Tuesday, June 25, 2019

वर्षों पहले एक रियासती राज्य के रूप में जौनपुर को ‘जौनपुर सरकार’ के नाम से जाना जाता था और 1738 से यह ‘बनारस राजसी राज्य’ के तहत 4 सरकारों में से एक था। बनारस- जिसे वाराणसी और काशी भी कहते हैं, भारत का सबसे प्राचीन और आध्यात्मिक शहर है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत ही कम हैं। सोमवंश के आयुष के पुत्र क्षत्रव्रिधा ने इस नगर की नींव रखी थी। इसके बाद 1194 में बनारस पर अवध के नवाबों द्वारा कब्जा कर लिया गया और अंततः नवाबों ने 1775 में इसे ब्रिटिशों को सौंप दिया। आइये फिर से संक्षिप्त में एक नज़र डालते हैं इसके इतिहास के बारे में जब तक जौनपुर सरकार, बनारस राजसी राज्य के अधीन रही।

मुगलों के अधीन 1737 से 1740 तक काशी राज्य के नरेश श्री मनसा राम थे। राजस्व प्रबंधन के अपने काम-काज के चलते वो अपने पुत्र बलवंत सिंह को काशी नरेश का खिताब दिलवाने में कामयाब रहे। राजा बलवंत सिंह को राजा बहादुर के शीर्षक के साथ, बनारस, जौनपुर, गाज़ीपुर और चुनार की सरकारों से राजस्व एकत्र करने का अधिकार प्राप्त हुआ। इसके बाद 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद सम्राट शाह ने जिलों को बनारस की संधि द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी में स्थानांतरित कर दिया। हालांकि, लंदन में निदेशक मंडल ने इस संधि को मंजूरी देने से इंकार कर दिया। इसके बजाय, वे अवध के नवाब वज़ीर के आधिपत्य में आए और 1765 में इलाहाबाद संधि हुई। 1770 में राजा बहादुर की मृत्यु के बाद उनके बेटे चैत सिंह (शासन अवधि: 1770-1781) को काशी नरेश बना दिया गया।


1775 में नवाब वज़ीर, सरकारों पर ब्रिटिशों के हस्तक्षेप से थक गए, फिर इन क्षेत्रों को ईस्ट इंडिया कंपनी में स्थानांतरित कर दिया गया। उसके बाद चैत सिंह के राज को अवध से स्वतंत्र घोषित कर दिया गया और संधि के तहत ब्रिटिशों को सहायक बना दिया गया था। प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के काशी पर आक्रमण करने के परिणाम स्वरुप चैत सिंह काशी से भाग जाने पर मजबूर हो गये, फिर उन्होंने ग्वालियर में शरण ली। लेकिन चैत सिंह फिर आजीवन कभी बनारस नहीं लौट पाए।

काशी नरेश चैत सिंह के बनारस छोड़कर ग्वालियर में बस जाने के बाद महीप नारायण सिंह (1781-1794) को काशी का महाराजा बनाया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने महीप नारायण सिंह पर राजकीय कुप्रबंध का आरोप लगाकर 1 लाख रुपये सालाना पेंशन (Pension) के बदले काशी के चार राजस्व जिलों के प्रशासन को हस्तगत कर लिया। 12 सितंबर 1795 को महाराजा महीप नारायण सिंह के निधन के बाद उनके पुत्र उदित नारायण सिंह (1794-1835) काशी के राजा घोषित किए गए।


उदित नारायण सिंह ने कंपनी से अपनी ज़प्त भूमि की वापसी के लिए पुरजोर कोशिश की परंतु कुप्रबंधन के कारण उनकी शेष भूमि को कंपनी के नियंत्रण में रखा गया था। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं थी। उदित नारायण सिंह के बाद महाराजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह बहादुर, सन् 1835 से 1889 तक काशी राज्य के नरेश रहे। 1857 के दौरान वे अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार रहे जिस वजह से इन्हें 1859 में महाराजा बहादुर की उपाधि प्रदान की गई। इनके बाद लेफ्टिनेंट कर्नल महाराजा श्री सर प्रभु नारायण सिंह बहादुर (1889- 1931) काशी राज्य के नरेश बने। 1911 में, भदोही और केरामनगर, चाकिया और रामनगर के साथ बनारस शहर के भीतर कुछ सीमित अधिकारों के साथ नव निर्मित रियासत स्थापित की गयी।

कैप्टन महाराजा आदित्य नारायण सिंह लेफ्टिनेंट कर्नल महाराजा प्रभु नारायण सिंह के पुत्र थे। सन् 1931 में अपने पिता के स्वर्गवास के पश्चात सन् 1931 से 1939 तक ये काशी नरेश बने रहे। इनका विवाह सलेमगढ़ के राजा सदेश्री प्रसाद नारायण सिंह की बहन के साथ हुआ था। महाराजा आदित्य नारायण सिंह के देहावसान के पश्चात उनके दत्तक पुत्र विभूति नारायण सिंह (1939-1946) काशी नरेश बने। वे भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व के काशी राज्य के आखरी नरेश थे। इसके बाद 15 अक्टूबर, 1948 को यह राज्य भारतीय संघ में मिल गया।

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