ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यादि के साधारण धर्म हैं अर्थात् उन्हें सभी कर सकते हैं। बृहस्पतिस्मृति के प्रारम्भ के बीसों श्लोकों में भूमिदान की बहुत ही प्रशंसा की गयी हैं, जैसा कि :
सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।
सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥
अर्थात् ''हे इन्द्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता हैं' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता हैं। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया हैं कि :
विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्ताय जितेन्द्रियाय।
यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनन्तम्॥ 10॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''गुणवान, तपस्वी और जितेन्द्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनन्त फल जब तक सागर पर्यन्त पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।'' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं हैं, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्लोक के 'पार्थिव:' इस पद को लेकर मिताक्षरा में लिखा हैं कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात् स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया हैं कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार हैं, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली हैं उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले लेकर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध हैं, क्योंकि यज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा हैं कि :
मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥
वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।
नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्वर्षभधोन्वन डुहश्चैके। गौ. अ. 7।
अर्थात् ''वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला भी ब्राह्मण मिट्टी, चमड़ा, फूल, कम्बल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।'' ''सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।'' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ हैं कि :
यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।
एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।
अर्थात् ''हे इन्द्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता हैं वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न होकर बढ़ता हैं त्यों-त्यों बढ़ता हैं।'' इससे तो जिसे प्रथम दी गयी हैं वह कृषि करने के लिए बाध्य हैं। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा हैं कि :
त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।
तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥
अर्थात् ''तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं''। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात् कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा हैं कि :
भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।
ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि ''सब शस्य से युक्त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता हैं और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता हैं।'' उसी के 291वें अध्याय में लिखा हैं कि :
संयुक्तहलपंत्तायाख्यं दानं सर्वफलप्रदम्।
पंक्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा वृषसंयुता॥ 7॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''संयुक्तहलपंक्ति नाम का दान सब फलों का प्राप्त कराने वाला होता हैं। लकड़ी के दस हल जो बैलों के साथ हो उनका नाम पंक्ति हैं।'' भला बैल के साथ हल का दान सिवाय ब्राह्मण के कृषि करने के और किस काम का होगा? अग्निपुराण के ही 125वें अध्याय में लिखा हैं कि :
कृषिगोचरक्ष्वाणिज्यं कुसीदं च द्विचश्चरेत्।
गोरसं गुडलवणलाक्षामांसानि वर्जयेत्॥ 2॥
हलमष्टगवं धार्म्मं षड्गवं जीवितार्थिनाम्।
चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं धर्मघातिनाम्।
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृत्याभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥ 5॥
अभिप्राय यह हैं कि ''ब्राह्मण कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य
सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।
सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥
अर्थात् ''हे इन्द्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता हैं' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता हैं। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया हैं कि :
विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्ताय जितेन्द्रियाय।
यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनन्तम्॥ 10॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''गुणवान, तपस्वी और जितेन्द्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनन्त फल जब तक सागर पर्यन्त पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।'' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं हैं, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्लोक के 'पार्थिव:' इस पद को लेकर मिताक्षरा में लिखा हैं कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात् स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया हैं कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार हैं, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली हैं उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले लेकर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध हैं, क्योंकि यज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा हैं कि :
मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥
वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।
नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्वर्षभधोन्वन डुहश्चैके। गौ. अ. 7।
अर्थात् ''वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला भी ब्राह्मण मिट्टी, चमड़ा, फूल, कम्बल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।'' ''सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।'' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ हैं कि :
यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।
एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।
अर्थात् ''हे इन्द्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता हैं वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न होकर बढ़ता हैं त्यों-त्यों बढ़ता हैं।'' इससे तो जिसे प्रथम दी गयी हैं वह कृषि करने के लिए बाध्य हैं। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा हैं कि :
त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।
तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥
अर्थात् ''तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं''। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात् कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा हैं कि :
भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।
ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि ''सब शस्य से युक्त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता हैं और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता हैं।'' उसी के 291वें अध्याय में लिखा हैं कि :
संयुक्तहलपंत्तायाख्यं दानं सर्वफलप्रदम्।
पंक्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा वृषसंयुता॥ 7॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''संयुक्तहलपंक्ति नाम का दान सब फलों का प्राप्त कराने वाला होता हैं। लकड़ी के दस हल जो बैलों के साथ हो उनका नाम पंक्ति हैं।'' भला बैल के साथ हल का दान सिवाय ब्राह्मण के कृषि करने के और किस काम का होगा? अग्निपुराण के ही 125वें अध्याय में लिखा हैं कि :
कृषिगोचरक्ष्वाणिज्यं कुसीदं च द्विचश्चरेत्।
गोरसं गुडलवणलाक्षामांसानि वर्जयेत्॥ 2॥
हलमष्टगवं धार्म्मं षड्गवं जीवितार्थिनाम्।
चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं धर्मघातिनाम्।
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृत्याभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥ 5॥
अभिप्राय यह हैं कि ''ब्राह्मण कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य
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