिगड़ कर 'दुमकटार' या 'डोमकटार' हो गया हैं, एवं बहुत से सर्यूपारी, गौड़ और कान्यकुब्ज वगैरह डीह का नाम न लेकर केवल गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसा कि भारद्वाज, कौशिक इत्यादि। इस बात को पं. छोटेलाल श्रेत्रिय ने अपनी 'जात्यन्वेषण' नामक पुस्तक में स्पष्ट ही लिखा हैं। आजमगढ़ के जिले में भी बभनपुरा आदि दो-चार ग्रामों में कुछ सर्यूपारी ब्राह्मण दूबे कहलाते हैं और अपने को 'मौनस' गोत्र से व्यवहार करते हुए, 'मौनस' कहा करते हैं। इसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मणों में भी बहुत से ऐसे दल हैं, जो कहीं-कहीं गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसे खजुरा-धुवार्जुन आदि ग्रामों वाले भारद्वाज और सुर्वत-पाली वगैरह ग्राम वाले कौशिक कहलाते हैं। ये सब स्थान गाजीपुर जिले में हैं, इसी प्रकार बनारस में गौतम और आजमगढ़ के टीकापुर-बीबीपुर आदि ग्रामों में दोनों दलवाले भृगुवंश वा भार्गव कहे जाते हैं।
गोत्र से पुकारे जाने में यही कारण हैं कि यवन काल से प्रथम तो लोग स्थायी रूप से जहाँ-तहाँ पड़े रहते थे। इसलिए 'डीहों' या 'मूलों' के कहने की कोई आवश्यकता न होने से केवल गोत्रों से आपस के व्यवहार करते थे, जो विवाह वगैरह में आवश्यक भी था। जब यवन काल में ईधर-उधर भगेड़ मची तो हुलिया (पहचान) के लिए 'डीह' वा 'मूल' का व्यवहार थोड़े दिनों तक चलता रहा। परन्तु उस समय भी जो लोग किसी प्रथम के निश्चित एक ही स्थान में जमे रह गये, उन्हें डीहों की आवश्यकता ही न हुई। इसलिए उनका व्यवहार पूर्ववत गोत्रों से ही होता रहा। जैसे गौतम लोग प्रथम से ही बनारस में टिके थे और वहीं रह गये इसलिए वे लोग गौतम ही कहलाते रह गये। परन्तु जो लोग उनमें से ही छपरा के किसी बड़रमी या बड़रम स्थान से भाग गये वे बड़रमियाँ कहलाये और कहलाते हैं और उन्हीं गौतमों में से जो प्रथम आजमगढ़ के करमा स्थान में रहते थे, जहाँ अब उनके स्थान में बरुवार ब्राह्मण किसी कारण से रहते हैं और वे लोग वहाँ से चले आकर देवगाँव के पास 10 या 12 गाँवों में बस गये वे करमाडीह के कारण करमाई कहलाये। परन्तु वे लोग सर्यूपारी ब्राह्मण गौतम गोत्री पिपरा के मिश्र ही हैं, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं। इसी प्रकार भृगुवंश भी आजमगढ़ के प्रथम से ही थे और वहीं रह गये। इससे उनका वही नाम रहा। परन्तु जो उनके रहने के तप्पे (परगने या इलाके) कोठा से भागकर बस्ती के कोठिया आदि स्थानों में चले गये, वे उसी तप्पे के नाम से 'कोठहा' पुकारे जाते हैं। इसी तरह गाजीपुर के जहूराबाद परगने में पुराने समय से ही रह जाने के कारण वे लोग कौशिक ही कहलाते रह गये। परन्तु छपरा के नेकती नामक स्थान से भागकर मुजफ्फरपुर और दरभंगा में जाने वाले कौशिक नेकतीवार कहलाते हैं। इसी तरह के भारद्वाजों और आजमगढ़ आदि के गर्गों को भी समझना चाहिए।
अब दोनवार आदि शब्दों के अर्थ सुनिए। वास्तव में दोनवार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण, वत्स गोत्र वाले देकुली या देवकली के पाण्डे हैं। यह बात दोनवारों के मुख्य स्थान नरहन, नामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि दरभंगा जिले के निवासी दोनवार ब्राह्मणों के पास अब तक विद्यमान बृहत् वंशावली में स्पष्ट लिखी हुई हैं। वहाँ यह लिखा हुआ हैं कि देवकली के पाण्डे वत्सगोत्री दो ब्राह्मण, जिनमें से एक का नाम इस समय याद नहीं, मुगल बादशाहों के समय में किसी फौजी अधिकार पर नियुक्त होकर दिल्ली से मगध और तिरहुत की रक्षा के लिए आये और पटना-दानापुर के किले में रहे। इसी जगह वे लोग रह गये और उन्हें बादशाही प्रतिष्ठा और पेंशन वगैरह भी मिली। उनमें एक के कोई सन्तान न थी। परन्तु दूसरे भाई समुद्र पाण्डे के दो पुत्र थे। एक का नाम साधोराम पाण्डे और दूसरे का माधावराम पाण्डे था। जिनमें साधोराम पाण्डे के वंशज दरभंगा प्रान्त के सरैसा परगने में विशेष रूप से पाये जाते हैं, यों तो ईधर-उधर भी किसी कारणवश दरभंगा जिले-भर और बाहर भी फैले हुए हैं। बल्कि दरभंगा के हिसार ग्राम में (जनकपुर के पास) अब तक दोनवार ब्राह्मण पाण्डे ही कहलाते हैं। माधावराम पाण्डे के वंशज मगध के इकिल परगने में भरे हुए पाये जाते हैं। साधोराम पाण्डे के पुत्र राजा अभिराम और उनके राय गंगाराम हुए; जिन्होंने अपने नाम से गंगापुर बसाया। वे बड़े ही वीर थे। उनके दो विवाह हुए थे, और दोनों मैथिल कन्याओं से ही हुए थे। एक स्त्री श्रीमती भागरानी चाक स्थान के राजासिंह मैथिल की और दूसरी मुक्तारानी तिसखोरा स्थान के पं. गोपीठाकुर मैथिल की पुत्री थी। एक से तीन और दूसरी से छह, इस प्रकार राय गंगाराम के नौ पुत्र हुए। जिन्होंने नरहन, रामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि नौ स्थानों में अपने-अपने राज्य उसी प्रान्त में जमाये। उन्हीं में से पीछे कोई पुरुष, जिनका नाम विदित नहीं हैं, आजमगढ़ जिले के रैनी स्थान में मऊ से पश्चिम टोंस नदी के पास आ बसे, जिनके वंशज वहाँ 12 कोस में विस्तृत हैं। फिर वहाँ से दो आदमी आकर जमानियाँ परगना, जिला गाजीपुर में बसे और पीछे से बहुत गाँवों में फैल गये। इनमें से ही कुछ बनारस प्रान्त से मध्दूपुर आदि स्थानों में भी आ बसे और इसी तरह दो-दो एक-एक ग्राम या घर बहुत जगह फैल गये। रैनी स्थान से ही जो लोग बलिया के पास जीराबस्ती आदि तीन या चार ग्रामों में बसे हुए हैं, वे किसी कारणवश पाण्डे न कहे जाकर तिवारी कहलाने लगे, जो अब तक तिवारी ही कहे जाते हैं। जैसे
पं. नगीना तिवारी इत्यादि। इस प्रकार साधोराम पाण्डे के वंशजों की वृद्धि बहुत हुई। परन्तु माधावराव पाण्डे के वंशज केवल मगध में ही पाये जाते हैं। तथापि उनकी संख्या वहाँ कम नहीं हैं। दिघवारा (छपरा) के पास बभनगाँव तथा ऐसे ही दो-एक और स्थानों के भी दोनवार लोग अब तक पाण्डे ही कहलाते हैं। जबकि दोनवार नाम के ब्राह्मण बिहार और संयुक्त प्रान्त में भरे हुए हैं और क्षत्रिय दोनवार केवल कुछ ही ग्रामों में पाये जाते हैं। तो इससे निस्संशय यही बात सिद्ध हैं कि उन क्षत्रियों के विषय में वही बात हो सकती हैं जो अभी कही जा चुकी हैं।
अयाचक ब्राह्मणों के दोनवार नाम पड़ने में तीन बातें हो सकती हैं। पहली बात तो यह हैं कि इनके मूल पुरुष दिल्ली से आये और वह गुरु द्रोणाचार्य का निवास स्थान था, बल्कि उत्तर पांचाल के राजा भी वहीं थे। इसीलिए वहाँ दिल्ली प्रान्त के समीप ही गुरुगाँव जिला भी हैं, जिसका भाव यह हैं कि द्रोणाचार्य गुरुउस स्थानीय गाँव में रहते थे, जिससे वह गुरुगाँव कहलाता हैं। परन्तु सम्भव हैं कि वही या वहाँ कोई स्थान द्रोणाचार्य के भी नाम से प्रथम पुकारा जाता रहा हो और वहीं से आने से ये ब्राह्मण लोग उसी डीह से कहे जाने लगे। जिससे इनका नाम द्रोणवार हो गया। जिसका अर्थ यह हैं कि द्रोण (द्रोणाचार्य) के स्थान में प्रथम के रहने वाले।
दूसरा अनुमान इस विषय में इससे अच्छा और विश्वसनीय यह हैं कि 'द्रोण' शब्द संस्कृत में देशान्तर (अन्यदेश या विदेश) का वाचक हैं। जैसा कि मेदिनी कोष में लिखा हैं कि 'द्रोण:स्यान्नीवृदन्तरे' अर्थात् 'द्रोण शब्द देशान्तर का भी वाचक हैं।' और जब मिथिला देश में काशी देश वाले और पश्चिम के रहने वाले ब्राह्मण यवन समय में गये तो उन्होंने (मिथिलावासियसों ने) अपने और अन्य देशीय ब्राह्मणों को अलग-अलग रखने अथवा पहचान के लिए अपने को तिरहुतिया या मैथिल कहना प्रारम्भ किया और नये आये हुओं को पश्चिम। जिनमें से तिरहुतिया का अर्थ 'तिरहुत देश में रहने वाला' और पश्चिम का अर्थ पश्चिम देश में रहने वाला' हैं, परन्तु जब तक विशेष रूप से अन्य देशीय ब्राह्मण वहाँ न गये थे। किन्तु साधोराम पाण्डे या उनके वंशज ही उन देशों में आये, तो उन मिथिलावासियों ने उन्हें द्रोणवार कहना प्रारम्भ किया, जिसका अर्थ यह हैं कि ये लोग इस देश (मिथिला) के प्राचीन निवासी नहीं हैं, किन्तु अन्य देश के। वही व्यहवहार मगध में भी चल पड़ा। क्योंकि यह बात प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं कि मगध और मिथिला के व्यवहार वगैरह प्राय: एक से ही हैं। परन्तु जब और भी ब्राह्मण मिथिला देश में पश्चिम से आये और द्रोणवार कहने से यह सन्देह भी होने लगा कि ये लोग पश्चिम से आये हैं या पूर्व देश से, क्योंकि देशान्तर तो दोनों ही हैं, और इस सन्देह से विवाह सम्बन्ध आदि करने में गड़बड़ होने की सम्भावना हुई। क्योंकि धर्मशास्त्रनुसार बंग आदि पूर्व देशों को निषिद्ध समझ लोग उनसे व्यवहार करना घृणित समझते थे। तो प्रथम जिन्हें द्रोणवार कहते थे, उन्हें तथा अन्य नये आये हुए पश्चिम देश के ब्राह्मणों को भी 'पश्चिम' कहने लगे। परन्तु प्रथम से प्रचलित द्रोणवार शब्द भी रह गया और मिथिला वगैरह देशों में आजकल पश्चिम और द्रोणवार इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता हैं। पश्चिम शब्द पश्चिमीय का अपभ्रंश हैं।
सबसे विश्वसनीय और तीसरा अनुमान इस विषय में यह हैं कि मगध और मिथिला इन दोनों स्थानों के दोनवारों के मूल पुरुष सबसे प्रथम आकर पटना-दानापुर के बादशाही किले में ठहरे और वहीं से दोनों प्रदेशों में फैले और वह दीना या दानापुर स्थान अति प्रसिद्ध भी था। और साथ ही यह दिखला चुके हैं कि ब्राह्मणों में अपने डीहों के कहने की रीति थी और विशेष रूप से यह भी देखा जाता हैं कि अधिकतर अपने पुराने डीह से बहुत दूर वे लोग नहीं पाये जाते हैं, जैसा कि किनवार, सकरवार, बेमुआर, तटिह आदि के विषय में दिखलायेंगे। इसलिए साधोराम पाण्डे और माधावराम पाण्डे के वंशजों ने भी उसी दीना या दानापुर डीह के नाम से अपने को दीनावार वा दानावार प्रकाशित किया जो समय पाकर बिगड़ते-बिगड़ते दनवार होकर आजकल दोनवार हो रहा हैं, जिसका अर्थ यह हैं कि पहले दानापुर के रहने वाले ब्राह्मण। यही दोनवार शब्द का संक्षिप्त विवरण हैं जो डीह को बतलाता हैं।
अब 'किनवार' शब्द का विवरण सुनिये। किनवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज काश्यप गोत्री, क्यूना के दीक्षित हैं। इसीलिए इनके विषय में किसी का मत हैं कि ये लोग काशी के पास विशेषकर गाजीपुर में क्यूना से आये, इसीलिए उसी डीह के नाम से क्यूनवार कहलाने लगे और वही शब्द बिगड़कर किनवार हो गया। परन्तु गाजीपुर जिले में ही इन लोगों के निवास स्थान के पास ही कुण्डेसर ग्राम के पूर्व और वीरपुर, नारायणपुर से पश्चिम-उत्तर प्रथम ओकिनी नाम की नदी बहती थी, जो अब एकबारगी मिट्टी से पट गयी हैं, केवल उसका थोड़ा सा चिद्द रह गया हैं और कुण्डेसर से नारायणपुर को जाने वाली पक्की सड़क के पश्चिम ही उसी ओकिनी के तट पर अब तक किनवार लोगों का पुराना डीह ऊँचा-सा पड़ा हैं। इसलिए उसी ओकिनी के डीह पर रहने से ये लोग ओकिनीवार कहलाते-कहलाते अब 'ओ' शब्द के काल पाकर छूट जाने से किनवार कहलाने लगे।
यद्यपि किनवार ब्राह्मणों की वंशावली में यह लिखा हुआ हैं कि ये लोग कर्नाटक-पदुमपुर से आये और उस पदुमपुर के विषय में बहुत लोगों ने अन्दाज से बहुत कुछ बक डाला हैं। फिर भी ठीक पता वे न लगा सके और यद्यपि वह पदुमपुर कर्नाटक देश और केरल देश की सरहद पर केरल देश का एक खण्ड हैं, इस बात को अभी प्रमाणित करेंगे, तथापि किनवार ब्राह्मण प्रथम के कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं, न कि केरल देशीय ब्राह्मण। यह बात इनकी प्राचीन वीरता और व्यवहार-आचारों से सिद्ध हैं। यद्यपि कर्नाटक-पदुमपुर से ये लोग आये, इस विषय में कुछ विशेष प्रमाण या कारण नहीं मिलता। क्योंकि दक्षिण में ऐसी भगेड़ न थी जैसी कन्नौज वगैरह देशों में थी। इसीलिए इन देशों में दक्षिण देश के ब्राह्मण प्राय: नहीं पाये जाते। तथापि यदि वहाँ से ही किनवार ब्राह्मणों का आना मान भी ले तो भी ये लोग वहाँ भी कान्यकुब्ज देश से ही गये थे और फिर किसी कारणवंश हटकर इसी देश में चले आये। कान्यकुब्ज देश से केरल देश या उसके पदुमपुर स्थान में ब्राह्मणों के जाने और वहाँ से आने की बात 'केरल उत्पत्ति' नामक ग्रन्थ में लिखी हुई हैं। यह ग्रन्थ मालाबारी भाषा में लिखा गया था और पीछे से उसका अनुवाद फारसी में हुआ था, जिसे मिस्टर जोनाथन डुनकन' (Jonathan Duncn) ने 1793 ई. में अंग्रेजी में अनुवादित किया। यह सब पूर्वोक्त बातें एशियाटिक रिसर्चेज (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखी गयी हैं, जो सन् 1801 ई. में छपी थी। उस ग्रन्थ के 56वें पृष्ठ में मालाबार देश के प्राचीन विवरण को लिखते हुए उसी सम्बन्ध में ये बातें लिखी गयी हैं। उस ग्रन्थ का कुछ अंश नीचे उध्दृत किया जाता हैं, जिससे पूर्वोक्त बातों का थोड़ा-सा पता लग जायेगा :

Sunday, November 4, 2018

गाजीपुर, जमानियां। स्थानीय ब्लाक के ढढ़नी गांव स्थित चंडी माता का मंदिर द्रोणवारी के लोगों के लिए श्रद्धा एवं विश्वास का महत्वपूर्ण केंद्र है। इस गांव के उत्तर-पश्चिम दिशा में कर्नाल देवी, मध्य में कोट भवानी, पूरब की तरफ पथरकुटवा की देवी, उत्तर की तरफ नारायणी देवी एवं दक्षिण की तरफ चंडी माता का मंदिर विद्यमान है। शारदीय और वासंतिक नवरात्र में यहां पर श्रद्धालुआें का रेला उमड़ पड़ता है। श्रद्धालु चंडी माता के मंदिर में नतमस्तक होकर अपने और परिवार के सलामती की कामना करते हैं। चंडी माता की स्थापना पांचवीं शताब्दी में सिवरी एवं खरवार जाति के लोगों ने किया था, क्योंकि यहां पर उन्हीं लोगों का निवास था। माता की स्थापना एक पत्थर के चबूतरे पर अनगढ़ पत्थर रखकर की गई थी, जिनकी पूजा वे लोग किया करते थे। इसे चंडीथान के नाम से भी जाना जाता था, जिसका वर्णन डा0 कुबेरनाथ राय ने भी अपने लेखों में किया है। जब प्रस्तर कला का विकास हुआ तो चबूतरे के स्थान पर सिंहासन बना दिया गया। वर्तमान में रहने वाले दोनवार-भूमिहार एवं तिवारी परिवार के लोगों के पूर्वज हरिहर पांडेय एवं उनके पुरोहित पल्टू तिवारी व कुलवंत तिवारी के नेतृत्व में मध्य प्रदेश के तृचि से चले, जो गंगा नदी से नाव के सहारे देहली (वर्तमान देवरियां) गांव में पहुंचे। इनके आने की सूचना पर सिवरी एवं खरवार तथा उनके पुरोहित दूबे लोगों में हड़कंप मच गया। पल्टू तिवारी पहलवान थे और दूबे लोगों से मिलकर युद्ध करा दिये। जिसमें सिवरी और खरवार की हार हो गई और हरिहर एवं पल्टू तिवारी का साम्राज्य हो गया। युद्ध के पहले पल्टू तिवारी ने सिवरी के पुरोहितों से वायदा किया था कि हमारा साम्राज्य हो जायेगा तो आप लोग हम लोगों के पुरोहित होंगे। तभी से दोनवारी के तिवारियों के पुरोहित दूबे लोग हो गये। कुछ दिनों के बाद सिवरी एवं खरवार एक बार पुन: युद्ध करने के लिए चले, किंतु चंडी माता ने विराट रुप दिखाकर वापस लौट जाने को कहा। इस संबंध में एक श्लोक ‘जयति हरिहरश्चैव जयति पल्टू तथा जयती ढढ़नी नगराणी कुलवंत विहाय च’ कहा जाता है कि जिसका पूरा वर्णन नगानंद वात्स्यायन ने भूमिहार, ब्राह्मण इतिहास के दर्पण में किया है। पटना विश्वविद्यालय के प्रो0 असगरी के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में मुहम्मद तुगलक के बाद फिरोजशाह तुगलक ने इन दोनवार के लोगों को जमीन देकर जमींदार बना दिया। तभी से ये लोग पांडेय की जगह राय बन गये। आइने अकबरी के अनुसार मदन बनारस जमानियां के दोनवारों द्वारा सोने का सिक्का एवं घोड़ा लगान के रुप वसूला जाने लगा। क्योंकि उस समय की फौज घोड़े से लड़ती थी और सरकारी अस्तबल भी वर्तमान के ताजपुर माझा गांव में था। मुस्लिम शासनकाल में चंडीथान को तोड़ दिया गया, किंतु आज भी टूटी मूर्ति के अवशेष की पूजा मंदिर में रखकर की जाती है। माता की पूजा के लिए क्षेत्र के लोग बच्चों के जन्म एवं विवाह में आज भी पिठार चढ़ाया करते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में भी ढढ़नी गांव को लूटने का प्रयास किया गया, किंतु माता की कृपा से उनके द्वारा लगाये गये तोप का मुख विपरित दिशा में घूम जाता था। जिसके चलते अंग्रेजों ने भी हार मान ली। सन 1962 में गांव के प्रधान हरहंगी राय ने चंडी माता मंदिर के सामने एक भव्य मंदिर बनाने की योजना बनाते हुए कार्य शुरु किया, जो गांव के आईएएस बालेश्वर राय के विशेष सहयोग से 1989 में बनकर तैयार हो गया। इस मंदिर में दिल्ली के संत नागपाल बाबा के सहयोग से लक्ष्मी-नारायण, दुर्गा एवं सरस्वती के प्रतिमा की स्थापना हुई और उन्हीं के सहयोग से पिछले वर्ष परशुराम जयंती के दिन भगवान परशुराम की मूर्ति मंदिर के उत्तर दिशा की तरफ स्थापित की गई। मंदिर के पुजारी ने बताया कि माता की पूजा सैकड़ों लोग प्रतिदिन करते हैं और प्रवचन, कीर्तन प्रतिदिन होता रहता है। जब भी गांव में कोई अनहोनी होने को होती है, तो माता स्वप्न में आकर बता देती हैं। मंदिर के प्रबंधक ने बताया कि नवरात्र में क्षेत्र के हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। पूरे नवरात्र में यहां पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इस मंदिर पर शादी-विवाह के लिए भी व्यवस्था की गई है, जहां पर प्रतिवर्ष दर्जनों लोग शादी के बंधन में बंधते हैं।