Thursday, August 30, 2018

The migration of groups and communities within the Indian subcontinent down the ages is a fascinating story of social mobility, often revealing negotiable spaces within India’s caste-ridden hierarchies. If such histories were to be put together, the tale of Bengali brahmins would form an important chapter.
Brahmins, along with kayasthas and vaidyas, were the traditional elites of Bengal society in the medieval period. From these castes emerged the class of so-called bhadralok during British rule who redefined the notions of culture and refinement for the rest of colonial India.
Yet, for all their contributions towards the making of a new Bengal, genealogical records of the community and some historical evidence suggest that these brahmins were a rather late entrant in Bengal society, having migrated probably from what’s now Uttar Pradesh.
This is how the story goes in the community’s genealogical chronicles called kulajis and kulapanjikas. There was a king, Adisura of Bengal, who requested the king of Kanauj (Kolancha in the texts) to send him five learned brahmins who had knowledge of the Vedas as well as rituals. The request was turned down.
Drawing from these texts, Swati Dutta writes in her book, Migrant Brahmanas in Northern India, Their Settlements and General Impact, “When the king of Kanauj refused, Adisura sent against him 700 Brahmanas of Bengal, seated on bulls, as he knew that his adversary would not take up arms against Brahmanas riding on bulls. As expected, the king desisted from war and sent five Brahmanas as requested by Adisura. In Bengal, these five Brahmanas performed a sacrifice and returned to Kanauj.”
The tale continues. Upon their return, these brahmins were shunned by their relatives and asked to perform penances. In desperation, they left for Bengal with their families and servants, and were granted five villages to live in by Adisura. Each had a different gotra and all present day Rarhi and Varendra Brahmins are described to be the descendents of these five families (Rarh and Varendra are geographical descriptions located in present day West Bengal and Bangladesh, respectively). They called themselves kulin brahmins, signifying a noble origin. The 700 bull-riding brahmin warriors came to be known as Saptasati.
However, most scholars doubt the authenticity of the Adisura story. Puspa Niyogi, in her 1967 book, Brahmanic Settlements in Different Subdivisions of Ancient Bengal, says historical evidence does not bear out the tale. Other experts point out that there’s no record in Bengal of a king called Adisura, although there existed a Sura dynasty in west Bengal in the 11th century. Different genealogies have been attributed to Adisura, with one version describing him as a petty chief of north Bihar. His capital is located by some in Gauda and by others in Vikrampur. Different dates, ranging from 654 AD to 1060 AD, have been ascribed to the coming of the five Brahmins in various texts and interpretations.
Historian R C Majumdar points out that the traditional texts also aren’t unanimous about whether the Brahmins came from Kannauj or Kashi. He gives three sets of names for the five Brahmins. The compilers of the Rarhi kulajis name them as Bhatta Narayana, Daksha, Chhandada, Harsha and Vedagarbha while in the Varendra texts they are Narayana, Susena, Dharadhara, Gautama and Parasara. Well known kulacharyas such as Edu Mishra and Hari Mishra give another set of names.
What then is one to make of the accounts in these genealogical texts? Says historian Kunal Chakrabarti of Jawaharlal Nehru University, “The story of the five Brahmins probably has no basis in history. But it obviously is part of the historical memory of the community. These texts were written from the early 15th century onwards. From then till the 19th century, many texts consistently mention the story.”
Chakrabarti says the repeated references to the tale in various texts indicate that the memory of a migration from the west was strongly etched in the community. The myth extends to the kayasthas as well, five of whom were supposed to accompanied the Brahmins. While the details may be contested, it is known that brahmins did come to Bengal from the central Ganga valley (loosely, the region that’s now UP) from time to time in the early medieval period.
“One of the reasons for these migrations was that the resident brahmins in Bengal, who themselves had migrated to this region in earlier periods, seemed to have lost the knowledge of Vedas and rituals because they weren’t called upon to perform these duties,” says Chakrabarti.
But why were these texts written a few centuries after the likely migrations? Chakrabarti says the kulaji and kulapanjika texts served a contemporary purpose.
“By the beginning of the 15th century, brahmins felt that the hierarchies within the community had become lax and needed to be laid down more rigidly. These genealogical records set the kulins apart from the rest,” says the professor, whose book, Religious Process: The Puranas and the Making of a Regional Tradition (2001), in part deals with the subject.
By the 18th and 19th century, the wheel had come a full circle when brahmins such as Raja Ram Mohan Roy and Ishwar Chandra Vidyasagar fought against the oppressive fallouts of kulinism.
ब्राह्मण राजवंश
नादीया रियासत (पश्चिम बंगाल )
पश्चिम बंगाल स्थित # नादीया_राज जिसके प्रथम राजा # भट्ट_भटनारायण थे
इनके पूर्वज # क्णौज से मगह की ओर आय और मगह मे बड़ी-बड़ी जमींदारियां और राजवंश दिए जो की एक समय सब ब्राह्मण राजघराने ने # भूमिहार_विशेषण लेना प्रारम्भ कर दिया और बाहर से
# चीत्तपावन_ब्राह्मणों का बड़ा दल आज बिहार मे # भूमिहार_है ।
# मगह के राजाओं द्वारा चुना गया
# योधा # सैनिकब्राह्मणों का बड़ा गुट यानी # भूमिहार_ब्राह्मण # औरंगजेब से परेशान होकर # पश्चिम_बंगाल की ओर बढे ओर वहा वो # _कुलीन_ब्राह्मण से जाने जाते है ।जब अंग्रेजों ने #भूमिहार_ब्राह्मण को रेजीमेंट मे रोक लगा दिया तो इन
# भूमिहार_ब्राह्मणों ने वहा खुद को
# भूमिहार बोलना बँद करके भूमिहार जैसा ही # कुलीन विशेषण को धारण किया चुकी यह मगह से #भूमिहार परिवार के हिस्से रहे इनके सारे गोत्र वही है जो मूलतः मगह के भूमिहार के इनमें बस 5गोत्र है (कश्यप ,वत्स ,सोवर्नीया ,भारद्वाज,शान्डिल्य) इन्होने खुद को कुलीन बोलना प्रारम्भ किया परंतु अपनी शादी विवाह #भूमिहार_ब्राह्मणों से ही करते रहे इनके दो हिस्से हुए एक # राधि ब्राह्मण और दूसरा # बारेँद्र ब्राह्मण
# नादीया राजवंश ने अपने #भूमिहार_ब्राह्मण परम्परा द्वारा संस्कृति के विकास पर बहूत जोर दिया ।काशी राजा इन्हे फ़िर से खुद को
भूमिहार_ही सम्बोधन पर आमंत्रित किया किसी कारणवश इन्होने उस सम्बोधन को धारण नहीँ किया परंतु अपने रिश्ते हमेसा इनसे ही जोड़े रखा ।
राजपूत_बेशक बडे राजा रहे हो परंतु संस्कृति का विकास ब्राह्मण राजवंशों (भूमिहार ब्राह्मण )ने ही सबसे अधिक करवाया ।
पश्चिम_बंगाल मे आधे से अधिक वैदिक संस्कृत विद्यालय इसी राजवंश से रहे है ।इन्होने बडे बडे मंदिरों का निर्माण करवाया है वहा ।

-----------  बेतिया_ब्राह्मण_राजवंश
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----------  मोहयाल_सारस्वत_
ब्राह्मणराजघराना
बिहार का सबसे बड़ा स्वतंत्र राजघराना लेकीन दरभंगा ज़मींदारी स्वतंत्र नही रही बेशक बड़ी रही इसलीए यह दुसरी बड़ी ज़मींदारी के रूप में जानी जाती है |
बेतिया राज कि स्थापना आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी | यह सारस्वत मोहयाल थे लेकीन कालांतर मे कश्यप गोत्रिय जेथारिया भूमिहार ब्राह्मण वंश कहे गए हैं |
बेतिया राज घराने के पूर्वजों में
# गोरख_राय गजब के योद्धा राजा थे जो
# पृथ्वी_राज़_चौहान के साथ सैन्य अभ्यास किया करते थे और युद्ध मे भाग ।उन्ही के वंशों मे गंगेश्वर देव नामक ब्राह्मण हुए जो कि निमखर मिश्री, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) से आकार बिहार के तिरहुत प्रमंडल अंतर्गत, जिला - सारण के जैथर गांव में बसे | इस कथित जैथारिया भूमिहार ब्राह्मण वंश में नवें पीढ़ी में जन्मे उग्रसेन ने प्रथम राजा के तौर पर इस राजवंश कि नीव रखी तथा मुग़ल शासक शाहजहां द्वारा १६२८ में इन्हें राजा कि पदवी से नवाजा गया |
# आगे चलकर राजा उग्रसेन के पुत्र गज सिंह ने बेतिया (प. चम्पारण) में अपना राजमहल बनवाया और तभी से यह घराना बेतिया राज के नाम से जाना गया | राजा गज सिंह के छ पुत्र हुए,
जिनमें प्रथम जेष्ठ पुत्र राजा # दलीप सिंह बेतिया के तीसरे राजा कहे गए, दूसरे पुत्र राजकुमार कनक सिंह जो कि
# शिवहर राज (मुज्जफरपुर) के राजा शिवराज नंदन सिंह के पूर्वज हुए,
तीसरे पुत्र राजकुमार किरत सिंह # मधुबन जमींदारी (मधुबनी) के जमींदारों के पूर्वज के रूप में जाने जाते हैं |
# आज यह स्थिति बनी हुई है कि बेतिया राज के वारिस न होने कि वजह से ४०० साल से भी पुराने इस राजघराने कि अरबों कि दौलत वह सारी धरोहरों कि चोरी समय समय पर होती चली आ रही हैं |
1 राजा श्री उग्रसेन सिंह
2. राजा श्री गज सिंह
3. राजा श्री दलीप सिंह
4. राजा श्री ध्रुव सिंह (धनपत सिंह)
5. राजा श्री जुगल किशोर सिंह
6. राजा श्री बीर किशोर सिंह
7. महाराजा श्री आनन्द किशोर सिंह बहादुर
8. महाराजा श्री नवल किशोर सिंह बहादुर
9 महाराजा श्री राजेंद्र किशोर सिंह बहादुर
10. महाराजा श्री सर हरेन्द्र किशोर सिंह बहादुर
11. महारानी शिव रतन कुंवर
12. महारानी जानकी कुंवर - daughter of Babu
Shri Sidha Narain Singh of Anapur

👑👑👑👑Varendra Brahman👑👑👑👑
वेरेन्द्र (या बरिंद) बांग्लादेश में अब उत्तरी बंगाल का एक क्षेत्र था। [1] इसमें वर्तमान में रंगपुर और बांग्लादेश के राजशाही डिवीजन का हिस्सा पुंड्रावर्धन या पुंड्रा साम्राज्य क्षेत्र शामिल था।

कनिंघम के अनुसार वेरेन्द्र की सीमा पश्चिम में गंगा और महानंद, पूर्व में कराटोया, दक्षिण में पद्मा और उत्तर में कुचबिहार और तेराई के बीच की भूमि थी। [2]
ऐतिहासिक साक्ष्य मौर्य काल के दौरान बंगाल में ब्राह्मणों की महत्वपूर्ण उपस्थिति की पुष्टि करता है। माना जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के अध्यापक होने वाले जैन आचार्य भाद्रबुहू का जन्म पुंडवर्धन के ब्राह्मण परिवार (या गंगा के उत्तर में पुआरा और बंगाल में ब्रह्मपुत्र के पश्चिम में पुआरा, जिसे बाद में वारेन्द्र के नाम से जाना जाता था) में पैदा हुआ था। इस तरह के सबूत बताते हैं कि पुणरा या वारेन्द्र और भागीरथी के पश्चिम क्षेत्र (प्राचीन काल में राधा कहा जाता है) प्राचीन काल से ब्राह्मणों की सीटों के लिए; राधी और वेरेन्द्र अभी भी इन क्षेत्रों में बंगाली ब्राह्मणों की मुख्य शाखाएं हैं। भारत के कुछ हिस्सों से ब्राह्मणों के मध्यम से बड़े पैमाने पर माइग्रेशन जैसे भुमहार ब्राह्मण कन्याकुब्जा क्षेत्र, कोलाचा, दक्षिणी भारत और राजस्थान में पुष्कर अन्य समय के साथ, विशेष रूप से पाला और सेना काल के दौरान हुआ। सर्वेंद्र ब्राह्मणों को भी भुमहार ब्राह्मणों के नाम से जाना जाता है। यूएन भट्टाचार्य द्वारा लिखे गए भूमि स्वामी ब्राह्मणों। भुमहार और वारेन्द्र एक ही परिवार के देश के कुनुकुब के भगवान भागों जैसे जुजोत्तिया या भुमहार। भुमहार एक प्रभावशाली हिंदू उप जाति है जो परंपरागत रूप से उत्तर भारत के भारत-गंगा मैदानों के उपजाऊ क्षेत्रों में रहता है। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड राज्य। वे दोनों ब्राह्मणों को ब्राह्मणों (बाभन) के रूप में भी जाना जाता था, ब्राह्मण के लिए एक अपभ्रंश शब्द। एचसी रायचौधुरी के अनुसार गुप्ता डायनस्टी वेरेन्द्री क्षेत्र से निकली। खलीमपुर तांबा प्लेट शिलालेख के अनुसार, पहला पाला सम्राट गोपाला वापीता नाम के एक योद्धा का पुत्र था। रामचरितम ने पुष्टि की कि वेरेन्द्र (उत्तर बंगाल) पाल के पितृभूमि (जनकभा) थे।

Tuesday, August 28, 2018

बनारस के एचएच महाराजा के 1 9 36 की तस्वीर - श्री सर आदित्य नारायण सिंह, साहिब बहादुर, काशी नरेश बिहार के प्रमुख भुमहार जमींदारों से घिरे हुए हैं। यह उनकी दुर्लभ महिमा और शक्ति दिखाने वाली दुर्लभ तस्वीरों में से एक है।आप देख सकते हैं कि राजकुमार जगत किशोर प्रसाद नारायण सिंह (दूल्हे) मक्सुदपुर राज के पास काशी नरेश के पीछे बैठे थे। अन्य गणमान्य व्यक्ति श्री आर पी एन थे। गबीहरर एस्टेट की शाही (आईएएस अधिकारी और पटना के आयुक्त बनेंगे)। वह शेहर राज के कुमार कामेश्वर नंदन सिंह के मामा हैं। कुमार कामेश्वर नंदन सिंह के पैतृक चाचा राजकुमार रत्नेश्वरी नंदन सिंह - काशी नरेश के बाईं ओर हैं।कुमार कामेश्वर नंदन सिंह एक रेशम पोशाक पहन रहे हैं क्योंकि पवित्र "धागा" समारोह - "जनव" उनके ऊपर किया गया था। कुमार कामेश्वर नंदन सिंह पटना उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील बनेंगे और बिहार सरकार को कानूनी मामलों में स्थायी वकील के रूप में प्रतिनिधित्व करेंगे।
राजकुमार जगत किशोर प्रसाद नारायण सिंह मकसुदुर के 6 वें राज बनेंगे। वह 1 9 62 - 1 9 68 से राज्यसभा सांसद के रूप में और फिर 1 9 78 से 1 9 84 तक भारतीय संसद सदस्य के रूप में कार्य करने के लिए आगे बढ़ेगा। 1 9 78-19 88 से वह गया विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष के रूप में कार्य करेंगे।

Monday, August 27, 2018

चीनी यात्री फ़ाह्यान के संस्मरण गर्न्थो में ब्राह्मण शासकों का उल्लेख: In the year 399 A.D. a Chinese traveler, Fahian said "owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism....are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called 'Sang he Kang", which has been translated by professor Hoffman as 'Land seizer'. अर्थात "क्षत्रिय जाति करीब करीब विलुप्त सी हो गई है तथा बड़ी अव्यवस्था फ़ैल चुकी है ब्राह्मण धार्मिक कार्य छोड़ क्षत्रियों के स्थान पर राज्य शासन कर रहे hai
भूमिहार ब्राह्मणों का एक शक्तिशाली वर्ग है जो अयाचक ब्राम्हण में आता है। ब्राह्मणों का अभिन्न अंग भूमिहार -- आइये तथ्यों को देखते हैं कि वैदिक साहित्य, ऐतिहासिक साहित्य और लोक कथाएं क्या कहती हैं कैसे ब्राम्हण हैं ये; 1 – वैदिक साहित्य में भूमिहार या अयाचक ब्राम्हण -- ब्राह्मणों के कर्म विभाजन से मुख्यतः दो शाखाएं अस्तित्व में आयीं – प्रथम -- पौरोहित्यकर्मी या कर्मकांडी याचक द्वितीय -- अध्येता और यजमान अयाचक आसान शब्दो मे -- दान लेने वाला याचक और दान देने वाल अयाचक । अयाचक का कर्म -- मनुस्मृति के अनुसार - सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥100॥ अर्थात - सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।'' स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि : ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथा वच्चरितः व्रत:। क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन॥ 13॥ अर्थात् - ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुरामजी के पास, "मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ," ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।'' इस तरह ब्रह्मास्त्र की विद्या अगर ब्राह्मण ही जान सकता है तो युद्ध-कार्य भी ब्राह्मणों का ही कार्य हुआ। अयाचक ब्राम्हण जो शस्त्र शिक्षा देते थे और राज्य कर्म करते थे वो अयाचक ब्राम्हण में आते थे।। एक अन्य उदाहरण -- महाभारत में अर्जुन ने युधिष्ठिर से शान्तिपर्व में कहा है कि: ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:। प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥अ.॥22॥ ''हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?' कुछ अन्य उदाहरण जिससे ये सिद्ध होता है कि कुछ क्षत्रिय से ब्राम्हण भी बने, कुछ अयाचक से याचक ब्राम्हण बने तो कुछ याचक से अयाचक -- 1- वाल्मीकिरामायण के के अयोध्या कांड बत्तीसवें सर्ग के २९-४३वें श्लोक में गर्ग गोत्रीय त्रिजट नामक ब्राह्मण की कथा से अयाचक से याचक बनने का सटीक उदाहरण मिलता है:- तत्रासीत् पिंगलो गार्ग्यः त्रिजटो नाम वै। द्विज; क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली॥29॥ इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना आदि स्थितिजन्य गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं 2 - क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सिम्मलित हुआ वह राजा दिवोदास का पुत्र मित्रायु था। मित्रायु के बंशज मैत्रेय कहलाये और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ। भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। इन्होंने निरूक्त नामक ग्रन्थ की रचना की। परशुराम के शत्रु सहस्रबाहु के प्रपौत्र का नाम वीतहव्य था। उसका कोई वंशज पुरोहित बनकर भार्गवों में सिम्मलित हो गया और उसके वंशज वैतहव्य अथवा यास्क कहलाने लगे। निष्कर्ष -- ब्राह्मणों के कर्म निर्धारण -- अध्यापनमध्यायनं च याजनं यजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्र जन्मन:॥10।75॥ मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार ब्राह्मणों के छह कर्म हैं साधारण सी भाषा में कहें तो अध्ययन-अध्यापन (पढ़ना-पढाना), यज्ञ करना-कराना, और दान देना-लेना , इन कार्यों को दो भागों में बांटा गया है। धार्मिक कार्य और जीविका के कार्य अध्ययन, यज्ञ करना और दान देना धार्मिक कार्य हैं तथा अध्यापन, यज्ञ कराना (पौरोहित्य) एवं दान लेना ये तीन जीविका के कार्य हैं ब्राह्मणों के कार्य के साथ ही इनके दो विभाग बन गए एक ने ब्राह्मणों के शुद्ध धार्मिक कर्म (अध्ययन, यज्ञ और दान देना) अपनाये और दूसरे ने जीविका सम्बन्धी (अध्यापन, पौरोहित्य तथा दान लेना) कार्य जिस तरह यज्ञ के साथ दान देना अंतर्निहित है वैसे ही पौरोहित्य अर्थात यज्ञ करवाने के साथ दान लेना साधारण सामान्य भाषा में -- अयाचक ब्राह्मण:– जिन्होंने पुरोहिताई को अपनी आजीविका का साधन नहीं बनाया, जिनकी अजीविका का साधन कृषि, जमींदारी, राज पाट आदि थे। परंतु दोनों ही प्रकार के ब्राह्मणों में आजीविका छोड़ कर अन्य सभी बातों में समानता थी। साधना, स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन तपश्चर्या आदि। 


Lewis Sydney Steward O’Malley [59]writes that – ‘The Babhans or Bhuinhars are usually land-holders and cultivators and some of them, like the ‘Maharaja of Tekari’ own large estates. They claim to be Brahmins and call themselves Ajachak Brahmins i.e. the Brahmins who do not take alms in contrast to ordinary Brahmins whom they call Jachaks or alms takers.  Like Brahmins, they will not hold the plough but employ laborers for the purpose. Various traditions to their origin are current. Nice
O’malley, L. S. S. (1908). Bengal District Gazetteer: Gaya, p. 92, (Reprint. 2007). New Delhi: Logos.

Friday, August 24, 2018

Sun Temple ,Dev--++ Situated in Aurangabad district of Bihar Bhuvan Bhaskar Temple Dev is the most famous place for Chhath Puja. This temple has features of KalingaPrasad. It has curvilinear Sikhara surmounted by massive Amalaka. Beki of the shrine is conspicuous. Rahapag , Anurathpag and Kanikapag are also prominent. Initially it had several subsidiary shrines. Temple has large mahamandap with lateral transepts like Madhydesiyaprasada . It is perceived as the oldest living temple of Lord Sun. According to Late Shri Ramdeo Tiwari whose ancestors owned it and worked as Cheif Purohit Dev was called Devark in ancient times. This temple had originally a large icon of Sun but it was defaced and damaged. In later Mughal period the decedents of Garbhu Tiwari known by the epithet Bhoji Agrahar Bhumihar Bhumidhar Brahmin Eksariya Parasar conducted the Jirnodhar , ritual rejuvenation and enshrined images of Brahma, Vishnu and Mahesh as three facets of Sun. In front of the temple there was Arun Stambh that was erected at the center of Savita Tadag,a sacred pond where presently Chhath puja is performed.The temple remained under the family of Eksariya clan of village Erki before it was transfered to Bihar DharmikNyas Board. The present ritualists are however Sakaldvipi Brahmins of nearby subtown Patalganga who assisted Eksariya Bhumihars till 1960.In recent past certain additions have been made in the name of restoration that has changed its historic fabric and outlook. (Sources-- Kanyakubj PRABODHNI, Hamilton Buchanan , Bihar Gaurav1956,Late Sri Ramdeo Tiwari of Village Erki, Shri Krishan Singh Lawyer Village Jori , Chatra ,Jharkhand, Prof. ManiMala Sinha HOD Mahila Mahavidyalay Warisaliganj and present ritualists of Sakaldvipi clan.)Swami Sahjanand Saraswati 's Bramharsi Vansa Vistara is also an important source about Paurohitya Prampara ,ritualists class and traditions of this temple.
Brahmans and Prayag (Allahabad) : A History of Resistance ________ Ancient Prayag with a provincial Magadhan capital of Kausambi was known as Ellavrit. The modern Jhunshi was earlier called Pratisthanpur was a massive Brahman settlement . It was called Jhunshi / Jhulsi after it was plundered and burnt by Delhi Sultans . If collective memory has to be taken as a fact the governer of KARA MANAKPUR Alauddin Khalji was the man responsible for massacre. Though there is no authentic work on history of resistances by Hindus in this reason, however birth of JUNA ÀKHARA and local history of a few Brahman dynasties in this region along with PRYAGVALS, the local pilgrims - ritualists often called TIRTHPUROHIT or in colloquial terms only Pandaji forms an interesting history . In the last years of GÀHARVAR dynasty , a Kshatriya Rajvansh donated ÀGRÀHÀR GRAMAS to a Brahman ascetic near Ellavrit. This land grant was given to a Brahman of SARVARYAH origin (now called Saryuparin ) . This grant formed the ÀNAPUR STATE , BHUMIHAR BRAHMAN principality in similar manner the HIRÀPURI PÀNDEY of KANYAKUBJ clan formed the KARCHHÀNA BARÀON state. Small Brahman principalities existed in CHAYÀL and ARGÀLA ( Arail). In Meza division SHUKULPUR CHAURASHI was another stronghold of Brahmins apart from KUNDÀ ( Pratapgarh) that created a territory of the Brahmans despite the fact DVADÀS BEHIMADHÀV , SÀTI CHÀURA and SÀKTISTHÀL at Allahabad remained in ruins. Most importantly the ÀKBARI KILÀ with CHILLA SITTUN and JÀNANA MAHAL had some significant remnants of ancient Brahmanic culture , e.g. image of large Hanuman near the fort. Medieval Allahabad , however maintained the KUMBH ànd KÀLPÀVASH tradition. As the STHÀLPUJA continued there under exemplary resistance to protect DHARMA by courageous PRYAGVÀLS. Swami PURNANAND SARASWÀTI surveyed the region in early 20th century and found that PRYAGVÀLS , and BHUMIHAR BRAHMANS strongly opposed the Mughal hegemony and supervised STHALPUJA at Prayàg. Both the clans mainlly offshoots and offsprings of SARYUPARINS managed massive local support ànd contributed to strengthen DASNAMI order with birth of JUNÀ ÀKHARA as the apex Hindu body that militarized the local ascetics . Ranapàndit Dvijràj Bàlwànt Narayàn Mishra ( Singh was his honorophic epithet) defeated Alikuli Khan , an unprecedented event where a Hindu artillery defeàted a Mughàl provincial chief ( subedàr) . Belligerent Balvant moved to sàcred Prayag with saffron flags and frolicsome slogan HAR HAR BHAVÀNI as a mark of victory and success to liberate Prayag that was even an ardent but unfulfilled desire of Peshva Baji Rào.
Maharani Ahilya Bai Holkar---No woman in history of the world religions ever contributed as much the widow Ahilya did for Hinduism.No woman in our history restored so many monuments as was done by Ahilya. She ruled over Indore state of Maratha confederation. She was daughter in law of revered military commander Malhar Rao Holkar.She decided to conserve all the twelve Jyotirlingas and three sacred complexes Gaya ,Kashi and Prayag.The Marathas wanted to control these sacred complexes.However local Hindu Rajas respectively Maharaja Tekari of Gaya Sundar Singh was against Maratha intrusion. Similarly Maharaja Balvant Singh who was known by his epithet Kasiraj was also against Maratha penetration in Kashi. The Karchana state in Kara province of Allahabad was equally forceful in Maratha opposition. The Maharaja Balvant Singh himself was in deep trouble due to constant war against Oudh(Awadh), Jaunpur and local cheiftains who were supporting Muslim kings.At that time the Kashi Visvanath Mandir was in ruins and only sthal Puja (worship of sacred geography) was done by Bhumihar Brahmin ritualists of Tejapur village, Kashi.This tradition continued from 1659 till the date Ahilya got permission from the Nawab of Awadh to erect a Shiva temple near Gyanvapi mosque. It was a diplomatic step Balvant Singh wanted to be taken. Ahilya purchased land for temple.Surprisingly the people of Kashi were scared of Muslim intervention and a possible demolition again as it happened with Gaharval temple and later temple made due to Jagatguru Narayan Bhatt's historic effort and support of Todarmal.Most disgusting story is that Brhamins basically Srayuparins and Kanyakubja did not accept the proposal of Pranam Pratistha (consecration ) of the new temple.Tradionally the Bhumihar priests of Tejapur , Ganagapur,Jayapur and near by villages had militarized them under Manasram and his belligerent son Balvant who was galvanizing Brhmanas for military action against Awadh , Jaunpur ,Bangash Pathan, and even Badsah of Delhi.Ahilya was abashed with denial of Brahmins for consecrations. Finally Mahesvar Pandit of Indore performed the sacerdotal activities and a Bhumihar Brahmin from Tejapur village was appointed as the chief ritualist of the Kaisi Visvanath temple.Maharaja of Kasi accepted to supervise the ceremony of Mahashivaratri .Maharaja Ranjit Singh offered 22 man(880kg) of gold to the temple.Purusottam Dad Khatri gave fabulous wealth in donation for covering the Sanctum with silver. Earlier Nana Phadnavis had also tried to restore the temple like Maharaja of Riva and Maharana of Mevar but they couldn't get success. Ahilya fully understood the spiritual character of India as an ancient nation. She got permission from Maharaja Tekari to restore the Vishnupad temple at Gaya.For that she habilitated masons at Patharkati village. She made Ghats at Pushkar, Omkaresvar and Mahesvar. Sources State Archive Indore and works of Gunakar Mule,Devendra Thakur ,Amitàbh Bhattacharya Baidyanath Sarsvati and edited volume on Kashi by Omprakash Kejarival published by Publication Division New Delhi.

Thursday, August 23, 2018

भूमिहार ब्राह्मण राजवंश
# राजा_भरतपुरा_रियासत (धारी परिवार )
# कौण्डिनय_गोत्रिय_अर्थव_मूल_भूम
िहार
पटना ज़िले के पालीगंज में स्थित भरतपुरा ज़मींदारी स्टेट समूचे मगध की दूसरी बड़ी रियासत मानी जाती है टेकारी के बाद ।।
इस स्टेट के चर्चित राजा
# गोपाल_नारायण_सिंह  जिनके पिता भरत सिंह के नाम पर ज़मींदारी का नाम भरतपुरा हुआ ।।
कालांतर में भरतपुरा से ही निकल कर दर्जनों ब्रह्मर्षि ज़मींदारी चर्चित हुई जिसमें इनके पाटीदार मुख्यतः ...
1 धरहरा स्टेट (पालीगंज से नौबतपुर तक विस्तृत )
2 एनखाओ स्टेट (बिहटा , नौबतपुर छेत्र )
3 अछुआ स्टेट (मसौढ़ी तक विस्तृत )
आदि ....
राज भरतपुरा से जितने भी ज़मींदारी बंटी सभी को # राय_बहादूर की पदवी का तमगा हासिल थी ।। 

Tuesday, August 21, 2018

To 
The Manager,
NBH Company,
................,(शहर का नाम)
.................( देश का नाम जहाँ कंपनी है)

Subject: Application for leave.

Dear Sir,

My name is ..............i, working in your company as a ................(अपने पद का नाम डालें)
Through this application, I request you to please consider my leave for three months as I haven't been home for two years and four months. I have been missing my family very badly for a long time and my family has also been missing me a lot.
Since I come from India, therefore I cannot afford to go to my homeland very often, that's why I want to go on a long leave and meet my family, friends, and relatives.

I hope that keeping my genuine reasons in view, you would kindly grant me a leave for three months. I assure you, sir, that after I get back I will work harder for the company with more energy and enthusiasm as I will be recharged after having met my own family and friends. I look forward to your kind consent and thank you in anticipation.

Regards.

Yours faithfully

...........................(हस्ताक्षर)

................

date...............

नोट:

कृपया इस एप्लीकेशन को सोच समझ कर और इसमें ज़रूरी परिवर्तन करके ही लिखें. आओ सीखो की और से यह आपकी रिक्वेस्ट पर केवल मार्गदर्शन है , अच्छे- बुरे परिणामों की जवाबदारी आपकी अपनी ही रहेगी

Saturday, August 18, 2018

सोमवार, 18 अप्रैल 2011
आपस में प्रतिस्पर्धा न करें ब्राह्मण : ताराकांत


पटना : बिहार प्रदेश सर्व ब्राह्मण-भूमिहार ब्राह्मण महासभा की ओर से शनिवार को जमात के मंत्रियों, विधायकों एवं पार्षदों को सम्मानित किया गया. विधान परिषद के सभापति पंडित ताराकांत झा ने स्वामी सहजानंद एवं डॉ श्रीकृष्ण सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर सम्मान समारोह की शुरुआत की.

कहा-प्राचीन काल से देश में परिवर्तन का नेतृत्व ब्राह्मण समाज ने किया. लेकिन, आज का ब्राह्मण समाज उपजातियों में बंट कर दूसरे से अपने को ऊंचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा में लगा है. भूमिहार जाति को अपना अभिन्न अंग बताते हुए कहा कि वे स्वयं को ब्राह्मण कहना शुरू करें.

पंडित झा ने ब्राह्मणों को आपस में बांटने को समाज व देश के लिए घातक बताते हुए ब्राह्मण समाज से ‘एक बनो और नेक बनो’ के रास्ते पर चलने का आह्वान किया. महासभा के कार्ये की सराहना की. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ सीपी ठाकुर ने कहा कि सर्व ब्राह्मणों से ब्राह्मण समाज और सबल होगा और इसकी सामाजिक पहचान व कद और बड़ा होगा.

व्यापक स्तर पर ब्राह्मण एकता कायम करते हुए अंतर घटक वैवाहिक संबंध को प्रश्रय देना और नया समाज बनाना हमारा मुख्य उद्देश्य है. इसे प्राप्त करने के लिए महासभा ने 2010 में पूरे प्रदेश में परशुराम-रथ से यात्रा एवं चेतना जागरण किया. सभा की अध्यक्षता प्रदेश अध्यक्ष विजय चौधरी ने की.

महासभा ने परशुराम मंदिर एवं परशुराम धर्मशाला बनाने का निर्णय लिया और इसके लिए पटना में एक भूखंड उपलब्ध कराने के लिए आगंतुकों से कहा. मौके पर पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ अखिलेश प्रसाद सिंह, महासभा के संरक्षक मुक्तेश्वर ओझा, समिति के प्रदेशाध्यक्ष धर्मवीर शुक्ला, विधान पार्षद राम किशोर सिंह, रजनीश कुमार, मुन्नी देवी, मीणा द्विवेदी, गुड्डी चौधरी, ललन कुंवर, सुरेश शर्मा, सतीश कुमार दुबे व राजेश्वर राज ओद उपस्थित थे.

Friday, August 17, 2018

भारतीय लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश और ऋषि मुनियोंकी संतानें हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के कई पुत्र और पुत्रियां थी। इन सभी के पुत्रों और पुत्रियों से ही देव (सुर), दैत्य (असुर), दानव, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, वानर, नाग, चारण, निषाद, मातंग, रीछ, भल्ल, किरात, अप्सरा, विद्याधर, सिद्ध, निशाचर, वीर, गुह्यक, कुलदेव, स्थानदेव, ग्राम देवता, पितर, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वैताल, क्षेत्रपाल, मानव आदि की उत्पत्ति हुई। 
वंश लेखकों, तीर्थ पुरोहितों, पण्डों व वंश परंपरा के वाचक संवाहकों द्वारा समस्त आर्यावर्त के निवासियों को एकजुट रखने का जो आत्मीय प्रयास किया गया है, वह निश्चित रूप से वैदिक ऋषि परंपरा का ही अद्यतन आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। पुराण अनुसार द्रविड़, चोल एवं पांड्य जातियों की उत्पत्ति में राजा नहुष के योगदान को मानते हैं, जो इलावर्त का चंद्रवंशी राजा था। पुराण भारतीय इतिहास को जलप्रलय तक ले जाते हैं। यहीं से वैवस्वत मन्वंतर प्रारंभ होता है। वेदों में पंचनद का उल्लेख है। अर्थात पांच प्रमुख कुल से ही भारतीयों के कुलों का विस्तार हुआ।
 
विभाजित वंश : संपूर्ण हिन्दू वंश वर्तमान में गोत्र, प्रवर, शाखा, वेद, शर्म, गण, शिखा, पाद, तिलक, छत्र, माला, देवता (शिव, विनायक, कुलदेवी, कुलदेवता, इष्टदेवता, राष्ट्रदेवता, गोष्ठ देवता, भूमि देवता, ग्राम देवता, भैरव और यक्ष) आदि में वि‍भक्त हो गया है। जैसे-जैसे समाज बढ़ा, गण और गोत्र में भी कई भेद होते गए। बहुत से समाज या लोगों ने गुलामी के काल में कालांतर में यह सब छोड़ दिया है तो उनकी पहचान कश्यप गोत्र मान ली जाती है।
 
कुलहंता : आज संपूर्ण अखंड भारत अर्थात अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और बर्मा आदि में जो-जो भी मनुष्य निवास कर रहे हैं, वे सभी निम्नलिखित प्रमुख हिन्दू वंशों से ही संबंध रखते हैं। कालांतर में उनकी जाति, धर्म और प्रांत बदलते रहे लेकिन वे सभी एक ही कुल और वंश से हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कुल का नाश तब होता है जबकि कोई व्यक्ति अपने कुलधर्म को छोड़ देता है। इस तरह वे अपने मूल एवं पूर्वजों को हमेशा के लिए भूल जाते हैं। कुलहंता वह होता है, जो अपने कुलधर्म और परंपरा को छोड़कर अन्य के कुलधर्म और परंपरा को अपना लेता है। जो वृक्ष अपनी जड़ों से नफरत करता है उसे अपने पनपने की गलतफहमी नहीं होना चाहिए।
 
भारत खंड का विस्तार : महाभारत में प्राग्ज्योतिष (असम), किंपुरुष (नेपाल), त्रिविष्टप (तिब्बत), हरिवर्ष (चीन), कश्मीर, अभिसार (राजौरी), दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गंधार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिन्ध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिन्ध का निचला क्षेत्र दंडक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आंध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग 200 जनपद वर्णित हैं, जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।
 
आज इन सभी के नाम बदल गए हैं। भारत की जाट, गुर्जर, पटेल, राजपूत, मराठा, धाकड़, सैनी, परमार, पठानिया, अफजल, घोसी, बोहरा, अशरफ, कसाई, कुला, कुंजरा, नायत, मेंडल, मोची, मेघवाल आदि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध की कई जातियां सभी एक ही वंश से उपजी हैं। खैर, अब हम जानते हैं हिन्दुओं (मूलत: भारतीयों) के प्रमुख वंशों के बारे में जिनमें से किसी एक के वंश से आप भी जुड़े हुए हैं। आपके लिए यह जानकारी महत्वपूर्ण हो सकती।
जो खुद को मूल निवासी मानते हैं वे यह भी जान लें कि प्रारंभ में मानव हिमालय के आसपास ही रहता था। हिमयुग की समाप्ति के बाद ही धरती पर वन क्षेत्र और मैदानों का विस्तार हुआ तब मानव वहां जाकर रहने लगा। हर धर्म में इसका उल्लेख मिलता है कि हिमालय से निकलने वाली किसी नदी के पास ही मानव की उत्पत्ति हुई थी। वहीं पर एक पवित्र बगिचा था जहां पर प्रारंभिक मानवों का एक समूह रहता था। धर्मो के इतिहास के अलावा धरती के भूगोल और मानव इतिहास के वैज्ञानिक पक्ष को भी जानना जरूरी है।
 
अगले पन्ने पर पहला प्राचीन वंश...

ब्रह्मा कुल : ब्रह्माजी की प्रमुख रूप से तीन पत्नियां थीं। सावित्री, गायत्री और सरस्वती। तिनों से उनको पुत्र और पुत्रियों की प्राप्ति हुई। इसके अलावा ब्रह्मा के मानस पुत्र भी थे जिनमें से प्रमुख के नाम इस प्रकार हैं- 1.अत्रि, 2.अंगिरस, 3.भृगु, 4.कंदर्भ, 5.वशिष्ठ, 6.दक्ष, 7.स्वायंभुव मनु, 8.कृतु, 9.पुलह, 10.पुलस्त्य, 11.नारद, 12. चित्रगुप्त, 13.मरीचि, 14.सनक, 15.सनंदन, 16.सनातन और 17.सनतकुमार आदि।
स्वायंभुव मनु कुल : स्वायंभुव मनु कुल की कई शाखाएं हैं। उनमें से एक प्रमुख शाखा की बात करते हैं। स्वायंभुव मनु समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल 5 संतानें थीं जिनमें से 2 पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा 3 कन्याएं आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। रुचि को आकूति से एक पुत्र उत्प‍न्न हुआ जिसका नाम यज्ञ रखा गया। इनकी पत्नी का नाम दक्षिणा था।
 
गौरतलब है कि देवहूति ने 9 कन्याओं को जन्म दिया जिनका विवाह प्रजापतियों से किया गया था। देवहूति ने एक पुत्र को भी जन्म दिया था, जो महान ऋषि कपिल के नाम से जाने जाते हैं। भारत के कपिलवस्तु में उनका जन्म हुआ था और वे सांख्य दर्शन के प्रवर्तक थे। उन्होंने ही सगर के 100 पुत्रों को अपने शाप से भस्म कर दिया था। 
 
दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक 2 पत्नियां थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी।
 
स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत- ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से कवि, महावीर तथा सवन ये 3 नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।
 
महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी, जो आज मूल रूप में नहीं मिलती। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ रंग होता था और आज जाति।
 
प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकांत में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए, लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही। सुनंदा नदी के किनारे 100 वर्ष तक तपस्या की। दोनों पति-पत्नी ने नैमिषारण्य नामक पवित्र तीर्थ में गोमती के किनारे भी बहुत समय तक तपस्या की। उस स्थान पर दोनों की समाधियां बनी हुई हैं। 
 
प्रियव्रत का कुल : राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र जम्बूद्वीप के अधिपति हुए। अग्नीघ्र के 9 पुत्र जम्बूद्वीप के 9 खंडों के स्वामी माने गए हैं जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृत वर्ष, भद्राश्व वर्ष, केतुमाल वर्ष, कुरु वर्ष, हिरण्यमय वर्ष, रम्यक वर्ष, हरि वर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड कहते हैं। नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से 'भरत' एवं बाहुबली का जन्म हुआ। भरत के नाम पर ही बाद में इस नाभि खंड को 'भारतवर्ष' कहा जाने लगा। बाहुबली को वैराग्य प्राप्त हुआ तो ऋषभ ने भरत को चक्रवर्ती सम्राट बनाया। भरत को वैराग्य हुआ तो वे अपने बड़े पुत्र को राजपाट सौंपकर जंगल चले गए।
 
स्वायंभु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।
 
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कश्यप कुल : कश्यप कुल की कई शाखाएं हैं। पिप्पल, नीम, कदंब, कर्दम, केम, केन, बड़, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, नाग आदि उपनाम या गोत्र हिन्दू मोची समाज में पाए जाते हैं। ये सभी मरीचिवंशी है। यहां प्रमुख शाखाओं की बात करते हैं। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि के विद्वान पुत्र थे। मरीचि के दूसरे पुत्र ऋषि अत्रि थे जिनसे अत्रिवंश चला। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि हैं। ये दक्ष के दामाद और शंकर के साढू थे। इनकी पत्नी दक्षकन्या संभूति थी। इनकी 2 और पत्नियां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था। इन्होंने ही भृगु को दंडनीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरू के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखंडी कहा गया है। इन्हीं के पुत्र थे कश्यप ऋषि।
मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिलदेव की बहन थी। मान्यता के अनुसार कश्यप को ही अरिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है। सुर और असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था। आज भी सुर और असुरों की जाति भारतवर्ष में विद्यमान है।
 
ब्रह्मा के पोते ऋषि कश्यप ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की 13 कन्याओं से विवाह किया था। श्रीमद्भागवत के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी 60 कन्याओं में से 10 कन्याओं का विवाह धर्म के साथ, 13 कन्याओं का विवाह ऋषि कश्यप के साथ, 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ, 2 कन्याओं का विवाह भूत के साथ, 2 कन्याओं का विवाह अंगिरा के साथ, 2 कन्याओं का विवाह कृशाश्व के साथ किया था। शेष 4 कन्याओं (विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी) का विवाह तार्क्ष्य कश्यप के हुआ था।
 
*कश्यप की पत्नियां : इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनीता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं।
 
1. अदिति : पुराणों के अनुसार कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों को जन्म दिया। माना जाता है कि चाक्षुष मन्वंतर काल में तुषित नामक 12 श्रेष्ठगणों ने 12 आदित्यों के रूप में जन्म लिया, जो कि इस प्रकार थे- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। ऋषि कश्यप के पुत्र विस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ। अदिति के पुत्र ही देव और सुर कहलाए। इनके राजा इन्द्र थे।
 
वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे- 1. इल, 2. इक्ष्वाकु, 3. कुशनाम, 4. अरिष्ट, 5. धृष्ट, 6. नरिष्यंत, 7. करुष, 8. महाबली, 9. शर्याति और 10. पृषध। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु-महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
 
वैवस्वत मनु से ही सूर्यवंश की स्थापना हुई। मनु के दसों पुत्रों का वंश अलग-अलग चला और सभी की रोचक जीवन गाथाएं हैं। मनु ने अपने ज्येष्ठ पुत्र इल को राज्य पर अभिषिक्त किया और वे स्वयं तप के लिए वन को चले गए। इक्ष्वाकु ने अपना अलग राज्य बसाया। भगवान राम इसी कुल में जन्मे थे। 
 
इक्ष्वाकु का वंश : मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के 3 पुत्र हुए- 1. कुक्षि, 2. निमि और 3. दण्डक। इक्ष्वाकु के प्रथम पुत्र कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुंधुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के 2 पुत्र हुए- ध्रुवसंधि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसंधि के पुत्र भरत हुए।
 
कुक्षि के कुल में भरत से आगे चलकर सगर, भागीरथ, रघु, अम्बरीष, ययाति, नाभाग, दशरथ और भगवान राम हुए। उक्त सभी ने अयोध्या पर राज्य किया। पहले अयोध्या भारतवर्ष की राजधानी हुआ करती थी, बाद में हस्तिनापुर हो गई। इक्ष्वाकु के दूसरे पुत्र निमि मिथिला के राजा थे। इसी इक्ष्वाकु वंश में बहुत आगे चलकर राजा जनक हुए। राजा निमि के गुरु थे- ऋषि वसिष्ठ। निमि जैन धर्म के 21वें तीर्थंकर बने।
 
2. दिति : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक 2 पुत्र एवं सिंहिका नामक 1 पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन 3 संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। दिति के पुत्र ही दैत्य और असुर कहलाए। इनके काल में महान विरोचन और राजा बलि हुए। वर्तमान में अधिकतर दलित लोग खुद को दिति के कुल का मानते हैं, जोकि पूर्णत: सही नहीं है। सभी के अलग अलग है।
 
3. दनु : ऋषि कश्यप को उनकी पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरुपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई।
 
4. अन्य पत्नियां : रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। पत्नी अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए। सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ। मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं। कश्यप की क्रोधवशा नामक रानी ने सांप, बिच्छु आदि विषैले जंतु पैदा किए।
 
ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया। सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की। रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया। तिमि ने जलचर जंतुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया। 
 
कद्रू की कोख से बहुत से नागों की उत्पत्ति हुई, जिनमें प्रमुख 8 नाग थे- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। इन्हीं से नागवंश की स्थापना हुई।
 
तार्क्ष्य की पत्नी विनीता के गर्भ से गरूड़ (विष्णु का वाहन) और वरुण (सूर्य का सारथि) पैदा हुए। रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ। यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ। ब्रह्माजी की आज्ञा से प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की 2 पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नाम के 60 हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ, जो कि कालांतर में निवातकवच के नाम से विख्यात हुए।
 
माना जाता है कि कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्यप सागर (कैस्पियन सागर) और कश्मीर का प्राचीन नाम था। समूचे कश्मीर पर ऋषि कश्यप और उनके पुत्रों का ही शासन था। कश्यप ऋषि का इतिहास प्राचीन माना जाता है। कैलाश पर्वत के आसपास भगवान शिव के गणों की सत्ता थी। उक्त इलाके में ही दक्ष राजाओं का साम्राज्य भी था। कश्यप ऋषि के जीवन पर शोध किए जाने की आवश्यकता है। इति।
 
अगले पन्ने पर तीसरा प्राचीन वंश...
 

अत्रि वंश :  ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि से चन्द्र वंश चला। यह प्रस्तुत है अत्रिवंशी ययाति कुल की जानकारी...
 
ययाति कुल : ऋषि अत्रि से आत्रेय वंश चला। आत्रेय कुल की कई शाखाएं हैं। इस बारे में विस्तार से जानने के लिए मत्स्य पुराण पढ़ें। आत्रेय नाम की शाखाओं को छोड़कर यहां अन्य कुल की बात करते हैं। अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा (पुरुवस) का जन्म हुआ। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पुरुवस को ऐल भी कहा जाता था। पुरुवस का विवाह उर्वशी से हुआ जिससे उसको आयु, वनायु, शतायु, दृढ़ायु, घीमंत और अमावसु नामक पुत्र प्राप्त हुए। अमावसु एवं वसु विशेष थे। अमावसु ने कान्यकुब्ज नामक नगर की नींव डाली और वहां का राजा बना। आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके 5 पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृदशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। प्रथम नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिसमें ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे। यति के बारे में फिर कभी। अभी तो जानिए ययाति के बारे में।
 
अमावसु ने पृथक वंश चलाया जिसमें क्रमश: 15 प्रमुख लोग हुए। इनमें कुशिक (कुशश्च), गाधि, ऋषि विश्वामित्र, मधुच्छंदस आदि हुए। नय के पश्‍चात इस वंश का उल्लेख नहीं मिलता। इस वंश में एक अजमीगढ़ राजा का उल्लेख मिलता है जिससे आगे चलकर इस वंश का विस्तार हुआ।
 
ययाति प्रजापति ब्रह्मा की पीढ़ी में हुए थे। ययाति ने कई स्त्रियों से संबंध बनाए थे इसलिए उनके कई पुत्र थे, लेकिन उनकी 2 पत्नियां देवयानी और शर्मिष्ठा थीं। देवयानी गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तो शर्मिष्ठा दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री थीं। पहली पत्नी देवयानी के यदु और तुर्वसु नामक 2 पुत्र हुए और दूसरी शर्मिष्ठा से द्रुहु, पुरु तथा अनु हुए। ययाति की कुछ बेटियां भी थीं जिनमें से एक का नाम माधवी था। 
 
ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। एक समय ऐसा था, जब 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।
 
ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पश्चिम में पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भू-मंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। ययाति के राज्य का क्षे‍त्र अ‍फगानिस्तान के हिन्दूकुश से लेकर असम तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था।
 
महाभारत आदिपर्व 95 के अनुसार यदु और तुर्वशु मनु की 7वीं पीढ़ी में हुए थे (मनु-इला-पुरुरवा-आयु-नहुष-ययाति-यदु-तुर्वशु)। महाभारत आदिपर्व 75.15-16 में यह भी लिखा है कि नाभानेदिष्ठ मनु का पुत्र और इला का भाई था। नाभानेदिष्ठ के पिता मनु ने उसे ऋग्वेद दशम मंडल के सूक्त 61 और 62 का प्रचार करने के लिए कहा।
 
1. पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए। उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। पुरु के वंश में ही अर्जुन पुत्र अभिमन्यु हुए। इसी वंश में आगे चलकर परीक्षित हुए जिनके पुत्र थे जन्मेजय।
 
2. यदु का वंश : यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। यदु के 4 पुत्र थे- सहस्रजीत, क्रोष्टा, नल और रिपुं। सहस्रजीत से शतजीत का जन्म हुआ। शतजीत के 3 पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय से धर्म, धर्म से नेत्र, नेत्र से कुन्ति, कुन्ति से सोहंजि, सोहंजि से महिष्मान और महिष्मान से भद्रसेन का जन्म हुआ। 
 
3. तुर्वसु का वंश : तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करंधम और करंधम का पुत्र हुआ मरूत। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरुवंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था, परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।
 
महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। पहले ये क्षत्रिय थे, लेकिन छत्रिय कर्म छोड़न के बाद इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। महाभारत युद्ध में ये कौरवों के साथ थे। इससे पूर्व दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने इन्हें पराजित किया था।
 
4. अनु का वंश : अनु को ऋ‍ग्वेद में कहीं-कहीं आनव भी कहा गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह कबीला परुष्णि नदी (रावी नदी) क्षेत्र में बसा हुआ था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे।
 
अनु के पुत्र सभानर से कालानल, कालानल से सृन्जय, सृन्जय से पुरन्जय, पुरन्जय से जन्मेजय, जन्मेजय से महाशाल, महाशाल से महामना का जन्म हुआ। महामना के 2 पुत्र उशीनर और तितिक्षु हुए। उशीनर के 5 पु‍त्र हुए- नृग, कृमि, नव, सुव्रत, शिवि (औशीनर)। इसमें से शिवि के 4 पुत्र हुए केकय, मद्रक, सुवीर और वृषार्दक। महाभारत काल में इन चारों के नाम पर 4 जनपद थे।
 
5. द्रुह्यु का वंश : द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे। बाद में द्रुह्युओं को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए।
 
ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के 100 पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए।
 
* यदु और तुर्वस को दास कहा जाता था।यदु और तुर्वस के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे। तुर्वस और द्रुह्यु से ही यवन और मलेच्छों का वंश चला। इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। माना जाता है कि यहुदियों के जो 12 कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था। हालांकि यह शोध का विषय है।
 
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भृगु कुल : भृगु से भार्गव, च्यवन, और्व, आप्नुवान, जमदग्नि, दधीचि आदि के नाम से गोत्र चले। यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। ये विष्णु के श्वसुर और शिव के साढू थे। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है। पारसी धर्म के लोगों को अत्रि, भृगु और अंगिरा के कुल का माना जाता है। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना गया है। पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है।
 
(ब्रह्मा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र ऋषि सारस्वत थे। एक मान्यता अनुसार पुरूरवा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र सरस्वान थे। समस्त सारस्वत जाती का मूल ऋषि सारस्वत है। कुछ लोगों अनुसार दधीचि के पुत्र सारस्वत ऋषि थे। दधीचि के पिता ऋषि भृगु थे और भृगु के पिता ब्रह्मा। एक अन्य मान्यता अनुसार इंद्र ने 'अलंबूषा' नाम की एक अप्सरा को दधीचि का तप भंग करने के लिए भेजा। दधीचि इस समय देवताओं का तर्पण कर रहे थे। सुन्दरी अप्सरा को वहाँ देखकर उनका वीर्य रुस्खलित हो गया। सरस्वती नदी ने उस वीर्य को अपनी कुक्षी में धारण किया तथा एक पुत्र के रूप में जन्म दिया, जो कि 'सारस्वत' कहलाया।)
 
मान्यता है कि अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। जरथुस्त्र ने इस धर्म को एक व्यवस्था दी तो इस धर्म का नाम 'जरथुस्त्र' या 'जोराबियन धर्म' पड़ गया।
 
महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। इसका मतलब ख्याति उनकी भतीजी थी। दक्ष की दूसरी कन्या सती से भगवान शंकर ने विवाह किया था। ख्याति से भृगु को 2 पुत्र दाता और विधाता मिले और 1 बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था।
 
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। पुराणों में कहा गया है कि इन्हीं से भृगु वंश आगे बढ़ा। भृगु ने ही भृगु संहिता की रचना की। उसी काल में उनके भाई स्वायंभुव मनु ने मनु स्मृति की रचना की थी। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
 
भृगु ऋषि के 3 प्रमुख पुत्र थे उशना, शुक्र एवं च्यवन। उनमें से शुक्र एवं उनका परिवार दैत्यों के पक्ष में शामिल होने के कारण नष्ट हो गया। इस प्रकार च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की वृद्धि की। महाभारत में च्यवन ऋषि का वंश क्रम इस प्रकार है। च्यवन (पत्नी मनुकन्या आरुषी), और्व, और्व से ऋचीक, ऋचीक से जमदग्नि, जमदग्नि से परशुराम। भृगु ऋषि के पुत्रों में से च्यवन ऋषि एवं उसका परिवार पश्चिम हिन्दुस्तान में आनर्त देश से संबंधित था। उशनस् शुक्र उत्तर भारत के मध्य भाग से संबंधित था। इस वंश ने नि‍म्नलिखित व्यक्ति प्रमुख माने जाते हैं- ऋचीक और्व, जमदग्नि, परशुराम, इन्द्रोत शौनक, प्राचेतस और वाल्मीकि। वाल्मीकि वंश के कई लोग आज ब्राह्मण भी हैं और शूद्र? भी। ऐसा कहा जाता है कि मुगलकाल में जिन ब्राह्मणों ने मजबूरीवश जनेऊ भंग करके उनका मैला ढोना स्वीकार किया उनको शूद्र कहा गया। जिन क्षत्रियों को शूद्रों के ऊपर नियुक्त किया गया उन्हें महत्तर कहा गया, जो बाद में बिगड़कर मेहतर हो गया।
 
भार्गव वंश में अनेक ब्राह्मण ऐसे भी थे, जो कि स्वयं भार्गव न होकर सूर्यवंशी थे। ये ब्राह्मण 'क्षत्रिय ब्राह्मण' कहलाए। इमें निम्नलिखित लोग शामिल हैं जिनके नाम से आगे चलकर वंश चला। 1. मत्स्य, 2. मौद्गलायन, 3. सांकृत्य, 4. गाग्यावन, 5. गार्गीय, 6. कपि, 7. मैत्रेय, 8. वध्रश्च, 9. दिवोदास। -(मत्स्य पुराण 149.98.100)। क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सम्मिलित हुआ, वह भरतवंशी राजा दिवोदास का पुत्र मित्रयु था। मित्रयु के वंशज मैत्रेय कहलाए और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ। भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। खैर...। 
 
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान विष्णु को शाप देते हैं कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गंगा तट पर आ जाते हैं तथा तमसा नदी का निर्माण करते हैं। 
 
धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय अंगिरा को देते है। भृगु ने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को प्रज्वलित किया जा सकता है और किस तरह हम अग्नि का उपयोग कर सकते हैं इसीलिए उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि मान लिया गया। भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की थी। उन्होंने संजीवनी बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को जिंदा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परंपरागत रूप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। भृगु की संतान होने के कारण ही उनके कुल और वंश के सभी लोगों को भार्गव कहा जाता है। हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य भी भृगुवंशी थे।
 
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अंगिरा वंश : अंगिरा की पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतांतर से श्रद्धा) थीं। अंगिरा के 3 प्रमुख पुत्र थे। उतथ्य, संवर्त और बृहस्पति। ऋग्वेद में उनका वंशधरों का उल्लेख मिलता है। इनके और भी पुत्रों का उल्लेख मिलता है- हविष्यत्‌, उतथ्य, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास और मार्कंडेय। भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) इनकी 7 कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। जांगीड़ ब्राह्मण नाम के लोग भी इनके कुल के हैं। 
अंगिरा देव को ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या ये तीनों विवाही गईं। सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव, उतथ्य और उशिर ये 5 पुत्र जन्मे। पथ्या के गर्भ से विष्णु, संवर्त, विचित, अयास्य, असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा ये 7 पुत्र जन्मे। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज आदि नाम से 3 पुत्र हुए। ये ऋषि पुत्र रथकार में कुशल थे। उल्लेखनीय है कि महाभारत काल में रथकारों को शूद्र माना गया था। कर्ण के पिता रथकार ही थे। इस तरह हर काल में जातियों का उत्थान और पतन कर्म के आधार पर होता रहा हैै।
 
ऋषि बृहस्पति : अंगिरा के पुत्रों को आंगिरस कहा गया। आंगिरस ये अंगिरावंशी देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। इनके 2 भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्ववेद के कर्ता हैं, ये भी आंगिरस हैं। महर्षि अंगिरा के सबसे ज्ञानी पुत्र ऋषि बृहस्पति थे। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।
 
भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भारद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थीं रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित समाज के लोग भारद्वाज गोत्र लगाते हैं। वे सभी भारद्वाज कुल के हैं।
 
अन्य आंगिरस : आंगिरस नाम के एक ऋषि और भी थे जिन्हें घोर आंगिरस कहा जाता है और जो कृष्ण के गुरु भी कहे जाते हैं। कहते हैं कि भृगु वंश की एक शाखा ने आंगिरस नाम से एक स्वतंत्र वंश का रूप धारण कर लिया अत: शेष भार्गवों ने अपने को आंगिरस कहना बंद कर दिया।
 
आंगिरस ऋषि के द्वारा स्थापित किए गए इस वंश की जानकारी ब्रह्मांड, वायु एवं मत्स्य पुराण में मिलती है। इस जानकारी के अनुसार इस वंश की स्थापना अथर्वन अंगिरस के द्वारा की गई थी। इस वंश की प्रमुख रूप से 7 ऋषियों ने वृद्धि की, जो क्रमश: इस प्रकार हैं-
 
1. अवास्य अंगिरस (हरीशचन्द्र के समकालीन), 2. उशिज अंगिरस एवं उनके 3 पुत्र उचथ्य, बृहस्पति एवं संवर्त, जो वैशाली के करंधम, अविक्षित् एवं मरुत्त आविक्षित राजाओं के पुरोहित थे। 3. दीर्घतमस् एवं भारद्वाज, जो क्रमश: उचथ्‍य एवं बृहस्पति के पुत्र थे। इनमें से भारद्वाज ऋषि काशी के दिवोदास (द्वितीय) राजा के राजपुरोहित थे। दीर्घतमस् ऋषि ने अंगे देश में गौतम शाखा की स्थापना की थी। 4. वामदेव गौतम, 5. शरद्वत् गौतम, जो उत्तर पांचाल के दिवोदास राजा के अहल्या नामक बहन के पति थे। 6. कक्षीवत् दैर्घतमस औशिज, 7. भारद्वाज, जो उत्तर पांचाल के पृषत् राजा के समकालीन थे।
 
आंगिरसों का कुल : आंगिरसों के कुल में अनेक ऐसे ऋषि और राजा हुए जिन्होंने अपने नाम से या जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली, जैसे देवगुरु बृहस्पति, अथर्ववेद कर्ता अथर्वागिरस, महामान्यकुत्स, श्रीकृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरु घोर आंगिरस मुनि। भरताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम, वामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य (श्रीराम के नाना), पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल, आश्वलायन (शाखा प्रवर्तक), आग्निवेश (वैद्य) पैल मुनि पिल्हौरे माथुर (इन्हें वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया), गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह (मथुरावासी मुनि), श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरु, कारीरथ (विमान शिल्पी) कुसीदकि (ब्याज खाने वाले) दाक्षि (पानिणी व्याकरणकर्ता के पिता), पतंजलि (पानिणी अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु (स्वायम्भु मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि (ब्राह्मणों को भूयसि दक्षिणा बांटने की परंपरा के प्रवर्तक), महर्षि गालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति (गौरहे ठाकुरों के आदिपुरुष), तन्डी (शिव के सामने तांडव नृत्यकर्ता रुद्रगण), तैलक (तैलंग देश तथा तैलंग ब्राह्मणों के आदिपुरुष), नारायणि (नारनौल खंड बसाने वाले), स्वायम्भु मनु (ब्रह्मर्षि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदिमानव धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगलनाग (वैदिक छंदशास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री (जव्यवान) के तथा पांडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा वात्स्यायन (स्याजानी औराद दक्षिण देश के कामसूत्र कर्ता), हंडिदास (कुबेर के अनुचर ऋण वसूल करने वाले हुंडीय यक्ष हूणों के पूर्वज), बृहदुक्थ (वेदों की उक्थ भाषा के विस्तारक भाषा विज्ञानी), वादेव (जनक के राजपुरोहित), कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे), विष्णु सिद्ध (खाद्यात्र) (काटि कोठारों के सुरक्षाधिकारी), मुद्गल (मुदगर बड़ी गदा) धारी, अग्नि जिव्ह (अग्नि मंत्रों को जिव्हाग्र रखने वाले), देव जिव्ह (इन्द्र के मं‍त्रों के जिव्हाग्र धार), हंस जिव्ह (प्रजापिता ब्रह्मा के मंत्रों के जिव्हाग्र धारक), मत्स्य दग्ध (मछली भूनने वाले), मृकंडु मार्कंडेय, तित्तिरि (तीतर धर्म से याज्ञवल्क्य मुनि के वमन किए कृष्ण्यजु मंत्रों को ग्रहण करने वाले तैतरेय शाखा के ब्राह्मण), ऋक्ष जामवंत, शौंग (शुंगवन्शीतथा माथुर सैगंवार ब्राह्मण), दीर्घतमा ऋषि (दीर्घपुर डीगपुर ब्रज के बदरी वन में तप करने वाले), हविष्णु (हवसान अफ्रीका देश की हवशी प्रजाओं के आदिपुरुष), अयास्य मुनि (अयस्क लौह धातु के आविष्कर्ता), कितव (संदेशवाहक पत्र लेखक किताब पुस्तकें तैयार करने वाले देवदूत), कण्व ऋषि (ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के कणवी जाति के पुरुष) आदि हजारों का आंगिरस कुल में जन्म हुआ। 
 
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वशिष्ठ ऋषि वंश : बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित समाज के लोग वशिष्ठ गोत्र लगाते हैं। वे सभी वशिष्ठ कुल के हैं। वशिष्ठ नाम से कालांतकर में कई ऋषि हो गए हैं। एक वशिष्ठ ब्रह्मा के पुत्र हैं, दूसरे इक्क्षवाकु के काल में हुए, तीसरे राजा हरिशचंद्र के काल में हुए और चौथे राजा दिलीप के काल में और पांचवें राजा दशरथ के काल में हुए। 
 पहले ब्रह्मा के मानस पुत्र, दूसरे मित्रावरुण के पुत्र, तीसरे अग्नि के पुत्र कहे जाते हैं।
वशिष्ठ की पत्नी का नाम अरुंधती देवी था। कामधेनु और सूर्यवंश की पुरोहिताई के कारण उनका ऋषि विश्वामित्र से झगड़ा हुआ था। विश्वामित्र ययाति कुल से थे। वशिष्ठ के 100 से ज्यादा पुत्र थे।
अयोध्या के राजपुरोहित के पद पर कार्यरत ऋषि वशिष्ठ की संपूर्ण जानकारी वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग पुराण में मिलती है। इस ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावली मत्स्य पुराण में दर्ज है। इस वंश में क्रमश: प्रमुख लोग हुए- 1. देवराज, 2. आपव, 3. अथर्वनिधि, 4. वारुणि, 5. श्रेष्ठभाज्, 6. सुवर्चस्, 7. शक्ति और 8. मैत्रावरुणि। एक अल्प शाखा भी है, जो जातुकर्ण नाम से है।
 
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विश्वकर्मा वंश : विश्वकर्मा वंश कहीं-कहीं भृगु कुल से और कहीं अंगिरा कुल से संबंध रखते हैं। इसका कारण है कि हर कुल में अलग-अलग विश्वकर्मा हुए हैं। हमारे देश में विश्वकर्मा नाम से एक ब्राह्मण समाज भी है, जो विश्वकर्मा समाज के नाम से मौजूद है। जांगीड़ ब्राह्मण, सुतार, सुथार और अन्य सभी शिल्पी निर्माण कला एवं शास्त्र ज्ञान में पारंगत होते हैं। यह ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ समाज है क्योंकि ये निर्माता हैं।
शिल्पज्ञ, विश्वकर्मा ब्राह्मणों को प्राचीनकाल में रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पांचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों से संबोधित किया जाता था। उस समय आजकल के सामान लोहाकार, काष्ठकार, सुतार और स्वर्णकारों जैसे जाति भेद नहीं थे। प्राचीन समय में शिल्प कर्म बहुत ऊंचा समझा जाता था और सभी जाति, वर्ण समाज के लग ये कार्य करते थे।
 
विश्वकर्माSभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराSतनुः। त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस।।
 
अर्थ : प्रत्यक्ष आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों में निपुण था।
 
प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्मा हुए हैं। यहां बात करते हैं प्रथम विश्वकर्मा की जो वास्तुदेव और अंगिरसी के पुत्र थे। विश्वकर्मा के प्रमुख 5 पुत्र थे- मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ। 
 
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अगस्त्य वंश : ऋषि अगसत्य वशिष्ठ के भाई थे। ऋषि अगस्त्य के वंशजों को अगस्त्य वंशी कहा गया है। ऋषि वशिष्ठ के समान यह भी मित्रावरूणी के पुत्र हैं। कुछ लोग इन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानते हैं। हालांकि ये भगवान शंकर से सबसे श्रेष्ठ 7 शिष्यों में से एक थे। इनकी गणना भी सप्त ऋषियों में की जाती है। इनकी पत्नी का नाम लोपमुद्रा था। अगस्त्य की पत्नी लोकामुद्रा विदर्भराज निमि की कन्या थी। ऋग्वेद में इनका उल्लेख मिलता है। 
 
ऋषि अगस्त्य ने ही इन्द्र और मरुतों में संधि करवाई थी। अगस्त्य ऋषि ने ही विद्यांचल की पहाड़ी में से दक्षिण भारत में पहुंचने का रास्ता बनाया था। महर्षि अगस्त्य समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से देवताओं को मुक्ति दिलाने हेतु सारा समुद्र पी गए थे। इसी प्रकार इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने ही बंद करवाया था। दक्षिण भारत में ऋषि अगस्त्य सर्वाधिक पू्ज्यनीय हैं। श्रीराम अपने वनवास काल में ऋषि अगस्त्य के आश्रम में पधारे थे।
 
अगस्त्य वंश के गोत्रकार करंभ (करंभव) कौशल्य, क्रतुवंशोद्भव, गांधारकावन, पौलस्त्य, पौलह, मयोभुव, शकट (करट), सुमेधस ये गोत्रकार अगस्त्य, मयोभुव तथा महेन्द्र इन 3 प्रवरों के हैं। अगस्त्य, पौर्णिमास ये गोत्रकार अगस्त्य, पारण, पौर्णिमास इन 3 प्रवरों के हैं। 
 
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कौशिक वंश : ऋग्वेद के तृतीय मंडल में 30वें, 33वें तथा 53वें सूक्त में महर्षि विश्वामित्र का वर्णन मिलता है। वहां से ज्ञान होता है कि ये कुशिक गोत्रोत्पन्न कौशिक थे। कहते हैं कि ये कौशिक लोग सारे संसार का रहस्य जानते थे।

हालांकि खुद विश्वामित्र तो कश्यप वंशी थे इसलिए कौशिक या कुशिक भी कश्यप वंशी हुए। कश्यप वंश का विवरण हम ऊपर दे आए हैं। कुशिक तो विश्वामित्र के दादा थे। च्यवन के वंशज ऋचीक ने कुशिक पुत्र गाधि की पुत्री से विवाह किया जिससे जमदग्नि पैदा हुए। उनके पुत्र परशुराम हुए।
 
प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे। कहते हैं कि कौशिक ऋषि कुरुक्षेत्र के निवासी थे।
 
अगले पन्ने पर दसवां प्राचीन वंश... 
 

भारद्वाज वंश : भारद्वाज गोत्र आपको सभी जाति, वर्ण और समाज में मिल जाएगा। प्राचीन काल में भारद्वाज नाम से कई ऋषि हो गए हैं। लेकिन हम बात कर रहे हैं ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा जिन्होंने 765 मंत्र लिखे हैं। वैदिक ऋषियों में भारद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है।
अंगिरावंशी भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि का अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश भी अंगिरा का वंश कहलाएगा। ऋषि भारद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमानशास्त्र की आज भी चर्चा होती है।
 
चरक ऋषि ने भारद्वाज को 'अपरिमित' आयु वाला कहा है। भारद्वाज ऋषि काशीराज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं ने यज्ञ संपन्न कराया था। वनवास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का संधिकाल था। उक्त प्रमाणों से भारद्वाज ऋषि को अपरिमित वाला कहा गया है।
 
भारद्वाज के पिता देवगुरु बृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भारद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग वंश चले। बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित समाज के लोग भारद्वाज कुल के हैं।
 
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गर्ग वंश : बहुत से लोगों का गोत्र गर्ग है और बहुत से लोगों का उपनाम गर्ग है। सभी का संबंध गर्ग ऋषि से है। वैदिक ऋषि गर्ग आंगिरस और भारद्वाज के वंशज 33 मंत्रकारों में श्रेष्ठ थे। गर्गवंशी लोग ब्राह्मणों और वैश्यों (बनिये) दोनों में मिल जाएंगे। एक गर्ग ऋषि महाभारत काल में भी हुए थे, जो यदुओं के आचार्य थे जिन्होंने 'गर्ग संहिता' लिखी।
 
ब्राह्मण पूर्वजों की परंपरा को देखें तो गर्ग से शुक्ल, गौतम से मिश्र, श्रीमुख शांडिल्य से तिवारी या त्रिपाठी वंश प्रकाश में आता है। गर्ग ऋषि के 13 लड़के बताए जाते हैं जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल वंशज कहा जाता है, जो 13 गांवों में विभक्त हो गए थे। यह कहना की गोत्र और ऋषि तो सिर्फ ब्राह्मणों के ही है गलत होगा। इन सभी ऋषियों से दलित समाज का भी जन्म हुआ है। इनकी एक शाखा दलितों में मिलती है तो दूसरी क्षत्रिय और वैश्यों में।
 
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गौतम वंश : भगवान बुद्ध को भी कुछ लोग गौतम वंशी मानते हैं। हालांकि इस वंश में ब्राह्मण और क्षत्रियों के समूह सहित कई दलितों के समूह भी विकसित हुए। बहुत से शाक्यवंशी गौतम बुद्द को शाक्यवंशी मानते हैं जो कि सही नहीं है। गौतम बुद्ध ने शाक्यों को सबसे ज्यादा दीक्षित किया था इसीलिए शाक्यों में उनकी प्रतिष्ठा ज्यादा है। खैर...विश्वामित्र और वशिष्ठ के समकालीन महर्षि गौतम न्याय दर्शन के प्रवर्तक भी थे। उन्हें अक्षपाद गौतम के नाम से भी जाना जाता है। 
 
गौतम ऋषि की पत्नी का नाम अहिल्या था। इन्द्र द्वारा छलपूर्वक किए गए अहिल्या के शीलहरण की कथा सभी जानते होंगे। इसके बाद ऋषि ने उसे शिल्ला बन जाने का शाप दे दिया था। त्रेतायुग में अवतार लेकर जब श्रीराम ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुंचे तो वहां उन्होंने गौतम ऋषि का आश्रम भी देखा। वहीं राम के चरण स्पर्श से अहिल्या शाप मुक्त होकर पुनः मानवी बन गईं।
 
गौतम ऋषि के 6 पुत्र बताए जाते हैं, जो बिहार के इन 6 गांवों के वासी थे- चंचाई, मधुबनी, चंपा, चंपारण, विडरा और भटियारी। इसके अलावा उप गौतम यानी गौतम के अनुकारक 6 गांव भी हैं, जो इस प्रकार हैं- कालीडीहा, बहुडीह, वालेडीहा, भभयां, पतनाड़े और कपीसा। इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाती है। गौतम ऋषियों के वंशज ने बिहार से बाहर निकलक भी अपने वंश का विस्तार किया था।
 
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पराशर वंश : शक्ति के पुत्र पराशर मुनि महर्षि वशिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के दृष्टा और ग्रंथकार हैं। ऋषि पराशर के पिता का देहांत इनके जन्म के पूर्व हो चुका था अतः इनका पालन-पोषण इनके पितामह वशिष्ठजी ने किया था। इनकी माता का नाम अदृश्यंति था, जो कि उथ्त्य मुनि की पुत्री थी।
 
पराशर के पुत्र ही कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) थे जिन्होंने 'महाभारत' लिखी थी। सत्यवती जब कुंवारी थी, तब वेदव्यास ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। बाद में सत्यवती ने हस्तिनापुर महाराजा शांतनु से विवाह किया था। शांतनु के पुत्र भीष्म थे, जो गंगा के गर्भ से जन्मे थे।
 
सत्यवती के शांतनु से 2 पुत्र हुए चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद युद्ध में मारा गया जबकि विचित्रवीर्य का विवाह भीष्म ने काशीराज की पुत्री अम्बिका और अम्बालिका से कर दिया, लेकिन विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हो रही थी तब चिंतित सत्यवती ने अपने पराशर मुनि से उत्पन्न पुत्र वेदव्यास को बुलाया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी कि अम्बिका और अम्बालिका को कोई पुत्र मिले। अम्बिका से धृतराष्ट्र और अ‍म्बालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी से विदुर का। इस तरह देखा जाए तो पराशर मुनि के वंश की एक शाखा यह भी थी।
 
धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी थी जिनके 100 पुत्र थे। दासी पुत्र विदुर की पत्नी यदुवंशी थी जिसका नाम सुलभा था। पांडु का वंश नहीं चला। पांडु की 2 पत्नियां कुंती और माद्री थीं। 
 
पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के ऊपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे। ज्योतिष के होरा, गणित और संहिता 3 अंग हुए जिसमें होरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है। ऋषि पराशर के विद्वान शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तुमुनि और रोम हर्षण थे।
 
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कात्यायन वंश : ऋषि कात्यायन की पुत्री ही कात्यायनी थीं। यह नवदुर्गा में से एक देवी कात्यायनी है। कात्यायन ऋषि को विश्वामित्रवंशीय कहा गया है।
स्कंदपुराण के नागर खंड में कात्यायन को याज्ञवल्क्य का पुत्र बतलाया गया है। उन्होंने 'श्रौतसूत्र', 'गृह्यसूत्र' आदि की रचना की थी। हम ऊपर विश्वामित्र और उनके वंश के बारे में लिख आए हैं, जो एक मैत्रेय गोत्र आता है वह भी विश्वामित्र से संबंधित है।
 
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शाण्डिल्य वंश : शाण्डिल्य मुनि कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र थे। वे स्मृति के परिचित रचयिताओं शंख और लिखित के पिता भी हैं। हालांकि शाण्डिल्य के 12 पुत्र बताए गए हैं जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली। महर्षि कश्यप के पुत्र असित, असित के पुत्र देवल मंत्र दृष्टा ऋषि हुए। इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न हुए। मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत विवरण मिलता है। 
 
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है। उन्हें त्रेतायुग में राजा दिलीप का राजपुरोहित बताया गया है, वहीं द्वापर में वे पशुओं के समूह के राजा नंद के पुजारी हैं। एक समय में वे राजा त्रिशंकु के पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह के साथ वार्तालाप करते हुए दिखाए गए हैं। कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। इसके साथ ही वस्तुत: शाण्डिल्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति है लेकिन कालांतार में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुईं जैसे वशिष्ठ, विश्‍वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं। 
 
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धौम्य वंश : देवल के भाई और पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि, जो महाभारत के अनुसार व्यघ्रपद नामक ऋषि के पुत्र थे, शिव की तपस्या करके ये अजर, अमर और दिव्य ज्ञान संपन्न हो गए थे। धौम्य के आरुणि, उपमन्यु और वेद नामक 3 शिष्य थे।
आरूणि उद्दालक की कथा जगत प्रसिद्ध है। धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था। धौम्य कश्यप के वंश के थे। धौम्य वंश में लायसे, भरतवार, घरवारी, तिलमने, शुक्ल, व्रह्मपुरि, आत्मोती, मौरे, चंदपेरखी आदि अनेक नाम से गोत्र नाम हुए।
 
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दक्ष वंश : पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे, जो कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। प्रजापति दक्ष की 2 पत्नियां थीं- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। सभी की अलग-अलग कहानियां हैं।
 
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियों में से 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। इसके अलावा धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। महर्षि कश्यप से दक्ष ने अपनी 13 कन्याओं का विवाह किया। इसके अलावा बची 9 कन्याओं का विवाह- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से किया।
 
पुराणों की एक अन्य मान्यता के अनुसार दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्याएं हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर भी बन गए। उन्होंने स्वाहा पुत्री का विवाह अग्निदेव से किया। उनको सबसे छोटी पुत्री सती थी, जो त्र्यंबक रुद्रदेव को ब्याही गई। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गई है।
 
दक्ष के पुत्रों की दास्तान : सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से 10 सहस्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन्होंने कोई विवाह नहीं किया। वे सभी ब्रह्मचारी रहे।
 
दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया- 'तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे।' 
 
इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग् 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग् 10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चितस्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला। -(विष्णु पुराण 4.1.14)
 
दक्ष गोत्र के प्रवर- गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सम्मानित या यशस्वी पुरुष होते हैं, वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के गोत्रकार के अतिरिक्त और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के 3 प्रवर हैं- 1. आत्रेये, 2. गाविष्ठर व 3. पूर्वातिथि।
 
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वत्स/वात्स्यायन वंश : वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे। भारत के प्राचीनकालीन 16 जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था। वत्स साम्राज्य गंगा-यमुना के संगम पर इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स को 'वंश' और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में 'वच्छ' कहा जाता था। चतुर्भुज चौहान वंशी भी वत्स वंश से हैं। वत्स वंश अग्निवंश से भी संबंध रखता है। 
 
एक कथा के अनुसार महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या के पुत्र राजकुमार दधीचि की 2 पत्नियां सरस्वती और अक्षमाला थीं। सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा वत्स। युगोपरांत कलयुग आने पर वत्स वंश संभूत ऋषियों ने 'वात्स्यायन' उपाधि भी रखी। कालक्रमेण कलयुग के आने पर वत्स कुल में कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए। कुबेर के 4 पुत्र- अच्युत, ईशान, हर और पाशुपत हुए। पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए। अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु, हंस, शुचि आदि हुए जिनमें अष्टम थे चित्रभानु। चित्रभानु के वाण हुए। यही वाण बाद में वाणभट्ट कहलाए। 

भृगु के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व, ओर्व के ऋचीक, ऋचिक के जमदग्नि हुए। इसी वंश में आगे चलकर ऋषि वत्स हुए। इन्होंने अपना खुद का वंश चलाया इसलिए इनके कुल के लोग वत्स गोत्र रखते हैं।
 
वत्स गोत्र में कई उपाधियां थीं यथा- बालिगा, भागवत, भैरव, भट्ट, दाबोलकर, गांगल, गार्गेकर, घाग्रेकर, घाटे, गोरे, गोवित्रीकर, हरे, हीरे, होले, जोशी, काकेत्कर, काले, मल्शे, मल्ल्या, महालक्ष्मी, नागेश, सखदेव, शिनॉय, सोहोनी, सोवानी, सुग्वेलकर, गादे, रामनाथ, शंथेरी, कामाक्षी आदि। 
 
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चित्रगुप्त वंश : चित्रगुप्त के बारे में सभी जानते होंगे। चित्रगुप्त यमराज के यमलोक में न्यायालय के लेखक हैं। ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने के कारण इन्हें 'कायस्थ' भी कहा जाता है। कायस्थ समाज के लोग ब्राह्मण वर्ग में श्रेष्ठ होते हैं। गरूड़ पुराण में यमलोक के निकट ही चित्रलोक की स्थिति बताई गई है। कायस्थ समाज के लोग भाईदूज के दिन श्री चित्रगुप्त जयंती मनाते हैं। इस दिन पर वे कलम-दवात पूजा (कलम, स्याही और तलवार पूजा) करते हैं जिसमें पेन, कागज और पुस्तकों की पूजा होती है। यह वह दिन है, जब भगवान श्री चित्रगुप्त का उद्भव ब्रह्माजी के द्वारा हुआ था।
चित्रगुप्त के अम्बष्ट, माथुर तथा गौड़ आदि नाम से कुल 12 पुत्र हुए। मतांतर से चित्रगुप्त के पिता मित्त नामक कायस्थ थे। इनकी बहन का नाम चित्रा था। पिता के देहावसान के उपरांत प्रभास क्षेत्र में जाकर सूर्य की तपस्या की जिसके फल से इन्हें ज्ञान हुआ। वर्तमान समय में कायस्थ जाति के लोग चित्रगुप्त के ही वंशज कहे जाते हैं।
 
कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्यभारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। कायस्थों को मूलत: 12 उपवर्गों में विभाजित किया गया है। यह 12 वर्ग श्री चित्रगुप्त की पत्नियों देवी शोभावती और देवी नंदिनी के 12 सुपुत्रों के वंश के आधार पर है। भानु, विभानु, विश्वभानु, वीर्यभानु, चारु, सुचारु, चित्र (चित्राख्य), मतिभान (हस्तीवर्ण), हिमवान (हिमवर्ण), चित्रचारु, चित्रचरण और अतीन्द्रिय (जितेंद्रिय)।
 
उपरोक्त पुत्रों के वंश अनुसार कायस्थ की 12 शाखाएं हो गईं- श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीकि, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण और कुलश्रेष्ठ। श्री चित्रगुप्तजी के 12 पुत्रों का विवाह नागराज वासुकि की 12 कन्याओं से हुआ जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंशी मानी जाती है। माता नंदिनी के 4 पुत्र कश्मीर में जाकर बसे तथा ऐरावती एवं शोभावती के 8 पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, ओडिशा तथा बंगाल में जा बसे। बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था। 
 
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पुलस्त्य, पुलह एवं क्रतु का वंश : कर्दम प्रजापति की कन्या हविर्भुवा से पुलस्त्य का विवाह हुआ था। इन्हें दक्ष का दामाद और शंकर का साढू भी बताया गया है। दक्ष के यज्ञ ध्वंस के समय ये जलकर मर गए थे। वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के सभी मानस पुत्रों के साथ पुलस्त्य का भी पुनर्जन्म हुआ था।
वैशाली के राजा की कन्या इडविला का पुलस्त्य से विवाह हुआ और उसने विश्वश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया। विश्वश्रवा पश्चिम नर्मदा के किनारे रहते थे। इस विश्वश्रवा के पुत्र ही रावण थे। पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से निवेदन करके लंका में अपना एक तप स्थान नियुक्त किया था, तब राजा महिदंत चक्रवर्ती राजा थे। ब्रह्माजी की आज्ञा से पुलस्त्य ऋषि ने भीष्म को ज्ञान दिया था। 
 
पुलस्त्य ऋषि ने ही गोवर्धन पर्वत को शाप दिया था। गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। 5,000 साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30,000 मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। श्री गोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।
 
कर्दम प्रजापति की कन्या हविर्भुवा से पुलस्त्य का विवाह हुआ था। इन्हें दक्ष का दामाद और शंकर का साढू भी बताया गया है। दक्ष के यज्ञ ध्वंस के समय ये जलकर मर गए थे। वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के सभी मानस पुत्रों के साथ पुलस्त्य का भी पुनर्जन्म हुआ था। 
 
वैशाली के राजा की कन्या इडविला का पुलस्त्य से विवाह हुआ और उसने विश्वश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया। विश्वश्रवा पश्चिम नर्मदा के किनारे रहते थे। इस विश्वश्रवा के पुत्र ही रावण थे। पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से निवेदन करके लंका में अपना एक तप स्थान नियुक्त किया था तब राजा महिदंत चक्रवर्ती राजा थे। ब्रह्माजी की आज्ञा से पुलस्त्य ऋषि ने भीष्म को ज्ञान दिया था। 
 
पुलह ऋषि : विश्व के 16 प्रजापतियों में पुलह ऋषि का भी नाम आता है। इन्होंने महर्षि कर्दम की पुत्रियों तथा दक्ष प्रजापति की 5 बेटियों से विवाह रचाए। उनसे सतानें पैदा कीं। इनकी संतानें अनेक योनि व जातियों की हैं। इनके गुरु सनंदन और इनके शिष्य महर्षि गौतम थे। 
 
क्रतु ऋषि : क्रतु ऋषि भी 16 प्रजापतियों में से एक हैं। दक्ष प्रजापति की पत्नी क्रिया से उत्पन्न पुत्री सन्नति से क्रतु ऋषि ने विवाह किया। इस दंपति से 60,000 'बालखिल्य' नाम के पुत्र भी हुए। इन बालखिल्यों का आकार अंगूठे के बराबर माना जाता है। पुराणों के अनुसार बालखिल्य मुनियों के वरदान से ही महर्षि कश्यप के यहां गरूड़ का जन्म हुआ। यही गरूड़ विष्णु का वाहन बने थे।
 
क्रतु ऋषि ही बाद में वेदव्यास हुए जिनका वर्णन वाराहकल्प में आता है। व्यास एक पदवी है। जो धर्मग्रंथों को फिर से संपादित कर पुनर्जीवित करे, उसे वेदव्यास कहते हैं। महाभारतकाल में जो वेदव्यास थे उनका नाम कृष्ण द्वैपायन था। ध्रुव के आसपास एक तारा चक्कर लगाता है, उसे क्रतु ही कहा जाता है। 
 
राक्षस वंश : वायु पुराण (70.51.65) में राक्षसों को पुलह, पुलस्त्य, कश्यप एवं अगस्त्य ऋषि की संतान माना गया है। दैत्यों में से हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष का स्वतंत्र वंश वर्णन है। पौराणिक साहित्य में असुर (दैत्य), दानव एवं राक्षस जातियों का वर्णन मिलता है, जो सभी कश्यप ऋषि की संतानें हैं।
 
वानर वंश : ब्रह्मांड पुराण में वानरों को पुलह एवं हरिभद्रा की संतान कहा गया है और इनके 11 प्रमुख कुल दिए गए हैं- 1. द्वीपिन्, 2. शरभ, 3. सिंह, 4. व्याघ्र, 5. नील, 6. शल्वक, 7. ऋक्ष, 8. मार्जार, 9. लोभास, 10. लोहास, 11. मायाव।
 
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नारद वंश : ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक नारद मुनि के बारे में सभी जानते हैं। विष्णु के भक्त नारद मुनि को देवर्षि कहा गया है। नारद को बृहस्पति का शिष्य भी माना गया है। वे व्यास, वाल्मीकि और शुकदेव के गुरु थे। वराह पुराण में नारदजी को उनके पूर्व जन्म में सारस्वत नामक एक ब्राह्मण बताया गया है। नारद पुराण में नारदजी के बारे में संपूर्ण जानकारी मिलती है।
नारदजी को विश्व का पहला पत्रकार या पोस्टमैन माना गया है, जो सूचनाओं का आदान- प्रदान करते थे। यह भी कहा जाता है कि वीणा का आविष्कार नारदजी ने ही किया था। नारदजी ने ही गीत और भजन का भी आविष्कार भी किया था। नारदजी के कारण ही प्रभु की भक्ति के भिन्न-भिन्न रूप प्रचलित हुए। नारदजी ने ही दक्ष के 10,000 पुत्रों को भटकाकर वैराग्य धारण करवा दिया था।
 
भारत में ऐसे कई समाज या संप्रदाय हैं, जो खुद को नारद संप्रदाय का मानते हैं। इनमें से कुछ नारायण, निम्बार्क, वल्लभ, माधव, पंचसखा, चैतन्य और वैष्णव संप्रदाय के हैं। विष्णु भक्त से जुड़े सभी संप्रदाय इसी के अंतर्गत आते हैं। हालांकि ये सभी नारद के वंशज हैं, यह एक अलग मसला है।
 
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वणिक कुल : वैसे हम वंशों के बारे में उपर लिख आएं है। यह अतिरिक्त जानकारी है।
एक ही कुल गोत्र का व्यक्ति ब्राह्मण-वैश्य भी हो सकता है। क्षत्रिय भी हो सकता है और दलित भी। जो लोग हिन्दू समाज को चार वर्णों में विभाजित करके देखते हैं वे हिन्दू धर्म के कुल वंश की परंपरा को अच्छे से नहीं जानते। जहां तक सवाल वैश्यों का है तो यह मुख्‍यत: सूर्य और चंद्र वंशों के अलावा ऋषि वंश में विभाजित हैं। इनमें मुख्‍यत: महेश्‍वरी, अग्रवाल, गुप्ता, ओसवाल, पोरवाल, खंडेलवाल, सेठिया, सोनी, आदि का जिक्र होता है।
महेश्वरी समाज का संबंध शिव के रूप महेश्वर से है। यह सभी क्षत्रिय कुल से हैं। शापग्रस्त 72 क्षत्रियों के नाम से ही महेश्वरी के कुल गोत्र का नाम चला। माहेश्वरियों के प्रमुख आठ गुरु हैं- 1. पारीक, 2. दाधीच, 3.गुर्जर गौड़, 4.खंडेलवाल, 5.सिखवाल, 6.सारस्वत, 7.पालीवाल और 8.पुष्करणा।
 
ये 72 उप कुल : आगीवाल, अगसूर, अजमेरा, आसावा, अटल, बाहेती, बिरला, बजाज, बदली, बागरी, बलदेवा, बांदर, बंग, बांगड़, भैय्या, भंडारी, भंसाली, भट्टड़, भट्टानी, भूतरा, भूतड़ा, भूतारिया, बिंदाड़ा, बिहानी, बियानी, चाण्‍डक, चौखारा, चेचानी, छपरवाल, चितलंगिया, दाल्या, दलिया, दाद, डागा, दम्माणी, डांगरा, दारक, दरगर, देवपूरा, धूपर, धूत, दूधानी, फलोद, गादिया, गट्टानी, गांधी, गिलदा, गोदानी, हेडा, हुरकत, ईनानी, जाजू, जखोतिया, झंवर, काबरा, कचौलिया, काहल्या, कलानी, कललंत्री, कंकानी, करमानी, करवा, कसत, खटोड़, कोठारी, लड्ढा, लाहोटी, लखोटिया, लोहिया, मालानी, माल, मालपानी, मालू, मंधाना, मंडोवरा, मनियान, मंत्री, मरदा, मारु, मिमानी, मेहता, मेहाता, मुंदड़ा, नागरानी, ननवाधर, नथानी, नवलखाम, नवल या नुवल, न्याती, पचीसिया, परतानी, पलोड़, पटवा, पनपालिया, पेड़ियावाल, परमाल, फूमरा, राठी, साबू, सनवाल, सारड़ा, शाह, सिकाची, सिंघई, सोडानी, सोमानी, सोनी, तपरिया, ताओरी, तेला, तेनानी, थिरानी, तोशनीवाल, तोतला, तुवानी और जवर।
 
खापें का गोत्र कुल : इसके अलावा सोनी (धुम्रांस), सोमानी (लियांस), जाखेटिया (सीलांस), सोढानी (सोढास), हुरकुट (कश्यप), न्याती (नागसैण), हेडा (धनांस), करवा (करवास), कांकाणी (गौतम), मालूदा (खलांस), सारडा (थोम्बरास), काहल्या (कागायंस), गिरडा (गौत्रम), जाजू (वलांस), बाहेती (गौकलांस), बिदादा (गजांस), बिहाणी (वालांस), बजाज (भंसाली), कलंत्री (कश्यप), चावड़ा (चावड़ा माता), कासट (अचलांस), कलाणी (धौलांस), झंवर (धुम्रक्ष), मनमंस (गायल माता), काबरा (अचित्रांस), डाड़ (अमरांस), डागा (राजहंस), गट्टानी (ढालांस), राठी (कपिलांस), बिड़ला (वालांस), दरक (हरिद्रास), तोषनीवाल (कौशिक), अजमेरा (मानांस), भंडारी (कौशिक), भूतड़ा (अचलांस), बंग (सौढ़ास), अटल (गौतम), इन्नाणी (शैषांश), भराडिया (अचित्र), भंसाली (भंसाली), लड्ढा (सीलांस), सिकची (कश्यप), लाहोटी (कांगास), गदहया गोयल (गौरांस), गगराणी (कश्यप), खटोड (मूगांस), लखोटिया (फफडांस), आसवा (बालांस), चेचाणी (सीलांस), मनधन (जेसलाणी, माणधनी माता), मूंधड़ा (गोवांस), चांडक (चंद्रास), बलदेवा (बालांस), बाल्दी (लौरस), बूब (मूसाइंस), बांगड़ (चूडांस), मंडोवर (बछांस), तोतला (कपिलांस), आगीवाल (चंद्रास), आगसूंड (कश्‍यप), परतानी (कश्यप), नावंधर (बुग्दालिभ), नवाल (नानणांस), तापडिया (पीपलांस), मणियार (कौशिक), धूत (फाफडांस), धूपड़ (सिरसेस), मोदाणक्ष (सांडास), देवपुरा (पारस), मंत्री (कंवलांस), पोरवाल/परवाल (नानांस), नौलखा (कश्‍यप गावंस), टावरी (माकरण), दरगढ़ (गोवंस), कालिया (झुमरंस), खावड (मूंगास), लोहिया, रांदड (कश्यप) आदि। इसके अलावा महेश्वरी समाज की और भी खापें और खन्ने हैं जैसे दम्माणी, करनाणी, सुरजन, धूरया, गांधी, राईवाल, कोठारी, मालाणी, मूथा, मोदी, मोह्त्ता, फाफट, ओझा, दायमा आदि।
 
इसके अलावा मधेशिया, मधेशी, रोनियार, दौसर, कलवार, भंडारी, पटेल, गनिया तेली (कर्नाटक), गनिया गान्दला कर्नाटक, पटवा, माहेश्वरी, चौरसिया, पुरवाल (पोरवाल), सरावगी, ओसवाल, कांदु, माहुरी, सिंदुरिया या कायस्थ बनिया, वाणी महाराष्ट्र और कर्नाटक, ओमर, उनई साहू, कपाली बंगाल, गंध बनिया बंगाल, माथुर, वानिया चेट्टियार तमिलनाडु, केसरवानी, खत्री, बोहरा, कपोल, मोढ्ह, तेलगु, आर्य आंध्र तमिल और कर्नाटक, असाती, रस्तोगी, विजयवर्गी, खंडेलवाल, साहू तेली, अग्रोहा, अग्रसेन, अग्रवाल, लोहाना, महाजन, अरोरा, अग्रहरी, सोनवाल सिहारे, कमलापुरी, घांची, कानू, कोंकणी, गुप्त, गदहया (गोयल) आदि सभी वर्तमान में वैश्य से संबंध रखते हैं। नभागाजी माहेश्वरी वैश्यों के प्राचीन पुरुष हैं। 
 
इसके अलवा कालांतार में व्यापार के आधार पर यह उपनाम रखें गए- अठबरिया, अनवरिया, अरबहरया, अलापुरिया, ओहावार, औरिया, अवध, अधरखी तथा अगराहरी, कसेरे, पैंगोरिया, पचाधरी, पनबरिया, पन्नीवार, पिपरैया, सुरैया, सुढ़ी, सोनी, संवासित, सुदैसक, सेंकड़ा, साडिल्य, समासिन साकरीवार, शनिचरा, शल्या, शिरोइया, रैपुरिया, रैनगुरिया, रमपुरिया, रैदेहुआ, रामबेरिया, रेवाड़ी, बगुला, बरैया, बगबुलार, बलाईवार, बंसलवार, बारीवार, बासोरिया, बाबरपुरिया, बन्देसिया, बादलस, बामनियां, बादउआ, विरेहुआ, विरथरिया, विरोरिया, गजपुरिया, गिंदौलिया, गांगलस, गुलिया, गणपति, गुटेरिया, गोतनलस, गोलस, जटुआ, जबरेवा, जिगारिया, जिरौलिया, जिगरवार, कठैरिया, काशीवार, केशरवानी, कुटेरिया, कुतवरिया, कच्छलस, कतरौलिया, कनकतिया, कातस, कोठिया, गुन्पुरिया, ठठैरा, पंसारी, निबौरिया, नौगैया, निरजावार, मोहनियॉं, मोदी, मैरोठिया, माठेसुरिया, मुरवारिया महामनियॉं, महावार, माडलस, महुरी, भेसनवार, भतरकोठिया, भभालपुरिया, भदरौलिया, चॉदलस, चौदहराना, चौसिया, लघउआ, तैरहमनिया, तैनगुरिया, घाघरवार, खोबड़िया, खुटैटिया, फंजोलिया, फरसैया, हलवाई, हतकतिया, जयदेवा, दोनेरिया, सिंदुरिया आदि। 
  
अग्रोहा :  अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे। सूर्यवंश के बारे में हम पहले ही लिख आएं हैं अत: यह समाज भी सूर्यवंश से ही संबंध रखता है। वैवस्वत मनु से ही सूर्यवंश की स्थापना हुई थी। महाराजा अग्रसेन ने प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया था। इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम भाग में महाभारत काल में हुआ था। ये प्रतापनगर के राजा बल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। वर्तमान 2016 के अनुसार उनका जन्म आज से करीब 5187 साल पहले हुआ था।
 
अपने नए राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िए के बच्चे एक साथ खेलते मिले। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास थी। उसका नाम अग्रोहा रखा गया। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है। यहां महाराज अग्रसेन और मां वैष्णव देवी का भव्य मंदिर है।
 
महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर 18 गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे।
 
अग्रवाल कुल गोत्र:- गर्ग, गोयल, गोयन, बंसल, कंसल, सिंहल, मंगल, जिंदल, तिंगल,
ऐरण, धारण, मधुकुल, बिंदल, मित्तल, तायल, भन्दल, नागल और कुच्छ्ल।
 
पोरवाल समाज : माना जाता है कि राजा पुरु के वंशज पोरवाल कहलाए। राजा पुरु के चार भाई कुरु, यदु, अनु और द्रुहु थे। यह सभी अत्रिवंशी है क्योंकि राजा पुरु भी अत्रिवंशी थे। बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्राग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था। जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था। विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिए एवं आजीविका हेतू जांगल प्रदेश से पलायन करना प्रारंभ कर दिया। अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। मध्यकाल में राजा टोडरमल ने पोरवाज जाति के उत्थान और सहयोग के लिए बहुत सराहनीय कार्य किया था जिसके चलते पोरवालों में उनकी ‍कीर्ति है।
 
दिल्ली में रहने वाले पोरवाल 'पुरवाल' कहलाए जबकि अयोध्या के आसपास रहने वाले 'पुरवार' कहलाए। इसी प्रकार सैकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-प्रश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गए। यहां ये पोरवाल व्यवसाय/व्यापार और कृषि के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहने लगे। इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गौत्र) दिया जाने लगा और ये जांगल प्रदेश से आने वाले जांगडा पोरवाल कहलाए। राजस्थान के रामपुरा के आसपास का क्षेत्र और पठार आमद कहलाता था। आमदगढ़ में रहने के कारण इस क्षेत्र के पोरवाल आज भी आमद पोरवाल कहलाते हैं।
 
श्रीजांगडा पोरवाल समाज में उपनाम के रुप में लगाई जाने वाली 24 गोत्रें किसी न किसी कारण विशेष के द्वारा उत्पन्न हुई और प्रचलन में आ गई। जांगलप्रदेश छोड़ने के पश्चात् पोरवाल समाज अपने-अपने समूहों में अपनी मानमर्यादा और कुल परम्परा की पहचान को बनाए रखने के लिए आगे चलकर गोत्र का उपयोग करने लगे।
 
जैसे किसी समूह विशेष  में जो पोरवाल लोग अगवानी करने लगे वे चौधरी नाम से सम्बोधित होने लगे। जो लोग हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, आदि व्यावसायिक कार्यों में दक्ष थे वे मेहता कहलाए। यात्रा आदि सामूहिक भ्रमण, कार्यक्रमों के अवसर पर जो लोग अगुवाई करते और अपने संघ-साथियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे वे संघवी कहलाए। मुक्त हस्त से दान देने वाले दानगढ़ कहलाए। असामियों से लेन-देन करने वाले, धन उपार्जन और संचय में दक्ष परिवार सेठिया और धन वाले धनोतिया पुकारे जाने लगे। कलाकार्य में निपुण परिवार काला कहलाए, राजा पुरु के वंशज्पोरवाल और अर्थ व्यवस्थाओं को गोपनीय रखने वाले गुप्त या गुप्ता कहलाए। कुछ गौत्रें अपने निवास स्थान (मूल) के आधार पर बनी जैसे उदिया-अंतरवेदउदिया (यमुना तट पर), भैसरोड़गढ़ (भैसोदामण्डी) में रुकने वाले भैसोटा, मंडावल में मण्डवारिया, मजावद में मुजावदिया, मांदल में मांदलिया, नभेपुर केनभेपुरिया, आदि।
 
इस तरह ये गोत्र निर्मित हो गए- सेठिया, काला, मुजावदिया, चौधरी, मेहता, धनोतिया, संघवी, दानगढ़, मांदलिया, घाटिया, मुन्या, घरिया, रत्नावत, फरक्या, वेद, खरडिया, मण्डवारिया, उदिया, कामरिया, डबकरा, भैसोटा, भूत, नभेपुरिया, श्रीखंडिया। प्रत्येकगोत्र के अलग- अलग भेरुजी होते हैं। जिनकी स्थापना उनके पूर्वजों द्वाराकभी किसी सुविधाजनक स्थान पर की गई थी।
 
दोसर समाज : ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप थे। डॉ. मोतीलाल भार्गव द्वारा लिखी पुस्तक 'हेमू और उसका युग' से पता चलता है कि दूसर वैश्य हरियाणा में दूसी गांव के मूल निवासी हैं, जोकि गुरुगांव जनपद के उपनगर रिवाड़ी के पास स्थित है।
 
खंडेलवाल समाज : खंडेलवाल के आदिपुरुष हैं खाण्डल ऋषि। एक मान्यता के अनुसार खंडेला के सेठ धनपत के 4 पुत्र थे। 1.खंडू, 2.महेश, 3.सुंडा और 4. बीजा इनमें खंडू से खण्डेलवाल हुए, महेश से माहेश्वरी हुए सुंडा से सरावगी व बीजा से विजयवर्गी। खण्डेलवाल वैश्य के 72 गोत्र है। गोत्र की उत्पति के सम्बंध में यही धारणा है कि जैसे जैसे समाज में बढ़ोतरी हुई स्थान व्यवसाय, गुण विशेष के आधार पर गोत्र होते गए।
 
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दलित कुल वंश : वैसे हम दलितों के कुल के बारे में उपर लिख आएं हैं यह तो महज टिप्पण भर है। आज जितने भी दलित है वे सभी एक काल विशेष में ब्राह्मण या छत्रिय कर्म करने वाले थे। वर्तमान में अधिकतर दलित लोग खुद को दिति के कुल का मानते हैं, जोकि पूर्णत: सही नहीं है। सभी के अलग अलग कुल है। हिन्दू धर्मग्रंथों में दलित नाम का कोई शब्द नहीं है और न ही हरिजन नाम का। यह शब्द वर्तमान राजनीति की देन है। शूद्र या क्षुद्र शब्द धर्मग्रंथों में प्रचलित है। शूद्र किसी जाति विशेष का नाम नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति को कहा जाता था जो खोटे या छोटे कर्म करता था या जो नीच कर्म करता था। इसी तरह पिशाच, चांडाल और निशाचर और रात्रि के कर्म करने वाले तांत्रिकादि को शूद्र कहा जाता था। दास शब्द बहुत बाद में प्रचलन में आया। दासप्रथा के पूरे इतिहास को जानना जरूरी है, क्योंकि यह हर देश धर्म और काल में भिन्न-भिन्न रूप में रही है।
वर्तमान की जातिवादी व्यवस्था गुलाम काल की देन होने के साथ ही पिछले 70 वर्षों की विभाजनकारी राजनीति की देन है। भारतीय इतिहास और धर्म को अच्छे से नहीं जानने के कारण मतभेद और भ्रम है। जातियों के उत्थान और पतन के इतिहास को नहीं जानने के कारण ही कुछ लोग और संगठन हिन्दू धर्म के खिलाफ नफरत का प्रचार करते हैं।
 
हमारे-आपके पूर्वजों ने जिन 'भंगी' और 'मेहतर' जाति को अस्पृश्य करार दिया, जिनके हाथ का छुआ तक नहीं खाते, असल में वे सभी मुगलकाल में ब्राह्मण थे। मुगल काल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों पर जो अत्याचार हुए उसकी दास्तां कम ही लोग जानते हैं। उस काल में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के सामने दो ही रास्ते दिए गए थे- या तो इस्लाम कबूल करो या फिर हम मुगलों और मुसलमानों का मैला ढोओ।
 
आप किसी भी मुगल किले में चले जाओ वहां आपको शौचालय नहीं मिलेगा। क्यों? क्योंकि मुगल जहां से आए थे वहां शौचालय नहीं होते थे वे इसी तरह मैला फिंकवाते थे। हिंदुओं की उन्नत सिंधु घाटी सभ्यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय होता था, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा। ऐसे में मुगलों ने ब्राह्मणों और छत्रियों से ये काम कराया।
 
जारा सोचिए भारत में 1000 ईस्वी में केवल एक फीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या-14 फीसदी से ज्यादा हो गई। आपने सोचा कि ये 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी मुगल शासन में कैसे हो गई। इसके बाद अंग्रेजों ने इस ऊंच और नीच की व्यवस्था को और बढ़ावा दिया। कैसे और किस तरह यह एक अलग विषय है। जारी...धन्यवाद।