अग्रहार या अग्रहारम की बात चली है. विशुद्ध रूप से यह ब्राह्मणों की ही बस्ती हुआ करती थी और इसका उल्लेख ३री सदी संगम काल के साहित्य में भी पर्याप्त मिलता है. इन्हें चतुर्वेदिमंगलम भी कहा गया है. अग्रहार का तात्पर्य ही है फूलों की तरह माला में पिरोये हुए घरों की श्रृंखला. वे प्राचीन नगर नियोजन के उत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं. इन ग्रामों (अग्रहारम) में रहने वालों की दिनचर्या पूरी तरह वहां के मंदिर के इर्द गिर्द और उससे जुडी हुई होती थी. यहाँ तक कि उनकी अर्थ व्यवस्था भी मंदिर के द्वारा प्रभावित हुआ करती थी. प्रातःकाल सूर्योदय के बहुत पहले ही दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी. जैसे महिलाओं और पुरुषों का तालाब या बावड़ी जाकर स्नान करना, घरों के सामने गोबर से लीपकर सादा रंगोली डालना, भगवान् के दर्शन के लिए मंदिर जाना और वहां से वापस आकर ही अपने दूसरे कार्यों में लग जाना. कलपाथी अग्रहारम, पालक्काड (एक धरोहर ग्राम) चित्र: रामकृष्णन
प्रति माह मंदिर में कोई न कोई उत्सव होता जब मंदिर के उत्सव मूर्ती को रथ में लेकर घरों के सामने लाया जाता जहाँ लोग जाकर नैवेद्य के लिए कुछ न कुछ पकवान चढाते, माथा टेकते और प्रसाद ग्रहण करते. दुपहर को पूरे ग्राम वासियों के लिए मंदिर की ओर से भोज (भंडारा) की व्यवस्था रहती. मंदिर के पास इफरात जमीन हुआ करती थी जिसके आमदनी से उनका खर्चा चला करता था.
परवूर (कोच्ची) का एक अग्रहारम
अग्रहारम के चारों तरफ दूसरे जाति के लोग भी बसते थे. जैसे बढई, कुम्हार, बसोड, लोहार, सुनार, वैद्य, व्यापारी और खेतिहर मजदूर आदि. मंदिर को और वहां के ब्राह्मणों को भी उनकी सेवाओं की आवश्यकता जो रहती. ब्राह्मणों के स्वयं की कृषि भूमि भी हुआ करती थी या फिर वे पट्टे पर मंदिर से प्राप्त करते थे.मंदिर की संपत्ति (मालगुजारी) की देख रेख और अन्य क्रिया कलापों के लिए पर्याप्त कर्मी भी हुआ करते थे जिन्हें नकद या वस्तु (धान/चावल) रूप में वेतन दिया जाता था. मंदिर के प्रशासन के लिए एक न्यास भी हुआ करता था. कुल मिलाकर मंदिर को केंद्र में रखते हुए एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था. मट्टानचेरी (कोच्ची) के अग्रहारम का प्रवेश द्वार (इन्होने तो किलेबंदी कर रखी है!)
मट्टानचेरी (कोच्ची) का अग्रहारम
मूलतः तामिलनाडु के कुम्बकोनम , तंजावूर तथा तिरुनेलवेली से भयभीत ब्राह्मणों का पलायन हुआ था. बड़ी संख्या में वे लोग पालक्काड़ में बसे और कुछ कोच्चि के राजा के शरणागत हुए. तिरुनेलवेली से पलायन करने वालों ने त्रावन्कोर में शरण ली और बस गये. उन्हें राज कार्य, शिक्षण आदि के लिए उपयुक्त समझा गया और लगभग सभी को कृषि भूमि भी उपलब्ध हुई. केरल आकर उन्होने अपने अग्रहारम बना लिए और अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को संजोये रखा. हाँ उनके आग्रहाराम में शिव मंदिर के अतिरिक्त विष्णु के लिए भी दूसरे छोर पर मंदिर बने. अधिकतर विष्णु की कृष्ण के रूप में पूजा होती है.
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