Tuesday, December 18, 2018

आर्यभट ने अपने जन्म स्थान के संबंध में कोई उल्लेख नहीं किया है परन्तु निवास स्थान के संबंध में आर्यभटीय के ही एक श्लोक में लिखा है जिससे यह ज्ञात होता है कि उन्होंने कुसुमपुर में ज्ञान अर्जित किया था। कुसुमपुर की पहचान पटना के निकट स्थित फुलवारी शरीफ के रूप में की जाती है।
तो फिर उनका जन्म स्थान कहाँ है? आर्यभटीय के प्रथम भाष्यकार भाष्कर प्रथम ने सन 629 ई में उन्हें ‘अश्मक’ और आर्यभटीय ग्रंथ को ‘अश्मकतंत्र’ लिखा है। अर्थात उनका जन्म अश्मक क्षेत्र में हुआ था। डा वेलुकुट्टी ने अश्मक क्षेत्र की पहचान ‘गोदावरी और महिष्मती नदियों के बीच के क्षेत्र के रूप में की है। महिष्मती, नर्मदा की सहायक नदी है।’ यह क्षेत्र वाकाटक राज्य में था। वाकाटक राज्य की राजधानी गोदावरी तट स्थित प्रतिष्ठान नगर (वर्तमान पैठन, महाराष्ट्र) थी।
अब प्रश्न यह है कि जब वे पटना के रहने वाले थे तो जन्म महाराष्ट्र में कैसे हुआ? और कर्मक्षेत्र केरल कैसे हो गया?
इसके लिए हमें इतिहास में जाना होगा। चन्द्रगुप्त द्वितीय अर्थात चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासनकाल सन 375-412 ई0) की दूसरी रानी नाग वंशीय ‘कुबेर नागा’ से उत्पन्न राजकुमारी प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक राजा पृथ्वीषेण प्रथम (शासनकाल सन 360-385 ई) के पुत्र रूद्रसेन द्वितीय के साथ सम्पन्न हुआ था। पिता की मृत्यु के बाद रूद्रसेन (शासनकाल सन 385-390 ई) गद्दी पर बैठे परंतु युवावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके पुत्र प्रवरसेन द्वितीय अबोथ थे परिणामतः महारानी प्रभावती गुप्त ने संरक्षिका के रूप में (शासनकाल सन 390-410 ई) राज्य की बागडोर संभाली। इस काल में वाकाटक राज्य पर गुप्तों का प्रभाव बढ़ गया। शासन प्रबंध व अन्य राजकीय कार्यों हेतु गुप्त अधिकारियों की तैनाती की गई। कालान्तर में महाराज प्रवरसेन द्वितीय (शासनकाल सन 410-440) वाकाटक राज्य की गद्दी पर बैठे। ये गुप्त सम्राट कुमार गुप्त प्रथम (शासनकाल सन 412-455 ई) के समकालीन थे। इनके पश्चात महाराज नरेन्द्र सेन (शासनकाल सन 440-460) राजा बने जो सम्राट स्कन्द गुप्त (शासनकाल सन 455-467 ई) के समकालीन थे। महाराज नरेन्द्र सेन अस्थमा और हृदय रोग से पीड़ित थे। उनकी चिकित्सा हेतु सम्राट स्कन्द गुप्त ने अपने विद्वान वैद्य युवा उदयभट को भेजा। उदयभट नालन्दा विश्वविद्यालय से चिकित्सा शास्त्र एवं आयुर्वेद में स्नातक थे। उदय भट के बचपन में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। उनके पिता मगध सेना में उच्चाधिकारी थे और युद्ध में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई थी। उनकी माता का नाम सुदक्षिणा था। उदय भट के पितामह तिलकभट सम्राट समुद्र गुप्त के शासनकाल में कौशांबी के राज्यपाल थे। उन्हीं की देखरेख में महासेनापति और महाकवि हरिषेण रचित ‘प्रयाग प्रशस्ति स्तंभ अभिलेख’ सम्राट अशोक द्वारा लगवाये गये स्तम्भ पर उत्कीर्ण करवाया गया था। जब मुगल बादशाह अकबर ने इलाहाबाद का किला बनवाया तो कौशांबी का वह अशोक स्तम्भ लाकर इलाहाबाद के किले में लगा दिया गया जहाँ वह आज भी विद्यमान है। प्रयाग प्रशस्ति में सम्राट समुद्र गुप्त की विजयों व उनके व्यक्तित्व के बारे में संस्कृत श्लोक द्वारा वर्णन किया गया है।
आयुर्वेदाचार्य उदयभट स्थानांतरित होकर जब अपनी माँ के साथ प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) पहुँचे तब वहीं पूर्णिमा से उनका विवाह हुआ। आर्यभट इन्हीं दोनों की संतान थे। आर्यभट का जन्म सन 476 ई में प्रतिष्ठान में हुआ। विवाहोपरान्त उदय भट पाटलिपुत्र स्थानांतरण हेतु प्रयासरत थे किन्तु सन 467 में सम्राट स्कन्द गुप्त की मृत्यु के कारण मामला टल गया। इसके पश्चात गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर 3-3 साल के लिए क्रमशः पुरूगुप्त और कुमार गुप्त आसीन हुए। अंत में सम्राट बुधगुप्त (शासनकाल सन 476-495 ई) के राज्यारोहण से सत्ता में स्थायित्व आया। तब तक वाकाटक नरेश नरेन्द्र सेन की मृत्यु हो चुकी थी और उनके पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय (शासनकाल सन 460-480 ई) वाकाटक नरेश थे। सम्राट स्कन्द गुप्त के समय में हूण राजा अखशुनवर ने भारत पर आक्रमण किया था। सिन्धु और सतलज नदी के मध्य सम्राट स्कन्द गुप्त ने हूणों को पराजित कर उन्हें मार भगाया। उस युद्ध में राजकुमार बुध गुप्त और राजकुमार पृथ्वीषेण द्वितीय ने भाग लिया था जबकि उदय भट एक चिकित्सक के रूप में सेना के साथ थे।
गुप्त साम्राज्य के नियमानुसार एक स्थान पर पांच वर्ष से अधिक किसी राज्याधिकारी की तैनाती नहीं हो सकती थी। परंतु वाकाटक राज्य से पीढ़ियों से चले आ रहे संबंध और महाराज नरेन्द्र सेन की अस्वस्थता के दृष्टिगत उदय भट का स्थानांतरण प्रतिष्ठानपुर से नहीं किया गया। वे वहाँ 16-17 वर्ष तैनात रहे। अब जबकि महाराज नरेन्द्र सेन नहीं रहे तो सम्राट बुध गुप्त ने सन 481 ई में उन्हें वापस पाटलिपुत्र बुला लिया और उनकी जगह विदिशा निवासी आयुर्वेदाचार्य नागसेन की नियुक्ति कर दी।
इस प्रकार जब बालक आर्यभट पांच वर्ष के थे तब वे अपने माता-पिता और दादी के साथ वापस कुसुमपुर आये। वापसी का मार्ग प्रतिष्ठापुर से मधुपुर (मथुरा) तक सड़क मार्ग से (जिसकी व्यवस्था वाकाटक नरेश ने की) और मथुरा से कौशांबी, प्रयाग, काशी होते हुए पाटलिपुत्र जल मार्ग से (जिसकी व्यवस्था मगध राज्य द्वारा की गई थी) था।
पाटलिपुत्र के निकट कुसुमपुर (वर्तमान फुलवारी शरीफ) में उनके पूर्वज तिलकभट द्वारा बनवाय पुश्तैनी प्रासाद ‘तिलक भवन’ बाग एवं कृषि भूमि थी जहाँ माता पिता के साथ आर्यभट का बचपन बीता। पांच वर्षों तक उन्होंने पाटलिपुत्र की ‘आत्रेय पाठशाला’ में अध्ययन किया और 11 वर्ष की अवस्था में नालान्दा विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रवेश परीक्षा हेतु प्रस्तुत हो गये।
नालान्दा विश्वविद्यालय का सत्रारम्भ श्रावण पूर्णिमा से होता था और पौष पूर्णिमा को समाप्त होने वाली षटमासिक परीक्षा के बाद ही विद्यार्थी के मुख्य विषय का निर्धारण होता था। प्रवेश की न्यूनतम आयु 11 वर्ष थी परंतु अधिकतम आयु सीमा नहीं थी। 11 वर्ष की आयु के बाद कोई किसी भी आयु में वहाँ प्रवेश ले सकता था बशर्ते कि उसने प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली हो। ऐडमिशन मास अर्थात श्रावण में प्रतिदिन दो आचार्यों की ड्यूटी प्रवेश द्वार पर लगाई जाती थी जो प्रवेशार्थियों की परीक्षा लेते थे। परीक्षा मौखिक होती थी और प्रवेशार्थी को खाली हाथ जाना होता था। प्रवेश लेने वाले दो आचार्य कौन होंगे यह उसी दिन प्रातः पर्ची निकाल कर निर्धारित किया जाता था।
आर्यभट की परीक्षा आचार्य बुद्धकीर्ति और आचार्य ज्ञान चन्द्र ने ली थी। सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के कारण उन्हें प्रवेश मिल गया।
नालन्दा का पाठ्यक्रम आज की तरह नहीं था कि आपको हाईस्कूल तक सारे विषय पढ़ने होंगे। वहाँ प्रवेश के बाद पौष पूर्णिमा को समाप्त होने वाली पहली षटमासिक परीक्षा के बाद सभी को अपनी रूचि का विषय चुनने की आजादी थी। हाँ, अपनी रूचि के विषय में षटमासिक परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करना आवश्यक था। तद्नुसार आर्यभट ने ‘गणित’ विषय चुना और अगले 6 साल तक गणित की पढ़ाई की। दीक्षांत समारोह के बाद अगले दो साल तक वे वहीं रूके रहे और शोध कार्य किया। इस अवधि में उन्होंने चार शोधपत्र- दशगीतिका, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद प्रस्तुत किये। जिसमें पृथ्वी के परिभ्रमण का सिद्धांत प्रमुख था। इनके शोधकार्य से इनके ही आचार्य पद्मरक्षित इनसे ईर्ष्या करने लगे। आचार्य को लगा कि यदि ये यहाँ रहे तो इन्हें स्थायी नियुक्ति मिल जायेगी जबकि आचार्य अपने किसी प्रिय शिष्य को नियुक्त करवाना चाह रहे थे।
आठ वर्षों के इस अध्ययन काल में आर्यभट की पितामही और उनके पिता उदयभट का देहान्त हो गया था। माता पूर्णिमा अपने मायके प्रतिष्ठान चली गई थीं और अध्ययनोपरान्त आर्यभट को भी वहीं बुला रही थीं।
नालन्दा में ही इनकी भेंट ‘आर्यमा’ नामक दक्षिण भारतीय युवती से हुई। आर्यमा उरैयूर (केरल) निवासिनी थी और नालंदा में वे आयुर्वेदाचार्य (उदर रोग विशेषज्ञ) का अध्ययन कर रही थीं। दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे।
आर्यमा के दीक्षांत समारोह के बाद आर्यभट और आर्यमा नालंदा छोड़कर कुसुमपुर आ गये। वहाँ उनके प्रपितामह तिलकभट द्वारा निर्मित कोठी (तिलक भवन), बाग व कृषि भूमि थी। वहीं दोनों का विवाह हुआ। तिलक भवन प्रांगण में ही एक चिकित्सालय था जिसकी देखरेख फाल्गुनी शुक्ल नामक चिकित्सिका करती थीं। ये नालंदा में उदयभट की सहपाठिनी थीं। इन्हीं के अभिभावकत्व में विवाह सम्पन्न हुआ।
विवाहोपरान्त अपनी माँ से मिलने के लिए ननिहाल प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) की यात्रा पर दोनों निकल पड़े। पाटलिपुत्र से काशी, प्रयाग, कौशाम्बी व मथुरा तक जल मार्ग व उसके बाद स्थल मार्ग की यात्रा में उज्जयिनी होते हुए प्रतिष्ठान पहुंचे। माता पूर्णिमा हृदय रोग से पीड़ित थीं। एक बार हृदयाघात हो चुका था। इन दोनों के पहुंचने के एक सप्ताह के अंदर पुनः हृदयाघात हुआ और वे चल बसीं। ऐसा लगा मानो वे पुत्र/पुत्रवधू को देखने के लिए ही रूकी थीं।
माता का क्रियाकर्म समाप्त होने के बाद दोनों कावेरी नदी के तट पर स्थित नगर उरैयूर (केरल) चले गये जहाँ आर्यमा का मायका था। आर्यमा के पूर्वज ‘कठ’ जाति के थे और कठ गणराज्य के निवासी थे। सिकन्दर के आक्रमण के समय यौधेय, आर्जुनायन, अश्मक और कठ गणराज्य के सैनिकों ने डट कर सामना किया था। इनके पूर्वज शाकल (स्यालकोट) निवासी भद्रसेन थे जो कठ सेना में उच्चाधिकारी थे। सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध में वो वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी पत्नी ने दो अल्पवयस्क पुत्रों के साथ शहर छोड़ दिया और अहिच्छत्र (रामनगर, बरेली) चली आईं। वहाँ अनेक पीढ़ियों तक निवास किया। वे वहाँ व्यापार करते थे। इसी परिवार में से आर्यमा के पितामह उरैयूर चले आये और यहाँ आभूषण और वस्त्र की दूकान खोल ली। आर्यमा का एक भाई विदेश अलेक्जेंड्रिया में रहकर आयात निर्यात का कार्य करता था।
उरैयूर आने के कुछ दिनों बाद कार्तिक पूर्णिमा का त्यौहार पड़ा। कावेरी तट पर स्नान की तैयारी देख आर्यभट ने जब गणना कर बताया कि पूर्णिमा कल नहीं परसों है तो राज्य में हड़कंप मच गया क्योंकि सारी तैयारी कल के हिसाब से थी और सबसे पहले चेर महाराजा तकादुर अरिन्त पेरम चोल व महारानी के स्नान के बाद शेष के स्नान की व्यवस्था थी। बात चोल राजा तक पहुंची तो वो स्वयं आर्यभट से मिलने आये और उनके सुझावानुसार पर्व कल और परसों दो दिन मनाये जाने की राजाज्ञा जारी कर दी।
यह भ्रम त्रुटिपूर्ण पंचांग के कारण हुआ अतः पर्व समाप्ति के बाद चोल राजा ने विद्वानों की सभा आयोजित कर पंचांग संशोधन का प्रस्ताव रखा। सभा में आर्यभट ने राज्य में गुरूकुल स्थापना व कम से कम पांच वेधशाला के निर्माण का प्रस्ताव रखा। चोल राजा ने पांच की बजाय दो वेधशालाओं के निर्माण के संशोधन के साथ प्रस्ताव मान लिया। अब आर्यभट इस कार्य में जुट गये। अपनी सहायता हेतु उन्होंने नालंदा के अपने शिष्य काशी निवासी आचार्य प्रभाकर मिश्र तथा गुजरात निवासी आचार्य लाटदेव को बुला लिया। इसके अतिरिक्त सभा में अपने ज्ञान व तर्क से सबको अचम्भित करने वाले किशोर पांडुरंग स्वामी (मामल्लपुरम के प्रसिद्ध ज्योतिषी कार्तिकेयन के शिष्य) को भी अपने साथ ले लिया। राज्य की ओर से गुरुकुल स्थापना हेतु आधा योजन लंबे और एक कोस चौड़े परिक्षेत्र की भूमि जो नील नदी के तट पर स्थित थी, दी गई। बीस छात्रों से प्रारंभ गुरुकुल धीरे-धीरे चल निकला और पल्लव, पांड्य व चोल राज्यों के छात्र अध्ययन हेतु आने लगे। एक वेधशाला गुरूकुल में तथा एक राजधानी मामल्लपुरम में स्थापित की गई।
आर्यभट का शौर्य :
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एक दिन आर्यभट को पाटलिपुत्र से फाल्गुनी शुक्ल का पत्र मिला जिसमें उन्होंने बताया था कि आखेट करते समय घोड़े से गिरने के फलस्वरूप उनके पति की मृत्यु हो गई। उनका पुत्र जो सेना में था वह तक्षशिला दुर्ग की रक्षा करते हुए हूणों द्वारा मारा गया। उन्होंने पाटलिपुत्र स्थित अपने प्रासाद को बेच दिया और अब वे अपनी पुत्रवधू और पौत्र के साथ ‘तिलक भवन’ में ही रह रही हैं। आगे देश की स्थिति का वर्णन करते हुए बताया कि हूण राजा लालेह के पौत्र और हूण राजा तोरमाण के पुत्र राजा मिहिरकुल ने शतद्रु (सतलज) पार करके स्थाणीश्वर (थानेश्वर) पर अधिकार कर लिया है। स्थाणीश्वर स्कन्धावार की रक्षा हेतु अन्तियोक के नेतृत्व में तीस हजार अश्वारोही सेना व दस हजार पदाति सैनिक भेजे गये। इस सेना ने आगे बढ़कर हूण सेना पर प्रबलवेग से आक्रमण किया परंतु प्रयास निष्फल रहा। यहाँ अन्तियोक (एन्टीयार्कस) का थोड़ा परिचय दे देना आवश्यक है। जब सम्राट स्कन्द गुप्त ने सिन्धु और सतलज के बीच के क्षेत्र में हूण राजा अखशुनवर को पराजित किया था तो उस युद्ध में अंतियोक की माँ रोशना (बैक्ट्रिया निवासी यूनानी) ने भी भाग लिया था और गंभीर रूप से घायल हो गई थीं। उनका उपचार उदयभट ने किया परंतु वे उन्हें बचा न सके। घाव गंभीर थे अतः युद्ध के तीसरे दिन चार वर्षीय बालक अंतियोक का हाथ सम्राट स्कन्द गुप्त के हाथ में देकर वे स्वर्ग सिधार गईं। बालक अंतियोक पाटलिपुत्र के सुगांग प्रासाद में पला बढ़ा और दस हजार अश्वारोही सेना का सेनानायक बना।
यह भी लिखा था कि अंतियोक के जाने के बाद सम्राट नरसिंह गुप्त ‘बालादित्य’ (शासनकाल सन 507-510) ने पचास हजार की सेना लेकर प्रयाग तक प्रयाण किया था परंतु मार्ग में उन्हें अंतियोक की पराजय का समाचार मिला तो वे घबरा कर सेना सहित पाटलिपुत्र लौट आये। और अब वे राजधानी छोड़कर ताम्रलिप्ति (बांग्लादेश स्थित बंदरगाह) भागने की तैयारी कर रहे हैं।
हूणों का भारत पर यह आक्रमण अब तक का सबसे प्रबल आक्रमण था। हूण सेना में पदाति सैनिक नहीं थे। यह केवल अश्वारोहियों की सेना थी वह भी थोड़े बहुत नहीं बल्कि अस्सी हजार अश्वारोही। अश्वारोही सेना होने के कारण इसकी गति बहुत अधिक थी। दूसरे इस समय तक गुप्त साम्राज्य अपनी अवनति की ओर था। इसलिए भी हूण सेना के आवेग को रोकने की क्षमता किसी में नहीं थी।
यह सब पढ़ और सोचकर फाल्गुनी जी के अनुरोधानुसार आर्यभट ने पाटलिपुत्र लौटने का तत्काल निर्णय लिया। गुरूकुल का कार्यभार प्रभाकर मिश्र को सौंप कर वे पत्नी के साथ दूसरे दिन ही निकल पड़े और लगभग डेढ़ माह की यात्रा के बाद पाटलिपुत्र पहुंच गये।
वहाँ पहुँचने पर पता चला कि इस मध्य महासेनापति मेघवर्ण के नेतृत्व में पचास हजार की सेना का हूण सेना से कुशस्थल (कन्नौज) में गंगा तट पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भी भारतीय सेना पराजित हो गई। अंतियोक भी अपने बचे सैनिकों के साथ इसमें शामिल हुआ परंतु घायल होकर वापस आया। इसके पश्चात हूण सेना आंधी तूफान की तरह बढ़ती हुई कौशांबी पहुंची और उसे तहस नहस कर डाला।
सम्राट नरसिंह गुप्त और आर्यभट बाल सखा थे। कुसुमपुर पहुंच कर आर्यभट ने सबसे पहले अंतियोक से भेंट कर हूणों की युद्ध पद्धति की जानकारी ली। वार्ता से यह निष्कर्ष निकला कि पूर्णतया अश्वारोही होने के कारण उनकी सेना की गति हमारी सेना से बहुत तेज है। अतः युद्ध यदि मैदान में होगा तो हम कभी विजयी न होंगे। हमें युद्ध के लिए ऐसा स्थल चुनना होगा जहाँ उनके अश्वारोहियों को युद्ध हेतु अश्व से उतरना पड़े। सोच विचार के बाद यह तय हुआ कि हम पाटलिपुत्र में नहीं बल्कि मगध की पुरानी राजधानी ‘गिरिव्रज’ (वर्तमान राजगीर) में युद्ध करेंगे। इसके लिए यह आवश्यक था कि सम्राट व उनके पीढ़ियों से संचित राजकोष को भी गिरिव्रज ले जाया जाय ताकि सम्राट का पीछा करते हुए मिहिरकुल वहाँ आये।
इस योजना के साथ आर्यभट और अंतियोक सम्राट से मिलने गये। संकट की इस घड़ी में अपने बाल सखा को देखकर सम्राट प्रफुल्लित हुए। राजनैतिक स्थिति से अवगत कराते हुए सम्राट ने आर्यभट से सलाह मांगी तो उन्होंने कहा- आचार्य चाणक्य का स्पष्ट कथन है-
“स्थल गतो हि श्वा नक्रं विकर्षति।
निम्नगतो नक्रः श्वानम्।।
अर्थात एक श्वान भूमि पर नक्र (मगरमच्छ) को घसीट डालता है जबकि जल में मगरमच्छ श्वान को घसीट लेता है। तात्पर्य यह है कि युद्ध में रणक्षेत्र की संरचना का व्यापक महत्त्व होता है।”
इस उक्ति का आशय पूछे जाने पर अंतियोक ने गिरिव्रज को रणक्षेत्र के रूप मे चुने जाने और सम्राट को राजकोष सहित वहाँ चलने की योजना बताई।
सम्राट द्वारा शंका व्यक्त किये जाने पर अंतियोक ने कहा-
“महामहिम! गिरिव्रज अनादिकाल से मगध की राजधानी रहा है। मगध सम्राट जरासंध का विशाल दुर्ग और राजप्रासाद वहीं स्थित थे। विपुलगिरि, वैभवगिरि, रत्नागिरी, स्वर्णगिरि तथा गृद्धकूट पहाड़ियों से चतुर्दिक संरक्षित वह धरती पर सर्वोत्तम ‘प्राकृतिक दुर्ग’ है। जरासंध के भग्न दुर्ग का कालान्तर में महाराज अजातशत्रु ने पुनर्निर्माण कराया था। दुर्ग के अंतर्गत पांच विशाल कूप हैं जो निर्मल जल के अक्षय भण्डार हैं। अनेक भूमिगत कक्ष हैं जहाँ राजकोष को सुरक्षित रखा जा सकता है। गिरिव्रज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वहाँ की नतोन्नत पर्वत श्रृंखलाओं में अश्वारोहियों को पदाति सैनिकों की भांति युद्ध हेतु विवश होना पड़ेगा।”
सम्राट योजना से सहमत हो गये। बीस हजार सैनिकों को पाटलिपुत्र दुर्ग व नगर की रक्षा का भार सौंप कर सारी व्यूह रचना गिरिव्रज में रची गई।
इधर हूण सेना के आक्रमण से भयभीत होकर नगर के नगर खाली होने लगे। नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति पद्मरक्षित अपने अनेक शिष्यों सहित सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) को पलायन कर गये। कौशांबी के बाद प्रयाग व काशी को रौंदते, लूटते हूण सेना पाटलिपुत्र आ धमकी और घेरा डाल दिया। दुर्ग के चारों तरफ बनी परिखा (नहर) को गंगा के पानी से भर दिया गया था। पंद्रह दिन तक घेरा पड़ा रहा। अंत में मिहिरकुल ने परिखा को मिट्टी से पाटकर रास्ता बनाने का आदेश दिया। पकड़े गये तीस हजार दासों को इस काम पर लगा दिया गया। दुर्गरक्षकों ने जब यह देखा तो एक दिन रात में दुर्ग का एक द्वार खोलकर पूरी बीस हजार सेना चुपके से निकल कर गिरिव्रज आ गई। रास्ता बनाकर हूण सेना ने दुर्ग में प्रवेश किया तो वहां न सम्राट थे और न ही उनका खजाना। जब मिहिरकुल को पता चला कि सम्राट गिरिव्रज में छुपा बैठा है तो वह सेना सहित चढ़ दौड़ा।
योजनानुसार गिरिव्रज में अश्वारोहियों को अश्व से उतरना पड़ा। जब संकरे पहाड़ी रास्ते से हूण सैनिक समरांगण में पहुंचे तो पहाड़ियों पर तैनात मागध धनुर्धरों के बाणों ने उन्हें बेध डाला। दो प्रहर के युद्ध में हूण राजा मिहिरकुल को बंदी बना लिया गया। हजारों हूण सैनिक मारे गये और जो शेष बचे वो भाग निकले।
दूसरे दिन मिहिरकुल को फांसी दिया जाना तय हुआ। अंतियोक को आदेशित किया गया कि वह मिहिरकुल को उसके ही वक्र खड्ग से उसका शिरच्छेद करे।
नियत समय पर मिहिरकुल से उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि उसे जीवन में माँ का प्यार नहीं मिला। बचपन में ही उसकी माँ दिवंगत हो गई थीं। इसलिए वह एक बार राजमाता चारूमती (जो वहाँ मौजूद थीं) का चरणस्पर्श करना चाहता हूँ। जब उसे राजमाता के पास ले जाया गया तो वह उनके चरणों में लोट गया और बोला- अब मैं अपनी माँ की शरण में हूँ। इसपर राजमाता ने उसे क्षमादान दे दिया।
मुक्त होने पर मिहिरकुल ने कश्मीर में शरण ली और शेष जीवन वहीं सामान्य नागरिक की भांति व्यतीत किया।
इस क्षमादान से क्षुब्ध होकर अंतियोक सपत्नीक राज्य छोड़कर चले गये और साकेत जाकर सन्यास ले लिया।
सम्राट द्वारा आर्यभट को नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया। आर्यभट भी इस क्षमादान से क्षुब्ध थे अतः उन्होंने कभी ‘सुगांग प्रासाद’ में पग नहीं रखा।
आर्यभट की अनेक देनों में निम्न प्रमुख हैं:---
1- पृथ्वी गोल है तथा अपनी धुरी पर घूमती है।
2- ग्रहण से राहु का कोई संबंध नहीं है। यह चन्द्र और पृथ्वी की छाया का परिणाम है।
3- पाई = 3.14
4- समीकरणों की विवेचना
5- वर्गमूल और घनमूल निकालने की विधि। इससे प्रकट होता है कि उन्हें दशमलव प्रणाली का ज्ञान था।
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------ साभार उपन्यास आर्यभट
लेखक- घनश्याम पाण्डेय।

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