मयूरभट्ट सारस्वत ब्राह्मण न होकर सोनभदरिया मूल के भूमिहार ब्राह्मण वत्सगोत्र थे। इस बात को सभी मानते हैं कि वह गया जिले में सोन के किनारे रहते थे और कुष्ठ होने पर उन्होंने गया-देव (मूँगा)-के सूर्यमन्दिर में सूर्य की आराधना भी की थी। बस, इसी से हमारी बात पुष्ट हो जाती है। उस देव के सूर्य मन्दिर के पुजारी बहुत दिनों से सोनभदरिया ब्राह्मण होते चले आते हैं और मन्दिर भी उन्हीं के अधिकार में था। वे लोग अपने को मयूरभट्ट के वंशज कहते हैं। वहाँ ऐसी ही प्रसिध्दि है। यद्यपि इधर कुछ दिन कई कारणों से उन लोगों ने धीरे-धीरे शाकद्वीपियों के हाथ अपना मन्दिर कई बार करके बेच डाला है। फिर भी अभी तक उस मन्दिर का आधा आना हिस्सा साक्षी देने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ में है और उसमें दो हिस्सेदार पं. सुध्दू पाण्डेय और पं. खेदा पाण्डेय हैं। इससे प्रकट है कि भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज पयासी के मिश्र सर्यूपारी हैं। विसेन क्षत्रियों की तो बात ही क्या कहनी है? फिर, उन्हीं ब्राह्मणों पर कटाक्ष करना या उन्हें ही नीचा दिखाने का साहस करना मूर्खता, दुष्टता तथा हृदय की मलिनता नहीं तो और क्या है? निस्सन्देह इसका एक यह भी कारण है कि इतर ब्राह्मण दलों की अपेक्षा भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में विद्या की और विशेषकर संस्कृत विद्या की कमी है। यदि संस्कृत विद्या का प्रचार रहता तो समाज अवश्यमेव अपने स्वरूप और कर्तव्यों को शास्त्रों के द्वारा जानता, मानता। पर स्मरण रहे कि शास्त्रों का यथार्थ ज्ञान तो अन्यान्य दलों में भी एक प्रकार से नहीं ही है। तभी तो आज प्राय: सभी अन्यथा ही समझने लगे हैं। नहीं तो भला कहिये न, कहीं प्रतिग्राही होने और परान्नभोजन से ब्राह्मण उत्तम हो सकता है? यही ब्राह्मणता का एकमात्र चिद्द माना जा सकता है? परन्तु, आज ऐसा ही हो रहा है, जिसे ऑंखों देखते और कानों सुनते हैं। अस्तु।
Thursday, May 9, 2019
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