- शतपथ ब्राह्मण में किस विषय की विस्तृत जानकारी दी गई है – हल की जुताई से सम्बन्धित अनुष्ठानों के बारे।
- शतपथ ब्राह्मण में कितने प्रकार के रत्निरत्नियों का उल्लेख है ?? 12 प्रकार के ।
- शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ??“राजा वही होता है, जिसे प्रजा का अनुमोदन प्राप्त हो ।”
- शतपथ ब्राह्मण में कहाँ के राजा का उल्लेख मिलता है ??कैकेय के राजा अश्वपति ।
- शतपथ ब्राह्मण से किन विदुषी स्त्रियों का जिक्र मिलता है ??गार्गी, गन्धर्व, गृहीता, मैत्रेयी ।
- शतपथ ब्राह्मण में काम्पिल्य नगरी का उल्लेख मिलता है, जो राजधानी थी ??पाञ्चाल जनपद ।
- शतपथ ब्राह्मण से किसकी कथा का वर्णन मिलता है ?? विदेथ माधव की कथा ।
- शतपथ ब्राह्मण में पहली बार जिक्र मिलता है ??महाजनी प्रथा का ।
- शतपथ ब्राह्मण में कृषि की कितनी क्रियाओं का वर्णन मिलता है ??4 (जुताई, बुआई, कटाई, मड़ाई )प्रकार की ।
- शतपथ ब्राह्मण में ??(जलप्लावन की कथा )मिलती है ।
- अथर्ववेद को छोड़कर बाकी तीनों वेदों को क्या कहा जाता है – वेदत्रयी
- राजा के राष्ट्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में किया गया है
- पुनर्जन्म का सिद्धांत, पुरुरवा उर्वशी संवाद ,जलप्लावन की कथा ,राम कथा ,अश्विनी द्वारा च्वयन ऋषि को योवनदान
- सदानीरा नदी का उल्लेख
- आर्यों को नर्मदा नदी की जानकारी थी, 12 रतनिया का उल्लेख ,कृषि संबंधी समस्त क्रियाओं का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में
- ब्याज पर उधार देने वालों को कुसीडीन, का का उल्लेख
- एक स्थान पर इंद्र के लिए सुनासीए(हलवाहा) नाम का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में
- पत्नी को अर्धांगिनी बताया गया है शतपथ ब्राह्मण में, राजसूय यज्ञ का वर्णन भी शतपथ ब्राह्मण में
- कुरु व पांचाल को वैदिक सभ्यता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि शहर बताए गए हैं शतपथ ब्राह्मण
- चारों वर्णों की अंत्येष्टि के लिए चार अलग-अलग स्थानों का विभाजन शतपथ ब्राह्मण में
Wednesday, May 29, 2019
Thursday, May 16, 2019
Dr. A.K.N. Sinha, the illustrious son of Bihar, in his own words “a true Bihari”, was born in Banka District of Bihar on 15th January, 1929, in an affluent family. His father Rai Bahadur Shri Shy Narain Singh himself was a well known personality.
After graduating from Patna Medical College. Patna in the year 1951, Dr. A.K.N. Sinha was the first Bihari to have qualified for M.R.C.P in Cardiology from Royal College of Physicians. Edinburgh in 1957.
Subsequently, he obtained M.R.C.P from Royal College of Physicians, London in 1958, He was elected a Fellow of Royal College of Physicians, Edinburgh in 1971 and also of London in 1975.
Dr. A.K.N. Sinha worked as Resident, Chief Resident and later, an Instructor in Medicine at Auitman Hospital, Canton, Ohio. USA. Subsequently, he worked as Hony. Clinical Assistant and House Physician, at Hammersmith Hospital and Royal Postgraduate Medical School. London. His extreme love for his motherland, forced him to return to India and he joined Patna Medical College Hospital, Patna as Junior Physician, in the year 1958, and joined as Lecturer in Medicine, at Darbhanga Medical College. He was Emeritus professor of Medicine at Nalanda Medical College , Patna since 1986
He was elected as President of Bihar State Branch of IMA in 1967 and 1968.Later, he rose by election to the post of President, Indian Medical Association Head Quarters as early as 1970 and again in 1971 at the young age of. 41 years – a rare honour which only Dr. A.K.N Sinha could enjoy.
He presided over the National Conference on Medical Education and the International Conference on Family Planning held in New Delhi respectively in November 1971 and in March 1972, led IMA delegations to Common wealth Medical Conference, World Medical Assembly and World Conference on Medical Education in 1972 and visited many countries in the world attending meetings and Conferences during 1976 to 1984.
He was not only the first Indian but was also the first Asian to be elected asPresident of both the Commonwealth Medical Association and World Medical Association,
Dr. A.K.N. Sinha also had the distinction of receiving many prestigious Oration Awards and had a large number of publications to his credit and many convocation & inaugural addresses and was always in great demand as chief guest of IMA and conferences of other specialities.
Dr. A.K.N. Sinha was elected as a member of the Medical Council of India in 1979 and a member of its Executive Committee in February 1980 and served a term of 5 years on the Committee from February 1980 to February, 1985.
He was elected to the highest post of the Medical Council of India as its President in 1985. He had been associated with the Council as its President for the last one decade.
As President of the Medical Council. Dr. Sinhabrought in many reforms in medical education. A workshop to revise the Undergraduate Medical Curriculum was held in August, 1992 under his able guidance and leadership.
During his tenure, Medical Council completed 60 years of its existence and he planned to celebrate the Diamond Jubilee Year of the Council spread over an year long celebrations.
His contributions were not only limited to medical education but also to health needs of the community at large.
Dr. A.K.N. Sinha was the first person who espoused the idea of establishing medical universities in all the States, nationalization of Health Services in the country and establishment of Medical Grants Commission through Indian Medical Association and various other bodies.
It is a well known fact to the medical fraternity that Dr. A.K.N. Sinha was a down to earth and a most humble personality- He treated his patients with utmost care and such was his love for the patients that he continued to sse them till April last.
His O.P.Ds used to run past midnight because he never refused any patient who knocked at his door even at odd hours. In his public gathering, he always addressed himself as a humble servant of the society.
Dr. A.K.N. Sinha had a very firm conviction and commitment in all his action and deeds.
Let us all take a pledge to live upto his expectations, stand united in the profession and cherish his goals.
Tuesday, May 14, 2019
👑 सरयूपारीण ,कान्यकुब्ज,भूमिहार,मैथिल👑
निमेज ओझा का इतिहास बताता है के सारे ब्राह्मण एक है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
मिथिला से दो मैथिल चक्रपाणि झा और शूलपाणि झा निमेज में आए थे,उन्हीं में से एक के वंशज निमेज के ओझा कहाते हैं और दूसरे के वंशज उन्हीं लोगों के महाब्राह्मण। उनके पुरोहित पराशर गोत्र ओझा हैं जो सुरगुनियाँ कहाते हैं। यह सुरगुनियाँ मैथिल सुरगने से बना मालूम होता है। सुरगुने भी पराशर गोत्र ही हैं। यह लीला यहीं खत्म नहीं होती। गाजीपुर के नारायणपुर आदि ग्रामवासी किनवार नामधारी भूमिहार ब्राह्मणों के पुरोहित अपने को नगवा कहते हैं। उससे प्रकट है कि किनवार, नोनहुलिया, कुढ़नियाँ (आजमगढ़ के सर्यूपार आदि के भूमिहार ब्राह्मण) नगवा, वीरपुर के वहियार उपाध्याय और निमेज के ओझा ये सब एक ही के वंश में हुए और मूल में एक ही हैं। इन सबों का गोत्र कश्यप है इसमें तो संदेह नहीं। तो सबसे बड़े और धनी बननेवाले निमेज के ओझा लोगों की है।उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के हल्दी क्षेत्र के राजा का साम्राज्य बिहार तक फैला हुआ था. बिहियां की लड़ाई में राजा खेत रहे. रानी अपनी बांदी के साथ गंगा पार कर बलिया के हल्दी राज्य में आ गईं . रानी गर्भवती थीं. चक्रपाणि ओझा ने उन्हें आश्रय दिया. चारो तरफ खबर फैल गई कि राजा का बीज सुरक्षित है. बिहार और उत्तर प्रदेश के राजपूत लामबन्द होने लगे. तभी चैरो बंश के राजा ने हल्दी पर चढ़ाई कर दी. चक्रपाणि ओझा व शूलपाणि ओझा की कूटनीति से चैरो वंश के राजा व उसकी सेना को सोमरस पिला धुत कर दिया. उसके बाद लामबन्द राजपूतों ने भयंकर मार काट मचाई. चैरो बंश का नाश हो गया. नियत समय पर रानी ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया. जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो गया तब तक उसके संरक्षक के तौर पर शूलपाणि ओझा ने राज काज सम्भाला. जब राजकुमार बड़े हुए तब उनका राज्याभिषेक हुआ. राजकुमार ने खुश हो उस क्षेत्र के पूरे ओझा वंश को 52 गांव दान में दे दिए. ये लोग 52 गांव के ओझा कहलाए .तभी से उस क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित हुई, “पहले ओझा, तब राजा ” . 52 गाँव के ओझा कालरात्रि देवी (दुर्गा का एक रूप) की पूजा करते हैं. इनका गोत्र कश्यप होता है.यहाँ से निकलकर रामा ओझा पिथौरागढ़ पहुँचे थे , जो अस्कोट के राजा के यहाँ राज गुरु रहे औरआज पिथौरागढ़ में ओझा लोग सम्मानित ब्राह्मण हैं
निमेज ओझा का इतिहास बताता है के सारे ब्राह्मण एक है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
मिथिला से दो मैथिल चक्रपाणि झा और शूलपाणि झा निमेज में आए थे,उन्हीं में से एक के वंशज निमेज के ओझा कहाते हैं और दूसरे के वंशज उन्हीं लोगों के महाब्राह्मण। उनके पुरोहित पराशर गोत्र ओझा हैं जो सुरगुनियाँ कहाते हैं। यह सुरगुनियाँ मैथिल सुरगने से बना मालूम होता है। सुरगुने भी पराशर गोत्र ही हैं। यह लीला यहीं खत्म नहीं होती। गाजीपुर के नारायणपुर आदि ग्रामवासी किनवार नामधारी भूमिहार ब्राह्मणों के पुरोहित अपने को नगवा कहते हैं। उससे प्रकट है कि किनवार, नोनहुलिया, कुढ़नियाँ (आजमगढ़ के सर्यूपार आदि के भूमिहार ब्राह्मण) नगवा, वीरपुर के वहियार उपाध्याय और निमेज के ओझा ये सब एक ही के वंश में हुए और मूल में एक ही हैं। इन सबों का गोत्र कश्यप है इसमें तो संदेह नहीं। तो सबसे बड़े और धनी बननेवाले निमेज के ओझा लोगों की है।उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के हल्दी क्षेत्र के राजा का साम्राज्य बिहार तक फैला हुआ था. बिहियां की लड़ाई में राजा खेत रहे. रानी अपनी बांदी के साथ गंगा पार कर बलिया के हल्दी राज्य में आ गईं . रानी गर्भवती थीं. चक्रपाणि ओझा ने उन्हें आश्रय दिया. चारो तरफ खबर फैल गई कि राजा का बीज सुरक्षित है. बिहार और उत्तर प्रदेश के राजपूत लामबन्द होने लगे. तभी चैरो बंश के राजा ने हल्दी पर चढ़ाई कर दी. चक्रपाणि ओझा व शूलपाणि ओझा की कूटनीति से चैरो वंश के राजा व उसकी सेना को सोमरस पिला धुत कर दिया. उसके बाद लामबन्द राजपूतों ने भयंकर मार काट मचाई. चैरो बंश का नाश हो गया. नियत समय पर रानी ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया. जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो गया तब तक उसके संरक्षक के तौर पर शूलपाणि ओझा ने राज काज सम्भाला. जब राजकुमार बड़े हुए तब उनका राज्याभिषेक हुआ. राजकुमार ने खुश हो उस क्षेत्र के पूरे ओझा वंश को 52 गांव दान में दे दिए. ये लोग 52 गांव के ओझा कहलाए .तभी से उस क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित हुई, “पहले ओझा, तब राजा ” . 52 गाँव के ओझा कालरात्रि देवी (दुर्गा का एक रूप) की पूजा करते हैं. इनका गोत्र कश्यप होता है.यहाँ से निकलकर रामा ओझा पिथौरागढ़ पहुँचे थे , जो अस्कोट के राजा के यहाँ राज गुरु रहे औरआज पिथौरागढ़ में ओझा लोग सम्मानित ब्राह्मण हैं
Sunday, May 12, 2019
उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के हल्दी क्षेत्र के राजा का साम्राज्य बिहार तक फैला हुआ था. बिहियां की लड़ाई में राजा खेत रहे. रानी अपनी बांदी के साथ गंगा पार कर बलिया के हल्दी राज्य में आ गईं . रानी गर्भवती थीं. चक्रपाणि ओझा ने उन्हें आश्रय दिया. चारो तरफ खबर फैल गई कि राजा का बीज सुरक्षित है. बिहार और उत्तर प्रदेश के राजपूत लामबन्द होने लगे. तभी चैरो बंश के राजा ने हल्दी पर चढ़ाई कर दी. चक्रपाणि ओझा व शूलपाणि ओझा की कूटनीति से चैरो वंश के राजा व उसकी सेना को सोमरस पिला धुत कर दिया. उसके बाद लामबन्द राजपूतों ने भयंकर मार काट मचाई. चैरो बंश का नाश हो गया. नियत समय पर रानी ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया. जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो गया तब तक उसके संरक्षक के तौर पर शूलपाणि ओझा ने राज काज सम्भाला. जब राजकुमार बड़े हुए तब उनका राज्याभिषेक हुआ. राजकुमार ने खुश हो उस क्षेत्र के पूरे ओझा वंश को 52 गांव दान में दे दिए. ये लोग 52 गांव के ओझा कहलाए .तभी से उस क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित हुई, “पहले ओझा, तब राजा ” . 52 गाँव के ओझा कालरात्रि देवी (दुर्गा का एक रूप) की पूजा करते हैं. इनका गोत्र कश्यप होता है.
आरा-निमेज के ओझा लोग बहुत दिनों से अपने को कान्यकुब्ज कहते-कहते, अब हाल में सर्यूपारी सभा करा कर सर्यूपारी कहने लगे हैं! फिर भी अभी तक अधिकांश कान्यकुब्ज ही बनते हैं! इतना ही नहीं। उनमें एक तीसरा दल यह कहता है कि हम लोग मैथिल हैं! मिथिला से दो मैथिल चक्रपाणि झा और शूलपाणि झा निमेज में आए थे, जिनके नाम अभी तक मिथिला के पुराने पंजीकारों की पंजी में पाए जाते हैं। बस, उन्हीं में से एक के वंशज निमेज के ओझा कहाते हैं और दूसरे के वंशज उन्हीं लोगों के महाब्राह्मण। उनके पुरोहित पराशर गोत्र ओझा हैं जो सुरगुनियाँ कहाते हैं। यह सुरगुनियाँ मैथिल सुरगने से बना मालूम होता है। सुरगुने भी पराशर गोत्र ही हैं। यह लीला यहीं खत्म नहीं होती। गाजीपुर के नारायणपुर आदि ग्रामवासी किनवार नामधारी भूमिहार ब्राह्मणों के पुरोहित अपने को नगवा कहते हैं। उनकी वंशावली मुझे स्वयं देखने का अवसर प्राप्त हुआ है। उससे प्रकट है कि किनवार, नोनहुलिया, कुढ़नियाँ (आजमगढ़ के सर्यूपार आदि के भूमिहार ब्राह्मण) नगवा, वीरपुर के वहियार उपाध्याय और निमेज के ओझा ये सब एक ही के वंश में हुए और मूल में एक ही हैं। इन सबों का गोत्र कश्यप है इसमें तो संदेह नहीं। यह दुर्दशा तो सबसे बड़े और धनी बननेवाले निमेज के ओझा लोगों की है।
Friday, May 10, 2019
किन्तु श्री रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी खोज के आधार पर इन्हें ब्राह्मण (देवकली दुबे) माना है। उनके अनुसार घाघ कन्नौज के चौधरी सराय के निवासी थे। कहा जाता है कि घाघ हुमायूँ के दरबार में भी गये थे। हुमायूँ के बाद उनका सम्बन्ध अकबर से भी रहा। अकबर गुणज्ञ था और विभिन्न क्षेत्रों के लब्धप्रतिष्ठि विद्वानों का सम्मान करता था। घाघ की प्रतिभा से अकबर भी प्रभावित हुआ था और उपहार स्वरूप उसने उन्हें प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास की भूमि दी थी, जिस पर उन्होंने गाँव बसाया था जिसका नाम रखा ‘अकबराबाद सराय घाघ’। सरकारी कागजों में आज भी उस गाँव का नाम ‘सराय घाघ’ है। यह कन्नौज स्टेशन से लगभग एक मील पश्चिम में है। अकबर ने घाघ को ‘चौधरी’ की भी उपाधि दी थी। इसीलिए घाघ के कुटुम्बी अभी तक अपने को चौधरी कहते हैं। ‘सराय घाघ’ का दूसरा नाम ‘चौधरी सराय’ भी है।5 घाघ की पत्नी का नाम किसी भी स्रोत से ज्ञात नहीं है किन्तु इनके दो पुत्र-मार्कण्डेय दुबे और धीरधर दुबे हुए। इन दोनों पुत्रों के खानदान में दुबे लोगों के बीस पच्चीस घर अब उसी बस्ती में हैं। मार्कण्डेय के खानदान में बच्चूलाल दुबे, विष्णु स्वरूप दुबे तथा धीरधर दुबे के खानदान में रामचरण दुबे और कृष्ण दुबे वर्तमान हैं। ये लोग घाघ की सातवीं-आठवीं पीढ़ी में अपने को बताते हैं। ये लोग कभी दान नहीं लेते हैं। इनका कथन है कि घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के बड़े कट्टर थे और इसी कारण उनको अंत में मुगल दरबार से हटना पड़ा था तथा उनकी जमीनदारी का अधिकांश भाग जब्त हो गया था।
प्राचीन महापुरूषों की भांति घाघ के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही ‘कृषि विषयक’ समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी थी कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती सम्बन्धी समस्याओं को लेकर उनका समाधान निकालने के लिए घाघ के पास आया करते थे। किंवदन्ती है कि एक व्यक्ति जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था, घाघ की गुणज्ञता को सुनकर वह उनके पास आया। उस समय घाघ हमउम्र के बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे-
आधा खेत बटैया देके, ऊँची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
घाघ के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि उनकी अपनी पुत्रवधू से नहीं पटती थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इसी कारण घाघ अपना मूल निवास छपरा छोड़कर कन्नौज चले गये थे। घाघ जो कहावतें कहते थे उनकी पुत्रवधू
प्राचीन महापुरूषों की भांति घाघ के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही ‘कृषि विषयक’ समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी थी कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती सम्बन्धी समस्याओं को लेकर उनका समाधान निकालने के लिए घाघ के पास आया करते थे। किंवदन्ती है कि एक व्यक्ति जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था, घाघ की गुणज्ञता को सुनकर वह उनके पास आया। उस समय घाघ हमउम्र के बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे-
आधा खेत बटैया देके, ऊँची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
घाघ के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि उनकी अपनी पुत्रवधू से नहीं पटती थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इसी कारण घाघ अपना मूल निवास छपरा छोड़कर कन्नौज चले गये थे। घाघ जो कहावतें कहते थे उनकी पुत्रवधू
Thursday, May 9, 2019
The eclipse of Shiva Singh’s power gave a signal Dronwara king f° r the total disintegration of the house Puradjtya 0 f the Oinwara and also for the grad- ual but complete occupation of Mithila by the Muslim. After his defeat, his family members, under the care of Vidyapati, shifted to a village Raja-Banauli in Nepal, where Shiva Singh’s friend Puraditya “Arjun Vijayee” was ruling. Here again the tradi- tional accounts are conflicting. From Likhnavali, it is evident that Puraditya had carved out an independent kingdom or a Janapada in Saptari after having slain his enemy Arjun. He is called Dronawara Mahipati. He defeated all his enemies. We have discussed above the local tradition of a civil war for the throne between the two branches of Kameshwara dynasty. Bhava Singh’s son, Tripura Singh, has also been associated with the murder of Ganeswara. Arjun Singh was the son of Tripur Singh. Perhaps the family feud was at the root of this trouble and taking advantages of this ugly situation, Puraditya c ( 158 ) succeeded in killing him and creating for himself a small independent Janapada in Saptari, a district in the Nepal territory. Arjun is mentioned in the Ram Bhadrapur manuscript and one Amara is men- tioned in the Padavali. Both Arjun and Amara were sons of Tripur Singh. Ashoka pillar at Luriya Nandan Garh in Champaran contains an inscription dated V. S. 1556 (1499 or 1500 A. D.) which reads “Nripa-Narayan Suta Amar Singh’’, This Amar Singh is no other than brother of Arjun Singh. These two brothers were probably local chieftains and were defeated by Puraditya. After Arjun, Amar exercised some political powers and that is evident from the above inscription. They all belong to the same dynasty and naturally Vidyapati’s occa- sional references to these princes are not unnatural. The word “Baudhau-A'risansa-yate” is still con- troversial. Mm. Umesh Mishra thinks that Arjun was a Budhist and was ruling in Saptari. It is said that when Vidyapati reached Puraditya’s capital and got dug a tank and called a meeting of the learned Pandits to celebrate a yajna, the Buddhist of Arjun’s kingdom created disturbance. That led to war between Arjun and Puraditya. Arjun was defeat- ed and Saptari Pargana was conquered by Puraditya. He has not cared to give any authentic source in support of these arguments and hence no credence can be given to this conclusion arrived at by the learned scholar. There is no room for any doubt to accept that Arjun was a son of Tripur Singh. What seems probable is that before going to Puraditya, 159 ) Vidyapati tried to seek shelter with Arjun and when he did not see any chance of getting any asylum there, he went to Shiva Singh's frimd Puraditya. As is evident from Vidyapati ’s activities, he did not feel happy and anyhow spent his time there. His genious was directed towards writing sample letters for ordinary persons and in copying out the Bhag- vata. He could not produce any original work of repute. From the term “Baudhau-Nrisansa-ydte , '’ it appe- ars that Arjun’s behaviour towards his kinsman was cruel. That supports our contention. He belong- ed to a branch of the Oinwara, whose record is not praiseworthy and whose descendant could never get a chance to rule. In keeping wi th the tradition of his father Tripur Singh, he showed scant respect to his cousin’s wife, Lakhima, when she needed help, after Shiva Singh’s arrest and under the circum- stances she took shelter with Puraditya. Another scholar, Dr. Sukumar Sena has used Baudhau in place of Bandhau — to suit his own argument, but he has emphatically pointed out that they were not Buddhists. Though attempt has been made to prove that this Arjun wasjayarjuna of Nepal, there is no evidence to support this point. According to Ben- dall Jayarjuna died in Nepal Samvat 502 (1382 A.D. ) While Vidyapati’s Likhnavali could not have been written earlier than L. S. 299 (1417-18 A. D. ) Thus there is no possibility of identifying Jayarjuna with Arjun of Likhnavali. Even if we accept the story, presented by Mm. Mishra, it may be interpreted ( 160 )
👑👑कन्नौज और काशी👑👑
कन्नौज का पतन और भूमिहारों ब्राह्मणों का इतिहास
पोस्ट को छोटा लिखा है विस्तार से बाद में
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
काशी क्षेत्र के ब्राह्मणों का इतिहास के कन्नौज शासकों के इर्द- गिर्द ही घूमता रहा चीनी यात्री युवानच्वांग के विवरण के अनुसार कन्नौज प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे
अब ये तो निश्चित है ये लोग ब्राह्मण रहे होंगे अग्रहार
के माध्यम से मंदिर का खर्चा चलता होगा.जयचन्द के पतन के बाद मुस्लिम अत्याचार के खिलाफ ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाना प्रारंभ कर दिया
पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी और श्री कामेश्वर ओझा का मानना है; भूमिहार, भूमी-अग्रहार भोजी ब्राह्मण का संक्षिप्त रूप है। ब्राह्मण, जो अग्रहार संग्रह के लिए जिम्मेदार थे। कन्नौज के राजा हर्ष ने उन्हें इस काम के लिए नियुक्त किया। चीनी.युवानच्वांग ने कन्नौज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि 'नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है'। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे।
1085 ई. में कन्नौज पर चन्द्रदेव गहड़वाल ने सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। उसके समय के अभिलेखों में उसे कुशिक (कन्नौज), काशी, उत्तर कोसल और इंद्रस्थान या इंद्रप्रस्थ का शासक कहा गया है
पृथ्वीराज को जीतने के पश्चात् 1194 ईस्वी में मुहम्मद गोरी ने जयचन्द्र के राज्य पर भी आक्रमण किया । कुछ भारतीय ग्रन्थों जैसे विद्यापति कृत पुरुषपरीक्षा, नयचन्द्र कृत रम्भामंजरी नाटक आदि में कहा गया है कि जयचन्द्र ने मोहम्मद गोरी को पहले कई चार हराया था । संभव है कुछ प्रारम्भिक भावों में उसे एकाध बार सफलता मिली हो ।
अन्तिम मुठभेड़ चन्दावर (एटा जिला) के मैदान में हुई जहाँ कुतुबउद्दीन के नेतृत्व में पचास हजार सैनिकों का जयचन्द्र की विशाल सेना से सामना हुआ । दुर्भाग्यवश हाथी पर सवार जयचन्द्र की आंख में एक तार लग जाने से वह गिर पड़ा तथा उसकी मृत्यु हो गयी । सेना में भगदड़ मच गयी तथा मुसलमानों की विजय हुई ।
गोरी ने असनी (फतेहपुर) स्थित जयचन्द्र के राजकोष पर अधिकार कर लिया । आक्रमणकारियों ने स्त्रियों तथा बच्चों को छोडकर सबकी हत्या कर दी । मुहम्मद गोरी ने कन्नौज तथा बनारस को खूब लूटा वनारस के लगभग एक हजार मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया तथा उनके स्थान पर मस्जिदें बनवायी गयी ।
आक्रमणकारियों के हाथ लूट की भारी सम्पत्ति एवं बहुमूल्य वस्तुयें लगीं । इस प्रकार गहड़वाल साम्राज्य का पतन हुआ । ऐसा लगता है कि चन्दावर के युद्ध के बाद भी कुछ समय तक कन्नौज पर गहड़वालों की सत्ता बनी रही तथा मुसलमानों ने वहाँ अधिकार नहीं किया । मात्र फरिश्ता ही ऐसा लेखक है जो मुसलमान सेनाओं के कन्नौज पर अधिकार करने की बात करता है ।
किन्तु वह बाद का लेखक होने के कारण विश्वसनीय नहीं लगता । कुछ ऐसे सकेत मिलते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जयचन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र ने कुछ समय तक अपने पिता के बाद कन्नौज पर शासन किया ।
मछलीशहर (जौनपुर) से प्राप्त उसके एक लेख (1198 ई०) में उसे “परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वराश्वपति गजपति-राजत्रयाधिपति विविध विद्याविचारवाचस्पति श्री हरिश्चन्द्र देव” कहा गया है । इससे स्पष्ट है कि वह एक स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन कर रहा था । लेख से पता चलता है कि उसने पमहई नामक गाँव दान में दिया था । हरिश्चन्द्र के पश्चात कन्नौज के गहड़वाल साम्राज्य का अन्त हो गया तथा वहाँ चन्देलों का अधिकार स्थापित हुआ
कन्नौज का पतन और भूमिहारों ब्राह्मणों का इतिहास
पोस्ट को छोटा लिखा है विस्तार से बाद में
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
काशी क्षेत्र के ब्राह्मणों का इतिहास के कन्नौज शासकों के इर्द- गिर्द ही घूमता रहा चीनी यात्री युवानच्वांग के विवरण के अनुसार कन्नौज प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे
अब ये तो निश्चित है ये लोग ब्राह्मण रहे होंगे अग्रहार
के माध्यम से मंदिर का खर्चा चलता होगा.जयचन्द के पतन के बाद मुस्लिम अत्याचार के खिलाफ ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाना प्रारंभ कर दिया
पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी और श्री कामेश्वर ओझा का मानना है; भूमिहार, भूमी-अग्रहार भोजी ब्राह्मण का संक्षिप्त रूप है। ब्राह्मण, जो अग्रहार संग्रह के लिए जिम्मेदार थे। कन्नौज के राजा हर्ष ने उन्हें इस काम के लिए नियुक्त किया। चीनी.युवानच्वांग ने कन्नौज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि 'नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है'। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे।
1085 ई. में कन्नौज पर चन्द्रदेव गहड़वाल ने सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। उसके समय के अभिलेखों में उसे कुशिक (कन्नौज), काशी, उत्तर कोसल और इंद्रस्थान या इंद्रप्रस्थ का शासक कहा गया है
पृथ्वीराज को जीतने के पश्चात् 1194 ईस्वी में मुहम्मद गोरी ने जयचन्द्र के राज्य पर भी आक्रमण किया । कुछ भारतीय ग्रन्थों जैसे विद्यापति कृत पुरुषपरीक्षा, नयचन्द्र कृत रम्भामंजरी नाटक आदि में कहा गया है कि जयचन्द्र ने मोहम्मद गोरी को पहले कई चार हराया था । संभव है कुछ प्रारम्भिक भावों में उसे एकाध बार सफलता मिली हो ।
अन्तिम मुठभेड़ चन्दावर (एटा जिला) के मैदान में हुई जहाँ कुतुबउद्दीन के नेतृत्व में पचास हजार सैनिकों का जयचन्द्र की विशाल सेना से सामना हुआ । दुर्भाग्यवश हाथी पर सवार जयचन्द्र की आंख में एक तार लग जाने से वह गिर पड़ा तथा उसकी मृत्यु हो गयी । सेना में भगदड़ मच गयी तथा मुसलमानों की विजय हुई ।
गोरी ने असनी (फतेहपुर) स्थित जयचन्द्र के राजकोष पर अधिकार कर लिया । आक्रमणकारियों ने स्त्रियों तथा बच्चों को छोडकर सबकी हत्या कर दी । मुहम्मद गोरी ने कन्नौज तथा बनारस को खूब लूटा वनारस के लगभग एक हजार मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया तथा उनके स्थान पर मस्जिदें बनवायी गयी ।
आक्रमणकारियों के हाथ लूट की भारी सम्पत्ति एवं बहुमूल्य वस्तुयें लगीं । इस प्रकार गहड़वाल साम्राज्य का पतन हुआ । ऐसा लगता है कि चन्दावर के युद्ध के बाद भी कुछ समय तक कन्नौज पर गहड़वालों की सत्ता बनी रही तथा मुसलमानों ने वहाँ अधिकार नहीं किया । मात्र फरिश्ता ही ऐसा लेखक है जो मुसलमान सेनाओं के कन्नौज पर अधिकार करने की बात करता है ।
किन्तु वह बाद का लेखक होने के कारण विश्वसनीय नहीं लगता । कुछ ऐसे सकेत मिलते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जयचन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र ने कुछ समय तक अपने पिता के बाद कन्नौज पर शासन किया ।
मछलीशहर (जौनपुर) से प्राप्त उसके एक लेख (1198 ई०) में उसे “परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वराश्वपति गजपति-राजत्रयाधिपति विविध विद्याविचारवाचस्पति श्री हरिश्चन्द्र देव” कहा गया है । इससे स्पष्ट है कि वह एक स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन कर रहा था । लेख से पता चलता है कि उसने पमहई नामक गाँव दान में दिया था । हरिश्चन्द्र के पश्चात कन्नौज के गहड़वाल साम्राज्य का अन्त हो गया तथा वहाँ चन्देलों का अधिकार स्थापित हुआ
मयूरभट्ट सारस्वत ब्राह्मण न होकर सोनभदरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण वत्सगोत्र थे। इस बात को सभी मानते हैं कि वह गया जिले में सोन के किनारे रहते थे और कुष्ठ होने पर उन्होंने गया-देव (मूँगा)-के सूर्यमन्दिर में सूर्य की आराधना भी की थी। बस, इसी से हमारी बात पुष्ट हो जाती है। उस देव के सूर्य मन्दिर के पुजारी बहुत दिनों से सोनभदरिया ब्राह्मण होते चले आते हैं और मन्दिर भी उन्हीं के अधिकार में था। वे लोग अपने को मयूरभट्ट के वंशज कहते हैं। वहाँ ऐसी ही प्रसिध्दि है। यद्यपि इधर कुछ दिन कई कारणों से उन लोगों ने धीरे-धीरे शाकद्वीपियों के हाथ अपना मन्दिर कई बार करके बेच डाला है। फिर भी अभी तक उस मन्दिर का आधा आना हिस्सा साक्षी देने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ में है और उसमें दो हिस्सेदार पं. सुध्दू पाण्डेय और पं. खेदा पाण्डेय हैं। इससे प्रकट है कि भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज पयासी के मिश्र सर्यूपारी हैं। विसेन क्षत्रियों की तो बात ही क्या कहनी है? फिर, उन्हीं ब्राह्मणों पर कटाक्ष करना या उन्हें ही नीचा दिखाने का साहस करना मूर्खता, दुष्टता तथा हृदय की मलिनता नहीं तो और क्या है? निस्सन्देह इसका एक यह भी कारण है कि इतर ब्राह्मण दलों की अपेक्षा भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में विद्या की और विशेषकर संस्कृत विद्या की कमी है। यदि संस्कृत विद्या का प्रचार रहता तो समाज अवश्यमेव अपने स्वरूप और कर्तव्यों को शास्त्रों के द्वारा जानता, मानता। पर स्मरण रहे कि शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान तो अन्यान्य दलों में भी एक प्रकार से नहीं ही है। तभी तो आज प्राय: सभी अन्यथा ही समझने लगे हैं। नहीं तो भला कहिये न, कहीं प्रतिग्राही होने और परान्नभोजन से ब्राह्मण उत्तम हो सकता है? यही ब्राह्मणता का एकमात्र चिद्द माना जा सकता है? परन्तु, आज ऐसा ही हो रहा है, जिसे ऑंखों देखते और कानों सुनते हैं। अस्तु।
Wednesday, May 8, 2019
most of the brahmin tribes are practicing endogamy in their own tribe. so it is not a matter of astonishment that bhumihar brahmins are not marrying with other brahmin community so frequently. Bhumihar Brahmin name itself has come in existence in early 19th century. Babhan is their ancient name which is mere pali word for brahmin. you might be knowing in nepali brahmins are said to be bahun similarly in pali brahmins are said to be babhan. Babhan name clearly suggest that they are ancient brahmins of magadh. Babhan word is there in Ashokan inscription. Sunga and Kanva are Brahmin dynasty of magadha. they have defied the basic rule that brahmins can only be pujari (priest). Sugania babhan is a clan in bhumihar brahmins. So please erase all your confusions. Babhans are the royal brahmins of magadha just like mohyal of panjab, tyagi of western up, niyogi of andhra, anvil of gujrat, chitpavan of maharastra, and Nambudhiri of kerala. Bhumihar brahmins are the royal brahmins who are priest also in places like gaya hajaribagh patna and benaras. — Agrarian Relations in Colonial India, Saran District, 1793-1920 By Anand A. Yang; The tribes and castes of the North-western Provinces and Oudh by William Crooke; ) are reliable document because all the authors are either renowned historians or social activist. these books clearly tells about the association of bhumihar brahmin with kanyakubj brahmin and it also tells about the old name of this brahmin as babhan. bhumihar brahmin name is quite a new name to babhan community that gained popularity only after 19th century. Origin of some of the clans of bhumihar brahmin is also written in the book. All these books never asserted the mixed origin of babhans/bhumihar brahmins. Mixed origin theory is a fake propaganda spread by some people to spread hatred. Spreading a false tale or rumour is not at all sensible so
Pandit Hazariprashad Dwivedy and Sree Kameshwar Ojha believes; Bhumihar is a short form of Bhumi-Agrahar Bhojee Brahmin. Brahmins, who were responsible for Agrahar collection. King Harsha of Kannauj appointed them for this purpose.
Pandit Hazariprashad Dwivedy and Sree Kameshwar Ojha believes; Bhumihar is a short form of Bhumi-Agrahar Bhojee Brahmin. Brahmins, who were responsible for Agrahar collection. King Harsha of Kannauj appointed them for this purpose.
Monday, May 6, 2019
पांचवीं से चौथी शताब्दी ई.पू. में पुराण ग्रंथ अस्तित्व में आ चुके थे। वर्तमान पुराण गुप्त काल के आसपास के है। मुख्य पुराणों की संख्या-18 है-
1.मत्स्य पुराण
2.मार्कण्डेय पुराण
3.भविष्य पुराण
4.भागवत पुराण
5. ब्रह्मांड पुराण
6.ब्रह्मावैवर्त पुराण
7. ब्रह्मा पुराण
8. वामन पुराण
9. वाराह पुराण
10.विष्णु पुराण
11.वायु पुराण
12.अग्नि पुराण
13.नारद पुराण
14.पदम पुराण
15.लिंग पुराण
16.गरुड़ पुराण
17.कूर्म पुराण एवं
18.स्कंद पुराण
1.मत्स्य पुराण
2.मार्कण्डेय पुराण
3.भविष्य पुराण
4.भागवत पुराण
5. ब्रह्मांड पुराण
6.ब्रह्मावैवर्त पुराण
7. ब्रह्मा पुराण
8. वामन पुराण
9. वाराह पुराण
10.विष्णु पुराण
11.वायु पुराण
12.अग्नि पुराण
13.नारद पुराण
14.पदम पुराण
15.लिंग पुराण
16.गरुड़ पुराण
17.कूर्म पुराण एवं
18.स्कंद पुराण
ये सभी महापुराण कहलाते है।
Thursday, May 2, 2019
👑👑👑👑वाकाटक वंश 👑👑👑👑
विष्णु वृद्धि गोत्र के सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण वंश वाकाटक था भूमिहार ब्राह्मणों मैथिल ब्राह्मणों में विष्णु वृद्धि गोत्र पाया जाता है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
तीसरी शताब्दी ईस्वी से छठीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था । इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था । इस राजवंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था ।प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है:
(i) प्रभावतीगुप्ता का पूना ताम्रपत्र ।
(ii) प्रवरसेन द्वितीयकालीन रिद्धपुर ताम्रपत्र ।
(iii) प्रवरसेन द्वितीय की चमक-प्रशस्ति ।
(iv) हरिषेण का अजन्ता गुहाभिलेख ।
पूना तथा रिद्धपुर के ताम्रपत्रों से वाकाटक-गुप्त सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है । इनसे प्रभावतीगुप्ता के व्यक्तित्व तथा कार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है । अजन्ता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है । इससे पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था ।प्रवरसेन प्रथम एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था जिसने चार अश्वमेध तथा एक बाजपेय यज्ञ के अतिरिक्त अन्य अनेक वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया था । नि:सन्देह उसका शासन-काल वाकाटक-शक्ति के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
चौथी-पांचवीं ई. में गुप्त साम्राज्य के दरबार के साहित्य शिरोमणि कालिदास (रामायण पर वाल्मीकि के बाद सबसे महान कवि) ने अपनी कृति ‘रघुवंशम्’ में राम का वर्णन ‘राम भी धनो हरि’ के रूप में किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय की कन्या और वाकाटक की रानी प्रभावती रामभक्त थीं। चौथी शताब्दी के अंतिम दशकों में जारी दो शिलालेखों से पता चलता है कि रामगिरी पहाड़ी (आधुनिक रामटेक) के शीर्ष पर भगवान राम के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें उनके चरण-पद की स्थापना की गई थी। कालिदास ने गुप्त वंश के राजा के आदेश पर वाकाटक राज्य की यात्रा की थी और ‘मेघदूत’ में रामगिरी का उल्लेख किया था। माना जाता है कि प्रभावती के पुत्र प्रवरसेन द्वितीय ने ‘सेतुबंद’ लिखी जिसमें राम को विष्णु का अवतार ही नहीं, बल्कि उनके समान माना गया है। प्रवरसेन ने 431 और 439 ई. के दौरान अपनी नई राजधानी प्रवरपुरा (संभवत: आधुनिक पौनार, वर्धा) में बनाई और वहां राम के लिए एक मंदिर का निर्माण किया
विष्णु वृद्धि गोत्र के सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण वंश वाकाटक था भूमिहार ब्राह्मणों मैथिल ब्राह्मणों में विष्णु वृद्धि गोत्र पाया जाता है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
तीसरी शताब्दी ईस्वी से छठीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था । इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था । इस राजवंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था ।प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है:
(i) प्रभावतीगुप्ता का पूना ताम्रपत्र ।
(ii) प्रवरसेन द्वितीयकालीन रिद्धपुर ताम्रपत्र ।
(iii) प्रवरसेन द्वितीय की चमक-प्रशस्ति ।
(iv) हरिषेण का अजन्ता गुहाभिलेख ।
पूना तथा रिद्धपुर के ताम्रपत्रों से वाकाटक-गुप्त सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है । इनसे प्रभावतीगुप्ता के व्यक्तित्व तथा कार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है । अजन्ता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है । इससे पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था ।प्रवरसेन प्रथम एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था जिसने चार अश्वमेध तथा एक बाजपेय यज्ञ के अतिरिक्त अन्य अनेक वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया था । नि:सन्देह उसका शासन-काल वाकाटक-शक्ति के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
चौथी-पांचवीं ई. में गुप्त साम्राज्य के दरबार के साहित्य शिरोमणि कालिदास (रामायण पर वाल्मीकि के बाद सबसे महान कवि) ने अपनी कृति ‘रघुवंशम्’ में राम का वर्णन ‘राम भी धनो हरि’ के रूप में किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय की कन्या और वाकाटक की रानी प्रभावती रामभक्त थीं। चौथी शताब्दी के अंतिम दशकों में जारी दो शिलालेखों से पता चलता है कि रामगिरी पहाड़ी (आधुनिक रामटेक) के शीर्ष पर भगवान राम के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें उनके चरण-पद की स्थापना की गई थी। कालिदास ने गुप्त वंश के राजा के आदेश पर वाकाटक राज्य की यात्रा की थी और ‘मेघदूत’ में रामगिरी का उल्लेख किया था। माना जाता है कि प्रभावती के पुत्र प्रवरसेन द्वितीय ने ‘सेतुबंद’ लिखी जिसमें राम को विष्णु का अवतार ही नहीं, बल्कि उनके समान माना गया है। प्रवरसेन ने 431 और 439 ई. के दौरान अपनी नई राजधानी प्रवरपुरा (संभवत: आधुनिक पौनार, वर्धा) में बनाई और वहां राम के लिए एक मंदिर का निर्माण किया
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