Tuesday, April 30, 2019

समंतपंचका में परशुराम ने अंतिम युद्ध लड़ा. यहीं पर हजारों क्षत्रपों की बलि दी और उनके खून से पांच तालाब भरे. यह सब करने के बाद उन्होंने अपना रक्तरंजित परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखे था. संहार और हिंसा से वे थक गये थे.
परशुराम ने 21 बार अभियान चला कर धरती के अधिकांश राजाओं को जीत लिया था. बहुत से भयभीत होकर उनके शरणागत थे. कुछ ने रनिवासों में छुपकर जान बचाई. कुछ ने ब्राह्मणों के घरों में आश्रय लिया और छुपकर रहे.
हैहयवंशीय वीतिहोत्र रनिवास में घुसकर जान बचाई थी. उसके वंश के कुछ पुरुष दधीचि के आश्रम में छिप गए. इस तरह उनकी जान बच पाई. पर अब ये भगोड़े क्षत्रप न रह गये थे.
पृथ्वी के सातों द्वीपों पर अब परशुराम का एकछत्र राज था. एक तरह से पृथ्वी क्षत्रपों से खाली हो गई थी. परशुराम के सभी उद्देश्य पूरे हो चुके थे. भूमंडल पर राज्यों को जीतने के कारण उन्हें अश्वमेध यज्ञ का अधिकार प्राप्त हुआ.
ऐसे में परशुराम ने पितरों को दिया अपना वचन पूरा करने की सोची. खून से भरे तालाबों में से नहाकर निकले परशुराम ने जब पितरों को अपने शत्रुओं के रक्त से अर्ध्य दिया था तो वे उपस्थित हो गये थे.
उन्होंने परशुराम की वीरता की सराहना करने के साथ कहा कि प्रतिशोध और हिंसा ठीक नहीं. पितरों ने परशुराम को आदेश दिया कि तुम अपने इस कर्म का प्रायश्चित्त करो. पहले इसका समापन यज्ञ करो, दान दो फिर तीर्थयात्रा के बाद तप करो.
परशुराम को यह भली भांति याद था. परशुराम ने सबसे पहले विश्वजेता और फिर अश्वमेध यज्ञ करने की ठानी. परशुराम ने विश्वजेता यज्ञ सफलता पूर्वक संपन्न कराया और उसके बाद सबसे बड़े अश्वमेध यज्ञ की तैयारी की.

समूची धरती के स्वामी का यज्ञ था सो इसे अति विशाल स्तर पर होना था. यज्ञ में सभी ऋषि, मुनि और छोटे-छोटे राजा आए. कश्यप मुनि यज्ञ के मुख्य पुरोहित बने. यज्ञ पूरा होने के बाद परशुराम की बारी दक्षिणा देने की थी.
परशुराम ने सबसे पहले महर्षि कश्यप से पूछा कि उन्हें क्या दक्षिणा चाहिए? कश्यप चाहते थे कि परशुराम धरती से दूर रहें. उन्हें भय था कि बचे-खुचे क्षत्रप पुनः सक्रिय होंगे. उन्होंने यदि फिर से कुछ अनुचित किया तो परशुराम एक बार फिर रक्तपात को तैयार हो जाएंगे.
कश्यप ने परशुराम से कहा- मुझे आपके द्वारा जीती हुई सारी धरती चाहिए. परशुराम ने सातों द्वीप वाली धरती कश्यप को दान कर दी. परशुराम को पितरों को दिए वचन अनुसार तीर्थाटन और तप को जाना था. ऐसे में कश्यप के संरक्षण में पृथ्वी जाने से वह प्रसन्न थे.
अब यज्ञ कराने में सहायता देने वाले शेष ब्राहमणों को भी दक्षिणा देनी थी. समूची धरती तो कश्यप की हो चुकी थी. उनको परशुराम क्या देते? कश्यप मुनि ने इसका हल निकाला और यज्ञ के लिए बनी कई सौ क्विंटल की सोने की वेदिका को तोड़कर सभी में बांट दिया गया.
काश्यप मुनि ने परशुराम को आशीर्वाद ही नहीं प्रसन्न होकर भगवान विष्णु का एक अमोघ मंत्र भी दिया. फिर बोले- तुमने यह सारी पृथ्वी मुझे दान कर दी है. अब इस पर रहने का तुम्हारा कोई अधिकार नहीं. तुम एक दिन भी अब इस पर मत रहो.
इसके बाद वह दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए. सह्याद्रि पर्वत से उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर समुद्र से कहा कि जहां तक उनका फरसा गया है कम से कम वहां तक समुद्र पीछे हटे. परशुराम के आदेश पर समुद्र ने एक लंबा तटवर्ती क्षेत्र खाली कर दिया.

भड़ौंच से कन्याकुमारी तक के दान या भेंट में प्राप्त समुद्र तटीय प्रदेश को शूर्पारक कहा गया. बाद में परशुराम और उनके संगियों ने यह क्षेत्र बसाया और यह परशुरामक्षेत्र कहलाया. मुंबई का सोपारा क्षेत्र इसी के अंतर्गत है.
कश्यप की आज्ञा थी कि एक दिन भी पृथ्वी पर नहीं रहना है इसलिए परशुराम ने निर्णय कर लिया था कि अब वे धरती पर दिन में तो रहेंगे पर रात महेंद्र पर्वत पर गुजारेंगे. वे रात होने से पहले मन के वेग से कुछ ही क्षणों में महेंद्र पर्वत पहुंच जाते.
परशुराम के कानों में पितरों का वह वाक्य गूंजता- बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है. जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’.
परशुराम तीर्थाटन को निकले तभी उन्हें अपने गुरू भगवान शिव के वे वचन याद आए जो शिवजी ने शिक्षा देने के दौरान कहे थे. परशुराम उन दिनों शिवजी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे.
शिवजी शिष्यों को परखने के लिए समय-समय पर उनकी परीक्षा लिया करते थे. एक दिन परखने के लिए गुरु ने शिष्यों को नीति के विरुद्ध कुछ कार्य करने का आदेश दिया. परशुराम को छोड़ सभी छात्र संकोच में दब गए.
परंतु परशुराम ने गुरु से साफ-साफ कह दिया कि वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जो नीति विरूद्ध हो. वह लड़ने को खड़े हो गये और समझाने-बुझाने से भी न माने. शिवजी से ही भिड़ गये.
परशुराम ने शिवजी पर उनके ही दिए फरसे से प्रहार कर दिया. शिवजी को अपने फरसे का भी मान रखना था सो उन्होंने चोट खा ली. चोट गहरी लगी. शिवजी का मस्तक फट गया. शिवजी के एक नाम ‘खण्डपरशु’ का यही रहस्य है.

शिवजी ने इसके लिए बुरा न माना बल्कि परशुराम को छाती से लगा लिया और कहा- अन्याय करने वाला चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, धर्मशील व्यक्ति को अन्याय के विरूद्ध खड़ा होना चाहिए. यह उसका कर्त्तव्य है. संसार से अधर्म मिटाने से मिटेगा, सहने से नहीं.
शिवजी ने अपने सभी शिष्यों से यह भी कह था कि- बालकों! केवल दान, धर्म, जप, तप, व्रत, उपवास ही धर्म के लक्षण नहीं हैं. अन्याय, अधर्म से लड़ना भी धर्म साधना का एक अंग है.
परशुराम ने तीर्थों का सेवन करने बाद भगवान दत्तात्रेय से षोड़षी मंत्र की दीक्षा ली और स्थाई रूप से महेंद्र पर्वत पर आश्रम बना कर माता त्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न करने के लिए घोर तप में रम गये.

Sunday, April 28, 2019

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् । वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् LEAVE A COMMENT ब्राह्मणस्य मंगल्यं स्यात् ब्राह्मण का नाम शुभत्व – श्रेष्ठत्व भावबोधक शब्दों से जैसे – ब्रह्मा, विष्णु, मनु, शिव, अग्नि, वायु, रवि, आदि रखना चाहिए क्षत्रियस्य क्षत्रिय का बलान्वितम् बल – पराक्रम – भावबोधक शब्दों से जैसे – इन्द्र, भीष्म, सुयोधन, नरेश, जयेन्द्र, युधिष्ठिर आदि वैश्यस्य धनसंयुक्तम् वैश्य का धन – ऐश्वर्यभाव – बोधक शब्दों से जैसे – वसुमान्, वित्तेश, विश्वम्भर, धनेश आदि , और शूद्रस्य तु शूद्र का जुगुप्सितम् रक्षणीय, पालनीय भावबोधक शब्दों से जैसे – सुदास अकिंचन नाम रखना चाहिए । अर्थात् व्यक्ति के वर्णसापेक्ष गुणों के आधार पर नामकरण करना चाहिए । अथवा ब्राह्मणस्य शर्मवद् स्यात् ब्राह्मण का नाम शर्मवत् – कल्याण, शुभ, सौभाग्य, सुख, आनन्द, प्रसन्नता भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए । जैसे – देवशर्मा, विश्वामित्र, वेदव्रत, धर्मदत्त, आदि राज्ञः रक्षासमन्वितम् क्षत्रिय का नाम रक्षक भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए जैसे – महीपाल, धनंज्जय , धृतराष्ट्र, देववर्मा, कृतवर्मा वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तम् वैश्य का नाम पुष्टि – समृद्धि द्योतक शब्दों को जोड़कर जैसे – धनगुप्त, धनपाल, वसुदेव, रत्नदेव, वसुगुप्त और शूद्रस्य शूद्र का नाम प्रेष्यसंयुक्तम् सेवकत्व भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए जैसे – देवदास, धर्मदास, महीदास । अर्थात् व्यक्तियों के वर्णगत कार्यों के आधार पर नामकरण करना चाहिए । ‘‘जैसे ब्राह्मण का नाम विष्णुशर्मा, क्षत्रिय का विष्णु वर्मा, वैश्य का विष्णुगुप्त और शूद्र का विष्णुदास, इस प्रकार नाम रखना चाहिये । जो कोई द्विज शूद्र बनना चाहे तो अपना नाम दास शब्दान्त धर ले ।’’ (ऋ० प० वि० ३४९)

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शर्मा' उपाधि तो सभी ब्राह्मणों की धर्मशास्त्रों से सिद्ध हैं जैसा कि मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3 अ. 2 मनु.
शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्ताश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥ यम.॥
शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रा संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ विष्णुपु.॥
सबका निचोड़ यह हैं कि ''ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्ता आदि और शूद्र के नामान्त में दास शब्द लगाना चाहिए।'' 

Saturday, April 27, 2019

बृहस्पतिस्मृति के प्रारम्भ के बीसों श्लोकों में भूमिदान की बहुत ही प्रशंसा की गयी हैं, जैसा कि :
सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।
सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥
अर्थात् ''हे इन्द्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता हैं' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता हैं। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया हैं कि :
विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्ताय जितेन्द्रियाय।
यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनन्तम्॥ 10॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''गुणवान, तपस्वी और जितेन्द्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनन्त फल जब तक सागर पर्यन्त पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।'' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं हैं, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्लोक के 'पार्थिव:' इस पद को लेकर मिताक्षरा में लिखा हैं कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात् स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया हैं कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार हैं, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली हैं उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले लेकर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध हैं, क्योंकि यज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा हैं कि :
मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥
वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।
नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्वर्षभधोन्वन डुहश्चैके। गौ. अ. 7।
अर्थात् ''वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला भी ब्राह्मण मिट्टी, चमड़ा, फूल, कम्बल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।'' ''सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।'' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ हैं कि :
यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।
एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।
अर्थात् ''हे इन्द्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता हैं वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न होकर बढ़ता हैं त्यों-त्यों बढ़ता हैं।'' इससे तो जिसे प्रथम दी गयी हैं वह कृषि करने के लिए बाध्य हैं। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा हैं कि :
त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।
तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥
अर्थात् ''तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं''। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात् कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा हैं कि :
भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।
ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि ''सब शस्य से युक्त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता हैं और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता हैं।'' उ
महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद
‘जो मनुष्‍य श्रद्धापूर्वक अतिथि–सत्‍कार करता है, वह मनुष्‍यों में महान धनवान, श्रीमान, वेद – वेदांग का पारदर्शी, सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के अर्थ और तत्‍व का ज्ञाता एवं भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है। ‘जो मनुष्‍य धर्मपूर्वक धन का उपार्जन करके भोजन में भेद न रखते हुए एक वर्ष तक सब का अतिथि–सत्‍कार करता है, उसके समस्‍त पाप नष्‍ट हो जाते हैं । ‘नरेश्‍वर ! जो सत्‍यवादी जितेन्‍द्रिय पुरुष समय का नियम न रखकर सभी अतिथियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, जो सत्‍य प्रतिज्ञ है, जिसने क्रोध को जीत लिया है, जो शाखा धर्म से रहित, अधर्म से डरने वाला और धर्मात्‍मा है, जो माया और मत्‍सरता से रहित है, जो भोजन में भेद–भाव नहीं करता तथा जो नित्‍य पवित्र और श्रद्धा सम्‍पन्‍न रहता है, वह दिव्‍य विमान के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है । वहां वह दिव्‍यरूपधारी और महायशस्‍वी होता है । अप्‍सराएं उसके यश का गान करती हैं। ‘वह एक मन्‍वन्‍तर तक वहीं देवताओं से पूजित होता है और क्रीड़ा करता रहता है। उसके बाद मनुष्‍य लोक में आकर भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है’। श्रीभगवान् ने कहा–पाण्‍डुनन्‍दन ! अब मैं सबसे उत्‍तम भूमि दान का वर्णन करता हूं । जो मनुष्‍य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रेष्ठ ब्राह्मण  दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्‍त, सम्‍पूर्ण रत्‍नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्‍त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान होता है। वह महायशस्‍वी पुरुष प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्‍वजाओं से सुशोभित दिव्‍य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है। क्‍योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्‍ठ ! दूसरे दानों के पुण्‍य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्‍य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन् ! पृथ्‍वी का दान करने वाला मानो सुवर्ण, मणि, रत्‍न, धन, और लक्ष्‍मी आदि समस्‍त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्‍य मानों समस्‍त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्‍पूर्ण गन्‍ध और रसों को देता है। पृथ्‍वी का दान करने वाला मनुष्‍य मानो नाना प्रकार के पुष्‍पों और फलों से युक्‍त वृक्षों का तथा कमल और उत्‍पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्‍त अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि–दान का फल है। जो मनुष्‍य श्रेष्ठ ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्‍त रहते हैं। राजेन्‍द्र ! ब्राह्मण को भूमि–दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं – ये सभी प्रसन्‍न होते हैं ऐसा समझो। युधिष्‍ठर ! भूमि–दान के पुण्‍य से पवित्र चित्‍त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है – इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्‍य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि–दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक एक महीने तक उपवास, कृच्‍छ्र और चान्‍द्रायण व्रतका अनुष्‍ठान करने से जो पुण्‍य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि – दान करने से हो जाता है ।
राजा ब्राह्मणों एवं धार्मिक स्थानों को जो भूमि दान में देता था, उसे अग्रहार कहते थे ।
अग्रहार या अग्रहारम की बात चली है. विशुद्ध रूप से यह ब्राह्मणों की ही बस्ती हुआ करती थी और इसका उल्लेख ३री सदी संगम काल के साहित्य में भी पर्याप्त मिलता है. इन्हें चतुर्वेदिमंगलम भी कहा गया है. अग्रहार का तात्पर्य ही है  फूलों की तरह  माला में पिरोये हुए घरों की श्रृंखला. वे प्राचीन नगर नियोजन  के उत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं. इन ग्रामों (अग्रहारम) में रहने वालों की दिनचर्या पूरी तरह वहां के मंदिर के इर्द गिर्द और उससे जुडी हुई होती थी. यहाँ तक कि उनकी अर्थ व्यवस्था भी मंदिर के द्वारा प्रभावित हुआ करती थी. प्रातःकाल सूर्योदय के बहुत पहले ही दिनचर्या  प्रारंभ हो जाती थी. जैसे महिलाओं और पुरुषों का तालाब या बावड़ी जाकर स्नान करना, घरों के सामने गोबर से लीपकर सादा रंगोली डालना, भगवान् के दर्शन के लिए मंदिर जाना और वहां से वापस आकर ही अपने दूसरे कार्यों में लग जाना.            कलपाथी अग्रहारम, पालक्काड (एक धरोहर ग्राम) चित्र: रामकृष्णन
Ramanathapuramयह रामनाथपुरम अग्रहारम पालक्काड में है
एक बालिका अपने घर के सामने चांवल  के सूखे आटे से रंगोली  डालते हुए
प्रति माह मंदिर में कोई न कोई उत्सव होता जब  मंदिर के उत्सव मूर्ती को रथ में लेकर घरों के सामने लाया जाता जहाँ लोग जाकर नैवेद्य के लिए कुछ न कुछ पकवान चढाते,  माथा टेकते और प्रसाद ग्रहण करते. दुपहर को पूरे ग्राम वासियों के लिए मंदिर की ओर से भोज (भंडारा) की व्यवस्था रहती. मंदिर के पास इफरात जमीन हुआ करती थी जिसके आमदनी से उनका खर्चा चला करता था.
                            परवूर (कोच्ची) का एक अग्रहारम
                  परवूर (कोच्ची), अग्रहारम के अन्दर सामुदायिक भवन
अग्रहारम के चारों तरफ दूसरे जाति के लोग भी बसते थे. जैसे बढई, कुम्हार, बसोड, लोहार, सुनार, वैद्य, व्यापारी   और खेतिहर मजदूर आदि. मंदिर को  और वहां के ब्राह्मणों को भी उनकी सेवाओं की आवश्यकता जो रहती. ब्राह्मणों के स्वयं की कृषि भूमि भी हुआ करती थी या फिर वे पट्टे पर मंदिर से प्राप्त करते थे.मंदिर की संपत्ति (मालगुजारी) की देख रेख और अन्य क्रिया कलापों के लिए पर्याप्त कर्मी भी हुआ करते थे जिन्हें नकद या वस्तु (धान/चावल) रूप में वेतन दिया जाता था. मंदिर के प्रशासन  के लिए एक न्यास भी हुआ करता था. कुल मिलाकर मंदिर को केंद्र में रखते हुए एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था.     मट्टानचेरी (कोच्ची) के अग्रहारम का प्रवेश द्वार (इन्होने तो किलेबंदी कर रखी है!)
                            मट्टानचेरी (कोच्ची) का अग्रहारम
मूलतः तामिलनाडु के कुम्बकोनम , तंजावूर तथा तिरुनेलवेली से भयभीत ब्राह्मणों का पलायन हुआ था.  बड़ी संख्या में वे लोग पालक्काड़ में बसे और कुछ कोच्चि के राजा के शरणागत हुए. तिरुनेलवेली से पलायन करने वालों ने त्रावन्कोर में शरण ली और बस गये. उन्हें  राज कार्य, शिक्षण आदि के लिए उपयुक्त समझा गया और लगभग सभी को कृषि भूमि भी उपलब्ध हुई. केरल आकर उन्होने अपने अग्रहारम बना लिए और अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को संजोये रखा. हाँ उनके आग्रहाराम में शिव मंदिर के अतिरिक्त विष्णु के लिए भी दूसरे छोर पर मंदिर बने. अधिकतर विष्णु की कृष्ण के रूप में पूजा होती है.

Friday, April 26, 2019

👑👑👑👑वाकाटक वंश 👑👑👑👑
विष्णु वृद्धि गोत्र के सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण वंश वाकाटक था भूमिहार ब्राह्मणों  मैथिल ब्राह्मणों  में विष्णु वृद्धि गोत्र पाया जाता है
 प्रस्तुति अरविन्द रॉय
तीसरी शताब्दी ईस्वी से छठीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था । इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था । इस राजवंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था ।प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है:

(i) प्रभावतीगुप्ता का पूना ताम्रपत्र ।
(ii) प्रवरसेन द्वितीयकालीन रिद्धपुर ताम्रपत्र ।
(iii) प्रवरसेन द्वितीय की चमक-प्रशस्ति ।
(iv) हरिषेण का अजन्ता गुहाभिलेख ।

पूना तथा रिद्धपुर के ताम्रपत्रों से वाकाटक-गुप्त सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है । इनसे प्रभावतीगुप्ता के व्यक्तित्व तथा कार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है । अजन्ता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है । इससे पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था ।प्रवरसेन प्रथम एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था जिसने चार अश्वमेध तथा एक बाजपेय यज्ञ के अतिरिक्त अन्य अनेक वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया था । नि:सन्देह उसका शासन-काल वाकाटक-शक्ति के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
ब्राह्मणों को अपना दुश्मन बोलने बाले और उन्हें समाज को बांटने का आरोप लगाने वाले जरा दिमाग का भी प्रयोग करे ।
" मनोज झा " राजद  "सतीष चन्द्र मिश्रा"बसपा राज्यसभा सांसद /कन्हया कुमार/ ममता बैनर्जी etc ब्राह्मण है या नही ?
या फिर व जातीपरिवर्तन कर मूलनिवासी हो गए है । सम्पूर्ण भारत मे 5% भी ब्राह्मण नही है । और पूजा श्राद्ध आदि कर्म का निष्पादन करने वाला ब्राह्मण .01%भी नही है/
शुलभ शौचालय आदि पर भी ब्राह्मणों को नॉकरी करते देखा हूँ मै / एक गरीब ब्राह्मण था , यह कहानी ही पढ़ा है/एक जमींदार अत्याचारी ब्राह्मण था कह कर कोई कहानी भी नही सुनी है हम ने/

कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था उस अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी था जब वस्तु विनमय से समाज संचालित हुवा करता था । उस कृषिकाल के दौर में कर्म का जाती में परिवर्तित हो जाना समाज का स्वभाविक लक्षण रहा होगा / अगर महाभारत और रामायण का अध्यन करे तो यादव समाज भी क्षत्री वंसी है ।

धर्म के लिए समाज का होना जरूरी नही है , किन्तु समाज के लिए धर्म जरूरी है । अगर पाप पुण्य का भाव मनुष्य के अन्तः मन से समाप्त हो जाए तो , सायद ही कोई मानव मानव रह जाए ।

वामपंथी/दलित चिन्तक/समाजवादी क्यू मुट्ठी भर ब्राह्मण के विरुद्ध लड़ रहे है ? जब कि समाज का शोषण हर दौर में सामंती और जमींदार लोग किया करते थे , औऱ उनमें ब्राह्मणों कि संख्या बहुत नगण्य रहा है ।
तो क्या वाकई दलित पिछड़े का दुश्मन सिर्फ ब्राह्मण है ?
जो लोग ब्राह्मणों पर जाती बटवारे का आरोप लगाते है , उन्हें एक बार ब्राह्मणों के बीच जातीयो कि जानकारी गूगल करना चाहिए । ब्राह्मणों में भी कई जाती है , और उन में भी ऊंच नीच श्रेणी है । जो आपस मे विवाह सम्बन्ध नही करते । वैद ब्राह्मण से गौस्वामी ब्राह्मण का विवाह नही होता । महापात्रा ब्राह्मण  को ब्राह्मण समाज और अन्य समाज भी पूज्य मानते है किन्तु उनको भी अन्य ब्राह्मण समाज अपने बीच का नही मानते और विवाह सम्बन्ध भी नही करते । मैथिल और कान्यकुब्ज ब्राह्मण में भी विवाह सम्बन्ध नही होता । यानी अगर जाती में बांटने का कार्य कोई एक व्यक्ति कोई ब्राह्मण ने किया होता तो वह खुद को नही बांटता । जाती का निर्माण वस्तु विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था से ही हुवा है । जिस प्रकार आज समाज मे जाती आधारित आरक्षण से समाज मे कई वर्ग का निर्माण हुआ है । गांव में बहुतो लोग मिलेंगे जो अपना परिचय , sc/st/दलित /महादलित/पिछड़ा /अतिपिछड़ा/स्वर्ण आदि के नामो से देता है । कालांतर में यह एक वर्ग के रूप में ही दिखेगा ।

कर्म के अनुसार ही व्यक्ति का सम्मान देने का प्रारूप आपको कही भी किसी भी समाज मे देखने को मिल जाएगा । अगर कोई युवा जिला पदाधिकारी है तो ऑफिस में जो भी व्यक्ति होगा उस युवा को प्रणाम आदि शब्दो से सम्मानित करेगा । उस वक्त उम्र का ख्याल नही किया जाता ।
जब हम कोई पूजा या अनुष्ठान करते है तो किसी योग्य व्यक्ति को बुलाते है जो इस पूजा के विधान को जानता है और मुझे पूजा करने के विधी बताता है । उस वक्त वह व्यक्ति कोई युवा नही होता अपितु वह एक उस्ताद/मास्टर/पथदर्शक आदि होता है । पूजा या आराधना को श्रद्धा से देखा जाता है और इस कर्म को लोग श्रेष्ठ मानते है । जो इस कर्म का निष्पादन करवाता है वह स्वतः श्रेष्ठ हो जाता है ।
बहुत मन्दिर में और मठो में आज अन्य जाती के लोग भी इस कर्म को करवाते है , उन्हें भी लोग इसी सम्मान से देखता है । मैं ने महर्षि मेही के अनुयायी संतो को भी देखा है जो युवा है और बुजुर्ग भी उन्हें प्रणाम करता है । अगर चाहे तो हम फोटो दे सकते है । आशाराम बापू/राम रहीम /रामपाल यादव जी आदि  ब्राह्मण नही है किन्तु उनके फॉलोवर भी अपने उम्र का ख्याल किये बिना उन्हें प्रणाम करते है ।

ब्राह्मणों पर ही क्यू सभी वार करते है ?अती पिछड़े समाज से आने वाले नरेंदमोदी जी को ब्राह्मणवादी क्यू कहा जा रहा और मनोज झा/सतीष चंद्र मिश्रा को दलित हितेषी क्यू साबित किया जा रहा है ?

देश के राजनीति को समझेंगे तो इसका उत्तर मिल जाएगा ।
एक तरफ एक दल हिन्दू-हिन्दुत्व के नाम पर वोट बैंक बनाना चाहते है । दूसरी तरफ मुस्लिम वोट बैंक के मालिक को पता है कि जाति में बटे हिन्दू ही उनको सत्ता दिलवा सकता है । इनके लिए ब्राह्मण किसी जाति का नाम नही है अपितु हिन्दू-सनातन मानसिकता से है/अगर सनातनी टुकड़े में रहेंगे तो सत्ता आसानी से भोगा जा सकता है/ जो लोग ए सोचते है मायावती जी और लालूप्रसाद जी ब्राह्मण जाती विरोधी है तो व गलत है । ए लोग सनातन एकता विरोधी है । ब्राह्मण के विरुद्ध सभी जाती को उकसाना बास्तव में सनातन पद्द्यति के विरुद्ध उकसाना है । जब आप ब्राह्मण से घृणा करने लगेंगे तो स्वतः ही सनातन मान्यता के विरुद्ध भी लड़ने लगेंगे । आज तक के सभी समाज सुधारक ने सामाजिक कुरुति के विरुद्ध लड़ा ए लोग ब्राह्मण के विरुद्ध क्यू लड़ रहे ?
साजिश को समझे । घृणा नही आपस मे प्रेम करे । कुरुति के विरुद्ध लड़े , अपने जड़ को न काटे ।

राजनीतिक दल कभी मुस्लिम समाज मे वर्गीकरण कर उनका चर्चा नही करते क्यू ?

Wednesday, April 24, 2019

The following adds another dimension to the mystery: http://en.wikipedia.org/wiki/Roopkund

  • In the extreme north of Himalayas at a very high altitude, you have the Roopkund lake (at 5029 metres (Mt.Everest or Sagarmatha is 8000+ metres)) which is scattered with bones and skeletons of 300-600 people. There are no proper approach roads to this lake and it’s a 3-4 days trek to reach it
  • These skeletons are divided in 2 groups: a short group (probably local porters) and a taller group of people who were closely related
  • Radiocarbon dating puts the date of the event in the 9thCentury ACE
  • National Geographic aired a 1-hour documentary on this lake. Their investigations reveal that
    • These folks were killed by a very lethal hailstorm
    • The size of skeletons indicates people from the plains, probably Hindu pilgrims and
    • That the group was very closely related: with females and children too
  • Now here’s the catch: The group’s DNA analyses indicatesthat they are Konkanastha Chitpavan Brahmins. “a taller group with DNA mutations characteristic of the Kokanastha Brahmins of Maharashtra” If that’s not eerie, what is?
  • What were a group of Chitpavan Brahmins doing in the 9th century ACE up in Himalayas? Even the first literary mention of ‘KoBras’ is in the 15th century or so and that too localized in West Indiain a very small area. Hmm….food 
2004 के रूपकुंड झील के भ्रमण के वैज्ञानिक परीक्षणों से पता चला कि कंकाल कई लोगों के समूह से संबंधित हैं, जो छोटे लोगों के समूह (शायद स्थानीय पोर्टर्स) और एक लंबे समूह की गिनती करते हैं, जो कोंकण रेंज के चितपावन ब्राह्मण कबीले से निकटता से जुड़े थे।
 Kulavruttant:
The inscriptions on the copper plates excavated during 1060/1061 AD, reference to the donations made by the then rulers to the Brahmins by name ‘Bhat’, ‘Ghaisas’ and ‘Deval’ is found. In the ‘Bakhar’ of ‘Mahikavati’, in year 1139 AD, brahmins named ‘Devdhar’ and ‘Chatre’ accompanied the troop of Brahmins who visited the kingdom of ‘Pratapbimba’ to bless him on the occasion of his coronation. Also a reference is found to the services of a Brahmin named ‘Patwardhan’ during the times of ‘Shilahar’s being continued by the next ruler ‘Pratapbimba’. A reference is also available
Pratapbimba’. A reference is also available evidencing the excavation of a leveled lake done by a brahmin named ‘Anantbhatt (Vasudevbhatt) Chitale to make available ample drinking water to the residents of the place named ‘Basni’ near ‘Ratnagiri’. Bhat, Ghaisas, Deval, Devdhar, Chatre, Patwardhan, and Chitale are the surnames most common only among the Chitpavans and not in any other Brahmin castes settled in Maharashtra. This is evidence enough to assume the existence of the ‘Chitpavans’ in Maharashtra from times as early as eleventh century.
A place called ‘Roopkund’ at an altitude of 5540 m, in the Garhwal region in Himachal Pradesh is always well covered with snow. It came into limelight in the year 1942 The experts from the University of oxford carried out many tests like ‘Carbon dating’ on these skeletons to finally arrive at a conclusion that the skeletons were of persons living during year 850 AD. The ‘Centre for cellular and molecular biology’ at Hydrabad carried out DNA tests on the skeletons only to conclude that these skeletons belonged to the Chitpavan Brahmins.
According to the research published by Dr. D.V. Jog, the first and second ‘Pulkeshi’ kings brought the  Citpavans to Konkan region during the period  535-642 AD to perform the ‘Paurohitya’ of the ‘Havans’ or ‘Yadnya’s performed by them.to conclude, as mentioned earlier, Chitpavans must have migrated from the regions of Kutch, Rajasthan to North in the peninsula of Ganga and Yamuna or to the south to the Konkan region or even further south to Karnatak and Tamilnadu after the famine of 200 BC.
Thus it would not be out of place to assume that the migration of the Chitpavans started from the year 200BC i.e. 2000 years ago and even continued thereafter for many a reasons. The site 1880 Gazeteers of Bombay Residency-Ratnagiri and Sawantwadi has the most authentic and official reference to their
परशुराम कृष्ण की रचना के बारे में विस्तृत वर्णन है। कहा जाता है कि एक जगह पर परशुराम ने तीर चलाकर भूमि का निर्माण किया है, [6] जबकि दूसरी जगह पर एक कुल्हाड़ी फेंककर भूमि बनाई गई है। पुरातत्व के क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना ​​है कि परशुराम का तीर जिस स्थान पर उतरा, वह वर्तमान गोवा माना जाता है। [६] कन्नना संस्करण में ग्रामपादधति के रूप में एक संक्षिप्त अध्याय शामिल है जो ब्राह्मण परिवार के नामों और गांवों का वर्णन करता है, मूल पाठ का खंडन करता है जो विभिन्न प्रकार के गिरे हुए ब्राह्मणों की कथाओं और कहानियों का वर्णन करता है। [१] Y.C.Bhānumati के अनुसार कन्नड़ संस्करण में संस्कृत सह्याद्रिच्य के साथ कोई समानता नहीं है। [।] कई अन्य संस्करण मराही, हिंदी और अंग्रेजी में पाए जाते हैं।
सह्याद्रिच्य या सह्याद्री खंड, जो संस्कृत में लिखा गया है, और स्कंदपुराण का हिस्सा माना जाता है। [१] [२] इसमें चितपावनों की उत्पत्ति की किंवदंती है, परशुराम के साथ त्रिपुरा से गोवा तक पंच गौड़ ब्राह्मणों का प्रवास और कराडे ब्राह्मणों की उत्पत्ति [3]
सह्याद्रि-खंड में 5 वीं से 13 वीं शताब्दी तक की तारीख वाले विषम पाठ शामिल हैं, और इन्हें अपेक्षाकृत हाल ही में एकल पाठ के भाग के रूप में आयोजित किया गया है। [4] [5]

Tuesday, April 23, 2019

 👑👑ब्राह्मण और राजसत्ता👑👑
 भगवान परशुराम जैसी जीवनशैली हमारा आदर्श हो
राजा निरंकुश हो जाए, सत्ता भोगी हो जाए,जहां कुछ गलत  तब  ऐसे लोगों  और सत्ता के खिलाफ   ब्राह्मण को सक्रिय हस्तक्षेप करने का अधिकार है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
हस्तक्षेप जन जागरणऔर आवश्यकता पड़ने पर अन्य तरीकों से हो सकता है ब्राह्मण शिरोमणि पुष्पमित्र सुंग ने भी यही किया धर्म परायण राजा का साथ और धर्म विरोधी राजा का नास जाति भेद के आधार पर  छुआ छूत भारत में नहीं थी मुस्लिम आक्रमण कारियों से डरकर, लालच
 में   मूल पुस्तकों के साथ कुछ ब्राह्मणों ने छेड़छाड़ की  l ब्राह्मणों के आदर्श भगवान परशुरामजी ने किया, वह आज हम सबके लिए सबक है कि अपनी योग्यता का उपयोग हर उस जगह पर जरूर करिए जहां कुछ गलत हो रहा हो। जैसे पूजाकर्म में समपर्ण जरूरी है, ऐसे ही सत्ताधर्म में समझ आवश्यक है।  भगवान परशुराम राजा नहीं थे लेकिन, सत्ताका क्या धर्म होता है, उन्हें यह समझ उस दौर के अच्छे-अच्छे राजाओं से अधिक थी। चार बड़े काम परशुराम कर गए। जाति भेद मिटाया, गलत सत्ता से संघर्षकरना सिखाया, परिवार की बिल्कुल नई परिभाषा दी तथा आचरण में अनुशासन का क्या महत्व है, यह इसी चरित्र ने समझाया था। वे ब्राह्मण थे, लेकिन समूची मनुष्यता के लिए कुछ ऐसे संदेश दे गए कि ब्राह्मण न सिर्फ जाति, बल्कि एक जीवनशैली बन गई। परशुराम जैसी जीवनशैली आज हर उस ब्राह्मण के लिए जरूरी है, जो अपने मनुष्य होने पर गर्व करना चाहता है और जो सामाजिक व राष्ट्रीय जीवन में विशेष भूमिका निभाते हुए उसे कुछ अच्छा देना चाहता है।
ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत' (ऋग्वेद) और इस प्रकार उसका अर्थ किया हैं कि ''पृथ्वी का राज्य प्रथम ब्राह्मणों ने प्राप्त किया।'' और भी लिखकर उसका अर्थ बतलाया हैं। यथा 'अस्माकं ब्राह्मणानां राजा' (यजुर्वेद), 'ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्य:' (अथर्ववेद)। अर्थ यह हैं कि ''हम ब्राह्मणों में से वह राजा हैं। राजा ब्राह्मण ही हैं, क्षत्रिय व वैश्य नहीं।'' इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, पुराण और सदाचारों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मण राजा होते थे और होते हैं तथा यह उनका शास्त्रोचित धर्म हैं। इससे कट्टर ब्राह्मणता में कोई धब्बा नहीं लग सकता। इस 
महाभारत के शान्तिपर्व में किया हैं कि:
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''अर्जुन ने युधिष्ठिर महाराज से कहा हैं कि हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'' आगे चलकर 78वें अध्याय में लिखा हैं कि :
ब्राह्मणास्त्रिषु वर्णेषु शस्त्रां गृह्णन् न दुष्यति।
एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्मं विदुर्जना:॥ 29॥
ब्राह्मणस्त्रिषु कालंषु शस्त्रां गृह्णन् न दृष्यति।
आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्दम्यनियमेषु च॥ 34॥
उनर्मय्यादे प्रवृत्तो तु दस्युभि: संगरे कृते।
सर्वे वर्णा न दुष्येषु: शस्त्रावन्तो युधिष्ठिर॥ 18॥
अर्थात् अन्य तीन वर्णों के ऊपर शस्त्र चलानेवाला (युद्धकर्ता) ब्राह्मण दूषित नहीं होता, क्योंकि किसी आवश्यक कार्यवश इस प्रकार आत्मत्याग करने से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं माना जाता। युद्ध करनेवाले ब्राह्मण को तीनों काल में कोई दोष नहीं हैं, विशेषकर अपनी रक्षा, वर्णों की रक्षा और बड़े-बड़े दुष्टों को दबाने के लिए। जब दुष्ट लोगों के युद्ध करने से शस्त्रीय मर्यादा टूटने लगे तो सभी ब्राह्मणादि युद्ध करने से दूषित नहीं होते।'' 


ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यादि के साधारण धर्म हैं अर्थात् उन्हें सभी कर सकते हैं। बृहस्पतिस्मृति के प्रारम्भ के बीसों श्लोकों में भूमिदान की बहुत ही प्रशंसा की गयी हैं, जैसा कि :
सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।
सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥
अर्थात् ''हे इन्द्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता हैं' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता हैं। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया हैं कि :
विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्ताय जितेन्द्रियाय।
यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनन्तम्॥ 10॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''गुणवान, तपस्वी और जितेन्द्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनन्त फल जब तक सागर पर्यन्त पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।'' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं हैं, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्लोक के 'पार्थिव:' इस पद को लेकर मिताक्षरा में लिखा हैं कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात् स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया हैं कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार हैं, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली हैं उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले लेकर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध हैं, क्योंकि यज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा हैं कि :
मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥
वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।
नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्वर्षभधोन्वन डुहश्चैके। गौ. अ. 7।
अर्थात् ''वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला भी ब्राह्मण मिट्टी, चमड़ा, फूल, कम्बल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।'' ''सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।'' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ हैं कि :

यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।
एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।
अर्थात् ''हे इन्द्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता हैं वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न होकर बढ़ता हैं त्यों-त्यों बढ़ता हैं।'' इससे तो जिसे प्रथम दी गयी हैं वह कृषि करने के लिए बाध्य हैं। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा हैं कि :
त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।
तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥
अर्थात् ''तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं''। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात् कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा हैं कि :
भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।
ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि ''सब शस्य से युक्त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता हैं और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता हैं।'' उसी के 291वें अध्याय में लिखा हैं कि :
संयुक्तहलपंत्तायाख्यं दानं सर्वफलप्रदम्।
पंक्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा वृषसंयुता॥ 7॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''संयुक्तहलपंक्ति नाम का दान सब फलों का प्राप्त कराने वाला होता हैं। लकड़ी के दस हल जो बैलों के साथ हो उनका नाम पंक्ति हैं।'' भला बैल के साथ हल का दान सिवाय ब्राह्मण के कृषि करने के और किस काम का होगा? अग्निपुराण के ही 125वें अध्याय में लिखा हैं कि :
कृषिगोचरक्ष्वाणिज्यं कुसीदं च द्विचश्चरेत्।
गोरसं गुडलवणलाक्षामांसानि वर्जयेत्॥ 2॥
हलमष्टगवं धार्म्मं षड्गवं जीवितार्थिनाम्।
चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं धर्मघातिनाम्।
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृत्याभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥ 5॥
अभिप्राय यह हैं कि ''ब्राह्मण कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य

Monday, April 22, 2019

👑👑daan👑👑


रामायण के अयोध्याकाण्ड के 32वें सर्ग में जब श्रीरामजी वन जाते हुए अपने महल की सब वस्तुएँ याचकों को देने लगे हैं उस समय उनके पास कुछ द्रव्य प्राप्ति के निर्मित्त आये हुए एक ऐसे ब्राह्मण का वर्णन हैं, जिससे उन युगों में भी कृषि करना ब्राह्मण का उत्तम धर्म सिद्ध होता हैं क्योंकि वहाँ लिखा हैं कि:
क्षत्रावृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली।
तत्रासीत्पिंगलो गार्ग्यस्त्रिजटानाम वै द्विज:॥ 29॥
कहीं-कहीं 'क्षतवृति:' ऐसा भी पाठ मिलता हैं। उसका अर्थ यह हैं कि ''उस जगह अथवा उस समय गंगोत्री पीतवर्ण का एक त्रिजट नामवाला ब्राह्मण था, जो अस्त्रादि द्वारा कन्दमूल खोदकर, अथवा फल, कुदाल और हल से अर्थात् कृषि करके नित्य ही वन में रहता हुआ अपनी जीविका करता था। उसी जगह यह भी लिखा हुआ हैं कि जब उसकी स्त्री ने बहुत दु:खी होकर उसे भगवान् रामचन्द्र के पास याचना करने के लिए कहा तो प्रथम उसने वहाँ न जाने के लिए बहुत ही आग्रह किया हैं, परन्तु स्त्री के आग्रह से अन्त में हारकर भगवान् के पास गया हैं और जब वहाँ उसके विलक्षण वेष को देखकर उसकी उत्तम ब्राह्मणता में शंका करके परीक्षार्थ श्रीरामजी ने कहा हैं कि बहुत दूर तक ये गायें खड़ी हैं तुम अपना दण्ड फेंको, जहाँ तक वह पड़ेगा उतनी गायें ले जाना। इस पर उसने उनके भाव समझ दण्ड ऐसा फेंका हैं कि वह कई कोस दूर जाकर पड़ा हैं। इसलिए उसकी शुद्धता देखकर श्रीरामजी बहुत प्रसन्न हुए हैं इत्यादि। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कृषि करना और अस्त्रादि धारण करना कट्टर ब्राह्मणपने के लक्षण हैं, न कि हीनता के?
   👑👑Daan👑👑
महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के 199 अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और एक अयाचक ब्राह्मण के संवाद द्वारा दिखलाते हुए प्रतिग्रह को बहुत ही हीन बतलाया हैं, जैसा कि :
ब्राह्मणो जापक: कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशा:।
षडंगविन्महाप्राज्ञ: पैप्पलादि: स कोशिक:॥ 4॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडंगेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रय:॥ 5॥
सो न्त्यं ब्राह्मणं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन्।
तस्य वर्षसहस्त्रान्तु नियमेन तथा गतम्।
स देव्या दर्शित: साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल॥ 7॥
अथ वैवस्वत: कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदब्रुवन्॥ 28॥
तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागत:।
इक्ष्वाकुरगमत्तात्रा समेता यत्रा ते विभो॥ 34॥
सर्वानेव तु राजर्षि: संपूज्यार्थ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्ताम:॥ 35॥
राजोवाच! राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षटकर्म संस्थित:।
ददानि वसु किंचिते प्रथितं तद्वदस्व मे॥ 38॥
ब्राह्मणउवाच। द्विविधाब्राह्मणाराजन्धार्मश्चद्विविधा: स्मृत।
प्रवृत्ताश्च निवृतोश्च निवृतोहं प्रतिग्रहात्॥ 39॥
तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किभिष्टं किं ददामि ते॥ 40॥
बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्त: प्रसारित:।
निवृत्तिलक्षणं धर्मपुमासे संहितां जपन्॥ 78॥
निवृत्तां मां चिराद्राजन् विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप॥
तप:स्वाध्यायशीलो हं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात्॥ 79॥
अर्थ यह हैं कि ''पिप्पलाद ऋषि का पुत्र कौशिक गोत्री एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही धर्मात्मा, यशस्वी, महाबुद्धिमान और षडंगों का ज्ञाता, एवं चारों वेदों की संहिताओं को जपने (पढ़ने) वाला था। उसे षडंग विषयक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान था और चारों वेदों में भी कुशल होकर हिमालय की तराई में वह रहता था। वह पवित्रतापूर्वक संहिता का जप करता हुआ वेदाध्यायन कालिक कठिन तपस्या करता था। इस प्रकार से नियमपूर्वक उसके सहस्र वर्ष व्यतीत हो गये। इस पर प्रसन्न होकर सरस्वती ने उसे दर्शन दिया और मैं प्रसन्न हूँ ऐसा कहा। इसके बाद यम,काल और मृत्यु ये तीनों उसके पास आ उससे अपने-अपने आने का प्रयोजन कहने लगे। इसी समय तीर्थयात्रार्थ पर्यटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु उसी जगह आ गये जहाँ पर वे सब एकत्रित थे। राजर्षि इक्ष्वाकु ने सभी को नमस्कार कर पूजा करके पुन: उनसे कुशलप्रश्न इत्यादि किया। फिर राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि मैं राजा हूँ और आपषट्कर्म करने वाले ब्राह्मण हैं; इसलिए आपको कुछ धन देने की इच्छा हैं। जो आपकी इच्छा हो सो कहिये। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि हे राजन्! प्रतिग्रहादि लेने में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति ये दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के हैं, इसलिए ब्राह्मण भी तदनुसार ही दो प्रकार के होते हैं। एक प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त और दूसरे उनसे निवृत्त, उनमें से मुझे प्रतिग्रहादि से निवृत्त जानिये। इसलिए दान उन ब्राह्मणों को दीजिये जो प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त हैं, मैं प्रतिग्रह नहीं कर सकता। हाँ आपको क्या चाहिए जो दूँ। यदि मैंने सम्भवत: बाल्यावस्था में भूलकर हाथ पसार दिये हों (दान लिया हो) तो पसार दिये, परन्तु अब वेदों की संहिताओं का पाठ करता हूँ। इसीलिए धर्मसेवन करता हूँ। हे राजन्! मैं बहुत काल से निवृत्ति रूप धर्म का ज्ञाता होकर प्रतिग्रहादि से निवृत्ति रूप धर्म का सेवन करता हूँ। अत: मुझे क्या लालच दिखाते हो? मैं अपने ही सामर्थ्य से उपार्जित अन्नादि द्वारा शरीर यात्रा करने वाले हूँ, आपसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो केवल तपस्या करने और वेदादि पढ़ने वाला हूँ और प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ।''
👑दान, दक्षिणा ,भीख, भिक्षा👑👑
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
दान और दक्षिणा में वहीं अंतर है जो टैक्स और प्रोफेशनल फीस में है। राज्य के द्वारा लोकहित के लिए जनसाधारण से लिये जाने वाले टैक्स की गणना करने के लिए अपने से अधिक कुशल व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है। वह टैक्स गणना करके आपको जमा करने हेतु सुझाव देता है बदले में फीस लेता है।
पुराने समय में राज्य आधारित नही बल्कि मन्दिर आधारित  व्यवस्था में मन्दिरों मे जनहित के लिए दान दिया जाता था और ब्राह्मण वर्ग को इस धन के लोकहित के उपयोग के लिए सम्मानोचित दक्षिणा दी जाती थी। जब दान का पैसा भी ब्राह्मण वर्ग निजि स्वामित्व का समझने लगा तो उसने उस धन का न्याय के आधार पर नही प्रियता के आधार पर उपयोग करना आरम्भ कर दिया और समाज रचना चोपट हो गई।
भीख :- भीख  सिर्फ भीख है और यह सिर्फ भिखारी को सहायता के रूप मे दया स्वरूप दी जाती है इसे दान भी नही कहा जा सकता क्यूंकी दान का भी एक निश्चित उद्देश्य होता है परंतु भीख का कोई उद्देश्य नही होता । भीख देने के लिए किसी की योग्यता-अयोग्यता भी नही देखी जाती भीख तो बस दे दी जाती है । भीख देने की बाद यह भी नही सोचा जा सकता की इसे लेकर क्या वह कोई अच्छा कार्य करेगा य यूं ही इसे उड़ा दिया जाएगा ।
वेदिक काल मे भिक्षा ब्राह्मणो द्वारा ली जाती थी ताकि वे सामान्य व सादा जीवन जी सकें और उन्हे अपने पेट भरने के लिए कोई भी कार्य न करना जिससे वे अपनी शारीरिक शुद्धी पर पूरा ध्यान दे सकें और वेदाध्यन यज्ञ विध्यार्थियों को निशुल्क शिक्षा आदि कार्य कर सकें । भिक्षा के लिए योग्यता की आवश्यकता जरूर है सभी के हित के उद्देश्य से भेंट पाने की इच्छा भिक्षा कहलाती है । बहुत बड़ा अंतर है भीख और भिक्षा मे ।   

Friday, April 19, 2019

People believe that the Kaundinya Gotra can be traced to a Rishi who lived in Mithila region of Bihar. His family members were:

  • Wife - Shila of Vasishta Gotra
  • Son - Sushila
  • Father in Law - Sumantu

There were 10 to 12 important people from this lineage whose descendants are found in India and in parts of south-east Asia.

The first Kaundinya who went to Funan in Mekong Delta in Vietnam was supposed to have also come from Mithila in Bihar and was a Shaiva. Shaivism (worshiping Shiva) became the state religion of Cambuj (ancient name of Cambodia).

कौण्डिन्य गोत्र — कौशिक गोत्र वाले त्रिप्रवर हैं - वशिष्ठ,मित्रावरुण और कौण्डिन्य । इनका वेद सामवेद है । उपवेद है गंधर्ववेद। शाखा-कौथुमी। सूत्र गोभिल । छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं विष्णु । इस गोत्र सूची में निम्नांकित पुर आते हैं—
आम्नाय
पुर
मूलस्थान
आर १-२४
केरियार
कटैया,औरंगाबाद,बिहार
आर १-२४
ओडरियार/ यौतियार
ओड़ो,हिसुआ,नवादा,गया
आर १-२४
खंटवार
खनेटा,बेलागंज,गया
आर १-२४
कुरैयार/वरोचियार
कुर्था,बेलागंज,गया
आर १-२४
सिवौरियार
वेरी,मदनपुर,औरंगाबाद,बिहार
आर १-२४
भलौडियार
भड़ौरी,परइया,छपरा
किरण १-१७
वेरियार/विडौरा
कुटेप,वारा,गया
अर्क १- ७
कोणार्क
कोना,मदनपुर,औरंगाबाद,बिहार
मण्डल १-
खण्डसूपखणासूपक
खनेटी,टेकारी,गया
आदित्य१-
कुण्डार्क
कुन्डवा,गोह,गया
आदित्य१-
वरुणार्क
पटना