एचआर नेविल की किताब से तमाम ऐसी जानकारियां मिलीं जो हिंदुस्तानी सामाजिक जीवन के के नए-नए रहस्य उजागर चलती हैं। तब पता चलता है कि इतिहास हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य क्यों है। नेविल लिखते हैं कि 1891 में हिंदू और मुसलमानों में जाति व्यवस्था लगभग बराबर की थी। दोनों में साठ से ऊपर जातियां थीं और कोई जाति किसी की दबैल नहीं थी। हिंदुओं में ब्राह्मणों की संख्या अन्य जातियों की तुलना में अधिक थी। कानपुर जिले में ब्राह्मण करीब 15.4 प्रतिशत थे यानी तब की मर्दनशुमारी के हिसाब से 171569 लोग ऐसे थे जो स्वयं को ब्राह्मण बताते थे। कानपुर और शिवराजपुर तहसील में तो उनकी तूती बोलती थी। ज्यादातर धनी-मानी और बनियों की तरह लेनदेन का धंधा भी करते थे। ब्राह्मणों द्वारा महाजनी नई बात नहीं है। बड़े चौराहे के पास जिन महाराज प्रयागनारायण तिवारी का शिवाला है वे महाजनी करते थे और कलकत्ता से अपना बैंक लेकर कानपुर आए थे। चौक सर्राफे में आज भी ब्राह्मण महाजन व स्वर्णाभूषण बेचने वाले सबसे ज्यादा मिलेंगे। उसके बाद खत्री फिर बनिया। कानपुर में मारवाड़ी न आते तो बनिया यहां अत्यंत दीन अवस्था में थे। ब्राह्मणों में यहां असंख्य जातियां थीं। पहले नंबर पर कनौजिये फिर गौड़ों के गांव और इसके बाद सनाढ्य और तब सारस्वत एवं सरयूपारीण। इनके अलावा चौधरी ब्राह्मणों की आबादी भी खूब थी। औरय्या में दुबे चौधरी, तिर्वा में तिवारी चौधरी और बरौर के चौबे चौधरी कनौजियों में बड़े प्रख्यात हुए। ये सब बड़े जागीरदार थे और सिंह की उपाधि लगाते थे। इन ब्राह्मणों का जातीय बटवारा अकबर के समय किया गया था। अकबर के समय ही चौधरियों को सिंह टाइटिल लगाने की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा रिंद के किनारे-किनारे जगरवंशी आबाद हैं। कहा जाता है कि कोड़ा जहानाबाद के मुस्लिम शासक के यहां जगनप्रसाद बड़े जागीरदार हुए। इसलिए शाहजहां ने इन्हें सिंह उपाधि दी। इन जगरवंशियों में कांग्रेस के एक बड़े नेता चौधरी बेनीसिंह अवस्थी हुए हैं। ये जगरवंशी खूब धनाढ्य हुआ करते थे पर समय के फेर में सब बरबाद हो गए। इन जगरवंशियों के यहां घूंघट प्रथा नहीं थी। हमारे कानपुर के घर में एक जगरवंशी चौधरी दिलीप सिंह अवस्थी किरायेदार थे और मैने कभी उनकी पत्नी को घूंघट करते नहीं देखा।
इसके बाद थे चमार। इनकी आबादी कोई 13.5 प्रतिशत थी और ये अधिकतर ब्राह्मणों और राजपूतों के यहां खेत मजदूरी करते थे। पर जब एलेन कूपर कंपनी ने यहां मिलें स्थापित कीं तो लाल इमली में सबसे पहले काम करने चमार ही आए। ये बाद में इतने संपन्न हो गए कि कई लोगों ने तो जमींदारी भी खरीदीं और इनमें चौधरी साँवलदास भगत मशहूर हुए हैं। कुछ चमारों ने लेनदेन का काम भी शुरू किया। स्वामी अछूतानंद ने इनके लिए बड़ा काम किया। तीसरे नंबर पर थे अहीर और इनकी आबादी कोई 10.73 थी। मनुष्य गणना के लिहाज से 122380 अहीर। किसानी और पशुपालन दोनों काम ये करते थे। इनकी जातीय विशेषताओं पर फिर कभी लिखूंगा। खैर अहीरों के बाद आबादी ठाकुरों की थी और उसमें भी नंबर एक पर थे गौर। जो शायद मेवों के समय यहां आए। कानपुर में कुल राजपूत आबादी 8.01 प्रतिशत थी। ये लोग अपना मूल स्थान राजस्थान नहीं बल्कि मालवा बताते हैं। इसके बाद नंबर गौतमों का था और फिर चौहानों का, परिहारों व कछवाहों तथा सेंगरों का। इनके अलावा मुस्लिम राजपूत भी खासी संख्या में थे। इनके बाद नंबर आता है कुर्मियों का जिनकी कानपुर में आबादी 4.76 परसेंट थी। और अधिकतर घाटमपुर व भोगनीपुर में आबाद थे। घाटमपुर में इनकी एक गढ़ी बीरपाल में थी जहां इनकी टाइटिल चौधरी थी। कुर्मियों की एक बड़ी आबादी झमैयों (झबैयों) की थी और कहा जाता है कि ये किसी शेख झामा के शिष्य थे। शेख मखदूम जहानिया जहानगश्त के असर में थे और इनके यहां हाल तक आधी रस्में मुसलमानी थीं। इनके बाद लोध थे और फिर काछी, कोरी, माली, धोबी आदि जातियां। तेलियों की आबादी भी पर्याप्त थी। करीब तीन प्रतिशत बनिये थे और इतने ही कायस्थ।
मुसलमानों में 56 जातियां थीं पर ज्यादातर सुन्नी करीब 97 प्रतिशत और तीन प्रतिशत शिया थे। मुस्लिम जातियों में शेख सबसे ज्यादा थे करीब 47.7 प्रतिशत। इनके अंदर सिद्दकी सबसे ज्यादा फिर कुरेशी। दूसरे नंबर पर पठान थे करीब 17 प्रतिशत। इनके बाद नंबर सैयदों का आता है जिनकी आबादी तब 7056 थी। इसके बाद अन्य जातियां। उस समय कानपुर में 2633 ईसाई थे। जिनमें 345 योरोपियन और बाकी के देसी।
नोट- यह सारी सामाजिक संरचना एचआर नेविल, आईसीएस की पुस्तक से ली गई है। इसलिए अगर इन आंकड़ों में कुछ भी अविश्वसनीय लगे तो कृपया मेरे खिलाफ मोर्चा मत खोल लेना। सीधे ऊपर का टिकट लीजिए और जाकर नेविल से भिड़ जाइएगा। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए मैं नेविल की पुस्तक के कुछ अंश डाले दे रहा हूं।
इसके बाद थे चमार। इनकी आबादी कोई 13.5 प्रतिशत थी और ये अधिकतर ब्राह्मणों और राजपूतों के यहां खेत मजदूरी करते थे। पर जब एलेन कूपर कंपनी ने यहां मिलें स्थापित कीं तो लाल इमली में सबसे पहले काम करने चमार ही आए। ये बाद में इतने संपन्न हो गए कि कई लोगों ने तो जमींदारी भी खरीदीं और इनमें चौधरी साँवलदास भगत मशहूर हुए हैं। कुछ चमारों ने लेनदेन का काम भी शुरू किया। स्वामी अछूतानंद ने इनके लिए बड़ा काम किया। तीसरे नंबर पर थे अहीर और इनकी आबादी कोई 10.73 थी। मनुष्य गणना के लिहाज से 122380 अहीर। किसानी और पशुपालन दोनों काम ये करते थे। इनकी जातीय विशेषताओं पर फिर कभी लिखूंगा। खैर अहीरों के बाद आबादी ठाकुरों की थी और उसमें भी नंबर एक पर थे गौर। जो शायद मेवों के समय यहां आए। कानपुर में कुल राजपूत आबादी 8.01 प्रतिशत थी। ये लोग अपना मूल स्थान राजस्थान नहीं बल्कि मालवा बताते हैं। इसके बाद नंबर गौतमों का था और फिर चौहानों का, परिहारों व कछवाहों तथा सेंगरों का। इनके अलावा मुस्लिम राजपूत भी खासी संख्या में थे। इनके बाद नंबर आता है कुर्मियों का जिनकी कानपुर में आबादी 4.76 परसेंट थी। और अधिकतर घाटमपुर व भोगनीपुर में आबाद थे। घाटमपुर में इनकी एक गढ़ी बीरपाल में थी जहां इनकी टाइटिल चौधरी थी। कुर्मियों की एक बड़ी आबादी झमैयों (झबैयों) की थी और कहा जाता है कि ये किसी शेख झामा के शिष्य थे। शेख मखदूम जहानिया जहानगश्त के असर में थे और इनके यहां हाल तक आधी रस्में मुसलमानी थीं। इनके बाद लोध थे और फिर काछी, कोरी, माली, धोबी आदि जातियां। तेलियों की आबादी भी पर्याप्त थी। करीब तीन प्रतिशत बनिये थे और इतने ही कायस्थ।
मुसलमानों में 56 जातियां थीं पर ज्यादातर सुन्नी करीब 97 प्रतिशत और तीन प्रतिशत शिया थे। मुस्लिम जातियों में शेख सबसे ज्यादा थे करीब 47.7 प्रतिशत। इनके अंदर सिद्दकी सबसे ज्यादा फिर कुरेशी। दूसरे नंबर पर पठान थे करीब 17 प्रतिशत। इनके बाद नंबर सैयदों का आता है जिनकी आबादी तब 7056 थी। इसके बाद अन्य जातियां। उस समय कानपुर में 2633 ईसाई थे। जिनमें 345 योरोपियन और बाकी के देसी।
नोट- यह सारी सामाजिक संरचना एचआर नेविल, आईसीएस की पुस्तक से ली गई है। इसलिए अगर इन आंकड़ों में कुछ भी अविश्वसनीय लगे तो कृपया मेरे खिलाफ मोर्चा मत खोल लेना। सीधे ऊपर का टिकट लीजिए और जाकर नेविल से भिड़ जाइएगा। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए मैं नेविल की पुस्तक के कुछ अंश डाले दे रहा हूं।
No comments:
Post a Comment