Monday, April 22, 2019

   👑👑Daan👑👑
महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के 199 अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और एक अयाचक ब्राह्मण के संवाद द्वारा दिखलाते हुए प्रतिग्रह को बहुत ही हीन बतलाया हैं, जैसा कि :
ब्राह्मणो जापक: कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशा:।
षडंगविन्महाप्राज्ञ: पैप्पलादि: स कोशिक:॥ 4॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडंगेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रय:॥ 5॥
सो न्त्यं ब्राह्मणं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन्।
तस्य वर्षसहस्त्रान्तु नियमेन तथा गतम्।
स देव्या दर्शित: साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल॥ 7॥
अथ वैवस्वत: कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदब्रुवन्॥ 28॥
तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागत:।
इक्ष्वाकुरगमत्तात्रा समेता यत्रा ते विभो॥ 34॥
सर्वानेव तु राजर्षि: संपूज्यार्थ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्ताम:॥ 35॥
राजोवाच! राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षटकर्म संस्थित:।
ददानि वसु किंचिते प्रथितं तद्वदस्व मे॥ 38॥
ब्राह्मणउवाच। द्विविधाब्राह्मणाराजन्धार्मश्चद्विविधा: स्मृत।
प्रवृत्ताश्च निवृतोश्च निवृतोहं प्रतिग्रहात्॥ 39॥
तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किभिष्टं किं ददामि ते॥ 40॥
बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्त: प्रसारित:।
निवृत्तिलक्षणं धर्मपुमासे संहितां जपन्॥ 78॥
निवृत्तां मां चिराद्राजन् विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप॥
तप:स्वाध्यायशीलो हं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात्॥ 79॥
अर्थ यह हैं कि ''पिप्पलाद ऋषि का पुत्र कौशिक गोत्री एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही धर्मात्मा, यशस्वी, महाबुद्धिमान और षडंगों का ज्ञाता, एवं चारों वेदों की संहिताओं को जपने (पढ़ने) वाला था। उसे षडंग विषयक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान था और चारों वेदों में भी कुशल होकर हिमालय की तराई में वह रहता था। वह पवित्रतापूर्वक संहिता का जप करता हुआ वेदाध्यायन कालिक कठिन तपस्या करता था। इस प्रकार से नियमपूर्वक उसके सहस्र वर्ष व्यतीत हो गये। इस पर प्रसन्न होकर सरस्वती ने उसे दर्शन दिया और मैं प्रसन्न हूँ ऐसा कहा। इसके बाद यम,काल और मृत्यु ये तीनों उसके पास आ उससे अपने-अपने आने का प्रयोजन कहने लगे। इसी समय तीर्थयात्रार्थ पर्यटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु उसी जगह आ गये जहाँ पर वे सब एकत्रित थे। राजर्षि इक्ष्वाकु ने सभी को नमस्कार कर पूजा करके पुन: उनसे कुशलप्रश्न इत्यादि किया। फिर राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि मैं राजा हूँ और आपषट्कर्म करने वाले ब्राह्मण हैं; इसलिए आपको कुछ धन देने की इच्छा हैं। जो आपकी इच्छा हो सो कहिये। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि हे राजन्! प्रतिग्रहादि लेने में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति ये दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के हैं, इसलिए ब्राह्मण भी तदनुसार ही दो प्रकार के होते हैं। एक प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त और दूसरे उनसे निवृत्त, उनमें से मुझे प्रतिग्रहादि से निवृत्त जानिये। इसलिए दान उन ब्राह्मणों को दीजिये जो प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त हैं, मैं प्रतिग्रह नहीं कर सकता। हाँ आपको क्या चाहिए जो दूँ। यदि मैंने सम्भवत: बाल्यावस्था में भूलकर हाथ पसार दिये हों (दान लिया हो) तो पसार दिये, परन्तु अब वेदों की संहिताओं का पाठ करता हूँ। इसीलिए धर्मसेवन करता हूँ। हे राजन्! मैं बहुत काल से निवृत्ति रूप धर्म का ज्ञाता होकर प्रतिग्रहादि से निवृत्ति रूप धर्म का सेवन करता हूँ। अत: मुझे क्या लालच दिखाते हो? मैं अपने ही सामर्थ्य से उपार्जित अन्नादि द्वारा शरीर यात्रा करने वाले हूँ, आपसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो केवल तपस्या करने और वेदादि पढ़ने वाला हूँ और प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ।''

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