Tuesday, August 25, 2020

 मुस्लिम शासक  के बाद आये अंग्रेजों ने भूमिहार ब्राह्मणों की योद्धा प्रवृत्ति को भांपते हुये इन्हें योद्धा से पुरोहित कर्मकांडी बनाने की कोशिश की किन्तु वे पूरी तरह सफल नहीं हुए , फिर इनका महत्व कम करने अन्य

जातियों के ब्राह्मण लाकर उन्हें ऊँचे पद देकर भूमिहार ब्राह्मणों  ko महत्वहीन करने की कोशिश की गई after 1100 ई 60-70% भूमिहार ब्राह्मण कर्मकांडी ब्राह्मण बन कर कान्यकुब्ज सरयूपारीण और मैथिल जाति में शामिल हो गए go through census from 1750 to 1931 भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या कम होती 

Monday, August 24, 2020

भारत में मंदिर और शिक्षा, चिकित्सा

 🎗️🌹.भारत में मंदिर और शिक्षा, चिकित्सा





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देशभर में बहुत से मंदिर हैं और सभी मंदिरों की अपनी अलग खासियत है।भारतीय हिन्दू मन्दिर में उच्च शिक्षा के प्रमाण लगातार प्राप्त होते है 

प्रस्तुति अरविन्द रॉय

पुरातत्वविद् आर. नागास्वामी ने उससे पहले की उन्नत उच्च शिक्षा के प्रमाण प्रदान किए हैं। उन्होंने कांचीपुरम जिले के उत्तिरामपुर में सुंदरवारा मंदिर की दीवारों पर 10वीं शताब्दी के शिलालेखों को खोजा है जिनपर स्थानीय विधानसभा और स्कूल और कॉलेज के प्रशासन का वर्णन है। यह मंदिर पल्लव शासन में 750 ई. के आसपास बनाया गया था, बाद में 1013 ई. में राजेंद्र चोल द्वारा और 1520 ई. में विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था।तक्षशिला आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतडिय़ों तक का आपरेशनबड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी

उन्हें ज्ञान था lक्या मंदिर अभी भी सार्वभौमिक शिक्षा में भूमिका निभा सकते हैं? ऐसा प्रतीत नहीं होता है, जब तक कि वे शासन द्वारा शासित और प्रशासित न हों। विचारशील पश्चिमी लोग सोचते हैं कि यह शर्मनाक है कि भारतीय मंदिर राज्य द्वारा चलाए जा रहे हैं।

दो मंदिर जो प्राचीन परंपरा को निभा रहे हैं 

🌹महावीर मंदिर पटना

आचार्य किशोर कुणाल एक नवंबर 1987 से महावीर मंदिर का ट्रस्ट बनाकर समाजसेवा की शुरुआत की।

स्वास्थ्य क्षेत्र में लगातार उपलब्धियां दर्ज कर रहे हैं। मंदिर की आय से वे कई अस्पतालों का निर्माण कर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करा रहे हैं। अभी उनके नेतृत्व में महावीर कैंसर संस्थान समेत 23 अस्पताल चल रहे हैं।

महावीरवात्सल्य अस्पताल

👉ट्रस्ट की आय से एक जनवरी 1989 को पहला अस्पताल राजधानी के किदवईपुरी में खोला। शीघ्र ही चिरैयाटांड़ में इसे वृहद रूप दिया गया। आज महावीर आरोग्य अस्पताल आम बीमारियों के इलाज के लिए काफी मशहूर है। यह अस्पताल नेत्र रोग के इलाज के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है।

-👉यह देश का पहला मन्दिर है जिसने कोरोना वायरस से बचाव के लिए 1करोड़ रुपये का दान किया. इसने बिहार के मुख्यमन्त्री राहत कोष में इस राशि का 26 मार्च, 2020 को अंतरण किया

👉इसके साथ ही हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, जनकपुर, मोतिहारी आदि शहरों में मंदिर ट्रस्ट की ओर से कई अस्पताल खोले गए हैं। हर अस्पताल में कम दाम पर बिकने वाली दवा की दुकानें खोली गई हैं। 

🌹बुटाटी धाम , राजस्थान में नागौर से चालीस किलोमीटर दूर अजमेर-नागौर मार्ग पर कुचेरा क़स्बे के पास स्थित है। इसे यहाँ 'चतुरदास जी महाराज के मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर वस्तुतः चतुरदास जी की समाधि है।मान्यता है कि लगभग पांच सौ साल पहले संत चतुरदास जी का यहाँ पर निवास था। चारण कुल में जन्में वे एक महान सिद्ध योगी थे और अपनी सिद्धियों से लकवा के रोगियों को रोगमुक्त कर देते थे। आज भी लोग लकवा से मुक्त होने के लिए इनकी समाधी पर सात फेरी लगाते हैं। यहाँ पर देश भर से प्रतिवर्ष लाखों लकवा मरीज एवं अन्य श्रद्धालु विशेष रूप से एकादशी एवं द्वादशी के दिन आते है।

👉 खास बात यह है कि गांव के लोग विकास के लिए सरकार, संस्था या पंचायत के भरोसे नहीं हैं। पिछले 30 साल से विकास की जिम्मेदारी बुटाटी धाम स्थित चतुरदास महाराज मंदिर विकास समिति ने उठा रखी है। समिति अब तक शिक्षा, चिकित्सा, रोशनी, सड़कों गो-सेवा के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर चुकी है।

गांव की स्कूल की दुर्दशा हो रखी थी। मंदिर समिति ने राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय को गोद लिया। करीब सवा करोड़ रुपए की लागत से दो विशाल हॉल, मैन गेट, चारदीवारी, प्याऊ मरम्मत करवा स्कूल का स्वरूप ही बदल दिया। स्कूल में 30 लाख रुपए की लागत से जोधपुरी छीतर पत्थर से स्वागत द्वार बनवाया। स्कूल में लोहे की 200 टेबल कुर्सियां, पंखे लाइट फिटिंग भी करवाई गई गांव ही नहीं आसपास के लोग विकास की दरखास्त लेकर यहां आते हैं। ग्रामीण जानते हैं कि सरकार और पंचायत तो अपने हिसाब से विकास कराएगी, वैसे ही होगा, लेकिन मंदिर प्रबंधन हाथों-हाथ करवा देगा। उनकी उम्मीद लगभग पूरी होती है। पिछले 25 साल से विकास के किसी काम के लिए मंदिर ने मना नहीं किया।गांव क्षेत्र के लिए विकास कार्य करवा मंदिर समिति अपनी जिम्मेदारी निभा रही है। विशेषकर समिति यहां आने वाले लकवा रोगियों की भोजन, पानी ठहरने की सुविधाओं और क्षेत्र की गोशालाओं में गायों के लिए खाद्य सामग्री पहुंचा कर जीव सेवा के प्रति समर्पित है। मंदिर का पैसे से गांवों का विकास हो रहा है इससे अच्छा क्या हो सकता है। 

🌹मंदिर का पैसा सही लगने से होती है खुशी🌹

Sunday, August 23, 2020

🌹जय मां जालेश्वरी 🌹


 🌹जय मां जालेश्वरी 🌹 

जाले गांव (दरभंगा)में माता जालेश्वरी मंदिर गांव के पूर्व उत्तर में विराजमान हैं 

प्रस्तुति अरविन्द रॉय 

माता जालेवार मूल के वत्स गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों की कुलदेवी हैं माता जलेश्वरी हैं पास ही विद्यापति का डीह बिस्फी गांव हैं।जाले प्रखण्ड दरभंगा अल्पसंख्यक बहुल हैं जालेश्वरी की माता मूर्ति हजारों वर्ष पुरानी है।नवरात्रि पर विशेष आयोजन होता है

🎗️🎗️गदका एक प्राचीन युद्ध कला🎗️🎗️

 गदका एक प्राचीन युद्ध कला


पूर्वांचल के भूमिहार ब्राह्मणों ने इस कला को विकसित किया

 प्रस्तुति अरविन्द रॉय 

देसी अखाड़े में कुश्ती के साथ खेला जाता था गदका बिहार की एक प्राचीन युद्ध कला है 

गदका है एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है पैंतरा खेलने में प्रयुक्त लकड़ी का डेढ़-दो हाथ लंबा चमड़ा मढ़ा मुठियादार डंडा पटना प्रवास के दौरान shiko ने सिखा

निहंग सिख अब भी गदका खेलते है इस युद्धकला का प्रयोग छठे गुरु से लेकर दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी तक और उनके बाद भी कई युद्धों में किया गया। लम्बे समय तक यह गदका युद्धकला सिख इतिहास में बनी रही।

Note:-बिहार का प्राचीन मार्शल आर्ट है

Thursday, August 20, 2020


Major population of Nagarpura village is of Bhumihar caste.The surname of Bhumihar caste is of Nagarpura village is Pandey.

Dumraon Raj  kept a man of the name of Lalu Ram Pande in charge of the Burma property.

 डॉ. विलियम ओल्डहैंम (William Oldham B.C.S.LL.D.) ने स्व पुस्तक (North Western Provinces Historical and Statistical Memoir of the Ghazipur District) के प्रथम भाग के 43वें पृष्ठ में लिखा है कि : “Bhumihars, both by themselves and by ethnologists, are belived to be the descendants of Brahmins, who on becoming cultivators and landholders gave up their priestly functions. In popular estimation they share in something of the sacredness which attached to the Brahmins, and by the old law of the Benares Province, they like the genuine Brahmins, were exempted from capital punishment; but family priests or spritual guides are never chosen from among them by men of their own race nor by other Hindus.”

अर्थ यह है कि ‘भूमिहार लोग अपने आप और वंश परम्परा के जाननेवालों द्वारा भी उन ब्राह्मणों में से माने जाते हैं, जिन्होंने कृषक और जमींदार होने पर पुरोहिती छोड़ दी। जन साधारण की दृष्टि में बहुत से अंशों में ये लोग अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं और इन्हीं की तरह इन लोगों को भी बनारस प्रांत के पुराने कानून के अनुसार प्राणदंड (फाँसी) की सजा नहीं मिलती थी, (क्योंकि हिंदू धर्म में ब्राह्मणों को फाँसी देना वर्जित हैं)। लेकिन ये लोग न तो अपने ही समाज के पुरोहित और गुरु होते हैं और न अन्य हिंदुओं के ही।’ डॉ. ओल्डहैंम के बहुत से अंशों में 'अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र माना जाना' लिखने का तात्पर्य अन्त के वाक्यों से स्फुट हैं। अर्थात ये लोग गुरु या पुरोहित नहीं होते, इसीलिए सब अंशों में अन्य ब्राह्मणों की तरह पूजा कैसे हो सकती है?’

56वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A Bhumihar family of Pande Brahmins settled at Byreah in Doab pergannah, have for generations past been the Tehseeldars or land agents of the Domaraon faimly.”

अर्थात ‘पांडे कहलानेवाले ब्राह्मणों में से एक भूमिहार ब्राह्मण वंश, जो बलिया जिले के दोआब परगने के बैरिया गाँव में प्रथम से ही आ कर बसा है, बहुत पीढ़ियों से डुमराँव राज्य का तहसीलदार होता चला आया है।’

Monday, August 17, 2020

ऋग्वेद एक सौ दसवें सूक्त के द्रष्टा ऋषि राम- जामदग्न्य (परशुराम) हैं

 🎗️🎗️ऋग्वेद एक सौ दसवें सूक्त के द्रष्टा ऋषि राम- जामदग्न्य (परशुराम) हैं 🎗️🎗️

भगवान परशुराम पर भ्रामक और गलत जानकारियां फैलाई जा रही है सही बातों को रखना आवश्यक है

प्रस्तुति अरविन्द रॉय

ऋग्वेद एक सौ दसवें सूक्त के द्रष्टा ऋषि राम- जामदग्न्य (परशुराम) हैं (1).वैदिक और पौराणिक इतिहास केसबसे कठिन और व्यापक चरित्र हैं।उनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग केप्रारंभ तक मिलता हैं। इतना लंबा चरित्र,इतना लंबा जीवन किसी और ऋषि,देवता या अवतार का नहीं मिलता। वे चिरंजीवियों में भी चिंरजीवी है।उनकी तेजस्विता और ओजस्विता के सामने कोई नहीं टिका। न शास्त्रास्त्र मे और न शस्त्र-अस्त्र में। उनके आगे चारो वेद चलते थे, और पीछे तीरों से भरा तूरीण रहता था। वे.शाप देने और दंड देने दोनों में समर्थ थे। वे शक्ति और ज्ञान के अद्भुत पुंंज थे। संसार में

ऐसा कोई वंश नहीं, कोई धार्मिक या आध्यात्मिक परंपरा नहीं जिसका सूत्र परशुराम जी तक न जाता हो समस्त परंपराएं और साम्प्रदाय मानों उन्हीं से प्रारंभ होते हैं।

लेकिन परशुराम जी जितने व्यापक है, इतिहास और पुराणो की पुस्तकों में उतने ही दुर्लभ।उनका विवरण कहीं एक साथ नहीं मिलता। वे सब जगह हैं, और कहीं भी नहीं। परशुराम

जी को समझने के लिए अनेक प्रसंगो से

कड़िया जोड़नी पड़ती है। एशिया के सौ से

अधिक स्थानों पर परशुराम जी के जन्मस्थान

होने की मान्यता है। मध्य एशिया में फिलस्तीन

की राजधानी रामल्ला या अफगानिस्तान

का जामदार उन्हीं मे से हैं। कभी संपूर्ण

एशिया कुल चार साम्रायों में विभाजित था।

जिसके बारे में कहा जाता है कि इन

साम्रायों का सीमांकन परशुरामजी के कहने से

महर्षि कश्यप ने किया था।

इसकी पुष्टि भाषा विज्ञान से

की जा सकती है। संसार का सुप्रसिध्द पारस

साम्राय जिसका अस्तित्व ईसा से लगभग चार

सौ वर्ष पूर्व यूनानी विजेता सिंकदर के समय

तक मौजूद था। पारस साम्राय का शब्द

च्पारस और परशुराम जी के नाम में जुड़ा शब्द

च्परशु एक ही धातु के बने शब्द है।

(1) कृष्ण नारायण प्रसाद मघद श्री विष्णु और उनके अवतार श्री विष्णु और उनके अवतार page 279)

Sunday, August 16, 2020

🎗️भू ब्राह्मण सम्राट पुष्यमित्र शुंग अग्निमित्र वसुमित्र🎗️

 🎗️भू

ब्राह्मण सम्राट पुष्यमित्र शुंग अग्निमित्र वसुमित्र🎗️

साहसी मोहयालों का इतिहास  नामक पुस्तक के लेखक पी. एन बाली ने पुष्यमित्र शुंग को पुस्तक में भूमिहार दर्शाया है 

प्रस्तुति अरविन्द रॉय

पुष्यमित्र शुंग ने विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। वहाँ उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। अवन्ति पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित करने के बाद पुष्यमित्र ने अपना ध्यान साम्राज्य-विस्तार की ओर दिया। इस प्रक्रिया में उसने सर्वप्रथम विदर्भ से युद्ध करने का निश्चय किया। विदर्भ राज्य विदिशा के दक्षिण में था और उसके काफी निकट पड़ता था। भातविकाग्निमित्रम में इस युद्ध का विवरण दिया है। विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण विदर्भ राज्य नव सरोपण शिथिलस्तरू (जो सघः स्थापित) है। विदर्भ शासक इस समय यज्ञसेन था। जो पूर्व मौर्य सम्राट् वृहद्रथ के मंत्री का सम्बन्धी था। विदर्भराज ने पुष्यमित्र की अधीनता को स्वीकार नहीं किया। दूसरी ओर कुमार माधवसेन यद्यपि यज्ञसेन का सम्बन्धी (चचेरा भाई) था, परन्तु अग्निमित्र ने उसे (माधवसेन) अपनी ओर मिला लिया। जब माधवसेन गुप्त रूप से अग्निमित्र से मिलने जा रहा था, यज्ञसेन के सीमारक्षकों ने उसे बन्दी बना लिया। अग्निमित्र इससे अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। उसने यज्ञसेन के पास यह सन्देश भेजा कि वह माधवसेन को मुक्त कर दे। किन्तु यज्ञसेन ने माधवसेन को इस शर्त पर छोड़ने का आश्वासन दिया कि शुगों के बन्दीगृह के बन्दी पूर्व मौर्य सचिव तथा उनके साले का मूल्य कर है। इससे अग्निमित्र और क्रुद्ध हो गया। अत: विदर्भ पर शुगों का आक्रमण हुआ। युद्ध में यज्ञसेन आत्म समर्पण करने के लिए बाध्य हुआ। माधवसेन मुक्त कर दिया गया। विदर्भ राज्य की दोनों चचेरे भाइयों के बीच बाँट दिया गया। वरदा नदी को उनके राज्य की सीमा निर्धारित किया गया। विदर्भ विजय से पुष्यमित्र शुंग की प्रतिष्ठा में अच्छी अभिवृद्धि हुई।


पुष्यमित्र शुंग के शासन-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी, यवनों का आक्रमण और उसका शुंगों द्वारा प्रबल प्रतिरोध। मौर्य साम्राज्य के पतन-काल में ही भारत के उत्तर-पश्चिम में यवनों (यूनानियों) का प्रभाव बढ़ रहा था। वे धीरे-धीरे भारत के अन्य भागों में प्रभावी होने के लिए प्रयत्नशील थे। इसका प्रमाण हमें पतंजलि के महाभाष्य एवं गार्गी संहिता के द्वारा मिलता है। उदाहरण के लिए पंतजलि महाभाष्य में लिखा है अस्णाद यवनः साकेत (अर्थात् यूनानियों ने साकेत को घेरा) तथा अस्णाद यवनों माध्यमिकां (अर्थात् यूनानियों ने माध्यमिका घेरी)। इस तथ्य की पुष्टि गागीं संहिता द्वारा भी होती है। गागीं संहिता में लिखा है कि- दुष्ट विक्रान्त यवनों ने मथुरा, पंचाल देश (गंगा का दो आबा) और साकेत को जीत लिया है और वे कुसुमध्वज पाटलिपुत्र जा पहुँचेगे। इन महत्त्वपूर्ण रचनाओं के इन अंशों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यवन आक्रान्ताओं ने देश के आन्तरिक भाग को किस प्रकार आक्रान्त कर रखा था। यवनों का यह आक्रमण किस समय और किसके नायकत्व में हुआ, यह निश्चित रूप से कहना कठिन हैं। प्रोफेसर राधा कुमुद मुकर्जी के अनुसार यवनों का यह आक्रमण सम्भवत: उस समय हुआ होगा जिस समय पुष्यमित्र मौयों का सेनापति रहा होगा और यह असम्भाव्य नहीं कि यवनों के विरुद्ध उसकी सफलता ने राज्य सिंहासन के लिए उसकी दावेदारी को शील्ड प्रदान की होगी। प्रो. एन.एन. घोष के अनुसार पुष्यमित्र शुंग को यवनों के दो आक्रमणों का सामना करना पड़ा। कई इतिहासकारों के अनुसार यवनों का पहला आक्रमण पुष्यमित्र के शासन काल के प्रारम्भिक वर्षों में और दूसरा आक्रमण उसके शासनकाल के अन्तिम वर्षों में हुआ होगा।


यवनों के दूसरे आक्रमण का ज्ञान हमें महाकवि कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् से प्राप्त होता है। साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यवनों का यह आक्रमण उस समय हुआ होगा जब पुष्यमित्र शुंग वृद्ध हो चला था और उसका पौत्त वसुमित्र सेना का नायकत्व करने में सक्षम था। यवनों के साथ वसुमित्र के संघर्ष का सजीव चित्रण मालविकाग्निमित्रम् में हुआ है। यह युद्ध उस समय का है जबकि पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेध के अश्व को यवन-सरदार ने पकड़ लिया था। इस कारण यवनों और शुंग सेनाओं में युद्ध हुआ। शुंग सेनाओं का नेतृत्व वसुमित्र ने किया। कालिदास के अनुसार यह युद्ध सिन्धु नदी के दक्षिण में हुआ। यह सिन्धु नदी पंजाब की है या कोई अन्य, इस प्रश्न पर विद्वान् एकमत नहीं है। युद्ध में घोर संग्राम के बाद यवन-सेनाएँ बुरी तरह पराजित हुई। यज्ञ का अशव आदर सहित वापस लाया गया। यवनों के इन आक्रमणों का नायकत्व किसने किया, यह प्रश्न विवादास्पद है। इस सम्बन्ध में मुख्यतया दो यूनानी नायकों का नाम लिया जाता है- डोमेट्रियस तथा मिनेण्डर।


अश्वमेघ यज्ञ- अपनी सफलताओं के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ करने का निश्चय किया। पुष्यमित्र शुंग द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने की पुष्टि अभिलेखिक और साहित्यिक दोनों साक्ष्यों द्वारा होती है। पतंजलि ने पुष्यमित्र शुंग के अवश्मेघ यज्ञ का उल्लेख करते हुए लिखा है- इह पुष्य मित्तम् याजयाम: इसी प्रकार मालविकाग्निमित्रम् में कहा गया है कि, यज्ञभूमि से सेनापति पुष्यमित्र स्नेहालिंगन के पश्चात् विदिशा-स्थित कुमार अग्निमित्र को सूचित करता है कि मैंने राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेकर सैकड़ों राजपुत्रों के साथ वसुमित्त की संरक्षता में एक वर्ष में और आने के नियम के अनुसार यज्ञ का अश्व बंधन से मुक्त कर दिया। सिन्धु नदी के दक्षिण तट पर विचरते हुए उस अश्व को यवनों ने पकड़ लिया। जिससे दोनों सेनाओं में घोर संग्राम हुआ। फिर वीर वसुमित्त ने शत्रुओं को परास्त कर मेरा उत्तम अश्व छुड़ा लिया। जैसे पौत्र अंशुमान के द्वारा वापस लाए हुए अश्व से राजा सगर ने, वैसे में भी अपने पौत्र द्वारा रक्षा किए हुए अश्व से यज्ञ किया। अतएव तुम्हें यज्ञ दर्शन के लिए वधू-जन-समेत शीघ्र आना चाहिए। अयोध्या के एक अभिलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्यमित्र शुंग ने एक नहीं दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। इस अभिलेख में कहा गया है- कोसलाधियेन द्विरश्वमेघ याजिनः सनापते: पुष्यमित्रस्य इस प्रकार पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से तर्कसंगत है। डॉ. वि-सेण्ट स्मिथ ने इस प्रसंग में कहा है- पुष्यमित्र का स्मरणीय अश्वमेघ यज्ञ ब्राह्मण धर्म के उस पुनरुत्थान की ओर संकेत करता है जो पाँच शताब्दियों के बाद समुद्रगुप्त और उसके वंशजों के समय में हुआ।


पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था, उसने ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के लिए अनेक कार्य किए, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसके द्वारा किए गए अश्वमेघ यज्ञ इस बात का सबल प्रमाण है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का एक निष्ठावान अनुयायी था। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने तर्कसंगत आधारों पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पुष्यमित्र पर लगाए गए आरोप निराधार हैं। संक्षेप में डॉ. चौधरी के तर्क इस प्रकार हैं-जिस दिव्यावदान के आधार पर पुष्यमित्र शुंग पर बौद्ध धर्म विरोधी होने का आरोप लगाया गया है, उस ग्रन्थ की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है क्योंकि इसी ग्रन्थ में पुष्यमित्र को अशोक का उत्तराधिकारी मौर्य सम्राट् कहा गया है। 


डॉ. हेमचन्द्र चौधरी के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में कुछ अन्य तर्क दिए गए हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं-


 पौराणिक साध्यों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्ष राज्य किया। इस प्रकार उसकी मृत्यु 148 ई.पू. में हुई होगी। किन्तु वायु एवं ब्रह्मांड पुराण से ज्ञात होता है कि उसने 60 वर्ष शासन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन वर्षों में पुष्यमित्र का वह काल-खण्ड भी सम्मिलित कर लिया गया होगा जिसमें वह मौर्य साम्राज्य के अधीन अवन्ति में राज्यपाल के पद पर था। पुष्यमित्र की गणना भारत सुयोग्य शासकों और सेनानियों में की जाती है। वह उच्चकोटि का सेनानी तथा सेनापति तथा कुशल शासक था। उसने न केवल शुंग साम्राज्य की स्थापना की, प्रत्युत उसका विस्तार और सुगठन भी किया। उसके साम्राज्य में पंजाब, जलधर, स्यालकोट, विदिशा तथा नर्मदा तट के प्रान्त सम्मिलित थे। उसने न केवल अपने साम्राज्य की प्रत्युत अपने देश की यवन आक्रान्ताओं से रक्षा की। उसने भारत की उस समय सेवा की जबकि देश पर निरन्तर यवनों के आक्रमण हो रहे थे। यही नहीं यवनों ने उत्तर पश्चिम कुछ प्रदेशों पर अपन अधिपत्य भी स्थापित कर लिया था। यद्यपि उस पर धार्मिक पक्षपात का आरोप लगाया है किन्तु वस्तुत: वह धार्मिक धर्मसहिष्णु शासक था। जैसा कि डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, निश्चित रूप से पुष्यमित्र ब्राह्मण धर्म का प्रबल समर्थक था। किन्तु शुंगकालीन भरहुत से प्राप्त बौद्ध स्तूप और बंगला प्रभृति साहित्य में प्राप्त साक्ष्य पुष्यमित्र के साम्प्रदायिक विद्वेष की भावना की पुष्टि नहीं करते।


 पुष्यमित्र शुंग का शासन साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए भी प्रसिद्ध हैं। साहित्य के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि का नाम उल्लेखनीय है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यामी पर महाभाष्य की रचना की। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग द्वारा किए गए अवश्मेध यज्ञ के पुरोहित (आचार्य) थे। पतंजलि के अतिरिक्त इस युग में अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाओं का भी प्रणयन किया गया था, जो आज सुलभ नहीं हैं।

 पुराणों के अनुसार शुंग वंश के कुल दस शासक या राजा हुए।  पुष्यमित्र के बाद आने वाले शुंग राजाओं में अग्निभित्त, वसुज्येष्ठ, वसुभित्त, अन्धक (औद्रक), पुलिन्दक घोष, वज्रमित्त, भाग (भागवत) एवं देवभूति है। नवम् शुंग शासक सम्भवत: भागवत बेसनगर गरुडध्वज स्तम्भ लेख का काशीपुत्र भागभद्र ही है। भागभद्र के दरबार में यूनानी शासक एण्टियालकीडास ने हेलियोडोरस नाम राजदूत भेजा था। होलियाडोरस ने भागवत धर्म से प्रभावित बेसनगर में वासुदेव के सम्मान में एक गरुड़ध्वज स्थापित किया था। इस पर दंभ (आत्मनिग्रह), त्याग और अप्रमाद तीन शब्द अंकित हैं।

Saturday, August 15, 2020

महान भूमिहार ब्राह्मण सम्राट अग्निमित्र

 🎗️🎗️महान भूमिहार ब्राह्मण सम्राट अग्निमित्र🎗️🎗️

मालविकाग्निमित्रम् कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है। 

प्रस्तुति अरविन्द रॉय

अग्निमित्र एक निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र के प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी साबित होती है द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम् नाटक लिखा और अग्निमित्र ने १७० ईसापू्र्व में शासन किया था

रूहेलखंड से मिले कुछ सिक्कों पर अग्निमित्र के नाम खुदे हैं। 

2100 वर्ष पूर्व मौर्य के सिक्के हटा कर अग्निमित्र ने अपने सिक्के चलाए। शिव का धार्मिक चिन्ह अंकित किया।महारानी धारिणी के जेष्ठ पुत्र वशुमित्र को भी राज्य संचालन का भार देते है बाद में जब वशुज्येष्ठ राजा बनते है तो वशुमित्र गोप्ता बनाये जाते है  वशुज्येष्ठ शुंग ने अपना साम्राज्य तिब्बत तक फैलाया और तिब्बत भारत का अंग बन गया। वो बौद्धों को भगाता चीन तक ले गया। वहां चीन के सम्राट ने अपनी बेटी की शादी वशुज्येष्ठ से करके सन्धि की। उनके वंशज आज भी चीन में “शुंग” surname ही लिखते हैं। और बाद में जब वशुमित्र राजा बने तो उन्होंने अपने साम्राज्य को और विस्तृत किया

Tuesday, August 11, 2020

गोस्वामी तुलसीदास और राजा टोडरमल





 
🎗️🎗️काशीके जमींदार टोडरजी🎗️
🎗️
पूज्य पूज्य गोस्वामी तुलसीदासजी को भूमिहार ज़मींदार टोडर जी का संरक्षण प्राप्त था दोनों मित्र थे
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
Bhumihar Brahman History Facebook page 
पूज्य गोस्वामीजी के मित्र काशीके जमींदार  टोडरजीकी (अकबरके वित्तमंत्री राजा टोडरमल से अलग हैं )   मृत्यु विक्रम सम्वत् १६६९ में हो गयी । उन्हीं के वंशज भदैनी, नई बस्ती, नदेसर और सुरही के चौधरी लोग हैं। ये लोग कश्यप गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं। 
टोडरमल के पुत्र आनन्दराम और पौत्र कंधई में झगड़ा हुआ था । इसीमें गोस्वामीजी पञ्च थे ,उन्होंने जो पंचायती निर्णय किया था , वह  ११ पीढ़ी तक टोडर वंशमें रहा । ११ वीं पीढ़ी में पृथ्वीपाल सिंहजी ने उसको महाराज काशीराज को दे दिया जो अब भी काशीराजके यहाँ है । उस पूरे पञ्चनामें को यहाँ प्रेषित नहीं किया जा सकता , उस पञ्चनाम का मङ्गलाचरण ही प्रेषित कर रहा हूँ ।

                  पञ्चनामे की प्रतिलिपि     
                  !! श्रीजानकीवल्लभो विजयते !!

द्विश्शरं नाभि सन्धत्ते द्विस्स्थापयति ना श्रितान् !
द्विर्ददाति   न   चाथिव्यो    रामो  द्विर्नैव   भाषते !!
तुलसी जान्यो दशरथहि  , धरम न सत्य समान !
राम  तजो  जेहि  लागि  बिनु राम  परिहरे प्रान !!
धर्मो    जयति   नाधर्म्मस्सत्यं   जयति  नानृतं  !
क्षमा  जयति  न  क्रोधो  विष्णुर्जयति  नासुरः !!

यह पञ्चनामा स्वयं पूज्य गोस्वामी तुलसीदासजी का लिखा हुआ है , जो अब भी काशी नरेशके यहाँ,  उस पंचायत का प्रमाण है ,जो विक्रम संवत् १६६९ में तुलसी बाबाकी अध्यक्षता में हुई थी , और गोस्वामीजी उसमें पञ्च थे ।
श्रीरामचरित मानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी ने तुलसीघाट पर बजरंगबली की चार प्रतिमाओं को स्थापित किया था। वह वहां नियमित पूजा करते थे। जिस नाव पर बैठकर वह मानस लिखा करते थे, उसका टुकड़ा आज भी वहां सहेज कर रखा गया है। इस दौरान वह कई-कई दिनों तक घाट के ऊपर ही बैठे रह जाते थे और मानस को लिखते थे। उनके रहने के घर को राजा टोडरमल ने बनवाया था।
तुलसीदास ने स्थापित की थी चार प्रतिमाएं

1. पश्चिममुखी बजरंगबली।
2. पूर्वामुखी बजरंगबली।
3. दक्षिणामुखी बजरंगबली।
4. उत्तरमुखी बजरंगबली।


🎗️अनंदबहादुर सिंह राजा टोडरमल के वंशज🎗️🎗️

राजा टोडरमल के वंशज और पत्रकारिता के युग पुरुष सन्मार्ग अखबार के संपादक अनंदबहादुर सिंह   

प्रस्तुति अरविन्द रॉय 

श्री सिंह का जन्म 29 अगस्त 1930 (लोलार्कछठ) के दिन हुआ था। वह शुरु से धार्मिक प्रवृत्ति और काशी के गंगो-जमुनी यकजहती के संवाहक थे। उनका श्री संकटमोचन मंदिर के महंत परिवार से ताल्लुकात होने की वजह से उनकी रूचि गोस्वामी तुलसीदास जी में रही। वह रामचरित मानस में जबरदस्त पकड़ रखते थे। इतना ही नही वह काशी के इतिहास के बारे में भी अच्छी जानकारी रखते थे।

श्री सिंह ने अपने पत्रकारिता क्षेत्र में कैरियर वाराणसी के लोकप्रिय सांध्यकालीन अखबार सन्मार्ग से सन् 1952 में जुड़कर की। शुरूआती दौर में संपादक स्व. पं. गंगाशंकर मिश्र के साथ काम शुरु किया और उनसे संपादन के गुर भी सीखे। श्री सिंह धीरे-धीरे अखबार के संपादक नियुक्त हुए तो सन्मार्ग को काफी ऊंचाई तक ले गए। श्री सिंह के पास 65 वर्ष के पत्रकारिता का अनुभव था। सरल स्वभाव के धनी श्री सिंह पत्रकारिता की नर्सरी थे जिसके छत्रछाया में कई दिग्गज पत्रकारों ने कलम चलाना सीखा।श श्री सिंह का एक लड़का विजयबहादुर सिंह और दो लड़की सविता राय और सरिता शर्मा है। 

परिवारीजनों की माने तो आनंदबहादुर सिंह स्वतंत्रता संग्राम के वक्त जेल भी भेजे गए थे लेकिन बाद में वह छुटे और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा लिया। हालाँकि जेल जाने का कोई प्रमाण मौजूद नही है। जब देश में सन् जून 1975 में आपातकाल लगा उस वक़्त भी अनंदबहादुर सिंह ने कलम को अपना हथियार बनाया था। 2-7-17 को उनके निधन पर जिला प्रशासन की ओर से एसपी सिटी दिनेश सिंह ने पुष्प चक्र अर्पित किया। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज ने पत्र भेजकर शोक संवेदना जताई।

Address:-🎗️🎗️राजा टोडरमल जी वंशज🎗️🎗️

भूमिहार ब्राह्मण जमींदार आधुनिक काशी के निर्माता

भदैनी की पूर्वी सीमा तुलसी घाट से शुरू होती है घाट के किनारे के तीन परिवार सबसे पहले महंथ जी का परिवार उनके बगल में पं कशी नाथ पाण्डेय (कर्मकांडी ) जी का परिवार और जानकी घाट पर शाही जी का परिवार

प्रस्तुति अरविन्द रॉय

 अखाड़े के बगल में वीरमणी उपाध्याय जी का परिवार प्रिया नाथ पाण्डेय जी का परिवार और उनके सामने महिषासुर मर्दिनी मंदिर से सटा शांति प्रिय द्विवेदी (मुछ्छ्न) जी l राम नाथ पाण्डेय जी का परिवार l 

अब यहाँ से लोलार्क कुण्ड शुरू हो जाता है इसके इर्द गिर्द रहने वाले परिवारों में ओजस्वी पं राजेन्द्र प्रसाद द्विवेदी का परिवार मन्नन पति त्रिपाठी जी का परिवार डा काशी नाथ सिंह जी का परिवार  पं.ब्रम्ह शंकर शुक्ला और पं. विश्व शंकर शुक्ला जी का जिनको नेपाल का होने के कारण नेपाली चाची के नाम से भी जाना जाता था 

लोलार्क कुण्ड से पश्चिम मुख्य सड़क की ओर बढ़ने पर दायें बाएं दो तिवारी परिवार थे बांये तरफ मकरिया तिवारी का परिवार था l और दांयी तरफ विजयानंद तिवारी जी का परिवार थाl थोड़ा और आगे बढ़ने पर था पं. विश्वनाथ त्रिपाठी जी का परिवार और अब हम आ जाते हैं मुख्य सड़क पर लेकिन लोलार्क कुण्ड से एक और रास्ता सड़क पर आता थाl तब इसे छोटकी गल्ली के नाम से जाना जाता था l अब शायद नवदुर्गा की गली के नाम से जाना जाता है l इसी गली में राम हल्ला का प्राचीन मंदिर हैl नवदुर्गा का मंदिर है l गली के इस छोर पर मुन्नर पंडा जी का परिवार है l अब हम लंका गोदौलिया के मुख्य मार्ग पर आ गएl रविन्द्र पूरी कालोनी जो तब नयी कालोनी थी की सड़क के खुलने से पहले यही सड़क मुख्य मार्ग होता था l 

अब भदैनी के उत्तर और दक्षिण छोर के परिवारों परिवारों से परिचित होते हैं लोलार्क कुण्ड से उत्तर में पानी कल के उस पार भटेले कोठी में डा. श्याम तिवारी, वैद्य जी का परिवार और पानिकल के उसपार रामभद्र उपाध्याय जी का परिवार मुरारी शर्मा जी का परिवार l कविवर जगदीश मिश्र जी का प्रेस जहां वो अपने जीवन का आधा समय बिताते थेl इसी गली में मानस कथा वाचक श्री नाथ जी का भी निवास था l राम भद्र उपाध्याय जी का परिवार और जानकी घाट पर शाही जी का परिवारl 


हाँ अब सड़क के दुसरे तरफ चलते हैं, पं.बद्री प्रसाद शुक्ल जी का परिवार राजा राम यादव जी का परिवार आचार्य मधुसुदन शास्त्री जी का परिवार गंगेश्वर झा जी का परिवार राजेश्वर आचार्य जी का परिवार डा. गिरिवर सिंह जी का परिवार और उनके बाद है,राजा टोडरमल जी वंशज श्री आनंद बहादुर सिंह जी का परिवार शिवनाथ साव जी का परिवार