Tuesday, December 18, 2018



पंजीप्रथाकी शुरुआत सातवीं सदी में हुई। इसके अंतर्गत लोगों का वंशवृक्ष रखा जाता था। विवाह के समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वर पक्ष से सात पीढ़ी और वधू पक्ष से छह पीढ़ी तक उत्पत्ति एक हो। प्रारंभ में यह कंठस्थ था। बाद में स्थानीय स्तर पर कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने इसका विवरण रखना शुरू किया। प्रारंभिक छह-सात सौ वर्षों तक यह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हुआ था।

14वींसदी में शुरू हुआ लेखन

1326ई. में मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के शासनकाल में इसे औपचारिक रूप से लिपिबद्ध और संग्रहित किया गया। इसके लिए उन्होंने रघुनंदन राय नामक एक ब्राह्मण काे गांव-गांव भेजा। उन्होंने स्थानीय लोगों से बात कर उनके वंशवृक्ष के बारे में जानकारी एकत्र की और उसे लिपिबद्ध किया। बाद में भी इसे पीढ़ी दर पीढ़ी अपडेट किया जाता रहा और अब तक यह कार्य चल रहा है।

पंजीमें 1700 गांवों की चर्चा

पंजीमें 1700 गांवों की चर्चा है। इसमें 180 मूल वास स्थान हैं, जहां आदि पूर्वज का जन्म हुआ। 1520 मूलक ग्रामों का उल्लेख है, जहां मूल वास स्थान से स्थानांतरित होने के बाद उनके पूर्वज जाकर बसे। मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के समय मैथिल ब्राह्मणों के साथ साथ उस क्षेत्र में रहनेवाले कायस्थ, भूमिहार, राजपूत वैश्य वर्ण में शामिल कुछ जातियों के भी पंजी बनने का उल्लेख मिलता है। बाद में अपडेट नहीं करने के कारण विवाह में इस्तेमाल नहीं होने से ज्यादातर पंजियां नष्ट हो गईं। अब सिर्फ मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थ उपजाति की पंजी मिलती है। इन दोनों जातियों में वैवाहिक संबंध तय करते समय अभी भी पंजी के सहारे वंशवृक्ष मिलाना आवश्यक माना जाता है। मिलान के बगैर शादी पर हंगामा होने लगता है।

^मैं कईवर्षों से पंजी के संग्रह का प्रयास कर रहा हूं। लोगों के रुख के कारण समस्या रही है। कई पंजीकार पैसा लेकर भी पंजी की कॉपी नहीं करने देना चाहते। इससे समस्या रही है। सरकार पांडुलिपि मिशन को पंजियों के जीर्णोद्धार के लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत है।

डॉ.योगनाथ झा

सेवानिवृतलाइब्रेरियन, मिथिला विवि

^सैकड़ोंवर्षपुरानी होने के कारण कई पांडुलिपियों की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि छूने मात्र से टूटने लगती है। कई के नीचे कागज की पैबंद साटकर काम चलाया जा रहा है। यदि जल्द इनके संरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई तो आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ नहीं बचेगा।

पं.भवनाथ झा, पुरालेखविद

^पिछलेपांचवर्षों से बिहार में पांडुलिपि के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं। अब तक हमें एक भी पंजी सूचीकरण या जीर्णोद्धार के लिए नहीं मिल सकी है। लोग इसे नहीं दिखाना चाहते। हम केवल पांडुलिपियों और पंजी को संरक्षित करना चाहते हैं। कॉपी बनाना हमारा मकसद नहीं। हम डिजिटाइजेशन में मदद कर सकते हैं।

विभाषकुमार, सहायकपरियोजना समन्वयक, राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन, पटना

आमदनी खत्म होने के कारण डर

पंजियों के संरक्षण सूचीकरण से पंजीकारों के बचने भागने का सबसे बड़ा कारण आमदनी खत्म होने का डर है। पंजियों पर एकाधिकार के कारण कई सौ वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी पंजीकारों के वंशज गुजर-बसर करते आए हैं। हर वैवाहिक रिश्ता तय होते समय पंजी देखकर वर और वधू पक्ष का उत्पत्ति नहीं मिलने की घोषणा पंजीकार ही करता है। इसके एवज में दोनों पक्षों से वह एक मोटी राशि भी पाता है। पंजियों का डिजिटाइजेशन हो जाएगा और उसमें संग्रहित आंकड़े सभी को उपलब्ध हो जाएंगे तो जाहिर तौर पर उनके आमदनी पर प्रभाव पड़ेगा।

1400

वर्षोंका इतिहास दर्ज है इन पंजियों में। इसके संरक्षण की योजना काफी पुरानी है।

कितने दिन और...

इस तस्वीर से मैथिल पंजी की हालत समझी जा सकती है। छूते ही ऐसी पंजियां बिखरने लगती हैं। विशेषज्ञों की मानें तो इससे भी खराब हाल में हैं बहुत सारी पंजियां। संरक्षण की योजना के बावजूद इसपर काम नहीं हो पाने से इतिहास गुम होने का खतरा है।

राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन पांच साल से प्रदेश की पांडुलिपियों का जीर्णोद्धार कर रही है। 35 हजार पांडुलिपियों को इसने सूचीबद्ध किया है, लेकिन इसमें मिथिला की एक भी पंजी नहीं है। मिशन मिथिला की सैकड़ों साल पुरानी पंजियों को पंजीकारों के पंजे से नहीं छुड़ा सका। पंजी इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें मैथिल ब्राह्मण कायस्थों का लगभग 1400 वर्षों का इतिहास दर्ज है। सामाजिक सरोकार होने और हरेक के लिए उपयोगी होने के बावजूद इसमें उल्लेखित ज्ञान पंजीकारों के एक छोटे वर्ग तक सीमित होकर रह गया है। वे भी तो इसका ठीक से उपयोग कर पा रहे हैं और ही रखरखाव। इनकी हालत बहुत जीर्ण शीर्ण हो गई है। पांडुलिपि मिशन ने इसे सूचीबद्ध और संरक्षित करने का प्रयास किया, लेकिन पंजीकारों के असहयोग से मामला अटक गया।

संरक्षण के अभाव में खराब हो रहीं सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियां

पंजी का देवनागरी में लिप्यंतरण जरूरी

अधिकतर पंजी प्राचीन तिरहुता और कैथी में हैं, जिन्हें जानने या समझने वाले आज नहीं के बराबर बचे हैं। उन्हें देवनागरी में लिप्यंतरित नहीं किया गया तो आने वाली पीढ़ियों के लिए उनमें दर्ज ज्ञान का इस्तेमाल संभव नहीं हो पाएगा। कंप्यूटर, स्मार्ट फोन अन्य डिजिटल माध्यमों पर इनका इस्तेमाल भी संभव नहीं होगा।

अाप्रवासियों को मूल से जोड़ने में सहायक

आज बड़ी संख्या में बिहारी बाहर बसे हुए हैं। उन्हें अपने मूल स्थान और मूलक ग्राम का पता है, लेकिन अपने पूर्वजों से संबंधित अन्य जानकारियां नहीं हैं। यदि पंजियों का संरक्षण डिजिटाइजेशन हो जाए तो पूरे वंश वृक्ष की जानकारी देकर अप्रवासी बिहारियों को भी मातृस्थान से जोड़ा जा सकता है। इससे बिहार के विकास में मदद मिलेगी

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