Sunday, November 4, 2018

गाजीपुर, जमानियां। स्थानीय ब्लाक के ढढ़नी गांव स्थित चंडी माता का मंदिर द्रोणवारी के लोगों के लिए श्रद्धा एवं विश्वास का महत्वपूर्ण केंद्र है। इस गांव के उत्तर-पश्चिम दिशा में कर्नाल देवी, मध्य में कोट भवानी, पूरब की तरफ पथरकुटवा की देवी, उत्तर की तरफ नारायणी देवी एवं दक्षिण की तरफ चंडी माता का मंदिर विद्यमान है। शारदीय और वासंतिक नवरात्र में यहां पर श्रद्धालुआें का रेला उमड़ पड़ता है। श्रद्धालु चंडी माता के मंदिर में नतमस्तक होकर अपने और परिवार के सलामती की कामना करते हैं। चंडी माता की स्थापना पांचवीं शताब्दी में सिवरी एवं खरवार जाति के लोगों ने किया था, क्योंकि यहां पर उन्हीं लोगों का निवास था। माता की स्थापना एक पत्थर के चबूतरे पर अनगढ़ पत्थर रखकर की गई थी, जिनकी पूजा वे लोग किया करते थे। इसे चंडीथान के नाम से भी जाना जाता था, जिसका वर्णन डा0 कुबेरनाथ राय ने भी अपने लेखों में किया है। जब प्रस्तर कला का विकास हुआ तो चबूतरे के स्थान पर सिंहासन बना दिया गया। वर्तमान में रहने वाले दोनवार-भूमिहार एवं तिवारी परिवार के लोगों के पूर्वज हरिहर पांडेय एवं उनके पुरोहित पल्टू तिवारी व कुलवंत तिवारी के नेतृत्व में मध्य प्रदेश के तृचि से चले, जो गंगा नदी से नाव के सहारे देहली (वर्तमान देवरियां) गांव में पहुंचे। इनके आने की सूचना पर सिवरी एवं खरवार तथा उनके पुरोहित दूबे लोगों में हड़कंप मच गया। पल्टू तिवारी पहलवान थे और दूबे लोगों से मिलकर युद्ध करा दिये। जिसमें सिवरी और खरवार की हार हो गई और हरिहर एवं पल्टू तिवारी का साम्राज्य हो गया। युद्ध के पहले पल्टू तिवारी ने सिवरी के पुरोहितों से वायदा किया था कि हमारा साम्राज्य हो जायेगा तो आप लोग हम लोगों के पुरोहित होंगे। तभी से दोनवारी के तिवारियों के पुरोहित दूबे लोग हो गये। कुछ दिनों के बाद सिवरी एवं खरवार एक बार पुन: युद्ध करने के लिए चले, किंतु चंडी माता ने विराट रुप दिखाकर वापस लौट जाने को कहा। इस संबंध में एक श्लोक ‘जयति हरिहरश्चैव जयति पल्टू तथा जयती ढढ़नी नगराणी कुलवंत विहाय च’ कहा जाता है कि जिसका पूरा वर्णन नगानंद वात्स्यायन ने भूमिहार, ब्राह्मण इतिहास के दर्पण में किया है। पटना विश्वविद्यालय के प्रो0 असगरी के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में मुहम्मद तुगलक के बाद फिरोजशाह तुगलक ने इन दोनवार के लोगों को जमीन देकर जमींदार बना दिया। तभी से ये लोग पांडेय की जगह राय बन गये। आइने अकबरी के अनुसार मदन बनारस जमानियां के दोनवारों द्वारा सोने का सिक्का एवं घोड़ा लगान के रुप वसूला जाने लगा। क्योंकि उस समय की फौज घोड़े से लड़ती थी और सरकारी अस्तबल भी वर्तमान के ताजपुर माझा गांव में था। मुस्लिम शासनकाल में चंडीथान को तोड़ दिया गया, किंतु आज भी टूटी मूर्ति के अवशेष की पूजा मंदिर में रखकर की जाती है। माता की पूजा के लिए क्षेत्र के लोग बच्चों के जन्म एवं विवाह में आज भी पिठार चढ़ाया करते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में भी ढढ़नी गांव को लूटने का प्रयास किया गया, किंतु माता की कृपा से उनके द्वारा लगाये गये तोप का मुख विपरित दिशा में घूम जाता था। जिसके चलते अंग्रेजों ने भी हार मान ली। सन 1962 में गांव के प्रधान हरहंगी राय ने चंडी माता मंदिर के सामने एक भव्य मंदिर बनाने की योजना बनाते हुए कार्य शुरु किया, जो गांव के आईएएस बालेश्वर राय के विशेष सहयोग से 1989 में बनकर तैयार हो गया। इस मंदिर में दिल्ली के संत नागपाल बाबा के सहयोग से लक्ष्मी-नारायण, दुर्गा एवं सरस्वती के प्रतिमा की स्थापना हुई और उन्हीं के सहयोग से पिछले वर्ष परशुराम जयंती के दिन भगवान परशुराम की मूर्ति मंदिर के उत्तर दिशा की तरफ स्थापित की गई। मंदिर के पुजारी ने बताया कि माता की पूजा सैकड़ों लोग प्रतिदिन करते हैं और प्रवचन, कीर्तन प्रतिदिन होता रहता है। जब भी गांव में कोई अनहोनी होने को होती है, तो माता स्वप्न में आकर बता देती हैं। मंदिर के प्रबंधक ने बताया कि नवरात्र में क्षेत्र के हजारों लोगों की भीड़ जुटती है। पूरे नवरात्र में यहां पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। इस मंदिर पर शादी-विवाह के लिए भी व्यवस्था की गई है, जहां पर प्रतिवर्ष दर्जनों लोग शादी के बंधन में बंधते हैं।

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