Friday, January 18, 2019

इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 199वें अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1] इक्ष्‍वाकु और ब्राह्मण का संवाद भीष्म कहते हैं- राजन! इसी समय तीर्थयात्रा के लिये आये हुए राजा इक्ष्‍वाकु भी उस स्‍थान पर आ पहुँचे, जहाँ वे सब लोग एकत्र हुए थे। नृपश्रेष्ठ राजर्षि इक्ष्‍वाकु ने उन सबकों प्रणाम करके उनकी पूजा की और उन सबका कुशल समाचार पूछा। ब्राह्मण ने भी राजा को अर्घ्‍य, पाद्य और आसन देकर कुशल-मंगल पूछने के बाद इस प्रकार कहा। 'महाराज! आपका स्‍वागत है! आपकी जो इच्‍छा हो, उसे यहाँ बताइये। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपकी क्‍या सेवा करूँ? यह आप मुझे बतावें'। राजा ने कहा- विप्रवर! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप छ: कर्मो में स्थित रहने वाले ब्राह्मण। अत: मैं आपको कुछ धन देता चाहता हूँ। आप प्रसिद्ध धनरत्‍न मुझसे माँगिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं और धर्म भी दो प्रकार का माना गया है- प्रवृति और निवृति। मैं प्रतिग्रह से निवृत ब्राह्मण हूँ। नरेश्‍वर! आप उन ब्राह्मणों को दान दीजिये, जो प्रवृत्तिमार्ग में हों। मैं आपसे दान नही लूँगा! नृपश्रेष्ठ! इस समय आपको क्‍या अभीष्ट है? मैं आपको क्‍या दूँ? बताइये, मैं अपनी तपस्‍या द्वारा आपका कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ? राजा बोले- द्विजश्रेष्ठ! मैं क्षत्रिय हूँ। ‘दीजिये’ ऐसा कहकर याचना करने की बात को कभी नहीं जानता। माँगने के नाम पर हमलोग यही कहना जानते हैं कि ‘युद्ध दो'। ब्राह्मण ने कहा- नरेश्‍वर! जैसे आप अपने धर्म से संतुष्ट हैं, उसी तरह हम भी अपने धर्म से संतुष्ट हैं। हम दोनों में कोई अन्‍तर नहीं है। अत: आपको जो अच्‍छा लगे, वह कीजिये। राजा ने कहा- ब्रह्मन! आपने मुझसे पहले कहा है कि ‘मैं अपनी शक्ति के अनुसार दान दूँगा’ तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि आप अपने जप का फल मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! आप तो बहुत बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे कि मेरी वाणी सदा युद्ध की ही याचना करती है। तब आप मेरे साथ भी युद्ध की ही याचना क्‍यों नहीं कर रहे हैं। राजा ने कहा- विप्रवर! ब्राह्मणों की वाणी ही वज्र के समान प्रभाव डालने वाली होती है और क्षत्रिय बाहुबल से जीवन-निर्वाह करने वाले होते हैं। अत: आपके साथ मेरा यह तीव्र वाग्‍युद्ध उपस्थित हुआ है। ब्राह्मण ने कहा- राजेन्‍द्र! मेरी वही प्रतिज्ञा इस समय भी हैं। मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपको क्‍या दूँ? बोलिये, विलम्‍ब न कीजिये। मैं शक्ति रहते आपको मुँह माँगी वस्‍तु अवश्‍य प्रदान करूँगा। राजा ने कहा- मुने! य‍दि आप देना ही चाहते है तो पूरे सौ वर्षों तक जप करके आपने जिस फल को प्राप्‍त किया हैं, वही मुझे दे दीजिये। ब्राह्मण ने कहा- राजन! मैंने जो जप किया है उसका उत्‍तम फल आप ग्रहण करें। मेरे जप का आधा फल तो आप बिना विचारे ही प्राप्‍त करें अथवा यदि आप मेरे द्वारा किये हुए जप का सारा ही फल लेना चाहते हों तो अवश्‍य अपनी इच्‍छा के अनुसार वह सब प्राप्‍त कर लें। राजा ने कहा- ब्रह्मन! मैंने जो जप का फल माँगा है, उन सबकी पूर्ति हो गयी। आपका भला हो, कल्‍याण हो। मैं चला जाऊँगा; किंतु यह तो बता दीजिये कि उसका फल क्‍या है?[1] ब्राह्मण ने कहा- राजन! इस जप का फल क्‍या मिलेगा? इसको मैं नहीं जानता; परंतु मैंने जो कुछ जप किया था, वह सब आपको दे दिया। ये धर्म, यम, मृत्‍यु और काल इस बात के साक्षी हैं। राजा ने कहा- ब्रह्मन! य‍दि आप मुझे अपने जपजनित धर्म का फल नहीं बता रहे हैं तो इस धर्म का अज्ञात फल मेरे किस काम आयेगा? वह सारा फल आप ही के पास रहे। मैं संदिग्‍ध फल नहीं चाहता। ब्राह्मण ने कहा- राजर्षे! अब तो मैं अपने जप का फल दे चुका; अत: दूसरी कोई बात नहीं स्‍वीकार करूँगा। इस विषय में आज मेरी और आपकी बातें ही प्रमाणस्‍वरूप हैं (हम दोनों को अपनी-अपनी बातों पर दृढ़ रहना चाहिये)। राजसिंह! मैंने जप करते समय कभी फल की कामना नहीं की थी; अत: इस जप का क्‍या फल होगा, यह कैसे जान सकूँगा? आपने कहा था कि 'दीजिये' और मैंने कहा था कि 'दूँगा'- ऐसी दशा में मैं अपनी बात झूठी नहीं करूँगा। आप सत्‍य की रक्षा कीजिये और इसके लिये सुस्थिर हो जाइये। राजन! यदि इस तरह स्‍पष्ट बात करने पर भी आप आज मेरे वचन का पालन नहीं करेंगे तो आपको असत्‍य का महान पाप लगेगा। शत्रुदमन नरेश! आपके लिये भी झूठ बोलना उचित नहीं है और मैं भी अपनी कही हुई बात को मिथ्‍या नहीं कर सकता। मैंने बिना कुछ सोच-विचार किये ही पहले देने की प्रतिज्ञा कर ली है; अत: आप भी बिना विचारे मेरा दिया हुआ जप ग्रहण करें। यदि आप सत्‍य पर दृढ़ हैं तो आपको ऐसा अवश्‍य करना चाहिये।[2]


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