Tuesday, August 13, 2019

.         🎗️🎗️चबूतरा चौपाल🎗️
हमारे द्वार के ठीक सामने एक चबूतरा है  एक समय चबूतरा बहुत गुलज़ार  रहता था.
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
हमारे मोहल्ला में वैसे तो भूमिहारों की संख्या ज्यादा है पर अन्य जाति के लोग भी रहते है आम तौर पर सब में भाईचारा है एक समय हमारे घर के सामने बना चबूतरा मोहल्ला में बैठक का बड़ा केंद्र था.किस के खेत में इस साल बढ़िया पैदावार हुई है, किसकी बेटी की शादी तय करनी है किस्से कहानियां हमने भी भूमिहार समाज से जुड़ी कई किस्से कहानियां यही सुनी मंगला राय से लेकर श्री बाबू तक.ऐसी बात चबूतरे पर आम तौर पर हुआ करती थीं. चबूतरे की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गयी. हालांकि  रविवार को चबूतरे पर चौपाल जरूर लगता है. पर समय के साथ उस चौपाल पर होने वाली सामाजिक सरोकार की बातें अब खत्म हो चली हैं.  रेडियो भी बजता था चबूतरे पर मनोरंजन का भी केंद्र हुआ करता था. उस ज़माने में गांव में गिने-चुने घरों में ही रेडियो उपलब्ध था. जिस दिन रेडियो पर कोई खास कार्यक्रम आने वाला होता चबूतरा  गुलजार हो जाता था. गांव के बुजुर्ग और युवा घरेलू काम जल्दी-जल्दी निबटा कर पहुंच जाते थे, फिर घंटो रेडियो में आने वाले अपने पसंदीदा कार्यक्रम को बड़े चाव से सुना करते थे. इस बीच अगर किसी के घर से बुलावा आ जाता तो मानो पहाड़ सा टूट पड़ता. चबूतरे पर सिर्फ सुबह में ही नही बल्कि शाम को भी खूब मजमा लगता था. चबूतरे पर मोहल्ला की सामाजिक गतिविधियां तय हुआ करती थीं.  जगन्नाथ मिश्रा और लालू के समय में गांव में चबूतरे का काफी महत्व था. चबूतरे पर अधिकतर स्वस्थ चर्चा हुआ करती थीं. राजनीति उस वक्त भी हावी थी पर चबूतरे में किसी पार्टी विशेष के पक्ष पर चर्चा करते वक्त लोग हावी नहीं हुआ करते थे. चर्चाओं में इत्मीनान था और छोटे-बड़े सबकी बातों को सुना जाता था. आज भी गांव में कभी-कभार बुजुर्गों और युवाओं के बीच चर्चाएं होती हैं पर उसका स्वरूप चौपाल की तरह नहीं दिखता. आज हर कोई अपने धुन में मस्त है. शादी-ब्याह और पर्व त्योहारों में ही एक दूसरे से मिलना हो पाता है.  समय के साथ गांव में भी शहरी कल्चर हावी होने लगा है. वाट्सअप और फेसबुक ने चौपाल की चर्चाओं पर अपना असर डाला है. शाम की चबूतरे की  चौपाल की जगह अब टेलीविजन ने ली वहीं सुबह की खुशनुमा चर्चाएं अब भागदौड़ भरी जिंदगी में कहीं खो गई है. चौपाल की जगह अब चर्चाओं के लिए गांव के बाजारों पर बने चाय दुकानों पर लोग इकट्ठा होने लगे हैं. चर्चाओं का विषय भी अब कुछ खास नहीं है. कभी क्रिकेट तो कभी फिल्म युवा वर्ग अक्सर इन्ही विषयों पर चर्चा करते दिखाई पड़ते हैं. बुजुर्गों में भी अब चबूतरे आने का चाव नहीं दिखता. जिस चौपाल से गांव की परंपरा और रिवाजों की खुशबू आया करती थी आज बदलते वक्त में  आधुनिकता उसपर हावी होने लगी है. हंसी-ठिठोली के बीच बीत जाती थी शाम  सुबह के साथ शाम में भी मोहल्ला की चौपाल गुलजार हुआ करती थी. लालटेन या ढिबरी की रौशनी में दिनभर के काम से फुरसत पाकर लोग अपने-अपने मुद्दों के साथ चौपाल पर पहुंच जाते थे.  बुजुर्गों की अलग टोली बैठा करती थी और युवाओं की अलग. अगर युवा वर्ग किसी गंभीर मुद्दे पर चर्चा कर रहा हो तो बुजुर्ग उसमें अपने विचार भी रखते. जेनरेशन गैप नहीं था. हंसी मजाक भी काफी संयमित ढंग से हुआ करता था. कभी-कभी किसी की ज्यादा खिंचाई भी हो जाती थी और वह नाराज नहीं होता था.  चौपाल में होते थे कई अहम फैसले  अगर मोहल्ला के किसी व्यक्ति के घर शादी-विवाह का समारोह होने वाला हो, तो उसकी पूरी तैयारी चौपाल में बैठ कर ही कर ली जाती थी. अतिथियों का स्वागत कौन करेगा, पुराने रास्ते की मरम्मती कैसे होगी, मोहल्ला का इनार(कुएं) कैसे साफ किया जायेगा जैसी कई बातें चौपाल पर होने वाली सुबह की चर्चा में ही तय कर ली जाती थीं. शहर के साथ उस समय उतना जुड़ाव नहीं था. साधन की कमी थी और मोबाइल का भी जमाना नहीं था. इस हफ्ते शहर कौन जा रहा है. लोग बताने से घबराते भी नहीं थे और अगर किसी को कोई जरूरी सामान मांगना हो तो उस व्यक्ति को पैसे और लिस्ट थमा दी जाती थी.   हमारे समय में टेलीविजन कम ही था  गांव की चौपाल पर ही देश दुनिया की बातें पता चलती थीं. हम तो चुपचाप बैठ कर बस बुजुर्गों की बातें सुना करते थे. बहुत अच्छा लगता था.  आज भी हमारे गांव में कभी-कभी छुट्टियों में हम एक जगह इकट्ठा होकर चर्चाएं करते हैं. हालांकि अब समय का काफी अभाव है. चबूतरे से बहुत कुछ सीखने को मिलता था. पूरे गांव की खबर भी मिल जाती थी. चबूतरे की परंपरा खत्म हो चली है. युवा वर्ग आधुनिक हो गया है. बड़े-बुजुर्गों के पास बैठने का समय किसी के पास नहीं है. पहले तो खेती-बाड़ी से लेकर शादी ब्याह तक की चरचा चबूतरे पर हुआ करती थी.  हर प्रकार की बातें सुनने को मिलती थी. उन बातों में महज मनोरंजन नहीं होता, बल्कि कई बार कुछ सीखने को मिलता था. सामाजिक ज्ञान का भी बोध होता था.
 Pic सांकेतिक है

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