ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत' (ऋग्वेद) और इस प्रकार उसका अर्थ किया हैं कि ''पृथ्वी का राज्य प्रथम ब्राह्मणों ने प्राप्त किया।'' और भी लिखकर उसका अर्थ बतलाया हैं। यथा 'अस्माकं ब्राह्मणानां राजा' (यजुर्वेद), 'ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्य:' (अथर्ववेद)। अर्थ यह हैं कि ''हम ब्राह्मणों में से वह राजा हैं। राजा ब्राह्मण ही हैं, क्षत्रिय व वैश्य नहीं।'' इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, पुराण और सदाचारों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मण राजा होते थे और होते हैं तथा यह उनका शास्त्रोचित धर्म हैं। इससे कट्टर ब्राह्मणता में कोई धब्बा नहीं लग सकता। इस
महाभारत के शान्तिपर्व में किया हैं कि:
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''अर्जुन ने युधिष्ठिर महाराज से कहा हैं कि हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'' आगे चलकर 78वें अध्याय में लिखा हैं कि :
ब्राह्मणास्त्रिषु वर्णेषु शस्त्रां गृह्णन् न दुष्यति।
एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्मं विदुर्जना:॥ 29॥
ब्राह्मणस्त्रिषु कालंषु शस्त्रां गृह्णन् न दृष्यति।
आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्दम्यनियमेषु च॥ 34॥
उनर्मय्यादे प्रवृत्तो तु दस्युभि: संगरे कृते।
सर्वे वर्णा न दुष्येषु: शस्त्रावन्तो युधिष्ठिर॥ 18॥
अर्थात् अन्य तीन वर्णों के ऊपर शस्त्र चलानेवाला (युद्धकर्ता) ब्राह्मण दूषित नहीं होता, क्योंकि किसी आवश्यक कार्यवश इस प्रकार आत्मत्याग करने से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं माना जाता। युद्ध करनेवाले ब्राह्मण को तीनों काल में कोई दोष नहीं हैं, विशेषकर अपनी रक्षा, वर्णों की रक्षा और बड़े-बड़े दुष्टों को दबाने के लिए। जब दुष्ट लोगों के युद्ध करने से शस्त्रीय मर्यादा टूटने लगे तो सभी ब्राह्मणादि युद्ध करने से दूषित नहीं होते।''
महाभारत के शान्तिपर्व में किया हैं कि:
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''अर्जुन ने युधिष्ठिर महाराज से कहा हैं कि हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'' आगे चलकर 78वें अध्याय में लिखा हैं कि :
ब्राह्मणास्त्रिषु वर्णेषु शस्त्रां गृह्णन् न दुष्यति।
एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्मं विदुर्जना:॥ 29॥
ब्राह्मणस्त्रिषु कालंषु शस्त्रां गृह्णन् न दृष्यति।
आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्दम्यनियमेषु च॥ 34॥
उनर्मय्यादे प्रवृत्तो तु दस्युभि: संगरे कृते।
सर्वे वर्णा न दुष्येषु: शस्त्रावन्तो युधिष्ठिर॥ 18॥
अर्थात् अन्य तीन वर्णों के ऊपर शस्त्र चलानेवाला (युद्धकर्ता) ब्राह्मण दूषित नहीं होता, क्योंकि किसी आवश्यक कार्यवश इस प्रकार आत्मत्याग करने से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं माना जाता। युद्ध करनेवाले ब्राह्मण को तीनों काल में कोई दोष नहीं हैं, विशेषकर अपनी रक्षा, वर्णों की रक्षा और बड़े-बड़े दुष्टों को दबाने के लिए। जब दुष्ट लोगों के युद्ध करने से शस्त्रीय मर्यादा टूटने लगे तो सभी ब्राह्मणादि युद्ध करने से दूषित नहीं होते।''
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