Bathua buzurg is one of the ancient village in bihar.It comes under saraisa pargana as mentioned in a british govt. notification.It is a village of ex landlords who ruled over saraisa pargana.The original residents are Dronwar brahmans a sub caste of Bhumihar brahman.It is said that they migrated from Arabian countries via-sind-punjab-delhi-eastern uttar pradesh-gaya(magadh)-bakhatiarpur(patna) to Bathua Buzurg before advent of Islamic sect.In mugal period they were controlling the area between budhi gandak in north and ganga in south.They never accepted mugals.The main occupation of the people was cultivation because they were landwonners. Education was not in their profits because of jam in dark system they had raised who worked in the farm with the help of cultivation tools and oxen.They had horses,cows,buffaloes ,oxenfor agricultural uses. Cows and buffaloes were main sources of milk.They were good fighters also.One Sri Pahar Singh was chief of army in Kuch BiharEstate of Bengal.In his sixth generation was Sri Khan ter Singh with his son Sri Ram Naray an Sinha whose sons are Dr Sudhir PRASAD Sinha and Dr Prabeen Mums Singh.In Bathua Buzurg cultivation remained main profession.Education was in less priority though village had primary and middle schools much before independenc
Monday, February 11, 2019
Sunday, February 10, 2019
एचआर नेविल की किताब से तमाम ऐसी जानकारियां मिलीं जो हिंदुस्तानी सामाजिक जीवन के के नए-नए रहस्य उजागर चलती हैं। तब पता चलता है कि इतिहास हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य क्यों है। नेविल लिखते हैं कि 1891 में हिंदू और मुसलमानों में जाति व्यवस्था लगभग बराबर की थी। दोनों में साठ से ऊपर जातियां थीं और कोई जाति किसी की दबैल नहीं थी। हिंदुओं में ब्राह्मणों की संख्या अन्य जातियों की तुलना में अधिक थी। कानपुर जिले में ब्राह्मण करीब 15.4 प्रतिशत थे यानी तब की मर्दनशुमारी के हिसाब से 171569 लोग ऐसे थे जो स्वयं को ब्राह्मण बताते थे। कानपुर और शिवराजपुर तहसील में तो उनकी तूती बोलती थी। ज्यादातर धनी-मानी और बनियों की तरह लेनदेन का धंधा भी करते थे। ब्राह्मणों द्वारा महाजनी नई बात नहीं है। बड़े चौराहे के पास जिन महाराज प्रयागनारायण तिवारी का शिवाला है वे महाजनी करते थे और कलकत्ता से अपना बैंक लेकर कानपुर आए थे। चौक सर्राफे में आज भी ब्राह्मण महाजन व स्वर्णाभूषण बेचने वाले सबसे ज्यादा मिलेंगे। उसके बाद खत्री फिर बनिया। कानपुर में मारवाड़ी न आते तो बनिया यहां अत्यंत दीन अवस्था में थे। ब्राह्मणों में यहां असंख्य जातियां थीं। पहले नंबर पर कनौजिये फिर गौड़ों के गांव और इसके बाद सनाढ्य और तब सारस्वत एवं सरयूपारीण। इनके अलावा चौधरी ब्राह्मणों की आबादी भी खूब थी। औरय्या में दुबे चौधरी, तिर्वा में तिवारी चौधरी और बरौर के चौबे चौधरी कनौजियों में बड़े प्रख्यात हुए। ये सब बड़े जागीरदार थे और सिंह की उपाधि लगाते थे। इन ब्राह्मणों का जातीय बटवारा अकबर के समय किया गया था। अकबर के समय ही चौधरियों को सिंह टाइटिल लगाने की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा रिंद के किनारे-किनारे जगरवंशी आबाद हैं। कहा जाता है कि कोड़ा जहानाबाद के मुस्लिम शासक के यहां जगनप्रसाद बड़े जागीरदार हुए। इसलिए शाहजहां ने इन्हें सिंह उपाधि दी। इन जगरवंशियों में कांग्रेस के एक बड़े नेता चौधरी बेनीसिंह अवस्थी हुए हैं। ये जगरवंशी खूब धनाढ्य हुआ करते थे पर समय के फेर में सब बरबाद हो गए। इन जगरवंशियों के यहां घूंघट प्रथा नहीं थी। हमारे कानपुर के घर में एक जगरवंशी चौधरी दिलीप सिंह अवस्थी किरायेदार थे और मैने कभी उनकी पत्नी को घूंघट करते नहीं देखा।
इसके बाद थे चमार। इनकी आबादी कोई 13.5 प्रतिशत थी और ये अधिकतर ब्राह्मणों और राजपूतों के यहां खेत मजदूरी करते थे। पर जब एलेन कूपर कंपनी ने यहां मिलें स्थापित कीं तो लाल इमली में सबसे पहले काम करने चमार ही आए। ये बाद में इतने संपन्न हो गए कि कई लोगों ने तो जमींदारी भी खरीदीं और इनमें चौधरी साँवलदास भगत मशहूर हुए हैं। कुछ चमारों ने लेनदेन का काम भी शुरू किया। स्वामी अछूतानंद ने इनके लिए बड़ा काम किया। तीसरे नंबर पर थे अहीर और इनकी आबादी कोई 10.73 थी। मनुष्य गणना के लिहाज से 122380 अहीर। किसानी और पशुपालन दोनों काम ये करते थे। इनकी जातीय विशेषताओं पर फिर कभी लिखूंगा। खैर अहीरों के बाद आबादी ठाकुरों की थी और उसमें भी नंबर एक पर थे गौर। जो शायद मेवों के समय यहां आए। कानपुर में कुल राजपूत आबादी 8.01 प्रतिशत थी। ये लोग अपना मूल स्थान राजस्थान नहीं बल्कि मालवा बताते हैं। इसके बाद नंबर गौतमों का था और फिर चौहानों का, परिहारों व कछवाहों तथा सेंगरों का। इनके अलावा मुस्लिम राजपूत भी खासी संख्या में थे। इनके बाद नंबर आता है कुर्मियों का जिनकी कानपुर में आबादी 4.76 परसेंट थी। और अधिकतर घाटमपुर व भोगनीपुर में आबाद थे। घाटमपुर में इनकी एक गढ़ी बीरपाल में थी जहां इनकी टाइटिल चौधरी थी। कुर्मियों की एक बड़ी आबादी झमैयों (झबैयों) की थी और कहा जाता है कि ये किसी शेख झामा के शिष्य थे। शेख मखदूम जहानिया जहानगश्त के असर में थे और इनके यहां हाल तक आधी रस्में मुसलमानी थीं। इनके बाद लोध थे और फिर काछी, कोरी, माली, धोबी आदि जातियां। तेलियों की आबादी भी पर्याप्त थी। करीब तीन प्रतिशत बनिये थे और इतने ही कायस्थ।
मुसलमानों में 56 जातियां थीं पर ज्यादातर सुन्नी करीब 97 प्रतिशत और तीन प्रतिशत शिया थे। मुस्लिम जातियों में शेख सबसे ज्यादा थे करीब 47.7 प्रतिशत। इनके अंदर सिद्दकी सबसे ज्यादा फिर कुरेशी। दूसरे नंबर पर पठान थे करीब 17 प्रतिशत। इनके बाद नंबर सैयदों का आता है जिनकी आबादी तब 7056 थी। इसके बाद अन्य जातियां। उस समय कानपुर में 2633 ईसाई थे। जिनमें 345 योरोपियन और बाकी के देसी।
नोट- यह सारी सामाजिक संरचना एचआर नेविल, आईसीएस की पुस्तक से ली गई है। इसलिए अगर इन आंकड़ों में कुछ भी अविश्वसनीय लगे तो कृपया मेरे खिलाफ मोर्चा मत खोल लेना। सीधे ऊपर का टिकट लीजिए और जाकर नेविल से भिड़ जाइएगा। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए मैं नेविल की पुस्तक के कुछ अंश डाले दे रहा हूं।
इसके बाद थे चमार। इनकी आबादी कोई 13.5 प्रतिशत थी और ये अधिकतर ब्राह्मणों और राजपूतों के यहां खेत मजदूरी करते थे। पर जब एलेन कूपर कंपनी ने यहां मिलें स्थापित कीं तो लाल इमली में सबसे पहले काम करने चमार ही आए। ये बाद में इतने संपन्न हो गए कि कई लोगों ने तो जमींदारी भी खरीदीं और इनमें चौधरी साँवलदास भगत मशहूर हुए हैं। कुछ चमारों ने लेनदेन का काम भी शुरू किया। स्वामी अछूतानंद ने इनके लिए बड़ा काम किया। तीसरे नंबर पर थे अहीर और इनकी आबादी कोई 10.73 थी। मनुष्य गणना के लिहाज से 122380 अहीर। किसानी और पशुपालन दोनों काम ये करते थे। इनकी जातीय विशेषताओं पर फिर कभी लिखूंगा। खैर अहीरों के बाद आबादी ठाकुरों की थी और उसमें भी नंबर एक पर थे गौर। जो शायद मेवों के समय यहां आए। कानपुर में कुल राजपूत आबादी 8.01 प्रतिशत थी। ये लोग अपना मूल स्थान राजस्थान नहीं बल्कि मालवा बताते हैं। इसके बाद नंबर गौतमों का था और फिर चौहानों का, परिहारों व कछवाहों तथा सेंगरों का। इनके अलावा मुस्लिम राजपूत भी खासी संख्या में थे। इनके बाद नंबर आता है कुर्मियों का जिनकी कानपुर में आबादी 4.76 परसेंट थी। और अधिकतर घाटमपुर व भोगनीपुर में आबाद थे। घाटमपुर में इनकी एक गढ़ी बीरपाल में थी जहां इनकी टाइटिल चौधरी थी। कुर्मियों की एक बड़ी आबादी झमैयों (झबैयों) की थी और कहा जाता है कि ये किसी शेख झामा के शिष्य थे। शेख मखदूम जहानिया जहानगश्त के असर में थे और इनके यहां हाल तक आधी रस्में मुसलमानी थीं। इनके बाद लोध थे और फिर काछी, कोरी, माली, धोबी आदि जातियां। तेलियों की आबादी भी पर्याप्त थी। करीब तीन प्रतिशत बनिये थे और इतने ही कायस्थ।
मुसलमानों में 56 जातियां थीं पर ज्यादातर सुन्नी करीब 97 प्रतिशत और तीन प्रतिशत शिया थे। मुस्लिम जातियों में शेख सबसे ज्यादा थे करीब 47.7 प्रतिशत। इनके अंदर सिद्दकी सबसे ज्यादा फिर कुरेशी। दूसरे नंबर पर पठान थे करीब 17 प्रतिशत। इनके बाद नंबर सैयदों का आता है जिनकी आबादी तब 7056 थी। इसके बाद अन्य जातियां। उस समय कानपुर में 2633 ईसाई थे। जिनमें 345 योरोपियन और बाकी के देसी।
नोट- यह सारी सामाजिक संरचना एचआर नेविल, आईसीएस की पुस्तक से ली गई है। इसलिए अगर इन आंकड़ों में कुछ भी अविश्वसनीय लगे तो कृपया मेरे खिलाफ मोर्चा मत खोल लेना। सीधे ऊपर का टिकट लीजिए और जाकर नेविल से भिड़ जाइएगा। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए मैं नेविल की पुस्तक के कुछ अंश डाले दे रहा हूं।
Friday, February 8, 2019
भारत में करोड़ों ब्राह्मण हुए हैं .सबकी पहचान क्या है ? 'पण्डे-पुरोहित की' .पर क्या सारे के सारे लोग मंदिरों में ही बैठे हुए थे ?..हरियाणा -उत्तर प्रदेश-बिहार -राजस्थान-मध्य प्रदेश -बुंदेलखंड के ब्राह्मण खेतों में पसीना बहाते रहे और शानदार कृषि करते रहे . भारत के सबसे शानदार किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती भूमिहार ब्राह्मण थे .अवध में ज़मींदारों के अत्याचार के खिलाफ किसान विद्रोह का नेतृत्व करने वाले बाबा रामचन्दर ब्राह्मण थे .चित्तू पाण्डे जैसे जुझारू किसान नेता पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुए .1857 से पहले यही लोग सेना में रहे .पर ये क्या हुआ कि हमारे माथे पर 'पुरोहित या दान लेने वाले का ' स्टीकर चिपका दिया गया .हमने इसे मान भी लिया .हमनें एक पाप कर दिया .अपने पुरखों के पसीने को भुला दिया .उस गौतम ऋषि को भुला दिया जिसने कृषि के परम्परा शुरू की .आज अगर किसी के पास ज़मीन नहीं है तो क्या हुआ .उसके पुरखे तो खेती पर ही जी रहे थे .सांस्कृतिक पहचान पुरखों से होती है .और वो सब मंदिरों में नहीं थे .याद रहे - पण्डे पुरोहित को कटघरे में खड़ा करना आसान है .किसान को नहीं .इसलिए वो पहचान छीन ली गई .इस षड़यंत्र में अँगरेज़ सफल हुआ .आज़ादी के बाद बाकी सब किसान जातियों से सम्बन्ध टूट गए .सिर्फ इस आधार पर कि ब्राह्मण काम करके नहीं खाता बल्कि मांगकर खाता है .प्रतिक्रिया में ब्राह्मणों ने 'दान' का बचाव शुरू कर दिया .किसी ने ये नहीं सोचा कि लाखों ब्राह्मण खेत में एड़ियां रगड़ रहे हैं .धीरे धीरे ज़मीनें छिनती गईं .बच्चे शहरों में नौकरियों में आ गए .और सारा किसान इतिहास भुला दिया गया
Thursday, February 7, 2019
संघर्ष गति का होता है सीढ़ियों का नहीं,
संघर्ष दृष्टि का होता है पीढ़ियों का नहीं।
गति बदलो सीढियाँ बदलेगी,
दृष्टि बदलो पीढियां बदलेगी।
इतिहास में नायकवाद की परंपरा नई नहीं है वरण युग पुरुष की अवधारणा निरंतर चली आ रही है। कुछ युग पुरुष ऐसे होते हैं जो स्वर्णिम भूमिका निभाने के बावजूद भी इतिहास में वो स्थान प्राप्त नहीं कर पाते जो स्थान उन्हें वास्तव में प्राप्त करना चाहिए ऐसे हीं महापुरुषों में एक थे - शीलभद्र याजी।
शीलभद्र याजी जिनके बचपन का नाम लड्डू शर्मा था, का जन्म 22 मार्च 1906 को बख्तियारपुर में याजी मूल के शांडिल्य गोत्रीय परिवार में हुआ। वो पहले ऐसे भारतीय थे जिनका कोर्ट मार्शल किया गया। जेल में छह महीने के कठिन यातना झेलते रहे।ओइस बात का पता जब गांधीजी को चला तब उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को तीन पत्र लिखे।
पंडित शिवतहल याजी और रेशमा याजी की इकलौती संतान थे। 10 वर्ष की अवस्था में माँ - बाप के स्नेह से बंचित हुए याजी का पालन - पोषण उनके एक रिश्तेदार श्रीमती पार्वती देवी ने किया। याजी के पिताजी अपनी भक्ति भावना के कारण " भगत जी" के नाम से प्रचलित थे।
बचपन ननिहाल ( बेधना, थाना बाढ़, जिला - पटना) में बीता। शीलभद्र याजी का विवाह नवादा जिलान्तर्गत पकड़िया गांव के निवासी मुंशी सिंह की पुत्री बलकेश्वरी याजी से 1936 में हुई।
श्री याजी की शिक्षा - दीक्षा भी ग्रामीण परिवेश में हुई। उन्होंने बख्तियारपुर स्थित मिडिल स्कूल में अध्ययन करते हुए स्कालरशिप भी प्राप्त किया। बाढ़ के बेली हाई स्कूल से मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उन्होंने उच्च शिक्षा बिहार नेशनल कॉलेज पटना में जारी रखा।
विद्यार्थी जीवन से ही कांग्रेस में गहरी रुचि रखने वाले याजी ने खादी वस्त्र को अंगीकार किया। शनै- शनै वे एक क्रियाशील छात्र नेता के रूप में उभरे । सन 1931 में नेताजी बोस के अध्यक्षता में करांची ( अब पाकिस्तान) में हुए नौजवान सभा में सक्रिय हिस्सा लिया।
इस प्रकार शीलभद्र याजी अपनी किशोरावस्था में ही स्वतंत्रता की राह पर चल पड़े थे। जिसे उन्होंने अपने लिए चुना था। निःस्वार्थ भाव से वो देश की स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।1920 के असहयोग आंदोलन में भी उन्होंने हिस्सा लिया ( तब वो मात्र 14 साल के थे)
महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आंदोलन ( 1930- 32) के समय वो पटना जिला कांग्रेस के संगठन निदेशक थे। इस आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लेकर उन्होंने राष्ट्रसेवा में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया।
अपने प्रगतिवादी विचारो से उन्होंने अपने आपको कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से सम्बंधित कर लिया, और इसके संस्थापक सदस्यों में से एक बने। 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के तटस्थ रहने के कारण उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी। क्योंकि इस अधिवेशन में पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त द्वारा सुभाष बाबू के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया।
20 मार्च 1940 को बिहार के रामगढ़ में हुए अखिल भारतीय समझौता विरोधी सम्मलेन के उनकी सक्रियता काफी बढ़ गई। इस सम्मलेन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा था " समझौता परस्ती एक अपवित्र वस्तु है।" नेताजी की अनुपस्थिति में 1942 में वो फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष बनाये गए। आजादी की पूर्व संध्या , फरबरी 1946 को रॉयल ब्रिटिश नेवी में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। फरवरी 1946 में वो मुम्बई में नौसेना विद्रोह को भड़काने के कारण 10 वीं बार गिरफ्तार किये गए।
शीलभद्र याजी : एक सक्रिय किसान नेता
निम्नवर्गीय किसान परिवार में जन्म लेने के कारण वे सदैव किसानों से सम्बद्ध रहे। स्वामी सहजानन्द सरस्वती से उनका सम्पर्क 1926 में हुआ तथा 1928 में स्वामीजी द्वारा स्थापित बिहार किसान सभा के वो सदस्य बने। 1934 में वो पटना जिला किसान सभा के अध्यक्ष चुने गए और बाद में उसके मंत्री। किसानों के मौलिक अधिकार के विरुद्ध किसी भी काश्तकारी कानून की उन्होंने खिलाफत की। किसान आंदोलन का भारी दबाव सरकार एवं जमींदार वर्ग पर पड़ा।
1939 में सुभाष चंद्र बोस, स्वामी सहजानन्द सरस्वती एवम शीलभद्र याजी आदि नेताओं को पार्टी ( कांग्रेस) से निष्काषित कर दिया गया।
वस्तुतः किसानों की वास्तविक समस्या को समझने के साथ साथ याजी जी ने उनका संगठन और नेतृत्व का कार्य किया। पटना जिले में ही नही वरन बिहार किसान आंदोलन में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है।
सुभाष चंद्र बोस के अनन्य सहयोगी
सुभाष बाबू से उनका सम्पर्क 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सर्वप्रथम हुआ था। कालान्तर में वो उनके अनन्य सहयोगी बने। 1938 में श्री शुभाष चंद्र बोस ने अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की एवम श्री याजी को इसकी प्रांतीय शाखा का अध्यक्ष बनाया गया। 1939 में सुभाष चंद्र बोस गांधीजी के विरोध के बावजूद कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस विजय में श्री याजी की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी । दरअसल उन्होंने समस्त बामपंथी पार्टियों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया था। सोशलिस्ट पार्टी की तटस्थता के कारण उन्होंने उससे नाता तोड़ लिया।
सुभाष चंद्र बोस एवम स्वामी सहजानन्द सरस्वती के साथ श्री शीलभद्र याजी ने भी गांधीजी द्वारा ' डोमिनियन स्टेट' व्यवस्था कबूल करने संबंधी समझौते का विरोध किया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अनुपस्थिति ( विदेश चले जाने की स्थिति) में श्री याजी 1942 में अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष बने। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी अपना योगदान दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सभी बामपंथी दलों को एकजुट करने के पक्षधर याजी ने देशभर में फॉरवर्ड ब्लॉक की शाखाएं खोलने में एड़ी चोटी का दम लगा दिया।
जन प्रतिनिधि के रूप में शीलभद्र याजी
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पंडित शीलभद्र याजी ने एक तरफ जहाँ किसान आंदोलन को मजबूत किया वही दूसरी तरफ उन्होंने किसान समस्या को विधायिका में उठाने का काम किया। राजनीति में उन्होंने एक सफल संगठनकर्ता, चिंतक एवम योग्यतम राजनीतिज्ञ की भूमिका निबाही। 1937 - 1960 के बीच उन्होंने सक्रीय राजनीति में अविस्मरणीय योगदान दिया तथा एक सक्षम एवम सफल सांसद के रूप में ख्यात हुए। सर्वप्रथम 1937 में बाढ़ के विधायक बने याजी ने अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय लिया वो यह कि कभी भी मंत्री पद स्वीकार नहीं करेंगे बल्कि निःस्वार्थ भाव से जनता की सेवा करेंगे।
डॉ. सिन्हा के आग्रह के बावजूद उन्होंने मंत्रिपद स्वीकार नही किया। 1937 से 45 तक वो न सिर्फ विधायक रहे वरन कांग्रेस के प्रदेश सचेतक रहे। 1957 से 1972 तक वो राज्यसभा के सदस्य रहे। इस काल में उन्होंने अपनी वैज्ञानिक सामाजिक विचारधारा से देश की राजनैतिक, अर्थ- सामाजिक एवं श्रम- समस्यओं के समाधान की रुपरेखा तैयार करने में अपना योगदान दिया। किसान मजदूरों की समस्या को राज्यसभा में उन्होंने प्रभावशाली ढंग से रखा। उन्होंने राज्यसभा में आजाद हिंद फौज की भी पुरजोर वकालत की।
शराबबंदी के संदर्भ में उनका विचार व्यावहारिक था । इस विषय पर राज्यसभा में बोलते हुए श्री याजी ने कहा था-" यदि मद्द- निषेध करना है तो समाजसेवी, राजनितिक नेता और पार्टी को आगे आकर सर्वप्रथम लोगो को जागरूक करना चाहिए। लोगों को शराब के नुकसान के बारे में समझाया जाए। सीधे कानून बनाना रिवेन्यू के अवसर को सीमित करना है" ।
शीलभद्र याजी संसद की कार्यवाही को पूर्णतः पारदर्शी बनाना चाहते थे। समाजवाद के समर्थक याजी ने सुपर प्रॉफिट टैक्स बिल 1963 का समर्थन किया और कहा कि यह भारत के संविधान में वर्णित ' समाजवाद' के आदर्शों के अनुकूल है।
भारतीय कृषि के समक्ष वर्तमान में कई संकट हैं, पर जब हम इसका सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि कृषि के उत्थान पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।
भले हीं अर्थव्यवस्था में आज कृषि का योगदान 14 % के आसपास रहा हो परंतु आज भी सर्वाधिक रोजगार का सृजन प्राथमिक क्षेत्र में ही होता है। वर्तमान भारतीय कृषि की दशा ऐसी है कि कृषि आज एक ' अलाभकारी' पेशा बनकर रह गई है। भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदीजी के ये कहने से कि 2022 तक कृषकों की आय को दुगुना किया जाएगा, से थोड़ी उम्मीद तो बढ़ी है पर इस क्षेत्र में क्रन्तिकारी सुधार की जरूरत है।
कृषि के क्षेत्र में सुधार से पहले भूमि सुधार आवश्यक है, भारत में औसत जोत अन्य देशों की तुलना में बहुत छोटी है जबकि भू संसाधन के बहुत बड़े भाग का उपयोग नही हो पाता। संसाधनों के बुद्धिमतापूर्ण उपयोग के बिना क्या तीब्र , सतत एवम अधिक समावेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है? सोचनीय है।
कृषि के समक्ष दूसरी समस्या ऋण की है। ग्रामीण ऋण का अधिकांश भाग आज भी महाजनों पर आधृत है जो उच्च दर पर ब्याज लेकर कृषि लाभ के अवसर को सीमित कर देते हैं। दूसरी तरफ वित्तीय समन्वय ( फाइनेंसियल इंकलुजन) के बावजूद कृषकों की बैंक में गहरी रुचि नही बन पाई है इसका कारण बैंक्स का व्यवहार है। ऋण के दबाव में कृषक आतमहतया करने पर मजबूर हो रहे हैं।
कृषि के समक्ष तीसरी समस्या गुणवत्तापूर्ण बीज एवं उर्वरक का अभाव है, अपितु इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य यथा सभी यूरिया को निम्लेपित किया जाना आदि किया गया है तथापि ये प्रयास नाकाफी है। फॉस्फोरस उर्वरक के सर्वाधिक बड़े सुरक्षित भंडार वाला देश अगर सौ फीसदी उर्वरक के आयात पे आश्रित हो तो स्थिति और भी हास्यास्पद हो जाती है। भारत में जी ऍम फसलों को स्वीकृति देनी चाहिए ताकि उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ कृषि लागत में कमी एवं बचत में वृद्धि सुनिश्चित हो सके।
भारतीय कृषि के समक्ष चौथी चुनौती , आर्थिक असमानता की है। वैश्विक स्तर पर असमानता में भारत का स्थान रूस के बाद दूसरा है, जबकि वैश्विक दासता सूचकांक में हमारा स्थान सबसे ऊपर है। आर्थिक असमानता के कारण भारत समृद्ध हो रहा है जबकि भारतीय गरीब हो रहे हैं। सोचनीय ये है कि ये रोजगार विहीन समृद्धि देश को कहाँ ले जाएगी। कृषि पर दबाव का एक कारण प्रच्छन बेरोजगारी भी है।
कुल मिलाकर भारतीय कृषि आज भी मानसून के साथ जुआ ही है, बीमा योजनाए अपितु उपलब्ध हैं परंतु पर्याप्त अज्ञानता के कारण किसान इसका लाभ उठा पाने में असमर्थ हैं।
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के पीछे समाजार्थिक कारण तो हैं ही राजनितिक कारण से भी इंकार नही किया जा सकता है।
इसमें सुधार के लिए आवश्यक है कि कोई भी नीति योजना बनाने या लागु करने से पहले कृषक हित को ध्यान में रखना चाहिए। कृषि बीमा, डारेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर, बैंक अकाउंट आदि कृषक कल्याण में अपितु बहुत महत्वपूर्ण हैं परंतु इससे अधिक सुधार की जरूरत है।
अंत में ये कहना गलत नहीं होगा कि -" स्वर्गीय शीलभद्र याजी ने जिस वैज्ञानिक समाजवाद का स्वप्न देखा था वो आज भी ' दिवा स्वप्न' ही है"
Friday, February 1, 2019
इस बीच, लंदन सभी सोने और चांदी के साथ समाप्त हो गया, जो सीधे उनके निर्यात के बदले भारतीयों को जाना चाहिए था।
इस भ्रष्ट व्यवस्था का अर्थ था कि भले ही भारत शेष विश्व के साथ एक प्रभावशाली व्यापार अधिशेष चला रहा था - एक अधिशेष जो 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में तीन दशकों तक चला - यह राष्ट्रीय खातों में कमी के रूप में दिखा क्योंकि भारत से वास्तविक आय निर्यात ब्रिटेन द्वारा अपनी संपूर्णता में विनियोजित था।
कुछ लोग इस काल्पनिक "कमी" का प्रमाण देते हैं कि भारत ब्रिटेन के प्रति एक दायित्व था। लेकिन इसके ठीक विपरीत है। ब्रिटेन ने बड़ी मात्रा में आय को बाधित किया जो भारतीय उत्पादकों के लिए सही था। भारत वह हंस था जिसने स्वर्ण अंडा दिया था। इस बीच, "घाटे" का अर्थ था कि भारत के पास अपने आयात को वित्त करने के लिए ब्रिटेन से उधार लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इसलिए पूरी भारतीय आबादी को अपने औपनिवेशिक अधिपतियों को पूरी तरह से अनावश्यक कर्ज में दबाना पड़ा, जिससे ब्रिटिश नियंत्रण और मजबूत हो गया।
ब्रिटेन ने 1765 से 1938 की अवधि के दौरान भारत से लगभग $ 45 ट्रिलियन की निकासी की।
यह एक चौंका देने वाला तथ्य है। यह एक चौंका देने वाला योग है। परिप्रेक्ष्य के लिए, $ 45 ट्रिलियन आज यूनाइटेड किंगडम के कुल वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद से 17 गुना अधिक है।यह व्यापार प्रणाली के माध्यम से हुआ। औपनिवेशिक काल से पहले, ब्रिटेन ने भारतीय उत्पादकों से कपड़ा और चावल जैसे सामान खरीदे और उनके लिए सामान्य तरीके से भुगतान किया - ज्यादातर चांदी के साथ - जैसा कि उन्होंने किसी अन्य देश के साथ किया। लेकिन 1765 में कुछ बदल गया, इसके तुरंत बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने उपमहाद्वीप पर नियंत्रण कर लिया और भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया।यहाँ यह कैसे काम किया है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में करों का संग्रह शुरू किया, और फिर बड़ी चतुराई से उन राजस्व के एक हिस्से (लगभग एक तिहाई) का इस्तेमाल ब्रिटिश उपयोग के लिए भारतीय सामानों की खरीद के लिए किया। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश व्यापारियों ने अपनी जेब से भारतीय सामानों का भुगतान करने के बजाय, उन्हें मुफ्त में किसानों और बुनकरों से "खरीदने" का अधिग्रहण किया, जो अभी उनसे लिया गया था।
यह एक चौंका देने वाला तथ्य है। यह एक चौंका देने वाला योग है। परिप्रेक्ष्य के लिए, $ 45 ट्रिलियन आज यूनाइटेड किंगडम के कुल वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद से 17 गुना अधिक है।यह व्यापार प्रणाली के माध्यम से हुआ। औपनिवेशिक काल से पहले, ब्रिटेन ने भारतीय उत्पादकों से कपड़ा और चावल जैसे सामान खरीदे और उनके लिए सामान्य तरीके से भुगतान किया - ज्यादातर चांदी के साथ - जैसा कि उन्होंने किसी अन्य देश के साथ किया। लेकिन 1765 में कुछ बदल गया, इसके तुरंत बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने उपमहाद्वीप पर नियंत्रण कर लिया और भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया।यहाँ यह कैसे काम किया है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में करों का संग्रह शुरू किया, और फिर बड़ी चतुराई से उन राजस्व के एक हिस्से (लगभग एक तिहाई) का इस्तेमाल ब्रिटिश उपयोग के लिए भारतीय सामानों की खरीद के लिए किया। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश व्यापारियों ने अपनी जेब से भारतीय सामानों का भुगतान करने के बजाय, उन्हें मुफ्त में किसानों और बुनकरों से "खरीदने" का अधिग्रहण किया, जो अभी उनसे लिया गया था।
यह एक घोटाला था - एक भव्य पैमाने पर चोरी। फिर भी अधिकांश भारतीय इस बात से अनभिज्ञ थे कि क्या चल रहा है क्योंकि करों को एकत्र करने वाला एजेंट वैसा नहीं था जैसा कि अपना माल खरीदने के लिए दिखाया जाता है।
चोरी के सामानों में से कुछ का ब्रिटेन में उपभोग किया गया था, और बाकी को कहीं और फिर से निर्यात किया गया था। पुनः निर्यात प्रणाली ने ब्रिटेन को यूरोप से आयात के प्रवाह को वित्त करने की अनुमति दी, जिसमें सामरिक सामग्री जैसे लोहा, टार और लकड़ी शामिल थे, जो ब्रिटेन के औद्योगीकरण के लिए आवश्यक थे। वास्तव में, औद्योगिक क्रांति भारत से इस व्यवस्थित चोरी पर बड़े हिस्से में निर्भर थी।
इसके शीर्ष पर, अंग्रेज चोरी के सामानों को दूसरे देशों में बेचने के लिए अधिक सक्षम थे, क्योंकि उन्होंने उन्हें "खरीदा" पहले स्थान पर रखा, न केवल माल के मूल मूल्य का 100 प्रतिशत, बल्कि मार्कअप भी पॉकेट में डाल दिया1858 में ब्रिटिश राज के सत्ता में आने के बाद, उपनिवेशवादियों ने कर-और-खरीद प्रणाली में एक विशेष नया मोड़ जोड़ा। जैसे ही ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार टूटा, भारतीय उत्पादकों को अपना माल सीधे दूसरे देशों में निर्यात करने की अनुमति दी गई। लेकिन ब्रिटेन ने यह सुनिश्चित किया कि उन सामानों का भुगतान लंदन में समाप्त हो जाए।
यह कैसे काम किया? मूल रूप से, जो कोई भी भारत से सामान खरीदना चाहता था, वह विशेष परिषद विधेयकों का उपयोग करके ऐसा करेगा - केवल ब्रिटिश क्राउन द्वारा जारी एक अद्वितीय कागजी मुद्रा। और उन बिलों को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका उन्हें सोने या चांदी के साथ लंदन से खरीदना था। इसलिए व्यापारी बिल प्राप्त करने के लिए लंदन को सोने में भुगतान करते हैं, और फिर बिल का उपयोग भारतीय उत्पादकों को भुगतान करने के लिए करते हैं। जब भारतीयों ने स्थानीय औपनिवेशिक कार्यालय में बिलों को भुनाया, तो उन्हें कर राजस्व से बाहर रुपए में "भुगतान" किया गया था - धन जो अभी उनसे एकत्र किया गया था। इसलिए, एक बार फिर, वे वास्तव में भुगतान नहीं किए गए थे; उन्हें धोखा दिया गया।
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