समंतपंचका में परशुराम ने अंतिम युद्ध लड़ा. यहीं पर हजारों क्षत्रपों की बलि दी और उनके खून से पांच तालाब भरे. यह सब करने के बाद उन्होंने अपना रक्तरंजित परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखे था. संहार और हिंसा से वे थक गये थे.
परशुराम ने 21 बार अभियान चला कर धरती के अधिकांश राजाओं को जीत लिया था. बहुत से भयभीत होकर उनके शरणागत थे. कुछ ने रनिवासों में छुपकर जान बचाई. कुछ ने ब्राह्मणों के घरों में आश्रय लिया और छुपकर रहे.
हैहयवंशीय वीतिहोत्र रनिवास में घुसकर जान बचाई थी. उसके वंश के कुछ पुरुष दधीचि के आश्रम में छिप गए. इस तरह उनकी जान बच पाई. पर अब ये भगोड़े क्षत्रप न रह गये थे.
पृथ्वी के सातों द्वीपों पर अब परशुराम का एकछत्र राज था. एक तरह से पृथ्वी क्षत्रपों से खाली हो गई थी. परशुराम के सभी उद्देश्य पूरे हो चुके थे. भूमंडल पर राज्यों को जीतने के कारण उन्हें अश्वमेध यज्ञ का अधिकार प्राप्त हुआ.
ऐसे में परशुराम ने पितरों को दिया अपना वचन पूरा करने की सोची. खून से भरे तालाबों में से नहाकर निकले परशुराम ने जब पितरों को अपने शत्रुओं के रक्त से अर्ध्य दिया था तो वे उपस्थित हो गये थे.
उन्होंने परशुराम की वीरता की सराहना करने के साथ कहा कि प्रतिशोध और हिंसा ठीक नहीं. पितरों ने परशुराम को आदेश दिया कि तुम अपने इस कर्म का प्रायश्चित्त करो. पहले इसका समापन यज्ञ करो, दान दो फिर तीर्थयात्रा के बाद तप करो.
परशुराम को यह भली भांति याद था. परशुराम ने सबसे पहले विश्वजेता और फिर अश्वमेध यज्ञ करने की ठानी. परशुराम ने विश्वजेता यज्ञ सफलता पूर्वक संपन्न कराया और उसके बाद सबसे बड़े अश्वमेध यज्ञ की तैयारी की.
समूची धरती के स्वामी का यज्ञ था सो इसे अति विशाल स्तर पर होना था. यज्ञ में सभी ऋषि, मुनि और छोटे-छोटे राजा आए. कश्यप मुनि यज्ञ के मुख्य पुरोहित बने. यज्ञ पूरा होने के बाद परशुराम की बारी दक्षिणा देने की थी.
परशुराम ने सबसे पहले महर्षि कश्यप से पूछा कि उन्हें क्या दक्षिणा चाहिए? कश्यप चाहते थे कि परशुराम धरती से दूर रहें. उन्हें भय था कि बचे-खुचे क्षत्रप पुनः सक्रिय होंगे. उन्होंने यदि फिर से कुछ अनुचित किया तो परशुराम एक बार फिर रक्तपात को तैयार हो जाएंगे.
कश्यप ने परशुराम से कहा- मुझे आपके द्वारा जीती हुई सारी धरती चाहिए. परशुराम ने सातों द्वीप वाली धरती कश्यप को दान कर दी. परशुराम को पितरों को दिए वचन अनुसार तीर्थाटन और तप को जाना था. ऐसे में कश्यप के संरक्षण में पृथ्वी जाने से वह प्रसन्न थे.
अब यज्ञ कराने में सहायता देने वाले शेष ब्राहमणों को भी दक्षिणा देनी थी. समूची धरती तो कश्यप की हो चुकी थी. उनको परशुराम क्या देते? कश्यप मुनि ने इसका हल निकाला और यज्ञ के लिए बनी कई सौ क्विंटल की सोने की वेदिका को तोड़कर सभी में बांट दिया गया.
काश्यप मुनि ने परशुराम को आशीर्वाद ही नहीं प्रसन्न होकर भगवान विष्णु का एक अमोघ मंत्र भी दिया. फिर बोले- तुमने यह सारी पृथ्वी मुझे दान कर दी है. अब इस पर रहने का तुम्हारा कोई अधिकार नहीं. तुम एक दिन भी अब इस पर मत रहो.
इसके बाद वह दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए. सह्याद्रि पर्वत से उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर समुद्र से कहा कि जहां तक उनका फरसा गया है कम से कम वहां तक समुद्र पीछे हटे. परशुराम के आदेश पर समुद्र ने एक लंबा तटवर्ती क्षेत्र खाली कर दिया.
भड़ौंच से कन्याकुमारी तक के दान या भेंट में प्राप्त समुद्र तटीय प्रदेश को शूर्पारक कहा गया. बाद में परशुराम और उनके संगियों ने यह क्षेत्र बसाया और यह परशुरामक्षेत्र कहलाया. मुंबई का सोपारा क्षेत्र इसी के अंतर्गत है.
कश्यप की आज्ञा थी कि एक दिन भी पृथ्वी पर नहीं रहना है इसलिए परशुराम ने निर्णय कर लिया था कि अब वे धरती पर दिन में तो रहेंगे पर रात महेंद्र पर्वत पर गुजारेंगे. वे रात होने से पहले मन के वेग से कुछ ही क्षणों में महेंद्र पर्वत पहुंच जाते.
परशुराम के कानों में पितरों का वह वाक्य गूंजता- बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है. जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’.
परशुराम तीर्थाटन को निकले तभी उन्हें अपने गुरू भगवान शिव के वे वचन याद आए जो शिवजी ने शिक्षा देने के दौरान कहे थे. परशुराम उन दिनों शिवजी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे.
शिवजी शिष्यों को परखने के लिए समय-समय पर उनकी परीक्षा लिया करते थे. एक दिन परखने के लिए गुरु ने शिष्यों को नीति के विरुद्ध कुछ कार्य करने का आदेश दिया. परशुराम को छोड़ सभी छात्र संकोच में दब गए.
परंतु परशुराम ने गुरु से साफ-साफ कह दिया कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जो नीति विरूद्ध हो. वह लड़ने को खड़े हो गये और समझाने-बुझाने से भी न माने. शिवजी से ही भिड़ गये.
परशुराम ने शिवजी पर उनके ही दिए फरसे से प्रहार कर दिया. शिवजी को अपने फरसे का भी मान रखना था सो उन्होंने चोट खा ली. चोट गहरी लगी. शिवजी का मस्तक फट गया. शिवजी के एक नाम ‘खण्डपरशु’ का यही रहस्य है.
शिवजी ने इसके लिए बुरा न माना बल्कि परशुराम को छाती से लगा लिया और कहा- अन्याय करने वाला चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, धर्मशील व्यक्ति को अन्याय के विरूद्ध खड़ा होना चाहिए. यह उसका कर्त्तव्य है. संसार से अधर्म मिटाने से मिटेगा, सहने से नहीं.
शिवजी ने अपने सभी शिष्यों से यह भी कह था कि- बालकों! केवल दान, धर्म, जप, तप, व्रत, उपवास ही धर्म के लक्षण नहीं हैं. अन्याय, अधर्म से लड़ना भी धर्म साधना का एक अंग है.
परशुराम ने तीर्थों का सेवन करने बाद भगवान दत्तात्रेय से षोड़षी मंत्र की दीक्षा ली और स्थाई रूप से महेंद्र पर्वत पर आश्रम बना कर माता त्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप में रम गये.
परशुराम ने 21 बार अभियान चला कर धरती के अधिकांश राजाओं को जीत लिया था. बहुत से भयभीत होकर उनके शरणागत थे. कुछ ने रनिवासों में छुपकर जान बचाई. कुछ ने ब्राह्मणों के घरों में आश्रय लिया और छुपकर रहे.
हैहयवंशीय वीतिहोत्र रनिवास में घुसकर जान बचाई थी. उसके वंश के कुछ पुरुष दधीचि के आश्रम में छिप गए. इस तरह उनकी जान बच पाई. पर अब ये भगोड़े क्षत्रप न रह गये थे.
पृथ्वी के सातों द्वीपों पर अब परशुराम का एकछत्र राज था. एक तरह से पृथ्वी क्षत्रपों से खाली हो गई थी. परशुराम के सभी उद्देश्य पूरे हो चुके थे. भूमंडल पर राज्यों को जीतने के कारण उन्हें अश्वमेध यज्ञ का अधिकार प्राप्त हुआ.
ऐसे में परशुराम ने पितरों को दिया अपना वचन पूरा करने की सोची. खून से भरे तालाबों में से नहाकर निकले परशुराम ने जब पितरों को अपने शत्रुओं के रक्त से अर्ध्य दिया था तो वे उपस्थित हो गये थे.
उन्होंने परशुराम की वीरता की सराहना करने के साथ कहा कि प्रतिशोध और हिंसा ठीक नहीं. पितरों ने परशुराम को आदेश दिया कि तुम अपने इस कर्म का प्रायश्चित्त करो. पहले इसका समापन यज्ञ करो, दान दो फिर तीर्थयात्रा के बाद तप करो.
परशुराम को यह भली भांति याद था. परशुराम ने सबसे पहले विश्वजेता और फिर अश्वमेध यज्ञ करने की ठानी. परशुराम ने विश्वजेता यज्ञ सफलता पूर्वक संपन्न कराया और उसके बाद सबसे बड़े अश्वमेध यज्ञ की तैयारी की.
समूची धरती के स्वामी का यज्ञ था सो इसे अति विशाल स्तर पर होना था. यज्ञ में सभी ऋषि, मुनि और छोटे-छोटे राजा आए. कश्यप मुनि यज्ञ के मुख्य पुरोहित बने. यज्ञ पूरा होने के बाद परशुराम की बारी दक्षिणा देने की थी.
परशुराम ने सबसे पहले महर्षि कश्यप से पूछा कि उन्हें क्या दक्षिणा चाहिए? कश्यप चाहते थे कि परशुराम धरती से दूर रहें. उन्हें भय था कि बचे-खुचे क्षत्रप पुनः सक्रिय होंगे. उन्होंने यदि फिर से कुछ अनुचित किया तो परशुराम एक बार फिर रक्तपात को तैयार हो जाएंगे.
कश्यप ने परशुराम से कहा- मुझे आपके द्वारा जीती हुई सारी धरती चाहिए. परशुराम ने सातों द्वीप वाली धरती कश्यप को दान कर दी. परशुराम को पितरों को दिए वचन अनुसार तीर्थाटन और तप को जाना था. ऐसे में कश्यप के संरक्षण में पृथ्वी जाने से वह प्रसन्न थे.
अब यज्ञ कराने में सहायता देने वाले शेष ब्राहमणों को भी दक्षिणा देनी थी. समूची धरती तो कश्यप की हो चुकी थी. उनको परशुराम क्या देते? कश्यप मुनि ने इसका हल निकाला और यज्ञ के लिए बनी कई सौ क्विंटल की सोने की वेदिका को तोड़कर सभी में बांट दिया गया.
काश्यप मुनि ने परशुराम को आशीर्वाद ही नहीं प्रसन्न होकर भगवान विष्णु का एक अमोघ मंत्र भी दिया. फिर बोले- तुमने यह सारी पृथ्वी मुझे दान कर दी है. अब इस पर रहने का तुम्हारा कोई अधिकार नहीं. तुम एक दिन भी अब इस पर मत रहो.
इसके बाद वह दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए. सह्याद्रि पर्वत से उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर समुद्र से कहा कि जहां तक उनका फरसा गया है कम से कम वहां तक समुद्र पीछे हटे. परशुराम के आदेश पर समुद्र ने एक लंबा तटवर्ती क्षेत्र खाली कर दिया.
भड़ौंच से कन्याकुमारी तक के दान या भेंट में प्राप्त समुद्र तटीय प्रदेश को शूर्पारक कहा गया. बाद में परशुराम और उनके संगियों ने यह क्षेत्र बसाया और यह परशुरामक्षेत्र कहलाया. मुंबई का सोपारा क्षेत्र इसी के अंतर्गत है.
कश्यप की आज्ञा थी कि एक दिन भी पृथ्वी पर नहीं रहना है इसलिए परशुराम ने निर्णय कर लिया था कि अब वे धरती पर दिन में तो रहेंगे पर रात महेंद्र पर्वत पर गुजारेंगे. वे रात होने से पहले मन के वेग से कुछ ही क्षणों में महेंद्र पर्वत पहुंच जाते.
परशुराम के कानों में पितरों का वह वाक्य गूंजता- बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है. जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’.
परशुराम तीर्थाटन को निकले तभी उन्हें अपने गुरू भगवान शिव के वे वचन याद आए जो शिवजी ने शिक्षा देने के दौरान कहे थे. परशुराम उन दिनों शिवजी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे.
शिवजी शिष्यों को परखने के लिए समय-समय पर उनकी परीक्षा लिया करते थे. एक दिन परखने के लिए गुरु ने शिष्यों को नीति के विरुद्ध कुछ कार्य करने का आदेश दिया. परशुराम को छोड़ सभी छात्र संकोच में दब गए.
परंतु परशुराम ने गुरु से साफ-साफ कह दिया कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जो नीति विरूद्ध हो. वह लड़ने को खड़े हो गये और समझाने-बुझाने से भी न माने. शिवजी से ही भिड़ गये.
परशुराम ने शिवजी पर उनके ही दिए फरसे से प्रहार कर दिया. शिवजी को अपने फरसे का भी मान रखना था सो उन्होंने चोट खा ली. चोट गहरी लगी. शिवजी का मस्तक फट गया. शिवजी के एक नाम ‘खण्डपरशु’ का यही रहस्य है.
शिवजी ने इसके लिए बुरा न माना बल्कि परशुराम को छाती से लगा लिया और कहा- अन्याय करने वाला चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, धर्मशील व्यक्ति को अन्याय के विरूद्ध खड़ा होना चाहिए. यह उसका कर्त्तव्य है. संसार से अधर्म मिटाने से मिटेगा, सहने से नहीं.
शिवजी ने अपने सभी शिष्यों से यह भी कह था कि- बालकों! केवल दान, धर्म, जप, तप, व्रत, उपवास ही धर्म के लक्षण नहीं हैं. अन्याय, अधर्म से लड़ना भी धर्म साधना का एक अंग है.
परशुराम ने तीर्थों का सेवन करने बाद भगवान दत्तात्रेय से षोड़षी मंत्र की दीक्षा ली और स्थाई रूप से महेंद्र पर्वत पर आश्रम बना कर माता त्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप में रम गये.