और रानी भवानी ने शिव को आत्मसात कर लिया
हुक्म रानी भवानी का: कहीं कोई भूखा ना रहे
शैव और शाक्तों का झगडा तो सिरे से ही मिटा दिया
बंगाल से काशी तक अन्नपूर्णा बन गयीं रानी भवानी
सन 1776 का दौर भारत के लिए बेहद त्रासद रहा। बंगाल से लेकर उत्तर भारत तक के एक बडे इलाके में दुर्भिक्षु अचानक एक महामारी की तरह आ गया। पहले तो राजनीतिक अराजकता और अन्याय से जूझ रही जनता को यह अकाल बेहद भारी पडा। बडे पैमाने पर लोग भूख से मरने लगे। कि अचानक ही दिल्ली और बंगाल की बडी सत्ता की चुप्पी के खिलाफ एक महिला ने बिगुल बजाया और अपने खजाने का दरवाजा खोल दिया। हुक्म दिया कि राज्य में कोई भी मौत अब भूख से नहीं होनी चाहिए। और इसके बाद से ही भारतीय इतिहास की इस महिला को जन-सामान्य ने साक्षात अन्नपूर्णा का ओहदा दे दिया। आज के बांग्लादेश समेत तब बंगाल के कई और भी इलाकों की एक बडी रियासत नाटोर के नाम पर थी। एक करोड की सालाना आमदनी वाली इस रियासत के जमींदार रामकांत की शादी हुई उमा से, लेकिन शादी के बाद ही उमा के बजाय उन्हें रानी भवानी का नाम मिल गया। लेकिन बस दो-तीन बरस में ही यह दाम्पत्य सुख रमाकांत की मौत के साथ खत्म हो गया। लेकिन तब यानी सन 1743 में महज 22 साल की इस रानी भवानी ने पति की गद्दी सम्भाल ली।
यह सर्वविद.या और संस्कृति की भारतीय राजधानी काशी के दुर्दिन थे। एक ओर दिल्ली में औरंगजेब कहर ढा रहा था तो बंगाल में उसका कारिंदा मीर जुमला, मुर्शीद कुली खान और काला पहाड अपनी बर्बरता की हर घिनौनी सीमा पार कर जाने चाहते थे। मजहबी जुनून चरम पर था। जाहिर है कि काशी तब एक छोटी बस्ती के तौर पर सिकुड गयी थी। लेकिन शिव की यह नगरी तो विश्वविख्यात ही थी। हां, तब तक पूरी काशी के शिव और बंगालियों की देवी काली की उपासना को लेकर माहौल में जहर घुल चुका था। दोनों ही एकदूसरे से दबने को तैयार नहीं थे। परस्पर श्लील-अश्लील कटाक्षों का दौर उरूज पर था। बहरहाल, रानी भवानी अपने वैधव्य के बाद इस शैव-मोक्ष नगरी की ओर आकर्षित हुईं। और इस तरह पूरब के बंगाल से लेकर उत्तर की काशी तक एक बेमिसाल धार्मिक-सांस्कृतिक भागीरथी बह चली। लेकिन हकीकत तो यह थी कि एक विधवा महारानी पूरी तरह राजनीतिक मकसद को लेकर दिल्ली के आकाओं और उनके बंगाल के कारिंदों को मुंहतोड जवाब देने निकल पडी थी। माध्यम था धार्मिक और मानवीय सेवा। रानी भवानी ने इस तरह एक ऐसा अभियान छेड दिया था, जिसके बारे में तब के राजे-महराजे कल्पना तक करने का साहस नहीं जुटा सकते थे। लेकिन रानी भवानी नाटोर से लेकर हिमालय के पाददेश तक न केवल पहुंच ही गयीं, बल्कि अपने नाम का डंका भी बजवा दिया। हां, उनके इन धार्मिक प्रयासों का सीधा और सबसे ज्यादा फायदा वाराणसी को जरूर मिल गया। वजह शायद यह भी रही हो, कि रानी भवानी अपना वैधव्य काशी में ही काट कर मोक्ष हासिल करना चाहती रही हों।
इसी बीच दुर्भिक्षु आ गया। अकाल से त्रस्त अपनी ही नहीं, बल्कि पूरी काशी तक के इलाके की जनता को उन्होंने भोजन मुहैया कराया। अभिलेख गवाह हैं कि अकेले काशी में ही एक विशाल हौदे में आठ मन चना रोज भिगोया जाता था जिसे सुबह लगने वाली भूखे-बेहाल लोगों में बांट दिया जाता था। इतना ही नहीं, रोज पचास मन चावल पकवाकर रानी भवानी पहले अन्नपूर्णा देवी को भोग लगाती थीं, और उसके फौरन बाद उसे भी वितरित कर दिया जाता था। इस भोज में विधवाओं के अलावा दाण्डी संन्यासी और साधुओं का खास तौर पर ख्याल रखा जाता था। और यह क्रम केवल काशी में ही नहीं, बंगाल की उनकी रियासत तक निर्बाध चलता था। जगह-जगह अन्न भंडार खुलवा रखे थे रानी भवानी ने ताकि किसी भी जरूरतमंद को भूखे ना सोना पडे। त्रुटि या चूक की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं। इसीलिए कुछ ही दिनों में इस रानी भवानी को साक्षात अन्नपूर्णा देवी का अवतार मान कर पूजने तक लगे। अपने पति के श्राद्ध-कर्म के दौरान एक साल तक उन्होंने रोजाना गंगा स्नान के बाद ब्राह्मणों को एक-एक मकान दान करने की परम्परा भी शुरू कर दी। अनाथ, बेघर और जरूरतमंद लोगों के लिए भी उन्होंने सुविधाजनक मकान बनवाये ताकि वे निश्चिंत होकर भगवदभजन कर सकें।
अपने इस अभियान के दौरान रानी भवानी ने अकेले काशी में ही 18 कुण्ड, 60 तालाब, 380 मंदिर, 15 विश्राम स्थल, 500 से अधिक भवन, गंगा पर 4 सुरम्य घाट के अलावा कुरूक्षेत्र सरोवर का पुनरूद्धार करने के अलावा पंचक्रोशी परिक्रमा मार्ग पर हर दस मील पर विश्रामालय और हर दो मील पर एक तालाब के के साथ ही पूरे मार्ग पर सघन वृक्षारोपण भी कराया। रानी भवानी ने शैव-शाक्त कटुता को दूर करने के लिए एक ओर जहां मां देवी तारा का भव्य मंदिर बनवाया वहीं मौजूदा काशी-विश्वनाथ मंदिर के बगल में एक विशाल शिवालय बनवाया। इसी शिवालय में भुवनेश्वर शिव के साथ ही त्रिपुरसुंदरी भुवनेश्वरी देवी की प्रतिमाओं को श्रीयंत्र पर स्थापित कराया। साथ ही पंचमुखी गणेश की एक मूर्ति भी स्थापित करा दी। काशी का नाम जिन् मंदिरों से आज एक बडी पहचान रखता है उनमें पाण्डेय घाट वाला कालीबाडी, ताराबाडी, दुर्गाबाडी, खालिसपुरा वाला पातालेश्वर भवानी शंकर महादेव मंदिर, दशाश्वमेधघाट के निकट भुवनेश्वर महादेव आदि प्रमुख हैं जिनमें शैव और शाक्त का भेद ही खत्म हो जाता था।
रानी भवानी ने बंगाल और बिहार आदि इलाकों में भी अनगिनत मंदिर और मठ तथा सरोवरों का निर्माण कराया और इसके लिए करीब पचास लाख बीघा जमीन दान में दे डाली। बहरहाल, अभी तक रानी भवानी के दैहिक अवसान का समय अंधेरे में ही है। वैसे भी जो अन्नपूर्णा रही हो, वह देवी तो साक्षात ब्रह्म में ही विलीन हुई होगी। है कि नहीं।
हुक्म रानी भवानी का: कहीं कोई भूखा ना रहे
शैव और शाक्तों का झगडा तो सिरे से ही मिटा दिया
बंगाल से काशी तक अन्नपूर्णा बन गयीं रानी भवानी
सन 1776 का दौर भारत के लिए बेहद त्रासद रहा। बंगाल से लेकर उत्तर भारत तक के एक बडे इलाके में दुर्भिक्षु अचानक एक महामारी की तरह आ गया। पहले तो राजनीतिक अराजकता और अन्याय से जूझ रही जनता को यह अकाल बेहद भारी पडा। बडे पैमाने पर लोग भूख से मरने लगे। कि अचानक ही दिल्ली और बंगाल की बडी सत्ता की चुप्पी के खिलाफ एक महिला ने बिगुल बजाया और अपने खजाने का दरवाजा खोल दिया। हुक्म दिया कि राज्य में कोई भी मौत अब भूख से नहीं होनी चाहिए। और इसके बाद से ही भारतीय इतिहास की इस महिला को जन-सामान्य ने साक्षात अन्नपूर्णा का ओहदा दे दिया। आज के बांग्लादेश समेत तब बंगाल के कई और भी इलाकों की एक बडी रियासत नाटोर के नाम पर थी। एक करोड की सालाना आमदनी वाली इस रियासत के जमींदार रामकांत की शादी हुई उमा से, लेकिन शादी के बाद ही उमा के बजाय उन्हें रानी भवानी का नाम मिल गया। लेकिन बस दो-तीन बरस में ही यह दाम्पत्य सुख रमाकांत की मौत के साथ खत्म हो गया। लेकिन तब यानी सन 1743 में महज 22 साल की इस रानी भवानी ने पति की गद्दी सम्भाल ली।
यह सर्वविद.या और संस्कृति की भारतीय राजधानी काशी के दुर्दिन थे। एक ओर दिल्ली में औरंगजेब कहर ढा रहा था तो बंगाल में उसका कारिंदा मीर जुमला, मुर्शीद कुली खान और काला पहाड अपनी बर्बरता की हर घिनौनी सीमा पार कर जाने चाहते थे। मजहबी जुनून चरम पर था। जाहिर है कि काशी तब एक छोटी बस्ती के तौर पर सिकुड गयी थी। लेकिन शिव की यह नगरी तो विश्वविख्यात ही थी। हां, तब तक पूरी काशी के शिव और बंगालियों की देवी काली की उपासना को लेकर माहौल में जहर घुल चुका था। दोनों ही एकदूसरे से दबने को तैयार नहीं थे। परस्पर श्लील-अश्लील कटाक्षों का दौर उरूज पर था। बहरहाल, रानी भवानी अपने वैधव्य के बाद इस शैव-मोक्ष नगरी की ओर आकर्षित हुईं। और इस तरह पूरब के बंगाल से लेकर उत्तर की काशी तक एक बेमिसाल धार्मिक-सांस्कृतिक भागीरथी बह चली। लेकिन हकीकत तो यह थी कि एक विधवा महारानी पूरी तरह राजनीतिक मकसद को लेकर दिल्ली के आकाओं और उनके बंगाल के कारिंदों को मुंहतोड जवाब देने निकल पडी थी। माध्यम था धार्मिक और मानवीय सेवा। रानी भवानी ने इस तरह एक ऐसा अभियान छेड दिया था, जिसके बारे में तब के राजे-महराजे कल्पना तक करने का साहस नहीं जुटा सकते थे। लेकिन रानी भवानी नाटोर से लेकर हिमालय के पाददेश तक न केवल पहुंच ही गयीं, बल्कि अपने नाम का डंका भी बजवा दिया। हां, उनके इन धार्मिक प्रयासों का सीधा और सबसे ज्यादा फायदा वाराणसी को जरूर मिल गया। वजह शायद यह भी रही हो, कि रानी भवानी अपना वैधव्य काशी में ही काट कर मोक्ष हासिल करना चाहती रही हों।
इसी बीच दुर्भिक्षु आ गया। अकाल से त्रस्त अपनी ही नहीं, बल्कि पूरी काशी तक के इलाके की जनता को उन्होंने भोजन मुहैया कराया। अभिलेख गवाह हैं कि अकेले काशी में ही एक विशाल हौदे में आठ मन चना रोज भिगोया जाता था जिसे सुबह लगने वाली भूखे-बेहाल लोगों में बांट दिया जाता था। इतना ही नहीं, रोज पचास मन चावल पकवाकर रानी भवानी पहले अन्नपूर्णा देवी को भोग लगाती थीं, और उसके फौरन बाद उसे भी वितरित कर दिया जाता था। इस भोज में विधवाओं के अलावा दाण्डी संन्यासी और साधुओं का खास तौर पर ख्याल रखा जाता था। और यह क्रम केवल काशी में ही नहीं, बंगाल की उनकी रियासत तक निर्बाध चलता था। जगह-जगह अन्न भंडार खुलवा रखे थे रानी भवानी ने ताकि किसी भी जरूरतमंद को भूखे ना सोना पडे। त्रुटि या चूक की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं। इसीलिए कुछ ही दिनों में इस रानी भवानी को साक्षात अन्नपूर्णा देवी का अवतार मान कर पूजने तक लगे। अपने पति के श्राद्ध-कर्म के दौरान एक साल तक उन्होंने रोजाना गंगा स्नान के बाद ब्राह्मणों को एक-एक मकान दान करने की परम्परा भी शुरू कर दी। अनाथ, बेघर और जरूरतमंद लोगों के लिए भी उन्होंने सुविधाजनक मकान बनवाये ताकि वे निश्चिंत होकर भगवदभजन कर सकें।
अपने इस अभियान के दौरान रानी भवानी ने अकेले काशी में ही 18 कुण्ड, 60 तालाब, 380 मंदिर, 15 विश्राम स्थल, 500 से अधिक भवन, गंगा पर 4 सुरम्य घाट के अलावा कुरूक्षेत्र सरोवर का पुनरूद्धार करने के अलावा पंचक्रोशी परिक्रमा मार्ग पर हर दस मील पर विश्रामालय और हर दो मील पर एक तालाब के के साथ ही पूरे मार्ग पर सघन वृक्षारोपण भी कराया। रानी भवानी ने शैव-शाक्त कटुता को दूर करने के लिए एक ओर जहां मां देवी तारा का भव्य मंदिर बनवाया वहीं मौजूदा काशी-विश्वनाथ मंदिर के बगल में एक विशाल शिवालय बनवाया। इसी शिवालय में भुवनेश्वर शिव के साथ ही त्रिपुरसुंदरी भुवनेश्वरी देवी की प्रतिमाओं को श्रीयंत्र पर स्थापित कराया। साथ ही पंचमुखी गणेश की एक मूर्ति भी स्थापित करा दी। काशी का नाम जिन् मंदिरों से आज एक बडी पहचान रखता है उनमें पाण्डेय घाट वाला कालीबाडी, ताराबाडी, दुर्गाबाडी, खालिसपुरा वाला पातालेश्वर भवानी शंकर महादेव मंदिर, दशाश्वमेधघाट के निकट भुवनेश्वर महादेव आदि प्रमुख हैं जिनमें शैव और शाक्त का भेद ही खत्म हो जाता था।
रानी भवानी ने बंगाल और बिहार आदि इलाकों में भी अनगिनत मंदिर और मठ तथा सरोवरों का निर्माण कराया और इसके लिए करीब पचास लाख बीघा जमीन दान में दे डाली। बहरहाल, अभी तक रानी भवानी के दैहिक अवसान का समय अंधेरे में ही है। वैसे भी जो अन्नपूर्णा रही हो, वह देवी तो साक्षात ब्रह्म में ही विलीन हुई होगी। है कि नहीं।
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