पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं वनों का महत्व समझाते हुए हिंदू-धर्म में स्वस्थ जीवन निर्वाह के चार आश्रमों की नींव डाली गई और इस प्रकार चार आश्रमों में दो-ब्रह्मचर्य तथा संन्यास-दोनों का वन में रहकर ही पालन किया जाता था। इतना ही नहीं वानप्रस्थ आश्रम वन की ओर प्रस्थान करने वाला आश्रम हैं, जिसमें धन-धान्य का संग्रह करना वर्जित था। मात्र गृहस्थ- आश्रम उपभोग के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। इसका सीधा अर्थ हुआ कि जीवन का 25 प्रतिशत भाग ही पूरी सामाजिक व्यवस्था की धुरी था, जो भौतिक सुखों के लिए सभी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर सकता था। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन का 50 प्रतिशत जीवन जंगल में बिताएगा तो जंगल को काटने का अव्यावहारिक निर्णय कभी नहीं ले सकता, साथ ही और अधिक पेड़ लगाएगा और पशु-पक्षियों को समझने की कोशिश भी करेगा। घर के आगे नीम का पेड़ लगाना, चौबारे या चौराहे पर पाकड़, पीपल और बरगद का पेड़ लगाना हिंदू संस्कृति का अंग है। अभी भी पेड़ों को काटना उचित नहीं माना जाता। यहां तक कि आवश्यकता पड़ने पर ही पेड़ों की पूजा करके उसे काटा जाता हैं ताकि कम–से–कम पेड़ों के काटने की आवश्यकता पड़े। पीपल, वट, आंवला, आम और नीम की पूजा, तुलसी का पौधा घर में लगाना आदि महत्वपूर्ण कार्य मात्र ज्ञान और विज्ञान का समाज के लिए सुलभतम उपयोग है, क्योंकि हम चिकित्सा-उपयोगी पौधों एवं पेड़ों के विभिन्न भागों का प्राकृतिक रूप से प्रयोग करने में विश्वास रखते हैं न कि पेस्ट बनाकर ट्यूब में भरकर बेचने में। अन्य सभ्यताओं से विपरीत हिंदू-संस्कृति की धारणा मानव की सेवा करना था, उसे वाणिज्यिक रूप देने की नहीं।
इसी कारण गांव-गांव में, लोगों को विभिन्न पेड़-पौधों के फूल-पत्ती, जड़, छाल आदि का उपयोग चिकित्सा हेतु करना आता था। यह परंपरा पैतृक धरोहर के रूप में समाज में जीवित है, किंतु मूल वैज्ञानिक तथ्यों को न जानने एवं परीक्षण (टेस्ट) के लिए विकसित प्रणाली न होने एवं उनका प्रयोगशाला-परीक्षण न होने पाने के कारण अब उनका उपयोग प्रतिदिन कम होता जा रहा है।
गीता का यह श्लोकांश ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्...वृक्षों की पर्यावरण को संतुलित रखने की महती भूमिका को रेखांकित करने का सजीव उदाहरण है कि वृक्षों में भी जीवन है।
गीता में भगवान् कृष्ण का कथन है कि वृक्षों में मैं पीपल हूं और मत्स्य पुराण में पेड़ों को पुत्रों की संख्या से अभिहित करना पेड़ों के महत्व को स्पष्ट करते हैं।
इसी कारण गांव-गांव में, लोगों को विभिन्न पेड़-पौधों के फूल-पत्ती, जड़, छाल आदि का उपयोग चिकित्सा हेतु करना आता था। यह परंपरा पैतृक धरोहर के रूप में समाज में जीवित है, किंतु मूल वैज्ञानिक तथ्यों को न जानने एवं परीक्षण (टेस्ट) के लिए विकसित प्रणाली न होने एवं उनका प्रयोगशाला-परीक्षण न होने पाने के कारण अब उनका उपयोग प्रतिदिन कम होता जा रहा है।
गीता का यह श्लोकांश ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्...वृक्षों की पर्यावरण को संतुलित रखने की महती भूमिका को रेखांकित करने का सजीव उदाहरण है कि वृक्षों में भी जीवन है।
गीता में भगवान् कृष्ण का कथन है कि वृक्षों में मैं पीपल हूं और मत्स्य पुराण में पेड़ों को पुत्रों की संख्या से अभिहित करना पेड़ों के महत्व को स्पष्ट करते हैं।
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