Sunday, January 27, 2019

Tuesday, January 22, 2019

बड़े से बड़े जातिवादी विद्वानों को पता नहीं होगा कि ब्राह्मणों के अंदर एक समानांतर जातिभेद है और वह इतना कट्टर और तीक्ष्ण है कि आज भी वह जस का तस लागू है तथा आज तक किसी गांधी ने उसे तोडऩे हेतु कोई उद्घार आंदोलन नहीं चलाया। मसलन एक ब्राह्मण कम्युनिटी ऐसी है जिसकी छाया तक से ब्राह्मण दूर भागते हैं। यह छुआछूत आज 21 वीं सदी में अमल में लाया जाता है। मृतक संस्कार कराने वाले ब्राह्मण को घर में नहीं घुसने दिया जाता और उसका स्पर्श किया हुआ कुछ भी खायापिया नहीं जाता। काशी के डोम राजा की हैसियत उससे लाख गुना बेहतर है। अलबत्ता उसके पैर छूते हैं। इसी तरह किसी मंदिर का पुजारी, यदि वह मंदिर संपन्न नहीं है तो उसकी मर्यादा उतनी ही होती है कि बेचारा घंटा बजाता रहे। पुरोहित ब्राह्मण को सम्मान तो मिलता है पर उसे अपने घर बुलाकर डायनिंग टेबल पर साथ बैठकर भोजन करने की मनाही है। वह खुद किसी को भोजन हेतु आमंत्रित करे तो गृहस्थ ब्राह्मण उसके यहां भोजन करने नहीं जाएगा। जो ब्राह्मण शूद्र जातियों के यहां शादी-विवाह या कथा आदि करवाते हैं उनसे ब्राह्मण समाज अपने घर बुलाकर शादी-विवाह आदि संस्कार नहीं करवाते। इसके अलावा गृहस्थ कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज के अंदर परस्पर भेदभाव है। मसलन बिस्वा आवंटन में जिन जातियों को पांच से कम बिस्वा मिले उनसे घुलामिला नहीं जाता। कहते हैं अकबर ने ये बिस्वादि बांटे थे। जो पहले पहुंच गए उन्हें बीस बिस्वा की आस्पद मिली जो देर से पहुंचे वे धाकड़ कहलाए। कुछ बेचारे छूट गए जैसे पाठक, उपाध्याय, ओझा और चौबे आदि। कहा जाता है कि बारिश हो हो रही थी और वे किसी वजह से अकबर के दरबार में नहीं आ पाए और बिस्वा पाने से रह गए। ऐसी ही छूतछात सरयूपारीण समाज में हैं। वहां मणिधारी ब्राह्मण तो अत्यंत भयानक होते हैं। मशहूर पत्रकार, चिंतक और साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र साहब ने बताया था कि वे एक तो मणि धारी ब्राहमण हैं दूसरे स्वयंपाकी हैं। स्वयंपाकी यानी किसी का भी छुआ न खाने वाले। ऐसे ही एक अन्य ब्राह्मण विद्वान श्रीनारायण चतुर्वेदी थे। ऐसा ही जातिवाद अन्य ब्राह्मणों में भी होगा पर मेरी जानकारी में नहीं है। इसकी वजह है कि ब्राह्मणों में एक परंपरा चली आ रही है कि संकट के वक्त गैरब्राह्मण समुदाय के आश्रय में भले जाया जाए मगर किसी अन्य गोत्रीय ब्राह्मण समुदाय की शरण न ली जाए। इसलिए ब्राह्मण समाज ने आजतक अपने अंदर के भेदभाव से लडऩे का प्रयास नहीं किया।
(हिंदी के पत्रकार और गांधी जी के करीबी रह चुके अंबिका प्रसाद बाजपेयी ने यह लिखा है।)

Friday, January 18, 2019

इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 199वें अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1] इक्ष्‍वाकु और ब्राह्मण का संवाद भीष्म कहते हैं- राजन! इसी समय तीर्थयात्रा के लिये आये हुए राजा इक्ष्‍वाकु भी उस स्‍थान पर आ पहुँचे, जहाँ वे सब लोग एकत्र हुए थे। नृपश्रेष्ठ राजर्षि इक्ष्‍वाकु ने उन सबकों प्रणाम करके उनकी पूजा की और उन सबका कुशल समाचार पूछा। ब्राह्मण ने भी राजा को अर्घ्‍य, पाद्य और आसन देकर कुशल-मंगल पूछने के बाद इस प्रकार कहा। 'महाराज! आपका स्‍वागत है! आपकी जो इच्‍छा हो, उसे यहाँ बताइये। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपकी क्‍या सेवा करूँ? यह आप मुझे बतावें'। राजा ने कहा- विप्रवर! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप छ: कर्मो में स्थित रहने वाले ब्राह्मण। अत: मैं आपको कुछ धन देता चाहता हूँ। आप प्रसिद्ध धनरत्‍न मुझसे माँगिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं और धर्म भी दो प्रकार का माना गया है- प्रवृति और निवृति। मैं प्रतिग्रह से निवृत ब्राह्मण हूँ। नरेश्‍वर! आप उन ब्राह्मणों को दान दीजिये, जो प्रवृत्तिमार्ग में हों। मैं आपसे दान नही लूँगा! नृपश्रेष्ठ! इस समय आपको क्‍या अभीष्ट है? मैं आपको क्‍या दूँ? बताइये, मैं अपनी तपस्‍या द्वारा आपका कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ? राजा बोले- द्विजश्रेष्ठ! मैं क्षत्रिय हूँ। ‘दीजिये’ ऐसा कहकर याचना करने की बात को कभी नहीं जानता। माँगने के नाम पर हमलोग यही कहना जानते हैं कि ‘युद्ध दो'। ब्राह्मण ने कहा- नरेश्‍वर! जैसे आप अपने धर्म से संतुष्ट हैं, उसी तरह हम भी अपने धर्म से संतुष्ट हैं। हम दोनों में कोई अन्‍तर नहीं है। अत: आपको जो अच्‍छा लगे, वह कीजिये। राजा ने कहा- ब्रह्मन! आपने मुझसे पहले कहा है कि ‘मैं अपनी शक्ति के अनुसार दान दूँगा’ तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि आप अपने जप का फल मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! आप तो बहुत बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे कि मेरी वाणी सदा युद्ध की ही याचना करती है। तब आप मेरे साथ भी युद्ध की ही याचना क्‍यों नहीं कर रहे हैं। राजा ने कहा- विप्रवर! ब्राह्मणों की वाणी ही वज्र के समान प्रभाव डालने वाली होती है और क्षत्रिय बाहुबल से जीवन-निर्वाह करने वाले होते हैं। अत: आपके साथ मेरा यह तीव्र वाग्‍युद्ध उपस्थित हुआ है। ब्राह्मण ने कहा- राजेन्‍द्र! मेरी वही प्रतिज्ञा इस समय भी हैं। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपको क्‍या दूँ? बोलिये, विलम्‍ब न कीजिये। मैं शक्ति रहते आपको मुँह माँगी वस्‍तु अवश्‍य प्रदान करूँगा। राजा ने कहा- मुने! य‍दि आप देना ही चाहते है तो पूरे सौ वर्षों तक जप करके आपने जिस फल को प्राप्‍त किया हैं, वही मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! मैंने जो जप किया है उसका उत्‍तम फल आप ग्रहण करें। मेरे जप का आधा फल तो आप बिना विचारे ही प्राप्‍त करें अथवा यदि आप मेरे द्वारा किये हुए जप का सारा ही फल लेना चाहते हों तो अवश्‍य अपनी इच्‍छा के अनुसार वह सब प्राप्‍त कर लें। राजा ने कहा- ब्रह्मन! मैंने जो जप का फल माँगा है, उन सबकी पूर्ति हो गयी। आपका भला हो, कल्‍याण हो। मैं चला जाऊँगा; किंतु यह तो बता दीजिये कि उसका फल क्‍या है?[1] ब्राह्मण ने कहा- राजन! इस जप का फल क्‍या मिलेगा? इसको मैं नहीं जानता; परंतु मैंने जो कुछ जप किया था, वह सब आपको दे दिया। ये धर्म, यम, मृत्‍यु और काल इस बात के साक्षी हैं। राजा ने कहा- ब्रह्मन! य‍दि आप मुझे अपने जपजनित धर्म का फल नहीं बता रहे हैं तो इस धर्म का अज्ञात फल मेरे किस काम आयेगा? वह सारा फल आप ही के पास रहे। मैं संदिग्‍ध फल नहीं चाहता। ब्राह्मण ने कहा- राजर्षे! अब तो मैं अपने जप का फल दे चुका; अत: दूसरी कोई बात नहीं स्‍वीकार करूँगा। इस विषय में आज मेरी और आपकी बातें ही प्रमाणस्‍वरूप हैं (हम दोनों को अपनी-अपनी बातों पर दृढ़ रहना चाहिये)। राजसिंह! मैंने जप करते समय कभी फल की कामना नहीं की थी; अत: इस जप का क्‍या फल होगा, यह कैसे जान सकूँगा? आपने कहा था कि 'दीजिये' और मैंने कहा था कि 'दूँगा'- ऐसी दशा में मैं अपनी बात झूठी नहीं करूँगा। आप सत्‍य की रक्षा कीजिये और इसके लिये सुस्थिर हो जाइये। राजन! यदि इस तरह स्‍पष्ट बात करने पर भी आप आज मेरे वचन का पालन नहीं करेंगे तो आपको असत्‍य का महान पाप लगेगा। शत्रुदमन नरेश! आपके लिये भी झूठ बोलना उचित नहीं है और मैं भी अपनी कही हुई बात को मिथ्‍या नहीं कर सकता। मैंने बिना कुछ सोच-विचार किये ही पहले देने की प्रतिज्ञा कर ली है; अत: आप भी बिना विचारे मेरा दिया हुआ जप ग्रहण करें। यदि आप सत्‍य पर दृढ़ हैं तो आपको ऐसा अवश्‍य करना चाहिये।[2]


पश्चिम बिहार से सिंधु नदी की पूर्व लागत और कश्मीर से विंध्य पर्वत के उत्तर तक। जब राजपूत बढ़ रहे थे, तो कई ब्राह्मणों को गंगा मैदान छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था लेकिन बंगाल, ओडिशा, असम के गैर-राजपूत राजाओं द्वारा स्वागत किया गया था।
  • राजपूतों को 1000 ई। से 1200 ई। के बीच अफ़ग़ान-तुर्क आक्रमणों का लगातार सामना करना पड़ा। उन्होंने थार रेगिस्तान के शुष्क क्षेत्रों में केवल 1500 ईस्वी तक राजनीतिक रूप से विरोध किया। मुगल काल शुरू होने के बाद, उनका आत्मसमर्पण राजनीतिक रूप से पूरा हो गया और थार के कई राजपूतों ने खुद को योद्धाओं से बैंकरों में बदल लिया। राजपूत अन्यत्र तुर्क-मुग़लों-अफ़गानों के जागीरदार बने रहे।
350 ई। तक, भूमिहार ब्राह्मणों ने गुप्त साम्राज्य का नेतृत्व किया, विदेशी साका-ग्रीक नेतृत्व वाले बौद्ध धर्म पर वैदिक जाति व्यवस्था को विजयी बनाया। 550 ईस्वी तक, हुना आक्रमण ने गुप्त साम्राज्य को अंतिम झटका दिया। हुना, खजर (गुर्जर) आव्रजन की नई लहर शुरू हुई। लेकिन इस बार वैदिक प्रणाली ने अप्रवासियों को क्षत्रियों के रूप में एकीकृत किया, उन्हें राजपूत (राजा का पुत्र) कहा। हालाँकि यह पश्चिम भारतीय ब्राह्मणों (जिसे अक्सर गौड़ ब्राह्मण कहा जाता है) के आशीर्वाद से किया गया था, भूमिहार ब्राह्मण और गंगा के अन्य ब्राह्मण राजपूतों के रूप में विदेशियों के इस उत्थान के खिलाफ थे। गंगा में भूमिहार ब्राह्मण और राजपूत इसके बाद भूमि और सत्ता के लिए लड़े। आज भी, यूपी और बिहार के गंगा मैदानी प्रांतों में, ब्राह्मण और राजपूत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं। धीरे-धीरे कई स्थानीय जनजातियाँ अक्सर सुदास राजपूत बनने लगीं और जल्द ही राजपूत नेतृत्व वाली जाति व्यवस्था फली-फूली

Tuesday, January 15, 2019

Rise & Fall of Castes
The caste system of India has many dimensions. It can be traced by the 1500 BC, when Aryans started Vedic age. In Vedas, the priest caste Brahmans were given highest social ranking followed by Ksatriyas (warrior caste), Vaishyas (common men later business caste) and Sudras (manual labour doing productive castes). Over time, Aryan Ksatriyas sublimed in local Dravidian population, many Sudra castes rose to power claiming themselves Ksatriyas, some Brahmans had to take up agriculture as the occupation in Ganges plain who came to be known Bhumihar Brahmans and rise of Vaishyas and Sudras under Iron Age economy made anti-Vedic religions like Buddhism-Jainism popular. The immigration of Sakas, Parthians, Greeks from central Asia further made Buddhism popular. This happened between 650 BC and 300 AD.
By 350 AD, Bhumihar Brahmins led Gupta Empire made Vedic caste system victorious over foreigner Saka-Greek led Buddhism. By 550 AD, Huna invasion dealt the final blow to the Gupta Empire. New wave of Huna, Khazar (Gurjara) immigration started. But this time Vedic system integrated immigrants as uplifted Ksatriyas by calling them Rajput (son of King) caste. Though this was done by the blessings of West Indian Brahmins (often called Gauda Brahmins), Bhumihar Brahmins and other Brahmins of Ganges plain remained against this upliftment of foreigners as Rajputs. In Ganges plain Bhumihar Brahmins and Rajputs fought for land and power thereafter. Even today, in Ganges plain provinces of UP and Bihar, Brahmins and Rajputs are considered political rivals. Gradually many local tribes often Sudras started to become Rajputs and soon Rajput led caste system flourished from West Bihar to East cost of River Indus and from Kashmir to the north of Vindhya Mountains. When Rajputs were rising, many Brahmins were forced to leave Ganges plain but were welcomed by non-Rajput Kings of Bengal, Odisha, Assam.
Rajputs got successive blows from Afghan-Turk invasions between 1000 AD and 1200 AD. They resisted politically only up to 1500 AD in arid zones of the Thar desert. After Mughal period began, their surrender was complete politically and many Rajputs of Thar changed themselves from warriors to bankers. Rajputs elsewhere remained as vassals of Turks-Mughals-Afghans.
As Europeans started ruling Indian Ocean, more profits were pouring in from a trade, Turk-Mughal rulers were losing pots to Europeans, Baniya (businessmen-banker) caste became powerful. They allied with the Europeans especially British to make profits and end Muslim rule. Rajputs and Bhumiar Brahmins relegated as vassals under Muslim rule began to be recruited by British Army as soldiers or sepoys. This continued until Sepoy Mutiny of 1848.

Sunday, January 6, 2019