जय माँ डुमरेजनी
🎗️🎗️डुमरांव और आस पास🎗️🎗️
💪डुमरांव के भूमिहार कुल भूषण
🖐️डुमरांव से जुड़ी स्थानीय लोक कथाएं कहानी
🖐️ काव, ठोरा ,कर्मनाशा नदी लोक कथाएं
🖐️डुमराँव राज ,प्राचीन राजेश्वर मंदिर
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
क्रांतिकारी चुटूर राय, चौधरी धनुषधारी राय, कालिका राय,चौधरी बृजबिहारी राय बहुत नाम छोड़ दिया है अगली पोस्ट में माँ डुमरेजनी की कथा पर पूर्व पोस्ट को पूरा पढ़े
स्वामी सहजानंद सरस्वती 1909 से लेकर 1922 तक काशी के अलावा कार्यक्षेत्र डुमरांव के पास के गांव डुमरी, सिमरी को भी बनाया 1921 जेल से रिहा होने के बाद डुमरांव के सिमरी और आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया। ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका ज़ोर रहा। सिमरी में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित 'कर्मकलाप' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की। काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया।महान भूमिहार क्रन्तिकारी डुमरांव के युगल जोड़ी स्वतंत्रता सेनानी चुटूर कुमारी यानी चौधरी चुटूर राय की मातृभूमि सरकार द्वारा क्रांतिकारी चुटूर राय को उचित सम्मान नहीं दिया गया खैर आगे बढ़ते है
डुमरांव नगरपालिका का गठन वर्ष 1868 में किया गया था।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नगरपालिका के चुनाव में प्रथम बार कई ऐसे वार्ड सदस्य चुनकर आए। जिन्होंने पुरानी परंपरा को धराशायी कर नया कीर्तिमान स्थापित किया जिसमे भूमिहार ब्राह्मणों की बड़ी संख्या the। डुमरांव राज के प्रबंधक और उनसे जुड़े़ लोगों को अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष पद पर काबिज होने की परंपरा टूट गई। नई परंपरा में चौधरी धनुषधारी राय को अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन, मामला उच्च न्यायालय में जाने के बाद न्यायालय द्वारा चुनाव रद कर दिया गया। उन दिनों नप अधिनियम के तहत राज्य सरकार ने चौधरी बृजबिहारी राय को अध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया
पांच सौ वर्ष पहले डुमरांव घने जंगलों से घिरा हुआ था। उस वक्त सड़कें नहीं थी। इसी रास्ते पर चेरो जाति का किला था। चेरों का इस इलाके में आतंक था। लूटमार.तथा बटमारी उनका पेशा था।।कांव नदी के उस पार स्थित चेराें खरवारों का कबीला बावन दुअरियां आज भी वीरान पड़ा है। कहा जाता है कि उस जमाने में उनका टीला काफी समृद्ध था तथा उंचाई पर बसा हुआ था। लेकिन मां डुमरेजनी के श्राप के बाद न सिर्फ चेराें खरवारों का नाश हुआ बल्कि उनका समृद्ध किला बावन दुअरियां भी बंजर हो गया। आज भी उस टीले के क्षेत्र में न तो हल चलता है और न ही खेती होती है। कई बार हल चलाने का प्रयास भी किया गया लेकिन सफलता नहीं मिल सकी है। कहा जाता है कि इस टीले के अंदर कई इतिहास छिपे है। मान्यता तो ये भी है कि इस टीले में काफी धन संपदा भी दबे होंगे.अपने पुरनियों से कहानी सुनी है कि यहाँ एक धनवान चेरों राजा रहता था, परन्तु वह कुछ पागल किस्म का इंसान था। उसके पास जमीन में लम्बे समय से छुपाया गया कई मन सोना का भंडार था। उसने सभी सोना को निकलवाया और कहा कि यह काफी समय से तहखाने में रखे रहने के कारण ओदा (नमी युक्त) हो गया है, इसलिए इसे सुखवाया जाय। मजदूर तेज धूप में गढ़ के अहाते में सुखवाने लगे। शाम के समय राजा ने सारे सोना को इकट्ठा करा कर तौलवाया, तो तौल के हिसाब से सोना पूरा मिला। उसे सोचा कि इसका सुखवन नहीं अभी तक नहीं गया। उसने फिर से सुखवाने के लिए कहा। यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा। सुबह सोना के टुकड़े धूप में पसारे जाते और शाम को बटोर कर तौलवाया जाता। सोना का वजन हमेशा एक समान हीं मिलता। राजा अपने मजदूरों पर नाराज होकर उन्हें तरह-तरह से कष्ट देने लगा, क्योंकि उसकी समझ से सोना की नमी सूख नहीं रही थी। सभी जानते हैं कि सोना में नमी होती नहीं है। तब अंत में चतुर दीवान ने एक तरकीब निकाली। उसने मजदूरों से कहा कि वे सब अपने पैरों में अलकतरा या चिपकने वाल द्रव लगाकर जायें, ताकि सोना के टुकड़े पैरों में सटकर उस जगह से हट जायें। इस उपक्रम से काफी सोना वहाँ से गायब होने लगा। कुछ दिनों के बाद वजन काफी कम हो गया, तो राजा ने कहा कि अब सोना सूख गया है अब सूखाना बंद करो। सोना सूख जाने की खुशी में उसने मजदूरों को सोना के कई टुकड़े उपहार में दिये।
काव नदी और जंगलों के बीच से रास्ता भोजपुर घाट होते हुए उतरप्रदेश को जोड़ता था।Pic में
काव शाहाबाद के आंतरिक भाग की अंतरप्रवाहित होने वाली सबसे बड़ी नदी थी। यह कैमूर पर्वत के कछुअर खोह से निकल कर राजपुर, सियांवक, विक्रमगंज, दावथ, नावानगर, केसठ, कोरानसरैया, डुमरॉव होती हुई गंगा में मुहाना बनाती थी, परन्तु इस नदी का बहाव वर्तमान में मलियाबाग से उत्तर धारा मोड़कर घुनसारी गॉव के पास ठोरा नदी में मिला दिया गया है। रूपसागर, नावानगर, जितवाडिहरी, अतिमी, भदार, बसुदेवा, पिलापुर और नखपुर आदि गाँवों की सीमा से काव की धारा गायब हो गई है। केसठ के पास काव के नाम से एक धारा बहती हुई डुमरॉव की ओर जाती है, फिर भी मुख्य धारा नदी- अपहरण की वस्तु होकर इतिहास का विषय बन चुकी है।
ठोरा नदी के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि ठोरा का जन्म उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के एक ब्राह्माण परिवार में हुआ था। उनका ननिहाल प्रखंड के नोनहर गांव में था। उनके सात मामा थे। ननिहाल में जब किसी मामा के परिवार में खाने के लिए नहीं पूछा गया तो ठोरा ने कुएं में डूबकर जान दे दी। यह देख उनके साथ आए एक नौकर व कुत्ता परिवार में जवाब देने के भय से कुएं में छलांग लगा दी। वहीं से पानी की एक धारा निकली जो अपना विकास करती हुई अपने वेग से पूरे क्षेत्र को भौचक करती गंगा नदी से मिल गई। गंगा के मिलन स्थल पर भी मिथ कथा है। ठोरा का तेज और अतुल जल राशि का प्रवाह गंगा की धारा से चीरकर पार कर जाता, मगर गंगा हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। 'हे महाराज नारी के सत्य की रक्षा करें' और ठोरा ने गंगा के साथ प्रवाहित होना स्वीकार किया। एक तीसरी कथा भी है जिसमें लोग बताते हैं कि ठोरा के तट पर जब भी कोई व्यक्ति भूखा और प्यासा दिखता, ठोरा सोने के थाल में छप्पन व्यंजन परोस कर उनके सामने रख देते। लोग खाकर सोने की थाल को नदी में डाल देते थे, किन्तु जब एक राहगीर सोने की थाल लेकर चला गया तब से ठोरा ने भोजन देना बंद कर दिया।
जगरम' भोजपुरी पत्रिका, बक्सर, वर्ष- अगस्त, 1996, पृष्ट- 20, कृष्ण मधुमूर्ति का आलेख- ‘ठोरा बाबा (नदी) के मिथक- ‘‘नोनहर के एगो पुरनिया रामनारायण साहु (100 बरिस) तलन कि ई गाँव ठोरा बाबा के ममहर रहे। कवनो कारज-परोजन पर ठोरा एगो पेठवनिया सरूप दुसाध के संगे मामा किहाँ आइल रहले। उनुका सात गो मामा रहले। सभे इहें बझे जे ठोरा दोसरा किहें खात-पीयत होई हें। बाकिर ठोरा सात दिन तक उपासे रह गईले। ममहर के एह कुआदर से ऊ बड़ा मर्माहत भइले आ इनार में कूद गईले। ․․․․․․․․․․․․․․․ किवंदती बा कि ठोरा इनार फारि के गंगाजी में मिले खातिर चलले। जेने-जेने से ऊ गुजरले ऊहे सोता बन गइल, जवन बाद में ठोरा नदी कहाइल। बक्सर के पास ठोरा अपना ओही वेग से गंगाजी के धार चीर के पार होखल चहले। त गंगा जी प्रकट होके हाथ जोड़ी कइली कि हमरा महिमा के खेयाल कर। तहार उद्धार त हम करबे करब।''
कर्मनाशा नदी का उद्गम बिहार के कैमूर जिले से हुआ है। यह बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश के भी कुछ हिस्से में बहती है। यूपी में यह नदी 4 जिलों सोनभद्र, चंदौली, वाराणसी और गाजीपुर से होकर बहती है और बिहार में बक्सर के समीप गंगा नदी में जाकर मिल जाती है
इस नदी के बारे में यह भी कहा जाता है कि कोई हरा-भरा पेड़ भी इस नदी को छू ले तो वह भी सूख जाता है
नदी के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। राजा हरिश्चन्द्र के पिता थे राजा सत्यव्रत।पराक्रमी होने के साथ ही यह दुष्ट आचरण के थे। राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु ने ऐसा करने मना कर दिया तो राजा विश्वामित्र के पास पहुंचे और उनसे सशरीर स्वर्ग भेजने का अनुरोध किया।वशिष्ठ से शत्रुता के कारण और तप के अहंकार में विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को सशरीर स्वर्ग भेजना स्वीकार कर लिया।विश्वामित्र के तप से राजा सत्यव्रत सशरीर स्वर्ग पहुंच गए जिन्हें देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और उलटा सिर करके वापस धरती पर भेज दिया। लेकिन विश्वामित्र ने अपने तप से राजा को स्वर्ग और धरती के बीच रोक लिया। बीच में अटके राजा सत्यव्रत त्रिशंकु कहलाएदेवताओं और विश्वामित्र के युद्ध में त्रिशंकु धरती और आसमान के बीच में लटके रहे थे। राजा का मुंह धरती की ओर था और उससे लगातार तेजी से लार टपक रही थी। उनकी लार से ही यह नदी प्रकट हुई। ऋषि वशिष्ठ ने राजा को चांडाल होने का शाप दे दिया था और उनकी लार से नदी बनी थी इसलिए इसे अपवित्र माना गया साथ ही यह भी धारणा कायम हो गई कि इस नदी के जल को छूने से समस्त पुण्य नष्ट हो जाएंगे।पारामरवंशिय राजपूत राजाओ की भव्य नगरी ।जिसकी राज सत्ता का केंद्रबिंदु राजगढ़ रहा था ।गढ़ आज भी खड़ा है अपनी वैभवशाली अतीत के स्मिर्ति स्वरूप । इसके चारो और लम्बी गड्डी थी जिसमे सुरक्षा की दृस्टि से पानी भरा रहता था ।इसी गढ़ के साथ नगर की ब्यवस्था बड़े सलीके से थी ।सड़के अपनी खाशियत के नाम से जाने जाए थे ।प्राचीन नाम आज भी ज्यो कास त्यों है ।गढ़ के सामने से जो रोड जाती है वह जंगल की और जाती है ,किन्तु किराना के ब्यपारियो का समूह यहाँ कारोबार करता था इसलिए इसका नाम ,,,,जंगल बाज़ार रोड पड़ा है ।
गढ़ से पूरब जो रोड जाती है वह महारानी द्वारा निर्मित छतिया पोखरा तक जाती थी इसलिए। इसका नाम छतिया पोखरा रोड आज भी है ।राजगढ़ से पश्चिम जो रास्ता जाती है उसमे तक़रीबन 1000 मीटर के बाद बर्तन के कारोबारी ठठेरा। वो कसेरा जाती की बस्ती थी जिसमे बर्तन खरीद फरोख्त होते थे ।
हां इसी रोड में हमलोगो को 500 गज की दुरी पर उज्जैनी कायस्थो को बसाया गया था ।जिसमे राज की नौकरी ख़त्म होने बाद बहुत बड़ी संख्या में लोग पलायन कर गए है ।
यह बात नही है की यह टतेरा जाती की बहुलता से यह बर्तन की दुकान वाली रोड है । Pic में डुमराँव राज का 300 वर्ष पूर्व निर्मित शिकारी बंगला है ।
सैकड़ो वर्ष पूर्व यह क्षेत्र घनघोर जंगल था ।हिसंक पशुओँ में बाघ चीता लोमड़ी लकड़बघा सियार रहते थे ।जिनका शिकार महाराजा और उनके परिवार के सदस्य यहाँ आकर करते थे ।
कुछ बाते श्रुतियों के चलते ज़िंदा रहती है ।पर यह भागनावशेष स्वम् में एक परमाणिक सत्य है ।अभी भी इसे गौर से देखने प्रिस्कि क्लाकीर्ति और अकित भीति कशीदाकारी उस काल की उन्नत स्थापत्य कला से परिचित कराती है ।कुछ वर्ष पूर्व इसपर के रंग रोशन दिखाई पड़ते थे जो आज बिलुप्त होते जा रहे है ।इसकी रख रखाव अब नही है ।इसकी महता और भी बढ़ गयी है क्योंकि बगल में एक अति प्राचीन शिव मंदिर है जिसके बगल में मन्दिर से भी प्राचीन एक तलाव है ।सुनते है की इसी तालाव में जानवर पानी पिने आते थे और सन्निकट शिकारी बँगला होने से उनका शिकार आसानी से हो जाता था ।एक तिवारी जी सिपाही थे उनके घुटने का चमड़ा बिलकुल छितराया हुआ था ।कहते थे की सरकार बहादुर के साथ एक बाघ के शिकार के क्रम में बाघ ने जो झपटा मारी उसके हाथे घुटना आ गया और पूरा मांस पंजे से नो च लिया ।शुक्र था की महाराजा बहादुर के हाथो मारा गया ।
अब राज की विरासत मिटटी जा रही है ऐसे में पुरातत्व विभाग को चाहिए की ऐसे स्थलो का प्रमाणिक अभिलेख शोध के लिए रखे ।
अति प्राचीन नवरतन गढ़ की खुदाई की बात समय समय पर होती रहती है और पुरातत्व बिभाग फिर सोयी रहती है ।डुमरांव के चारों दिशा में ऐतिहासिक व प्राचीन मंदिर मौजूद है Pic में इस क्रम में छठिया पोखरा से अनुमंडल कार्यालय जाने वाले मार्ग पर प्राचीन राजेश्वर मंदिर हर व्यक्ति को आर्कषित करता है. मंदिर में रामजानकी, शिव परिवार, गणेश जी, मां दुर्गा और इस मंदिर में जिले का एकलौता सूर्यदेव की प्राचीन प्रतिमा मौजूद है. मंदिर वर्षो से बंद रहा. लेकिन 2009 में इसमें लोगों का आवागमन शुरू हुआ. इस मंदिर का निर्माण श्री 108 मती महारानी वेणी प्रसाद कुमारी ने संवत 1856 में कराया है. इसको प्रमाण करता है रामजानकी मंदिर के मुख्य दरवाजे के नीचे पत्थर पर लिखा संवत. मंदिर में रामजानकी का मंदिर बीच में, जबकि शिव परिवार, मां दुर्गा मंदिर, गणेशजी और सूर्यदेव का मंदिर चारों दिशा में मंदिर परिसर में मौजूद है. श्रद्धालू चारों ओर परिक्रमा करते है, तो चारों मंदिर में देवी-देवाताओं का दर्शन होता है. शिव परिवार में जिले में एकलौता मंदिर है, जिसमें हनुमान जी अपने गदा के साथ ढाल के साथ दिख रहे हैं. पंडित मुकुंद माधव मिश्रा ने बताया कि छठिया पोखरा पर लोक आस्था के महापर्व पर भगवान भाष्कर का अध्र्य देते है, लेकिन अधिकतर लोगों को नहीं जानकारी थी कि इस मंदिर में सूर्यदेव की प्राचीन मूर्ति स्थापित है. अभी डुमराँव में कई विरासत की पहचान कायम है ।
🎗️🎗️डुमरांव और आस पास🎗️🎗️
💪डुमरांव के भूमिहार कुल भूषण
🖐️डुमरांव से जुड़ी स्थानीय लोक कथाएं कहानी
🖐️ काव, ठोरा ,कर्मनाशा नदी लोक कथाएं
🖐️डुमराँव राज ,प्राचीन राजेश्वर मंदिर
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
क्रांतिकारी चुटूर राय, चौधरी धनुषधारी राय, कालिका राय,चौधरी बृजबिहारी राय बहुत नाम छोड़ दिया है अगली पोस्ट में माँ डुमरेजनी की कथा पर पूर्व पोस्ट को पूरा पढ़े
स्वामी सहजानंद सरस्वती 1909 से लेकर 1922 तक काशी के अलावा कार्यक्षेत्र डुमरांव के पास के गांव डुमरी, सिमरी को भी बनाया 1921 जेल से रिहा होने के बाद डुमरांव के सिमरी और आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया। ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका ज़ोर रहा। सिमरी में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित 'कर्मकलाप' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की। काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया।महान भूमिहार क्रन्तिकारी डुमरांव के युगल जोड़ी स्वतंत्रता सेनानी चुटूर कुमारी यानी चौधरी चुटूर राय की मातृभूमि सरकार द्वारा क्रांतिकारी चुटूर राय को उचित सम्मान नहीं दिया गया खैर आगे बढ़ते है
डुमरांव नगरपालिका का गठन वर्ष 1868 में किया गया था।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नगरपालिका के चुनाव में प्रथम बार कई ऐसे वार्ड सदस्य चुनकर आए। जिन्होंने पुरानी परंपरा को धराशायी कर नया कीर्तिमान स्थापित किया जिसमे भूमिहार ब्राह्मणों की बड़ी संख्या the। डुमरांव राज के प्रबंधक और उनसे जुड़े़ लोगों को अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष पद पर काबिज होने की परंपरा टूट गई। नई परंपरा में चौधरी धनुषधारी राय को अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन, मामला उच्च न्यायालय में जाने के बाद न्यायालय द्वारा चुनाव रद कर दिया गया। उन दिनों नप अधिनियम के तहत राज्य सरकार ने चौधरी बृजबिहारी राय को अध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया
पांच सौ वर्ष पहले डुमरांव घने जंगलों से घिरा हुआ था। उस वक्त सड़कें नहीं थी। इसी रास्ते पर चेरो जाति का किला था। चेरों का इस इलाके में आतंक था। लूटमार.तथा बटमारी उनका पेशा था।।कांव नदी के उस पार स्थित चेराें खरवारों का कबीला बावन दुअरियां आज भी वीरान पड़ा है। कहा जाता है कि उस जमाने में उनका टीला काफी समृद्ध था तथा उंचाई पर बसा हुआ था। लेकिन मां डुमरेजनी के श्राप के बाद न सिर्फ चेराें खरवारों का नाश हुआ बल्कि उनका समृद्ध किला बावन दुअरियां भी बंजर हो गया। आज भी उस टीले के क्षेत्र में न तो हल चलता है और न ही खेती होती है। कई बार हल चलाने का प्रयास भी किया गया लेकिन सफलता नहीं मिल सकी है। कहा जाता है कि इस टीले के अंदर कई इतिहास छिपे है। मान्यता तो ये भी है कि इस टीले में काफी धन संपदा भी दबे होंगे.अपने पुरनियों से कहानी सुनी है कि यहाँ एक धनवान चेरों राजा रहता था, परन्तु वह कुछ पागल किस्म का इंसान था। उसके पास जमीन में लम्बे समय से छुपाया गया कई मन सोना का भंडार था। उसने सभी सोना को निकलवाया और कहा कि यह काफी समय से तहखाने में रखे रहने के कारण ओदा (नमी युक्त) हो गया है, इसलिए इसे सुखवाया जाय। मजदूर तेज धूप में गढ़ के अहाते में सुखवाने लगे। शाम के समय राजा ने सारे सोना को इकट्ठा करा कर तौलवाया, तो तौल के हिसाब से सोना पूरा मिला। उसे सोचा कि इसका सुखवन नहीं अभी तक नहीं गया। उसने फिर से सुखवाने के लिए कहा। यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा। सुबह सोना के टुकड़े धूप में पसारे जाते और शाम को बटोर कर तौलवाया जाता। सोना का वजन हमेशा एक समान हीं मिलता। राजा अपने मजदूरों पर नाराज होकर उन्हें तरह-तरह से कष्ट देने लगा, क्योंकि उसकी समझ से सोना की नमी सूख नहीं रही थी। सभी जानते हैं कि सोना में नमी होती नहीं है। तब अंत में चतुर दीवान ने एक तरकीब निकाली। उसने मजदूरों से कहा कि वे सब अपने पैरों में अलकतरा या चिपकने वाल द्रव लगाकर जायें, ताकि सोना के टुकड़े पैरों में सटकर उस जगह से हट जायें। इस उपक्रम से काफी सोना वहाँ से गायब होने लगा। कुछ दिनों के बाद वजन काफी कम हो गया, तो राजा ने कहा कि अब सोना सूख गया है अब सूखाना बंद करो। सोना सूख जाने की खुशी में उसने मजदूरों को सोना के कई टुकड़े उपहार में दिये।
काव नदी और जंगलों के बीच से रास्ता भोजपुर घाट होते हुए उतरप्रदेश को जोड़ता था।Pic में
काव शाहाबाद के आंतरिक भाग की अंतरप्रवाहित होने वाली सबसे बड़ी नदी थी। यह कैमूर पर्वत के कछुअर खोह से निकल कर राजपुर, सियांवक, विक्रमगंज, दावथ, नावानगर, केसठ, कोरानसरैया, डुमरॉव होती हुई गंगा में मुहाना बनाती थी, परन्तु इस नदी का बहाव वर्तमान में मलियाबाग से उत्तर धारा मोड़कर घुनसारी गॉव के पास ठोरा नदी में मिला दिया गया है। रूपसागर, नावानगर, जितवाडिहरी, अतिमी, भदार, बसुदेवा, पिलापुर और नखपुर आदि गाँवों की सीमा से काव की धारा गायब हो गई है। केसठ के पास काव के नाम से एक धारा बहती हुई डुमरॉव की ओर जाती है, फिर भी मुख्य धारा नदी- अपहरण की वस्तु होकर इतिहास का विषय बन चुकी है।
ठोरा नदी के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि ठोरा का जन्म उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के एक ब्राह्माण परिवार में हुआ था। उनका ननिहाल प्रखंड के नोनहर गांव में था। उनके सात मामा थे। ननिहाल में जब किसी मामा के परिवार में खाने के लिए नहीं पूछा गया तो ठोरा ने कुएं में डूबकर जान दे दी। यह देख उनके साथ आए एक नौकर व कुत्ता परिवार में जवाब देने के भय से कुएं में छलांग लगा दी। वहीं से पानी की एक धारा निकली जो अपना विकास करती हुई अपने वेग से पूरे क्षेत्र को भौचक करती गंगा नदी से मिल गई। गंगा के मिलन स्थल पर भी मिथ कथा है। ठोरा का तेज और अतुल जल राशि का प्रवाह गंगा की धारा से चीरकर पार कर जाता, मगर गंगा हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। 'हे महाराज नारी के सत्य की रक्षा करें' और ठोरा ने गंगा के साथ प्रवाहित होना स्वीकार किया। एक तीसरी कथा भी है जिसमें लोग बताते हैं कि ठोरा के तट पर जब भी कोई व्यक्ति भूखा और प्यासा दिखता, ठोरा सोने के थाल में छप्पन व्यंजन परोस कर उनके सामने रख देते। लोग खाकर सोने की थाल को नदी में डाल देते थे, किन्तु जब एक राहगीर सोने की थाल लेकर चला गया तब से ठोरा ने भोजन देना बंद कर दिया।
जगरम' भोजपुरी पत्रिका, बक्सर, वर्ष- अगस्त, 1996, पृष्ट- 20, कृष्ण मधुमूर्ति का आलेख- ‘ठोरा बाबा (नदी) के मिथक- ‘‘नोनहर के एगो पुरनिया रामनारायण साहु (100 बरिस) तलन कि ई गाँव ठोरा बाबा के ममहर रहे। कवनो कारज-परोजन पर ठोरा एगो पेठवनिया सरूप दुसाध के संगे मामा किहाँ आइल रहले। उनुका सात गो मामा रहले। सभे इहें बझे जे ठोरा दोसरा किहें खात-पीयत होई हें। बाकिर ठोरा सात दिन तक उपासे रह गईले। ममहर के एह कुआदर से ऊ बड़ा मर्माहत भइले आ इनार में कूद गईले। ․․․․․․․․․․․․․․․ किवंदती बा कि ठोरा इनार फारि के गंगाजी में मिले खातिर चलले। जेने-जेने से ऊ गुजरले ऊहे सोता बन गइल, जवन बाद में ठोरा नदी कहाइल। बक्सर के पास ठोरा अपना ओही वेग से गंगाजी के धार चीर के पार होखल चहले। त गंगा जी प्रकट होके हाथ जोड़ी कइली कि हमरा महिमा के खेयाल कर। तहार उद्धार त हम करबे करब।''
कर्मनाशा नदी का उद्गम बिहार के कैमूर जिले से हुआ है। यह बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश के भी कुछ हिस्से में बहती है। यूपी में यह नदी 4 जिलों सोनभद्र, चंदौली, वाराणसी और गाजीपुर से होकर बहती है और बिहार में बक्सर के समीप गंगा नदी में जाकर मिल जाती है
इस नदी के बारे में यह भी कहा जाता है कि कोई हरा-भरा पेड़ भी इस नदी को छू ले तो वह भी सूख जाता है
नदी के बारे में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। राजा हरिश्चन्द्र के पिता थे राजा सत्यव्रत।पराक्रमी होने के साथ ही यह दुष्ट आचरण के थे। राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ के पास गए और उनसे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की। गुरु ने ऐसा करने मना कर दिया तो राजा विश्वामित्र के पास पहुंचे और उनसे सशरीर स्वर्ग भेजने का अनुरोध किया।वशिष्ठ से शत्रुता के कारण और तप के अहंकार में विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को सशरीर स्वर्ग भेजना स्वीकार कर लिया।विश्वामित्र के तप से राजा सत्यव्रत सशरीर स्वर्ग पहुंच गए जिन्हें देखकर इंद्र क्रोधित हो गए और उलटा सिर करके वापस धरती पर भेज दिया। लेकिन विश्वामित्र ने अपने तप से राजा को स्वर्ग और धरती के बीच रोक लिया। बीच में अटके राजा सत्यव्रत त्रिशंकु कहलाएदेवताओं और विश्वामित्र के युद्ध में त्रिशंकु धरती और आसमान के बीच में लटके रहे थे। राजा का मुंह धरती की ओर था और उससे लगातार तेजी से लार टपक रही थी। उनकी लार से ही यह नदी प्रकट हुई। ऋषि वशिष्ठ ने राजा को चांडाल होने का शाप दे दिया था और उनकी लार से नदी बनी थी इसलिए इसे अपवित्र माना गया साथ ही यह भी धारणा कायम हो गई कि इस नदी के जल को छूने से समस्त पुण्य नष्ट हो जाएंगे।पारामरवंशिय राजपूत राजाओ की भव्य नगरी ।जिसकी राज सत्ता का केंद्रबिंदु राजगढ़ रहा था ।गढ़ आज भी खड़ा है अपनी वैभवशाली अतीत के स्मिर्ति स्वरूप । इसके चारो और लम्बी गड्डी थी जिसमे सुरक्षा की दृस्टि से पानी भरा रहता था ।इसी गढ़ के साथ नगर की ब्यवस्था बड़े सलीके से थी ।सड़के अपनी खाशियत के नाम से जाने जाए थे ।प्राचीन नाम आज भी ज्यो कास त्यों है ।गढ़ के सामने से जो रोड जाती है वह जंगल की और जाती है ,किन्तु किराना के ब्यपारियो का समूह यहाँ कारोबार करता था इसलिए इसका नाम ,,,,जंगल बाज़ार रोड पड़ा है ।
गढ़ से पूरब जो रोड जाती है वह महारानी द्वारा निर्मित छतिया पोखरा तक जाती थी इसलिए। इसका नाम छतिया पोखरा रोड आज भी है ।राजगढ़ से पश्चिम जो रास्ता जाती है उसमे तक़रीबन 1000 मीटर के बाद बर्तन के कारोबारी ठठेरा। वो कसेरा जाती की बस्ती थी जिसमे बर्तन खरीद फरोख्त होते थे ।
हां इसी रोड में हमलोगो को 500 गज की दुरी पर उज्जैनी कायस्थो को बसाया गया था ।जिसमे राज की नौकरी ख़त्म होने बाद बहुत बड़ी संख्या में लोग पलायन कर गए है ।
यह बात नही है की यह टतेरा जाती की बहुलता से यह बर्तन की दुकान वाली रोड है । Pic में डुमराँव राज का 300 वर्ष पूर्व निर्मित शिकारी बंगला है ।
सैकड़ो वर्ष पूर्व यह क्षेत्र घनघोर जंगल था ।हिसंक पशुओँ में बाघ चीता लोमड़ी लकड़बघा सियार रहते थे ।जिनका शिकार महाराजा और उनके परिवार के सदस्य यहाँ आकर करते थे ।
कुछ बाते श्रुतियों के चलते ज़िंदा रहती है ।पर यह भागनावशेष स्वम् में एक परमाणिक सत्य है ।अभी भी इसे गौर से देखने प्रिस्कि क्लाकीर्ति और अकित भीति कशीदाकारी उस काल की उन्नत स्थापत्य कला से परिचित कराती है ।कुछ वर्ष पूर्व इसपर के रंग रोशन दिखाई पड़ते थे जो आज बिलुप्त होते जा रहे है ।इसकी रख रखाव अब नही है ।इसकी महता और भी बढ़ गयी है क्योंकि बगल में एक अति प्राचीन शिव मंदिर है जिसके बगल में मन्दिर से भी प्राचीन एक तलाव है ।सुनते है की इसी तालाव में जानवर पानी पिने आते थे और सन्निकट शिकारी बँगला होने से उनका शिकार आसानी से हो जाता था ।एक तिवारी जी सिपाही थे उनके घुटने का चमड़ा बिलकुल छितराया हुआ था ।कहते थे की सरकार बहादुर के साथ एक बाघ के शिकार के क्रम में बाघ ने जो झपटा मारी उसके हाथे घुटना आ गया और पूरा मांस पंजे से नो च लिया ।शुक्र था की महाराजा बहादुर के हाथो मारा गया ।
अब राज की विरासत मिटटी जा रही है ऐसे में पुरातत्व विभाग को चाहिए की ऐसे स्थलो का प्रमाणिक अभिलेख शोध के लिए रखे ।
अति प्राचीन नवरतन गढ़ की खुदाई की बात समय समय पर होती रहती है और पुरातत्व बिभाग फिर सोयी रहती है ।डुमरांव के चारों दिशा में ऐतिहासिक व प्राचीन मंदिर मौजूद है Pic में इस क्रम में छठिया पोखरा से अनुमंडल कार्यालय जाने वाले मार्ग पर प्राचीन राजेश्वर मंदिर हर व्यक्ति को आर्कषित करता है. मंदिर में रामजानकी, शिव परिवार, गणेश जी, मां दुर्गा और इस मंदिर में जिले का एकलौता सूर्यदेव की प्राचीन प्रतिमा मौजूद है. मंदिर वर्षो से बंद रहा. लेकिन 2009 में इसमें लोगों का आवागमन शुरू हुआ. इस मंदिर का निर्माण श्री 108 मती महारानी वेणी प्रसाद कुमारी ने संवत 1856 में कराया है. इसको प्रमाण करता है रामजानकी मंदिर के मुख्य दरवाजे के नीचे पत्थर पर लिखा संवत. मंदिर में रामजानकी का मंदिर बीच में, जबकि शिव परिवार, मां दुर्गा मंदिर, गणेशजी और सूर्यदेव का मंदिर चारों दिशा में मंदिर परिसर में मौजूद है. श्रद्धालू चारों ओर परिक्रमा करते है, तो चारों मंदिर में देवी-देवाताओं का दर्शन होता है. शिव परिवार में जिले में एकलौता मंदिर है, जिसमें हनुमान जी अपने गदा के साथ ढाल के साथ दिख रहे हैं. पंडित मुकुंद माधव मिश्रा ने बताया कि छठिया पोखरा पर लोक आस्था के महापर्व पर भगवान भाष्कर का अध्र्य देते है, लेकिन अधिकतर लोगों को नहीं जानकारी थी कि इस मंदिर में सूर्यदेव की प्राचीन मूर्ति स्थापित है. अभी डुमराँव में कई विरासत की पहचान कायम है ।
No comments:
Post a Comment