Wednesday, July 31, 2019

बचपन के दिन याद आ गए ! घर - परिवार - ननिहाल में शादी होता था - हम सभी पन्द्रह दिन पहले ही गांव पहुँच जाते थे ! पहला रस्म होता था - 'फलदान' - लडकी वाले कुछ फल इत्यादी लेकर 'वर' के घर जाते थे ! बहुत दिनों तक - बहुत ही कम लोग आते थे - पर धीरे - धीरे यह एक स्टेटस सिम्बल बन गया - लडकी वाले १०० -५० की संख्या में आने लगे ! गांव भर से चौकी , जाजिम , तकिया , तोशक मांगा कर 'दालान' में बिछा दिया जाता था ! मेरे खुद के परिवार  में - मुझे याद है - खुद का 'टेंट हॉउस' वाला सभी सामान होता था ! कई जोड़े 'पेट्रोमैक्स' , टेंट , बड़ी बड़ी दरियां , शामियाना - पर दिक्कत होती थी - चौकी की सो गांव से चौकी आता था और चौकी के नीचे य बगल में 'आलता' से उस चौकी के मलिक का नाम लिखा जाता था ! समय पर लाना और समय पर पहुंचवा देना किसी एक खास मुंशी मैनेजर की जिम्मेदारी होती थी ! मुंशी - मैनेजर के आभाव में गांव घर के कोई चाचा या बाबा !

जैसा 'वर' का हैशियत वैसा 'लडकी वाला' सुबह होते होते लडकी वाले पहुँच जाते ! हम बच्चे बार बार 'दालान' में झाँक कर देखते और 'दालान' की खबर 'आँगन' तक पहुंचाते थे ! ड्राम में 'शरबत घोला जाता था ! हम बच्चे 'ड्राम' के आगे पीछे ! दोपहर में गरम गरम 'गम्कऊआ भात' पात में बैठ कर खाना और आलू का अंचार , पापड़ - तिलौडी और ना जाने क्या क्या ! लडकी का भाई 'फलदान' देता था - उस ज़माने में 'लडकी' को दिखा कर शादी नहीं होती थी सो अब लडकी कैसी है यह अंदाजा उसके 'भाई' को देख लगाया जाता था ! आँगन से खबर आती - जरा 'लडकी' के भाई को अंदर भेज दो -  माँ - फुआ - दादी टाईप लोगों को जिज्ञासा होती थी !

शाम को मुक्त आकाश में खूब सुन्दर तरीके से 'दरवाजा ( दुआर) ' को सजाया जाता ! ५-६ कम ऊँची चौकी को सजा उसके ऊपर सफ़ेद जाजिम और चारों तरफ पुरे गाँव से मंगाई हुई 'कुर्सीयां' ! मामा , फूफा टाईप लोग परेशान कर देते थे - एक ने पान माँगा तो दूसरे को भी चाहिए - किसी को काला - पीला तो किसी को सिर्फ 'पंजुम' , किसी को सिर्फ कत्था तो किसी को सिर्फ चुना वाला पान ! जब तक 'पन्हेरी' नहीं आ जाता - हम बच्चों को की 'वाट' लगी रहती थी !

गांव के बड़े बुजुर्ग धीरे धीरे माथा में मुरेठा बंधे हुए लाठी के सहारे आते और उनकी हैशियत के मुताबिक उनको जगह मिलती थी ! होने वाले 'सम्बंधिओं' से परिचय शुरू होता ! फिर , 'आँगन से सिल्क के कुरता या शेरवानी ' में 'वर' आता ! साथ में 'हजाम' होता था - जिसका काम था - 'वर' का ख्याल रखना - जूता खोलना , हाथ पकड़ के बैठना इत्यादी इत्यादी ! दोनों तरफ के पंडीत जी बैठ जाते - उनमे आपस में कुछ नोक - झोंक भी होती थी जिसको गांव के कोई बाबा - चाचा टाईप आईटम सुलझा देते ! इस वक्त 'लडकी वालों ' के बिच कुछ खुसुर फुसुर भी होती थी - 'वर' की लम्बाई - चेहरा मोहरा इत्यादी को लेकर !

फिर 'फलदान' का प्रोसेस शुरू होता और कुछ मर मिठाई - अर्बत - शरबत भी चालू हो जाता ! फलदान होते ही 'हवाई फायीरिंग' भी कभी कभार देखने को मिला - जब लडके और लडकी वाले आपस में तन गए - मेरा यह मानना है की फलदान होते ही सामाजिक तौर पर दोनों परिवार बराबर के हो गए - तिलक - दहेज की बात अब इसके बाद नहीं होती !

फलदान में लडकी वाला अपनी हैशियत के हिसाब से लडके को देता था ! कुछ कपड़ा या कुछ दर्जन 'गिन्नी- अशर्फी' !

फिर , दोनों पक्ष दालान में बैठ कर आगे का कार्यक्रम बनाते ! तिलक में कितने लोग आयेंगे - बरात कब पहुचेगी - विदाई कब होगा - किसको किसको दोनों तरफ से 'कपड़ा' जायेगा ! तब तक शाम हो जाती ....

और हम बच्चे .."पेट्रोमैक्स' के इर्द - गिर्द गोला बना के बैठ जाते - उसको जलने वाला भी एक व्यक्ति विशेष होता - जो हम बच्चों को बड़ा ही 'हाई - फाई' लगता ! :)
एक जमाना था - लड़का ने 'मैट्रिक' का फॉर्म नहीं भरा की 'बरतुहार' ( अगुआ - शादी विवाह वाले , लडकी वाले ) आना शुरू कर देते थे ! गाँव या टोला में एकता है तो जल्द 'शादी' ठीक हो जाती वर्ना ..लड़का बी ए फेल भी कर जाता और शादी नहीं हो पाती थी ! इन दिनों 'बियाह-कटवा' भी सक्रिय भूमिका में आ जाते हैं ! जब तक वो 'बरतुहार' को आपके दरवाजा से भगा नहीं देते ..उनको चैन नहीं आता है ! तरह तरह के 'बियाह कटवा' .... जैसे एन बारात लगने के समय हल्ला कर दिया या चुपके से 'लडकी वाले' को बोल दिया की ..'लड़का तो ......' अब हुआ हंगामा ...' हंगामा खड़ा कर के वो गायब :या फिर जब दरवाजे पर 'लडकी वाले ' आये हुए हैं तो ..कुछ ऐसा बोल देना की ..'लडकी वाले ' के मन में कुछ शंका आ जाए ! ऐसे 'बियाह कटवा ' गाँव - मोहल्ला - टोला के बाज़ार पर बैठे मिल जाते हैं - जैसे कोई 'बर्तुहार' गाँव - मोहल्ला में घुसा नहीं की उसके पीछे पीछे चल देना ! होशियार 'लडका वाला ' लगन के पहले इस 'बियाह कटवा' को 'सेट' कर के रखता है ताकि वो कुछ कम नुक्सान कर पाए !



खैर , बियाह तय हो गया - अब बात आयी - लेन - देन की , यहाँ भी कुछ कुशल कारीगर होते हैं - आपकी 'कीमत' से बहुत कम में आपका 'माल' बिकवा देंगे :( और खैनी ठोकते आपका ही नमक खा कर - मुस्कुराते चल देंगे ! ऐसे लोगों के दबाब से बचने के लिए - लड़का वाला बंद कमरा में 'कीमत' तय करने लगा वरना वो एक जमाना था तब जब समाज के बड़े बुजुर्ग के बीच में सब कुछ तय होता था ! अच्छे लोग - तिलक - दहेज का पूरा का पूरा लडकी को 'सोना' के रूप में 'मडवा' ( मंडप) पर चढा देते थे - अब 'बैंक' में रख सूद खाते हैं !



अब लडका वाला तिलक - दहेज और अपनी हैशियत के मुताबिक 'ढोल बाजा' आर्तन - बर्तन , कपड़ा - लत्ता ' खरीदने की तैयारी शुरू कर देता है ...अब फिर से कुछ 'आईटम' लोग आपके पीछे लग जायेंगे ! आपका 'बजट' पांच हज़ार का ही तो वो उसको पन्द्रह हज़ार का करवा देंगे - अब 'बेटा' का बियाह है - लोक - लज्जा की बात है - आप बस थूक घोंटते नज़र आयेंगे ! पब्लिक समझेगा की 'फलना बाबु ' तो तिलक लेकर धनिक हो गए - जबकि सच्चाई यह है की - आपकी जमा पूंजी भी 'इज्ज़त ' के चक्कर में लग जाती है !

अब बारात कैसे जायेगा - आप मन ही मन 'बस' का सोच रहे होंगे - आपके शुभ चिन्तक आपको इज्ज़त का हवाला देकर १०-२० कार ठीक करवा देंगे - कार जीप भी ठीक करने वो ही जायेंगे - "सट्टा बैना" भी वही लिखेंगे - जब आप कुछ कम भाडा की बात करेंगे - तो आपके शुभचिंतक बोलेंगे की - अरे ..लईका के बियाह है ...कोई नहीं .फिर से एक बार थूक घोंट लीजिए ! :)

बारात में 'नाच - पार्टी' कैसा जायेगा ? इसका टेंशन एक खास किस्म के लोगों को रहता है - उनको सब डीटेल पता रहता है की ..कहाँ का कौन सा 'नाच' कैसा है ? वैसे लोगों को खबर जाता है - वो बहुत आराम से दोपहर का खाना खाते हुए ..लूंगी में धीरे धीरे टहलते ...खैनी ठोकते ..आयेंगे ! अब वो डिमांड करेंगे ..अलग से गाड़ी घोडा का ..भाई ..नाच ठीक करने जाना है :) कोई मजाक थोड़े ही है :)फलदान में - तिलक में

 - कैसा 'कुक' आएगा ? यह एक अलग किस्म का टेंशन है - कोई सलाह देगा - दोनों कुक अलग अलग होना चाहिए - कोई कहेगा - मुजफ्फरपुर से आएगा - 'फलना बाबू ' के बेटा के बियाह में 'बनारस से ही नाच और कुक' दोनों आया था - अब वो जैसे ही 'फलाना बाबु ' का नाम लिया नहीं की आप भरपूर टेंशन में नज़र आ जायेंगे - बेटा का बियाह और इज्ज़त - जो न करवाए !

अब चलिए ..गहना पर ! घर की महिलायें 'जीने' नहीं देंगी ! अक्सर यहाँ एकता देखा जाता है - आप मन ही मन ५० भर सोना चढाने को सोच रहे होंगे - तब तक कोई बोलेगी - मेरे बियाह में '२०० भर' सोना चढा था - अब देखिये - यहीं पर आपका बजट चार गुना हो गया ! कोई कहेगी - मुजफ्फरपुर का 'सोनार' सब ठग है - अमकी 'पटना ' से खरीदायेगा - अब हुआ टेंशन - पूरा 'बटालियन' पटना जायेगा ! १०० भर सोना के साथ साथ ५-१० नकली अशर्फी - गिन्नी खरीद लेगी सब ! एक सुबह से शाम तक ..सोनार इनको '३ बोतल ' कोका कोला पीला के ..२-४ लाख का सोना बेच देता है और दूकान के सामने 'बलेरो' जीप में बैठा मरद का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ रहता है !

बनारसी साड़ी का भी एक अलग टेंशन है - मालूम नहीं वो 'लडकी' फिर कब इतना भरी साड़ी दुबारा कब पहनेगी कोई कहेगा १०१ साड़ी जायेगा ...फिर बजट हिलेगा डूलेगा ! फिर टेंशन होगा - अटैची - सूटकेस का ! सब खर्च हो गया - पर ये सूटकेस आर्मी कैंटीन से ही आएगा :

Tuesday, July 30, 2019

श्रीयुत चिंतामणि विनायक वैद्य ने सन 1923 में "मध्ययुगीन भारत, भाग दूसरा नाम की मराठी पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें हिन्दू राज्यों का उत्कर्ष अर्थात् राजपूतों का प्रारंभिक (अनुमानत:ई.सन 750 से 1000 ता का) इतिहास लिखने का यत्न किया है| वैद्य महाशय ने उक्त पुस्तक में "राजपूतों के गोत्र" तथा गोत्र और प्रवर", इन दो लेखों में बतलाने का तयं किया है कि क्षत्रियों के गोत्र वास्तव में उनके मूलपुरुषों के सूचक है, पुरोहितों के नहीं और पहले क्षत्रिय लोग ऐसा ही मानते थे|(पृष्ठ-61); अर्थात् भिन्न भिन्न क्षत्रिय वास्तव में उन ब्राह्मणों की संतति है, जिनके गोत्र वे धारण करते है| वि.स. 1133 और 1183 के बीच दक्षिण (कल्याण) के चालुक्य (सोलंकी) राजा विक्रमादित्य (छठे) के दरबार में पंडित विज्ञानेश्वर ने "याज्ञावल्क्यस्मृति" पर "मिताक्षरा" नाम की विस्तृत टीका लिखी, जिसका अब तक विद्वानों में बड़ा सम्मान है और जो सरकारी न्यायालयों में भी प्रमाणरूप मणि जाती है| उस टीका में लिखा है है कि-"राजन्य (क्षत्रिय) और वैश्यों में अपने गोत्र (ऋषिगोत्र) और प्रवरों का अभाव होने के कारण उनके गोत्र और प्रवर पुरोहितों के गोत्र और प्रवर समझने चाहिए| साथ ही उक्त कथन की पुष्टि में आश्वलायन का मत उद्धृत करके बतलाया है कि राजाओं और वैश्यों के गोत्र वही मानने चाहिये, जो उनके पुरोहितों के हों| मिताक्षरा के उक्त अर्थ के विषय में श्रीयुत वैद्य का कथन है कि "मिताक्षराकार ने यहाँ गलती की है, इसमें हमें लेश मात्र भी सन्देश नहीं है (पृष्ठ-60)|

अब हमें यह निश्चय करने की आवश्यकता है कि मिताक्षरा के बनने से पूर्व क्षत्रियों के गोत्रों के विषय में क्या माना जाता था| वि.स. की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ में अश्वघोष नामक प्रसिद्ध विद्वान और कवि हुआ, जो पहले ब्राह्मण था, परन्तु पीछे से बौद्ध हो गया था| वह कुकनवंशी राजा कनिष्क का धर्मसंबंधी सलाहकार था, ऐसा माना जाता है| उसके "बुद्धचरित्र" और "सौदरनंद" काव्य कविता की दृष्टि से बड़े उत्कृष्ट समझे जाते है| उसका ब्राह्मणों के शास्त्रों तथा पुराणों का ज्ञान भी अनुपम था, जैसा कि उसके काव्य से पाया जाता है| सौदरनंद काव्य के प्रथम सर्ग में उसने क्षत्रियों के गोत्रों के संबंध में विस्तृत विवेचन किया है, उसका सारांश निम्न है-
"गौतम गोत्री कपिल नामक तपस्वी मुनि अपने माहात्म्य के कारण दीर्घतपस के समान और अपनी बुद्धि के कारण काव्य (शुक्र) तथा अंगिरस के समान था| उसका आश्रम हिमालय के पार्श्व में था| कई इक्ष्वाकु-वंशी राजपुत्र मातृद्वेष के कारण और अपने पिता के सत्य की रक्षा के निमित्त राजलक्ष्मी का परित्याग कर उस आश्रम में जा रहे| कपिल उनका उपाध्याय (गुरु) हुआ, जिससे वे राजकुमार, जो पहले कौत्स-गोत्री थे, अब अपने गुरु के गोत्र के अनुसार गौतम-गोत्री कहलाये| एक ही पिता के पुत्र भिन्न-भिन्न गुरुओं के कारण भिन्न भिन्न गोत्र के हो जाते है, जैसे कि राम (बलराम) का गोत्र "गाग्र्य" और वासुभद्र (कृष्ण) का "गौतम" हुआ| जिस आश्रम में उन राजपुत्रों ने निवास किया, वह "शाक" नामक वृक्षों से आच्छादित होने के कारण वे इक्ष्वाकुवंशी "शाक्य" नाम से प्रसिद्ध हुये| गौतम गोत्री कपिल ने अपने वंश की प्रथा के अनुसार उन राजपुत्रों के संस्कार किये और उक्त मुनि तथा उन क्षत्रिय-पुंगव राजपुत्रों के कारण उस आश्रम ने एक साथ "ब्रह्मक्षत्र" की शोभा धारण की|"

अश्वघोष का यह कथन मिताक्षरा के बनने से एक हजार वर्ष से भी अधिक पूर्व का है, अतएव श्रीयुत वैद्य के ये कथन कि "मिताक्षराकार ने गलती की है", और मिताक्षरा पूर्व क्षत्रिय के स्वत: के गोत्र थे; सर्वथा मानने योग्य नहीं है, और क्षत्रियों नके गोत्रों को देखकर यह मानना कि ये क्षत्रिय उन ऋषियों (ब्राह्मणों) के वंशधर है, जिनके अनेक गोत्र वे धारण करते है, सरासर भ्रम ही है| पुराणों से यह तो पाया जाता है कि अनेक क्षत्रिय ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुये और उनसे कुछ ब्राह्मणों के गोत्र चले| परन्तु उनमें यह कहीं नहीं लिखा मिलता कि क्षत्रिय ब्राह्मणों के वंशधर है|

यदि क्षत्रियों के गोत्र उनके पुरोहितों (गुरुओं) के सूचक न होकर उनके मुलपुरुषों के सूचक होते, जैसा कि श्रीयुत वैद्य का मानना है, तो ब्राह्मणों के समान उनके गोत्र सदा वे के वे ही बने रहते और कभी न बदलते, परन्तु प्राचीन शिलालेखादि से ऐसे प्रमाण मिल आते है, जिनसे एक ही कुल या वंश के क्षत्रियों के समय समय पर भिन्न भिन्न गोत्रों का होना पाया जाता है| जैसे- 
- मेवाड़ के गुहिलवंशियों का गोत्र वैजपात है| पुष्कर के अष्टोत्तरशत-लिंग वाले मंदिर में एक एक सती का स्तंभ खड़ा है, जिस पर के लेख में पाया जाता है कि वि.स.1243 माघ सुदि 11 को ठकुरानी हीरवदेवी, ठा. कोल्हण की स्त्री, सती हुई| उक्त लेख में ठा.कोल्हण को गुहिलवंशी और गौतम गोत्री लिखा है|
- काठियावाड़ के गोहिल जो मारवाड़ से वहां गए थे,मेवाड़ के राजा शालिवाहन के वंशज है, अपने आपको गौतम गोत्री मानते है|
- मध्यप्रदेश के दमोह जिले मुख्य स्थान दमोह से गुहिलवंशी विजयसिंह का एक शिलालेख मिला है, जो नागपुर के म्यूजियम में सुरक्षित है| जिसके लेख में गुहिलवंश के चार राजवंशजों के नाम है जिनको विश्वामित्र गोत्री और गुहिलवंशी बताया है|
- चालुक्यों (सोलंकियों) का मूल गोत्र मानव्य था, मद्रास अहाते के विजागापट्टम जिले, जयपुर राज्य के अंतर्गत गुणपुर और मोड़गुला के ठिकाने के सोलंकियों का गोत्र मानव्य ही है, परन्तु लुणावाड़ा, पीथापुर और रीवां आदि के सोलंकियों (बघेलों) का गोत्र भारद्वाज होना वैद्य महाशय ने बतलाया है|

इस प्रकार एक ही वंश के राजाओं के भिन्न भिन्न गोत्र होने के कारण यही जान पड़ता है कि राजपूतों के गोत्र उनके पुरोहितों के गोत्रों के सूचक है, और जब वे अलग अलग जगह जा बसे, तब वहां जिसको पुरोहित माना, उसी का गोत्र वे धारण करते रहे| ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि राजपूतों के गोत्र सर्वथा उनके वंशकर्ताओं का सूचक नहीं, किन्तु पुरोहितों के सूचक होते थे, और कभी कभी पुरोहित के बदलने पर गोत्र बदल जाया करते थे, कभी नहीं भी| यह रीति उनमें उसी समय तक बनी रही, जब तक पुरोहितों के द्वारा उनके वैदिक संस्कार होकर प्राचीन शैली के अनुसार वेदादि-पठन-पाठन का कर्म उनमें प्रचलित रहा| पीछे तो वे नाम मात्र के रह गए, केवल प्राचीन प्रणालियों के लिए हुए संकल्प, श्राद्ध आदि में गोत्रोच्चार करने के अतिरिक्त उनका महत्त्व कुछ भी नहीं रहा और न वह प्रथा रही, कि पुरोहित का जो गोत्र हो वही राजा भी हो|
जाति की संरचना को विस्तृत स्वरुप में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत सामाजिक ढ़ाचे में सर्वोच्च स्थान ब्राम्हण जातियों को प्राप्त था परन्तु ब्राह्मण जातियां भी विभिन्न उपजातियों में विभाजित थी। १८ वीं शताब्दी के पूर्व अनेक ब्राम्हण उपजातियाँ मेवाड़ में विद्यमान थी, तथापि १९ वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़ में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, जोधपुर से जोधपुरिया, सिरोही से सिरोहिया आदि मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने भी अनेक ब्राम्हण परिवारों को उनके व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर मेवाड़ में बसाया था। गुजरात राज्य से पारख और भ मेवाड़ा ब्राम्हण, उत्तर प्रदेश से कन्नौजिया, सास्वत गौड़, श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सास्वत, गौड़, मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थी। यह सभी उपजातियाँ मूल में ब्राम्हण जाति होते हुए भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थी। इन सभी ब्राम्हण जातियां में पारस्परिक खान-पान सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन झ्र१ करने वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियाँ के यहाँ बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने वाले ठघन्याती ब्राह्मण' द्विज जातियों ( ब्राह्मण, राजपूत तथा वैश्य-महाजन) के यहाँ बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे। ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे किन्तु इनकी संख्या नगण्य रही थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्री-पुरुष पारस्परिक विवाह नहीं कर सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों में विकृतियां आने लगी। खंडित व्यवहारों के कारण सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।

अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राम्हणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थी। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राम्हणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई। जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थीं, जिसका उपयोग ब्राम्हण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हे राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राम्हण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे। बख्शीखाना के ठनाम-बहियों ' से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट; द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल' ब्राह्मण रहे थे जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हे धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तो के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी जिन्हे मेवाड़ में ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राजज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की रही हैं। राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्रमांण बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य (कणिका-भिक्षा) करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे।

राजकीय सेवाओं में भी ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी। मेवाड़ में पाणेरी ब्राम्हण महाराजाओं के धर्मकोष, रसोड़े (पाकशाला) तथा आंगिया री ओवरी (कपड़ा विभाग) में कार्य करते थे। राज्य पत्रों को संस्कृत में लिखवाने तथा राजनीतिक कार्यों के लिए भ व नागर जाति के ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। उदाहरण के लिए महाराणा अरिसिंह के प्रधान अमरचन्द बड़वा (सना ब्राह्मण) महाराजा हमीरसिंह के अर्द्धशासन काल तक राज्य की महत्वपूर्ण सेवाओं में रहा। राज्य परिवार के सदस्यों को शिक्षा देने के लिए भी ब्राह्मण नियुक्त किये जाते है जिनको राज्य द्वारा वेतन अथवा भूमि प्रदान की जाती थी। जनाती ड्योढ़ी पर चौबिसा जाति के ड्योढ़ीदार तथा आमेरा जाति के लोग कामदार (लिपिक) का कार्य करते है। सामान्यत: सैनिक सेवा के लिए ब्राह्मणों की नियुक्ति नही की जाती थी, फिर भी अनेक कुलीन वर्ग के ब्राह्मण सेनाधिकारी के पदों पर पैतृक परम्परा के रुप में सेवा करते थे।

मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों में व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रुप में अपना रखा था।
सामान्यत: श्रीमाली ब्राम्हण दुध बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्त्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नही माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि-व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थी।

सेवक तथा काटिया नामक दो जातियाँ ब्राम्हणों में अन्य जाति की सेवा तथा अशौच भोजन करनेवाली निम्न जातियाँ मानी जाती रही थीं। सेवक जाति जो जैन मंदिरों में अपनी सेवा देते थे उन्हे कहीं कहीं भोजाक भी कहा जाता था।

१९ वीं शताब्दी में ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न व्यवसाय अपना लेने के बावजूद वे प्राचीन परम्पराओं को बनाये रखने पर जोर देते रहे। समाज में ब्राह्मणों को सम्मान प्राप्त था। राजकीय सम्मान के रुप में उन्हें महाराज, विप्रराज, गुसाई आदि सम्बोधनों से सम्बोधित किया जाता था। मेवाड़ के महाराणा ब्राम्हणों को हिन्दू-संस्कृति का संरक्षक और स्वंय को उसका पोषक मानते थे तथा सामन्त भी उन्हे पर्याप्त सम्मान देते थे। विपरांगत ब्राह्मणों को तो बाहर से आमंत्रित कर राज्य में बसाया जाता था।

१९ वीं शताब्दी के अंतिम काल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार, नये माध्यम वर्ग का अभ्युदय, प्रशासनिक नियुक्तियों की नीति में परिवर्त्तन तथा अंग्रेजी नियमों के प्रचलन के फलस्वरुप ब्राम्हणों की सामाजिक स्थिति आन्तरिक परिवर्त्तन प्रारम्भ होने लगा तथा ब्राम्हणों के नेतृत्व को चुनौती उत्पन्न हो गयी किन्तु बाह्य रुप में ब्राह्मणों का सामाजिक-धार्मिक प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं आया।

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राजपूत : कुल तथा अन्तर्जातीय विवाह व्यवस्था


सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राम्हणों के बाद समाज में राजपूतों का काफी वर्च था।

राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था :

१. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य वंश
२. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र वंश
३. वशिष्ट ॠषि द्वारा आबू यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश

इन्ही तीन वंशों में, जिससे १६ कुल सुर्यवशीय, १६ कुल चन्द्रवंशीय औप ४ अग्निवशीय थे ; सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामुहिक रुप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल १३ कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कही राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा (मेवाड़ का शासक) के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था।

विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्चोच परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह का सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनो वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।

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दासया चाकर राजपूतों का स्थान

राजपूत जाति श्रेणी में दास अथवा चाकर राजपूतों की इकाई आलोच्य कालीन समाज में एक स्थान रखती थी। राजपूतों द्वारा अन्य जाति का स्रियों को रखैल (उपपत्नी) रखने की प्रथा और निर्धन बच्चे-बच्चियों का
क्रम-विक्रम के रिवाज ने भी इस जाति के उद्भव तथा विकास में योगदान दिया। गोला राजपूतों को उच्चतर राजपूत कन्याओं के विवाह में दहेज के रुप में भेजा जाता था। इस पर राजपूत का प्रतिष्ठा निर्भर करती थी कि उसने कन्या-विवाह में कितने दास-दासी (दावड़े-दावड़ी) प्रदान किये है। इन दास-दासियों का प्रयोग शासक, जागीरदार तथा सम्पन्न राजपूत अपने प्रशासकीय, व्यवस्थापकीय तथा काम-तृप्ति के लिए करते थे। दास-दासियों के विवाह की एक औपचारिकता पुरी कर दी जाती थी जिससे स्वामी से उत्पन्न पुत्र का पिता मात्र विवाहित पति कहलाता रहे।

राजपूत लोग इस जाति का स्रियों के साथ खान-पान में छूत नही मानते थे जबकि पुरुषों के साथ खान-पान व्यवहार की स्थिति भिन्न थी। दास-राजपूतों की सामाजिक प्रतिष्ठा और स्तरीकरण शासक अथवा स्वामी से उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों की दूरी और समीपता पर निर्भर रहता था। यह सम्बन्ध ही दासों की आर्थिक स्थिति को व्यक्त करते थे। कई दास राजपूत अपनी योग्यता और स्वामीकृपा के द्वारा जावि में उपेक्षित होते हुए भी अपना सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और सम्मान रखते थे।

राजपूतों के सीमित व्यवसाय तथा उसके परिणाम सामान्यत: राजकीय सेवा अथवा सामन्ती सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना राजपूत अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। अत: प्रशासकीय कार्य और सैनिक सेवा इनके जीविकोपार्जन

का मुख्य साधन था। १८ वीं शताब्धी के पूर्वार्द्ध तक मेवाड़ी राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की अखण्डता तथा सार्वभौमिकता के लिए मुगलों तथा मराठों के दाँत खट्टे किये तथा अपने प्राणों का आहुति देकर आदर्श प्रस्तुत किये।

किन्तु १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से निरन्तर युद्धों पारस्परिक ईर्ष्या और आर्थिक विपन्नता ने राजपूतों के राजनीतिक संगठन में विघटन उप्पन्न कर दिया अपनी गौरवशाली परम्पराओं को भूलकर कुल वैमनस्य और विद्वेष के अन्धकार में डूबने लगे। अधिकांश समय वे घृणित संगति अथवा देव-दासियों की चापलूसी में नष्ट करते थे। मद्य व अफीम के अति-सेवन के परिणामस्वरुप उनमें कई दुर्गुण उत्पन्न होते गये थे। अपनी झूठी और दम्भपूर्ण प्रवृत्ति एवं जीर्ण गौरव निर्वाह हेतु वे कुछ भी करने को तैयार थे।

अंग्ल-मेवाड़ संधि के बाद राजपूतों के लिए सैनिक सेवा का व्यापक क्षेत्र संकुचित तथा सीमित हो गया। प्रशासकीय सेवाओं में अन्य जातियों का प्रभाव बढ़ जाने के कारण अब राजपूतों की स्थिति में परिवर्तन आने लगा। व्यापार-वाणिज्य तथा धन-सम्पत्ति अर्जित करने के अन्य व्यवसायों में रुचि न होने के कारण अब राजपूतों को कृषि-कार्य अपनाने पर विवश होना पड़ा। ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व अधिकांश जागीरदार राजपूत थे और उनकी भूमि पर अन्य काश्तकार खेति करते थे। लेकिन अब इन कृषिकरनी
जागीरदारों की तीन आर्थिक श्रेणियाँ हो गई थी -

१. दूसरों से खेती कराने वाले बड़े जागीरदार
२. स्वयं और दूसरों काश्तकारों के साथ खेती करने वाले मध्यम जागीरदार तथा
३. अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाले जागीरदार

महाराणा और सामन्तों ने कृषि-कार्य करने वाले राजपूतों को भूमिकर से सम्बंधित अनेक रियायतें दी। अन्य जाति के किसानों की अपेक्षा उनसे भूमि कर कम लिया जाता था तथा अन्य करों में भी छूट दी गई थी। प्रथम श्रेणी के जागीरदारों की आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्त्तन नहीं हुआ था किन्तु अन्य दो श्रेणीयों की स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी।

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🎗️🎗️पत्तल में खाना कुल्हड़ में पानी🎗️🎗️
भोजन की परंपरा के बाबत यह भी मालूम होना चाहिए कि दक्षिण भारत में ब्राह्मण भोजन केले के दोनों और पत्तलों पर होता है। भूमिहार समाज में भी यही परंपरा रही और शायद आज भी है गावों में ।
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक और विदाई से लेकर मृत्योपरांत भूमिहार समाज के यहाँ भोज के आयोजन की अनिवार्य परंपरा है भूमिहार समाज में बैठकर, पालथी मारकर खाना खाने की परंपरा अतिप्राचीन है, लेकिन अब यह परंपरा खत्म होने के कगार पर है। चाहे शादी हो बर्थ डे पार्टी...बफे होना जरूरी...यह आज समाज में एक तरह से स्टेटस सिंबल बन गया है। पत्तल पर पूड़ी, कचौड़ी, समोसा और ऐसे ही कुछ नमकीन परोसे जाते थे और साथ में सूखी सब्ज़ी, चटनी और अचार होता था, ठेठ पक्की रसोई। कुल्हड़ और कसोरे का अपना विशिष्ट स्थान होता था। कुल्हड़ मोटी परत का मिट्टी का करिया सा प्याला होता जिसमें रसगुल्ले, रबड़ी या गुलाबजामुन जैसे रसदार मिष्ठान परोसे जाते। कसोरा भी मिट्टी की उथली कटोरी होती जिसमें आलू का रस्सा या दही बुँदिया परोसी जाती। पंगत समाप्त होने पर पत्तल, कुल्हड़ और कसोरे कूड़े पर फेंक दिए जाते, साथ में पानी के लिए दिया गया पुरवा भी।
इसमें कोई दोराय नहीं कि हमारी इस सबसे व्यवस्थित परंपरा पर पश्चिमी सभ्यता पूरी तरह से हावी हो चुकी है। शहरों में खड़े होकर खाने का रिवाज तो था ही, लेकिन अब इसकी गिरफ्त में गांव भी आ गए हैं।विवाहों में शराब परोसने की कुसंस्कृति का जन्म हुआ है | गावों में भोज करने की बजाये कुलीन वर्ग पञ्च सितारा  होटलों में भोज का आयोजन कर रहें हैं | धीरे-धीरे गांवों में भी बफे सिस्टम ने अपनी जगह बना ली है।पत्तल में भोजन खाने की परंपरा थी शादी-ब्याह में भी बारातियों को पत्तल में ही भोजन दिया जाता धीरे-धीरे ये परंपरा लुप्त होती जा रही है और इसकी जगह थर्माकोल या प्लास्टिक और कागज से बनी प्लेट ले रही हैं, जो कि स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती
किसी भी 🎉  शहरी पार्टी का वह दृश्य.दूल्हा-दुल्हन एक बड़े से हॉल में सजे-धजे सबको अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं। लोग आ रहे हैं, फिर वहाँ पहुँचने लगे हैं, जहाँ भोजन की व्यवस्था है। छोटी-सी जगह, क्षमता से अधिक लोग।(अतिथि भिक्षुक भव:) लखपति ही नहीं, करोड़पति भी एक प्लेट लिए कतार में खड़ा है। कई जगह तो मारा-मारी की स्थिति है। लोग टूट पड़े हैं। बच्चों और बुजुर्गों के लिए कोई अलग से व्यवस्था नहीं। वे भी खड़े-खड़े भोजन कर रहे हैं। कुर्सियों की संख्या अपेक्षाकृत कम। कुल मिलाकर अफरा-तफरी का दृश्य। जिसमें कोई संतुष्ट नहीं है। सभी इसे व्यवस्था को दोष दे रहे हैं और भोजन कर रहे हैं। क्या इसे गिद्ध भोज की संज्ञा नहीं दी जा सकती? जो बलशाली है, वह भरपेट भोजन कर पाएगा। आपने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा कि पहली बार जब हम भोजन लेते हैं, तब सीधे हाथ से लेते हैं, पर दूसरी बार सारी सामग्री बाएँ हाथ से लेते हैं। क्या यह हमारी सभ्यता है?😏मेरी बात कुछ-कुछ समझ में आ रही होगी। आपको बता दूँ कि बुफे डीनर के जन्म के पीछे मूलरूप से मानव की लोभवृत्ति है। यजमान चाहता है कि यहाँ आकर लोग कम खाएँ और बातें अधिक करें। मेहमान कम खाएँ, क्या यह भारतीय परंपरा है? संस्कार यजमान चाहता है कि मेरे यहाँ जो भी मेहमान आए, वह भोजन से पूरी तरह से तृप्त होकर जाए। इसके पीछै यही भावना है कि पहले हमारी यहाँ अतिथि को भोजन के लिए काफी मनुहार की जाती थी। लोग आग्रह कर-करके भोजन कराते थे। इसके पीछे उनकी भावना गलत नहीं थी। जिन्हें याद होगा, वे ये भी याद कर लें, कि भोजन के दौरान किस तरह से घर के बड़े-बुजुर्ग आकर मनुहार करते थे और पूछते थे कि भोजन कैसा बना है? कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई है? कितना अच्छा लगता था। अब इस बुफे डिनर में कहीं दिखती है मनुहार? किसने भोजन ग्रहण किया, किसने नहीं, इसकी जानकारी तो यजमान को कतई नहीं होती। वे तो केवल आवभगत में ही लगे रहते हैं। केटरिंग वाले को ठेका दे दिया है, वही देखेगा?
क्या घर में किसी मेहमान के आने पर हम उसे कहते हैं कि किचन में सब-कुछ रखा है, टेबल पर प्लेट पड़ी है, आपको जो अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लें। कोई भी स्वाभिमानी अतिथि इस तरह के व्यवहार को अपना अपमान ही समझेगा। इस तरह से बुफे डिनर में तो अतिथि का इससे भी अधिक अपमान होता है, इस पर कभी ध्यान दिया किसी ने? अपने बचपन के मित्र को भोजन के लिए लाइन पर खड़ा होते देखना किसे अच्छा लगता है? इस पर भला किसी ने सोचा? बुफे डिनर लेना हमारी संस्कृति में तो किसी तरह फीट नहीं बैठता। धर्म के कितने नियम भंग होते हैं, इस पर किसी ने विचार किया? आर्य संस्कृति के अनुसार खड़े-खड़े तो भोजन कतई नहीं किया जाना चाहिए,भूमिहार समाज के  भोजों में अनेको प्रकार की सब्जिया बनाई जाती है | वो भी प्रचुर मात्रा में | भोज में समयानुकूल सब्जियां , फलों ,  मिठाइयों , दही , पापड़ एवं अन्य सामग्रियों की भरमार होती हैं |  भोज में फुलोरा (दही बड़ा) का होना अनिवार्य हैहैं.एक और ख़ास बात यह है की पुरुष और महिला साथ बैठ कर खाने की परंपरा नहीं थी  | साथ जमीन पर बैठकर खाने की परंपरा अब समाप्ति की और है डेकोरेशन पर खासा ध्यान हैं खिलाने पर कम भोज दिखावा बन गया है फिजूलखर्ची  ज्यादा हो रही है l भूमिहार समाज में शादी विवाह में धन की सुरक्षा के लिए हथियार ले जाने की परंपरा रही है
🎗️🎗️कुंडेसर गाँव🎗️🎗️
भूमिहार ब्राह्मण इतिहास का एक सुनहरा अध्याय
बाबू हरि नारायण सिंह, बाबू सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह.विजय शंकर सिंह, वीरेंद्र नारायण सिंह, श्री मुरली मनोहर सिंह, डॉ  कृष्ण मुरारी सिंह और डॉ आनंद शंकर सिंह.
का गाँव
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
श्री पोथी बंशाउरी' (किनवार वंशावली) में लिखा है... नारायेन सुत चारी प्रथम 'माधो' कही गायो, सुर सरिता तट ग्राम कुंडेसरि नाम कहायो...
कुंडेसर, उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले का एक गाँव है। राजा भैरव शाह के सबसे बड़े पोते तलकुकर बाबू माधव राय ने गंगा नदी के किनारे पर 1507 ई डी में इसको स्थापित किया था।
राजा मल्हान दीक्षित की पांचवीं पीढ़ी में, राजा भैरो शाह अंतिम व्यक्ति थे जो साहमद्ह से गोंडौर तक चले गए और एक किला का निर्माण किया। वंशावली के रिकॉर्ड के अनुसार कश्यप गोद्रिया 'किश्वर' दीक्षित योद्धा परिवार ने गढ़वादलों के लिए लड़ाइयों की एक श्रृंखला के बाद गिरिपुरी और आसपास के क्षेत्र के चेरु आदिवासी शासकों को ऊपर से उखाड़ दिया। दीक्षित ब्राह्मण और गहद्वीला दोनों दक्षिणापथ से कन्नौज गए थे। गडावादला राजा चंद्रदेव के एक आक्षेप में, यह उल्लेख किया गया है कि वह ब्राह्मण योद्धाओं की मदद से पवित्र शहर काशी के निकट गादिपुरी पकड़े।गहदवाला सेना के अभियान में 'मूलधन दीक्षित' की प्रमुख भूमिका विवरण में 'श्री पोथी बंसुरी' में वर्णित है। एक सद्भावना के संकेत के रूप में, गाहदला राजा ने उन्हें आज़मगढ़,मउ,बलिया और गाजीपुर जिलों में 700 गांवों के अनुदान के साथ 'राजा' का खिताब प्रदान किया। बाद में कबीले तीन मुख्य शाखाओं में विकसित हुईं जैसे बीरपुर, नारायणपुर-कुंडसेर और करीमुद्दीनपुर।
ब्रिटिश राज में कुंडेसर के बाबू गिरिजा प्रसाद नारायण सिंह की संपत्ति में मोहम्मदाबाद परगना मे.लगभग 2,000 एकड़ का क्षेत्र और 3028 रुपये की राजस्व शामिल थी।
मुहम्म्मदाबाद की धरती पर कई पहलवान पैदा हुए हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्र का नाम रौशन किया है। जोगा के मंगला पहलवान, कुंडेसर के हरिनारायण सिंह तथा बैरान के झारखंडे राय का नाम कुश्ती के क्षेत्र में सम्मान से लिया जाता है पहलवान  हरिनारायण बाबू हरिनारायण सिंह को क्षेत्र की जनता प्यार से ‘मल्ल बाबू’ कहती थी। लेकिन एक पहलवान होने के बावजूद वो सिर्फ शौकिया तौर पर कुश्ती लड़ते थे। उन्होंने कुश्ती में करियर नहीं बनाया। लोग बताते हैं कि एक बार वो अखाड़े में रियाज के बाद आम के पेड़ की एक डाल पर बैठे हुए विश्राम कर थे कि तभी दूर इलाके से उनका नाम सुनकर एक पहलवान उनसे हाथ मिलाने के लिए आ पहुंचा। उसने बाबू साहब के सामने अपनी ख्वाहिश रखी। बाबू साहब मुस्कराए और बोले कि आप यहां बैठिए तब तक मैं पसीना पोंछ लूं। पहलवान को पेड़ की डाल पर बिठाकर बाबू साहब जैसे ही उतरे कि वो पहलवान पेड़ की डाल के साथ सात फिट उपर लटक गया। पहलवान फौरन डाल से कूदा और बाबू साहब के पांवों में लिपट गया। उसने कहा कि आपका नाम सुना था, आज देख भी लिया। फिर उसने पूछा कि मेरा वजन भी आपके आस-पास ही है फिर ये क्या माजरा है। तब मल्ल बाबू ने पास में जमीन में गड़ी लकड़ी की एक बल्ली में पैर फंसाकर पेड़ की डाली को पकड़कर झुका लिया और दोबारा उसपर बैठ गए। मल्ल बाबू की इस ताकत के सामने वो पहलवान एक बार फिर नतमस्तक हो गया।
कहते हैं एक बार उनके गांव कुंडेसर में दो सांड आपस में काफी देर से लड़ रहे थे। उन दोनों ने इस लड़ाई में कई लोगों को घायल कर दिया था। गांव के लोग लाठी डंडे से उन्हें भगाने की कोशिश में लगे रहे लेकिन वो दोनों सांड लड़ना छोड़ लोगों पर ही झपट पड़ते थे। मल्ल बाबू को खबर मिली। आकर उन्होंने माजरा देखा और दोनों सांडों की सींगे अलग कर उन्हें दो-दो थप्पड़ लगाया। फौलादी थप्पड़ खाकर दोनों सांड वहां से भाग खड़े हुए।
मल्ल बाबू के बारे में एक दूसरा किस्सा ये है कि एक बार वो अपनी रिश्तेदारी में भागलपुर गए थे। वहां उनके रिश्तेदारों के विरोधी उनकी जमीन को जबरन कब्जा कर रहे थे। मना करने पर वो लोग लठैतों के साथ खेत पर पहुंच गए। मल्ल बाबू भी वहां पर थे। समझाने-बुझाने के बावजूद उनमें से एक लंपट किस्म के नौजवान ने मल्ल बाबू की कदकाठी देखकर बोला कि "ये अखाड़ा नहीं है पहलवान, लाठियां पड़ेंगी तो सब समझ में आ जाएगा लेकिन निहत्थे हो इसलिए जान बख्श दे रहे हैं"। इस पर मल्ल बाबू ने पास में लगी बंसवार (बांस के झुरमुट) से एक झटके में एक मोटा बांस उखाड़ लिया और आगे बढ़े। फिर क्या था जो जहां खड़ा था वहीं से भाग खड़ा हुआ।

👑👑विकिपीडिया इनके बारे में लिखा है
In 1885, Hari Narayan Singh was traveling to Vadodara Gujarat on a pilgrimage with his Purohit and Nayee. Due to lack of any transport facility in those days they were moving ahead on foot. After few miles they approached a road through dense forest where British sepoys warned them of danger ahead. They informed Mall babu about a man-eater in that area and suggested to take another route which was much longer. But Hari Narayan Singh didn't pay heed to their warning and moved forward with his companions. When they were in the middle of the jungle suddenly they heard the roar of lion. Mall babu told his Purohit and Nayee to climb on trees immediately and he started waiting for man-eater with a wrestler's prudence. Suddenly lion jumped on him and injured his shoulder ripping his flesh. But vigilant young wrestler got hold of his forelegs and hit him hard in spine. The lion roared and collapsed. His spine was broken and within few minutes he was gasping his last breath.
उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के कुंडेसर गांव के रहने वाले हरिनारायण सिंह पिंडदान के लिए नाई और पुरोहित को साथ लेकर गया जा रहे थे। रास्ता घने जंगलों से होकर जाता था। कुछ दूर जाने के बाद ही अंग्रेज सिपाहियों ने आगे जाने से मना किया लेकिन हरिनारायण सिंह नहीं माने। वो अपनी जोखिम पर आगे बढ़े। नाई और पुरोहित जी को उन्होंने अपने पीछे चलने को कहा। थोड़ी दूर जाने के बाद ही शेर की दहाड़ सुनाई दी।

हरी बाबू ने पुरोहित और नाई को फौरन पेड़ पर चढ़ जाने को कहा और खुद उस दिशा में आगे बढ़े जिधर से दहाड़ सुनाई दी थी। उनको शेर को तलाशने में ज्यादा देर नहीं हुई वो बिल्कुल सामने आ गया। ये शेर नरभक्षी हो चला था और इंसान को देखते ही पागल हो उठा। शेर ने हाड़ मांस के इंसान पर छलांग लगा दी। लेकन हरी बाबू का जोरदार थप्पड़ खाकर शेर मुंह के बल गिर पड़ा। पेड़ पर चढ़े नाई की चीख निकल गई। उसे लगा कि शेर बाबू साहब को मार डालेगा। उसने रोते-चिल्लाते बाबू साहब से पेड़ पर चढ़कर जान बचाने की गुहार लगाई लेकिन हरी बाबू ने उसे शांत रहने को कहा। इतने में शेर फिर से उठ खड़ा हुआ। लेकिन जब गुस्से में आकर उसने अपने दोनों पंजो से बाबू साहब पर हमला किया तो हरी बाबू ने उसके दोनों बाजू अपने फौलादी पंजो से जकड़ लिए। शेर मुंह फाड़कर जोर से दहाड़ा लेकिन हरि बाबू ने उसकी कमर पर ऐसी जोरदार लात मारी की उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। शेर की दहाड़ से जंगल थर्रा उठा।
👑👑मृत्यु

Mall Babu was such a disciplined person that he didn't fell ill in his lifetime. Till the age of 84 years his physique was in greater shape. However, in the age of 85 he got a premonition of his death and according to his wish he was shifted to holy city of Varanasi, where he died on 4 June 1949. Mall Babu had few disciples who carried forward his legacy. Rajnarayan Rai was his most favorite, who floored Imam Bakhs Pahalwan (younger brother of The Great Gama) in Jhariya (Jharkhand) within 5 minutes of bouts. Gama was so shocked with this defeat that he started crying.[3]
Source:-
👑The History of the Gāhaḍavāla Dynasty, Roma Niyogi, Oriental Book Agency, 1959
👑Kinwar Vanshawali, Kashi Nagari Pracharini Sabha, Varanasi
👑 Wikipedia
👑Kundesar has got special mention in the gazetteers of Ghazipur since 1781

Monday, July 29, 2019

किसी कारणवश इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिये गये वा हो गये। बनारस-रामेश्वर के पास गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते हैं, जिन मिश्रजी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार ब्राह्मणों से पृथक् होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे, इसलिए उन्होंने रंज होकर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली। परन्तु उसने कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़कर हिस्सा दिलवा देंगे। इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग होकर क्षत्रियों में मिल गये यह उचित भी हैं। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा। क्योंकि उसका मूध्र्दाभिषिक्त नाम याज्ञवल्क्य ने कहा हैं और 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्य' इत्यादि अमरकोष के प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूध्र्दाभिषिक्त नाम क्षत्रिय का ही हैं। मनु भगवान् ने तो :
पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते॥अ.10॥
इत्यादि श्लोकों में उसे स्पष्ट ही क्षत्रिय बतलाया हैं। ये गौतम क्षत्रिय केवल काशी-रामेश्वर के पास दो-चार ग्रामों में रहते हैं।
इसी तरह किनवार क्षत्रियों की भी बात हैं। वे केवल बलिया जिले के छत्ता और सहतवार आदि दो ही चार गाँवों में प्राय: पाये जाते हैं। जिनके विषय में विलियम इरविन साहब (William Iruine Esqr.) कलक्टर 1780-85 ई. ने बन्दोबस्त की रिपोर्ट (Reports on the Settlement) में लिखा हैं कि किनवार ब्राह्मणों के एक पुरुष
कलकल राय ने किसी क्षत्रिय जाति की कन्या से ब्याह कर लिया। जिससे उनके वंशज भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो गये और उन्हीं पूर्वोक्त दो-चार ग्रामों में पाये जाते हैं। इसी तरह दोनवार क्षत्रिय भी किसी कारणवश दोनवार ब्राह्मणों से अलग कर दिये गये। जो मऊ (आजमगढ़) के पास कुछ ही ग्रामों में पाये जाते हैं, परन्तु वहाँ दोनवार ब्राह्मण लोग 12 कोस में विस्तृत हैं। इसी तरह बरुवार क्षत्रियों को भी जानना चाहिए। वे भी केवल आजमगढ़ जिले के थोड़े से ग्रामों में हैं। परन्तु बरुवार नाम के ब्राह्मण तो उसी जिले के सगरी परगने के 14 कोस में भरे पड़े हुए हैं। सकरवार क्षत्रिय भी उसी तरह किसी कारण विशेष ये सकरवार ब्राह्मणों से विलग हो गये, जो गहमर वगैरह दो-एक ही स्थानों में पाये जाते हैं। जबकि सकरवार नाम के ब्राह्मण गाजीपुर के जमानियाँ परगने और आरा के सरगहाँ परगने के प्राय: 125 गाँवों में भरे पड़े हुए हैं। जो दोनवार अयाचक ब्राह्मण जमानियाँ परगने के ताजपुर और देवरिया प्रभृति बीसों ग्रामों में पाये जाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग किसी वजह से निकलकर क्षत्रियों में मिल गये और गाजीपुर शहर से पश्चिम फतुल्लहपुर के पास दो-चार ग्रामों में अब भी पाये जाते हैं। इसी प्रकार अन्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के से नाम वाले क्षत्रियों को जानना चाहिए।
सारांश यह हैं कि सभी दोनवार आदि नाम वाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं, परन्तु इन नामों वाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं। इससे स्पष्ट हैं कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से विलग हो गये हैं। इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएँ और गोत्र वे ही हैं जो दोनवार आदि नाम वाले ब्राह्मणों के हैं। इस संख्या वगैरह का पता हमने स्वयं उन-उन स्थानों में भ्रमण कर और जानकार लोगों से मिलकर लगाया हैं। जिसे इच्छा हो वह प्रथम जाँच कर ले, पीछे कुछ कहे या लिखे। यद्यपि सकरवार क्षत्रिय आगरे के आस-पास तथा अन्य प्रान्तों में बहुत पाये जाते हैं, तथापि उन लोगों का गहमर आदि ग्रामों वाले सकरवार क्षत्रियों से कुछ सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि ये सब सकरवार कहे जाते हैं और आगरे वाले सिकरीवार; कारण कि उनका आदिम स्थान फतहपुर सिकरी या सीकरी हैं और इनका स्थान सकराडीह हैं। साथ ही, आगरे वालों का गोत्र शाण्श्निडल्य हैं और गहमर वालों का सांकृत, जैसा कि सकरवारों के निरूपण में आगे दिखलायेंगे। अत: सकरवारों को सिकरीवारों से पृथक् ही मानना होगा।
बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा हैं कि जब बहुत से भूमिहार (ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार
56वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A Bhumihar family of Pande Brahmins settled at Byreah in Doab pergannah, have for generations past been the Tehseeldars or land agents of the Domaraon faimly.”
अर्थात ‘पांडे कहलानेवाले ब्राह्मणों में से एक भूमिहार ब्राह्मण वंश, जो बलिया जिले के दोआब परगने के बैरिया गाँव में प्रथम से ही आ कर बसा है, बहुत पीढ़ियों से डुमराँव राज्य का तहसीलदार होता चला आया है।’

Sunday, July 28, 2019

🎗️🎗️बुफ़े सिस्टम भोज परंपरा का पश्चिमीकरण🎗️🎗️
किसी विशेष अवसर पर सामूहिक भोजन की परंपरा भूमिहार समाज में प्रचलित है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
अपने अनूठेपन और वृहत स्थर पर पालन होने के कारण भूमिहार समाज में भोज की परंपरा वाकई अनोखी थी  | यहाँ भोज को एक मायने में समाज में आपके बढ़ते रुतबे के परिपेक्ष्य में भी देखा जाता है | यानी जितना बड़ा भोज उतना ज्यादा आपका यश ! बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक और विदाई से लेकर मृत्योपरांत यहाँ भोज के आयोजन की अनिवार्य परंपरा है | भारत में भले ही मृत्यु भोज की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी हो किन्तु इससे भूमिहार समाज के बहुसंख्य जन मानस पर कोई असर नहीं पड़ता भूमिहार समाज के  भोजों में अनेको प्रकार की सब्जिया बनाई जाती है | वो भी प्रचुर मात्रा में | भोज में समयानुकूल सब्जियां , फलों ,  मिठाइयों , दही , पापड़ एवं अन्य सामग्रियों की भरमार होती हैं |  भोज में फुलोरा (दही बड़ा) का होना अनिवार्य है | इसके अलावा दही का वितरण सबसे अंत में किये जाने की भी परंपरा है | गोंटिया-दयाद भी भोज में सहायता करते पानी पिलाने में अन्य कार्यों हेतु (लड़की की शादी में भोज में लोग आर्थिक मदद तक कर देते थे ).आपने अगर पहले भोजन कर लिया है तो भी यह अपेक्षा की जाती है की जब सभी खाकर उठने लगें तभी आप भी उठें | गोंटिया-दयाद के लोग सबके खाने के बाद अंत में  भोजन करते भोज में लोग पंक्तियों में साफ़ सुथरे दरी बिछाये गए ज़मीन पर बैठाये जातें  |  पत्तल में भोजन खाने की परंपरा थी शादी-ब्याह में भी बारातियों को पत्तल में ही भोजन दिया जाता lधीरे-धीरे ये परंपरा लुप्त होती जा रही है और इसकी जगह थर्माकोल या प्लास्टिक और कागज से बनी प्लेट ले रही हैं, जो कि स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं.एक और ख़ास बात यह है की पुरुष और महिला साथ बैठ कर खाने की परंपरा नहीं थी  | भोज खाने के बाद लोगों के बीच पान सुपाड़ी बांटने की रिवाज है एक पश्चिम परंपरा जो हाल में जुडी है  बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उसकी उम्र भी बढती जाती है अगल – बगल के लोगों को दिन में ही जन्म दिन का निमंत्रण भेजा जाता है | शाम को  लोग बच्चे के घर पर जुटते है | बच्चे के द्वारा केक काटा जाता है और मेहमानों में वितरण किया जाता है  | बच्चे को लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार उपहार देते हैं | खाना खाते हैं |  खाना खा कर लोग घर चले जाता हैं |बदलते दौर में भोज का भी स्वरुप भूमिहार समाज में बदल रहा है | जहाँ पहले पत्तल/केले के पत्ते बिछाकर ज़मीन पर भोज कराया जाता था अब लोग कुर्सी टेबल लगाकर प्लास्टिक प्लेट्स का इस्तेमाल करने लगें है | विवाहों में शराब परोसने की कुसंस्कृति का जन्म हुआ है | गावों में भोज करने की बजाये कुलीन वर्ग पञ्च सितारा  होटलों में भोज का आयोजन कर रहें हैं | पारंपरिक भोज की जगह बुफ़े सिस्टम ले रहा है |साथ जमीन पर बैठकर खाने की परंपरा अब समाप्ति की और है डेकोरेशन पर खासा ध्यान हैं खिलाने पर कम भोज दिखावा बन गया है फिजूलखर्ची  ज्यादा हो रही है भात दाल के साथ भी भोज हो सकता है l गोंटिया-दयाद पहले की तरह श्रमदान नहीं करते कुछ गोंटिया तो मुंह फुला कर बैठ जाते है अब मनाये इनको
व्याघ्रसर (बक्सर) और गाधिपुरी (गाजीपुर) के बीच गंगा के प्रवाह ने लगातार अपनी दिशा बदली है। इस क्रम में न जाने कितने गांवों को अपने मूल स्थान से हटकर दूसरी जगह विस्थापित होना पड़ा है तो कई गांवों को अपनी पहचान ही नए सिरे से स्थापित करनी पड़ी। आज हमलोग अपनी आंखों के सामने 'सेमरा' गांव को गंगा की धारा में समाते हुए देख रहे है। कुछ ऐसा ही हुआ था एक जमाने में कुंडेसर गांव के साथ। लेकिन कुंडेसर के साथ उल्टा हुआ था। जो गांव शेरशाह के जमाने में गंगा के किनारे बसा था उस कुंडेसर को छोड़ती हुई गंगा मुगलकाल में काफी दूर बहने लगी जहां बीच के उपजाऊ इलाके को 'सकरवार वंश' ने शेरपुर गांव समूह को बसाकर आबाद किया। 'श्री पोथी बंशाउरी' (किनवार वंशावली) में लिखा है... नारायेन सुत चारी प्रथम 'माधो' कही गायो, सुर सरिता तट ग्राम कुंडेसरि नाम कहायो.... Note : नारायण शाह (नारायणपुर) के ज्येष्ठ पुत्र बाबू माधव राय जी (शेरशाह के समकालीन) ने कुंडेसर गांव को बसाया था। | 

Sunday, July 14, 2019

350 ईस्वी तक, भूमिहार ब्राह्मणों ने गुप्त साम्राज्य का नेतृत्व किया, विदेशी साका-ग्रीक नेतृत्व वाले बौद्ध धर्म पर वैदिक जाति व्यवस्था को विजयी बनाया। 550 ईस्वी तक, हुना आक्रमण ने गुप्त साम्राज्य को अंतिम झटका दिया। हुना, खजर (गुर्जर) आव्रजन की नई लहर शुरू हुई। लेकिन इस बार वैदिक प्रणाली ने अप्रवासी को क्षत्रियों के रूप में एकीकृत किया, उन्हें राजपूत (राजा का पुत्र) कहा। हालाँकि यह पश्चिम भारतीय ब्राह्मणों (जिसे अक्सर गौड़ ब्राह्मण कहा जाता है), भूमिहार ब्राह्मण और गंगा के अन्य ब्राह्मणों के आशीर्वाद से राजपूतों के रूप में विदेशियों के इस उत्थान के खिलाफ रहा। गंगा में भूमिहार ब्राह्मण और राजपूत इसके बाद भूमि और सत्ता के लिए लड़े। आज भी, यूपी और बिहार के गंगा मैदानी प्रांतों में, ब्राह्मण और राजपूत राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं। धीरे-धीरे कई स्थानीय जनजातियाँ अक्सर सुदास राजपूत बनने लगीं और जल्द ही राजपूत नेतृत्व वाली जाति व्यवस्था पश्चिम बिहार से सिंधु नदी की पूर्व लागत और कश्मीर से विंध्य पर्वत के उत्तर तक फली-फूली। जब राजपूत बढ़ रहे थे, तो कई ब्राह्मणों को गंगा मैदान छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था, लेकिन बंगाल, ओडिशा, असम के गैर-राजपूत राजाओं द्वारा स्वागत किया गया था।
mentiond by the writer of the 'Jaati', even now, wherever we have old temple of Sun, we find the villages/settlment of Bhumihar, may that be the temples at Deo-Barnak, Barahia-Kiul region, Shaharsa-Supaul region, or any other region having the temple dedicated to this deity. Around Gaya, there were a score of Sun Temples, almost all of which destroyed by the invaders and the sculptures collected from the debris of those temples are now housed in the Bodh Gaya Museum, is an important center of Bhumihar settlement. And all these places, except Saharsa, are in Magadha. Its from this Magadhan area, from where they migrated to different region of Bihar and Jharkhand.

Friday, July 12, 2019

कोलकाता व हावड़ा के प्राय: स्कूल-कॉलेजों में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के अध्यापक मिल जायेंगे. इसी जिले का एक गांव डेढ़गांवा है. इस गांव के काफी लोग शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं लिहाजा उसे एक बुद्धिजीवियों के गांव से भी लोग जानते हैं. 

Monday, July 8, 2019

3 जून, 1922 के 'मिथिला मिहिर' नामक मैथिलों के पत्र में एक मैथिल ने यों लिखा था -'दरभंगा संचारि कोसपूर्व, भागीरथी के ओहिपार तक दक्षिण में रहनिहार अधिकांश मैथिल लोकनित निश्‍चय कलेलन्हि जेओ लोकनि भूमिहारे थिकाह, किंवा वैह सभ मैथिल थीक। किएक तं हुनकालोकनि ओकरा सभसं साधारणतया सिद्धान्न भोजनादिक घनिष्ठ व्यवहार करहल छथि।' सारांश यह है कि दरभंगा से 4 कोस पूर्व से ले कर दक्षिण में गंगापार तक के मैथिलों और भूमिहारों में कोई भेद नहीं है, दोनों का खान-पान आदि एक ही साथ है। पर, दुर्दशा ऐसी हो रही है कि घर-घर में फूट है और विद्या से - केवल संस्कृत विद्या से ही - प्राय: सम्बन्ध छूटता जा रहा है! जो संस्कृत ब्राह्मणों की बपौती - सच्ची बपौती - थी उसे किसी ने जमींदारी और बबुआई से मदांध हो कर लात मारी तो औरों ने - पुरोहित, पुजारी और पंडों ने - शेष जनता को मूर्ख और अन्धपरम्परा का भक्‍त देख पुरोहिती, गुरुवाई के ही मद में चूर हो उसका तिरस्कार किया! जब गुरु, व्यास तथा पुरोहित कहलानेवालों ने अपनी एक अलग जाति ही बना ली और जब उनके मन में नीच स्वार्थ - केवल जैसे हो तैसे पैसा झटकने का स्वार्थ - समा गया एवं साथ-साथ विलासप्रियता तथा आलस्य भगवान से भी घनिष्ठ मित्रता हो गई, तो उन्होंने सोचा कि कौन सा उपाय करें जिससे पढ़ने-पढ़ाने के महान क्लेश से पिंड छूटे, पैसे भी पूर्ववत मिला ही करें और माल मारने का भी पूरा मौका प्राप्त हो। उन्होंने युक्‍ति ढूँढ़ निकाली कि जो लोग पुरोहिती आदि कर्मों द्वारा अपने जीवन का निर्वाह नहीं करते प्रथम वह लोग ही विद्याविमुख किए जाएँ। फिर तो कोई टोकने और जाँचनेवाला रहेगा ही नहीं! इसलिए जो चाहेंगे करेंगे। इस सिद्धांत के अनुसार प्रथम यजमानों को यह कह कर पढ़ने-पढ़ाने से अलग किया कि आपको क्या कहीं पुरोहिती करनी, आचार्य बनना, पुजारी होना या पत्र उलटना है कि आप संस्कृत विद्या के लिए माथा मारने को तैयार हैं? इस भिखमंगी विद्या को पढ़ कर आप क्या करेंगे? क्या भीख माँगनी है? इत्यादि। इस प्रकार यजमान लोग संस्कृत विद्या से और अतएव कर्मकांड से पूरे अनभिज्ञ हो गए! तो फिर क्या था, यार लोगों की बन आई और रहा-सहा पढ़ना-पढ़ाना लगभग एकबारगी छोड़कर गुरु पुरोहित भी प्राय: निरक्षर भट्टाचार्य ही बन गए! 99 नहीं तो 90 प्रति सैकड़ा ऐसे पुरोहित और गुरु मिलेंगे जिनका काम अधिक से अधिक दुर्गा, सत्यनारायण, शीघ्रबोध और मुहूर्तचिंतामणि के कुछ ही श्‍लोकों के आधार पर चलता है! बाकी से वे लोग नाता तोड़ बैठे हैं! खूबी यह है कि इन पूर्वोक्‍त तीन-चार पोथियों का भी यथार्थ ज्ञान शायद ही किसी-किसी को है। इस पर भी तुर्रा यह है कि अपने सामने किसी को कुछ समझते भी नहीं! इसीलिए यदि कोई विज्ञ पुरुष समझाना चाहे तो उसके पास इस विचार से जाना तो दूर रहा विपरीत युद्ध के लिए कमर कस लेते हैं। यदि मूर्खतावश नष्ट-भ्रष्ट प्राचीन परिपाटी का फिर से कोई सुधार शास्त्रीय रीति के अनुसार करना चाहे तो उसकी दुर्दशा होती है! मूर्ख शिरोमणि पुरोहितों और गुरुओं ने अज्ञ यजमानों और शिष्यों के कान यह कह कर भर दिए हैं कि अमुक संस्कार तथा क्रिया-कर्म बाप-दादे के समय से ऐसा ही चला आता है, क्या आप अब नया रास्ता गढ़ेंगे? फिर क्या है? सुधारकों और विज्ञों की कौन सुने? उनका उपदेश तो 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' हो जाता है - उलटे उन्हीं को उल्लू बनना पड़ता है! एक बात यह भी देखी जा रही है कि नवरात्र के दिनों में प्राय: कृषक तथा अन्यान्य गृहस्थ किसी कामना-सिद्धि या कल्याण के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करवाते हैं। इसी तरह अधिकांश स्थानों में अधिमास के समय पार्थवेश्‍वर की पूजा और बिल्वपत्र चढ़ाने की रीति है। पर तमाशा क्या होता है कि जिन पुरोहित, गुरु कहलानेवालों को दुर्गा के श्‍लोक बाँचने तक की भी योग्यता नहीं होती, उनकी शुद्धि-अशुद्धियों की तो बात ही न्यारी, वे भी दस-पंद्रह पाठों तक के संकल्प प्रतिदिन के लिए करा लेते हैं! जिन्हें कुछ बाँचने की गम है उनकी बात भी विचित्र है। चाहे जितने भी पाठ कराने के लिए यजमान खड़े हो जाएँ, वे नकार करना नहीं जानते, सभी का संकल्प करा लेंगे चाहे पाठ एक ही दो करें! इसी तरह अधिमास के पार्थवेश्‍वर पूजा संकल्प को भी समझ लेना चाहिए! चाहे दस-बीस यजमानों ने अलग एक-एक, सवा-सवा लक्ष पूजन का ही संकल्प क्यों न कराया हो, पर केवल एक ही सवा लक्ष का पूजन कर के दक्षिणा सभी के सिर पर सवार हो कर वसूल की जावेगी! इस अनर्थ का प्रधान कारण एक तो स्वार्थी तथा अपढ़ पुरोहित आदि की, चाहे किसी भी तरह से, पैसा कमाने की दुर्बुद्धि है और दूसरे यजमानों की प्रचंड मूर्खता तथा विवेक भ्रष्टता है, जिस कारण वह यह भी नहीं विचार सकते कि जिन हजरत से पूजा-पाठ का संकल्प करवा रहे हैं या उनमें उसकी पूर्ण योग्यता भी है या नहीं, और योग्यता है भी तो प्रथम से ही और यजमानों के उसी पूजा-पाठवाले संकल्पों से लदे होने के कारण उन्हें अवकाश है या नहीं। परंतु वे लोग अन्धपरम्परा के इस तरह वशीभूत हो रहे हैं कि उन्होंने चाहे जैसे हो उन पूजा-पाठों के संकल्पों को करा ही देना अपना कर्तव्य समझ रखा है! फिर चाहे पूजा-पाठ हो या नहीं, यह देखना उन्हें पसंद नहीं! यदि किसी कारणवश कभी नहीं करा सके तो वर्षों उन्हें, और नहीं तो उनके घर की मूर्खतम स्त्रियों को बराबर इसकी चिंता बनी रहती है। इस मध्य में यदि कहीं किन्हीं लड़के-बच्चों को किसी रोग ने आ घेरा तो चट कल्पना कर लेतीं और घरवालों को निश्‍चय कर देती हैं कि बस, हर साल होने वाली पूजा इस वर्ष न हुई। इसी से अमुक देवी-देवता रुष्ट हैं, जिससे यह कष्ट है! भला इस अंधेर का कहीं ठिकाना है! यदि यजमान विचार से नहीं तो और ही कारणों से, विशेष कर आर्थिक परिस्थितियों के कारण ही इस पूजा-पाठ से कभी किसी तरह पिंड भी छुड़ाना चाहें तो स्वयं कई वर्षों से लगातार पैसे ठगनेवाले पुरोहित, गुरु या व्यास महाराज ही नित्य जा-जा कर दरबार करते और गले पर सवार होते हैं कि यजमान, हर साल हमें कुछ मिल जाता था, इस वर्ष आप क्यों चुप हैं? यजमान साहब एक-दो दिन तो इधर-उधर भागते हैं, पर विचार के पक्के न होने के कारण ही अन्त में हार कर उनको कुछ करना ही पड़ता है। क्या ही लीला है! ये पूजा-पाठ सिर्फ पैसे कमाने के द्वार हो रहे हैं, यजमान चाहे चूल्हे में जावे! यदि यजमान के कल्याण की बात रहती तो फिर करनेवाले क्यों उसके गले पर सवार हो नाकों दम करते? जिसे आवश्यकता होती है वही दौड़ा करता है। यह तो नहीं देखा कि रोगी की फिक्र ही नहीं और वैद्य उसके पिंड पड़े! और यदि ऐसा कोई करता है तो उसकी कदर ही जाती रहती है। पर, यहाँ की गंगा तो उलटी बहती है। इसे ही कहते हैं पथभ्रष्टता। धन्य रे हिंदू समाज और धन्य रे पुरोहित, गुरु एवं व्यासों की करतूत!

1908 वह वर्ष है जब मिथि‍ला मिहिर ने प्रकाशन की दुनिया में दस्‍तक दी । बतौर मासिक शुरू हुई इस पत्रि‍का ने तीन वर्षों में अपना स्‍वरूप बदलकर साप्‍ताहिक कर लिया । 1911 से साप्‍ताहिक मिथि‍ला मिहिर का प्रकाशन शुरू हुआ हो गया । यह दरभंगा महाराज की मिल्‍कियत थी । पर 1912 तक आते-आते लगने लगा कि केवल मैथि‍ली भाषा की पत्रि‍का का चलना शायद मुश्‍कि‍ल हो । इसलिए पत्रि‍का को द्व‍िभाषी बनाकर इसमें हिंदी को भी शामिल कर लिया गया और मिथि‍ला मिहिर मैथि‍ली और हिंदी दोनों की पत्रि‍का हो गई । मिथि‍ला मिहिर के साथ किए गए निरंतर प्रयोगों से यह साफ जाहिर है कि प्रबंधकों का आत्‍मविश्‍वास डगमगाने लगा था और दो साल 1930-31 में इसमें अंग्रेजी मिलाकर इसे त्रिभाषी कर दिया गया । आजादी से पूर्व के इतिहास में दो ही पत्रि‍काएँ ऐसी मिलती है जो द्विभाषी से आगे त्रि‍भाषी अवधारणा लेकर सामने आई । इसके पूर्व राममोहन राय बंगाल में बंगदूत के साथ अभि‍नव प्रयोग कर चुके थे, जिसमें एक साथ अंग्रेजी, बँगला, फारसी और हिंदी के प्रयोग किए गए थे । पर 1930-31 के बाद मिथि‍ला मिहिर अपने द्व‍िभाषी स्‍वरूप में लौट आया और 1954 तक निर्बाध चलता रहा

Saturday, July 6, 2019

मुगल सम्राट मुहम्मद शाह के शासन काल के प्रारम्भ में नवाब मुर्तजा खाँ नामक एक दरबारी क¨ बनारस, ज©नपुर, गाजीपुर तथा चुनार की सरकारें जागीर के रूप में प्राप्त हुई थी, जिनका राजस्व पांच लाख रुपये था। उसने मीर रुस्तम खाँ क¨ अपना नायब नियुक्त किया था।3
मंसाराम इसी मीर रुस्तम खाँ की सेवा में था अ©र शीघ्र ही वहाँ अपनी य¨ग्यता एवं प©रुष के बल पर सबसे प्रमुख व्यक्ति बन गया।4 इसके पश्चात् 1738 ई0 में उसने अवध के नवाब के दरबार में स्थित अपने मित्र्ा¨ं की सहायता से मीर रुस्तम अली खाँ क¨ पदच्युत करवाकर तेरह लाख वार्षिक राजस्व के बदल्¨ में अपने पुत्र्ा बलवन्त सिंह के नाम सरकार चुनार, ज©नपुर व बनारस की आमिलदारी अवध के नवाब से प्राप्त कर ली।5 परन्तु एक वर्ष के अन्दर ही 1738 ई0 में उसकी मृत्यु ह¨ गई।6 मंसाराम की मृत्यु के पश्चात् उसका एकमात्र्ा पुत्र्ा बलवन्त सिंह उसका उत्तराधिकारी बना। प्रारम्भिक दस वषर्¨ं में वह अवध के नवाब क¨ नियमित रूप से राजस्व का भुगतान करता रहा।7 1748 ई0 में जब मुगल बादशाह मुहम्मद शाह की मृत्यु के पश्चात नये सम्राट अहमदशाह ने सफदरजंग क¨ मुगल साम्राज्य का वजीर मन¨नीत कर दिल्ली बुला लिया त¨ नवाब की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर अपने दूरदर्शी परामर्शदाताअ¨ं की सलाह पर नवाब के सजावल क¨ बनारस से निष्कासित कर दिया। राजस्व का भुगतान र¨क दिया तथा समीपवर्ती भू-भाग¨ं में लूटपाट प्रारम्भ कर दी।8
इस समय नवाब रुहेला-अफगान¨ं से संघर्ष में व्यस्त था। इसलिए वह बलवन्त सिंह के विरुद्ध क¨ई तात्कालिक कदम न उठा सका परन्तु अफगान समस्या से मुक्त ह¨ने के बाद बलवन्त सिंह क¨ दण्डित करने के उद्देश्य से बनारस आया। बलवन्त सिंह ने भागकर परिवार सहित मिर्जापुर की पहाडि़य¨ं में शरण ली।9 अपने विश्वासपात्र्ा लाल खाँ के द्वारा नवाब के पास द¨ लाख उपहार स्वरूप भेजे, इसके साथ ही अपने पिछल्¨ आचरण के प्रति क्षमा याचना की तथा पूर्व निर्धारित राजस्व से द¨ लाख अ©र अधिक राजस्व प्रतिवर्ष देने का प्रस्ताव किया। नवाब ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तथा नवाब का सजावल पुनः बनारस में रहने लगा।10
अपनी स्थिति क¨ सुदृढ़ करने के लिए बलवन्त सिंह ने गंगा के बायें तट पर बनारस के द¨ मील दक्षिण में स्थित रामनगर क¨ अपने निवास के लिए चुना अ©र वहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।11 इसके अतिरिक्त 1752 ई0 में परगना भगवत के मुस्लिम जमींदार जमैयत खाँ क¨ भगाकर पतीता के किल्¨ पर, 1753 ई0 में अहर©रा के मुस्लिम जमींदार मलिक फारुख की मृत्यु के बाद अहर©रा के किल्¨ पर तथा उसके भाई मलिक एहसान पर आक्रमण करके लतीफपुर के किल्¨ पर अधिकार कर लिया।12
बनारस के राजा बलवन्त सिंह ने नवाब सफदर जंग की मृत्यु का लाभ उठाकर चुनार के किल्¨ पर अधिकार करने का प्रयास किया। इसके लिए उसने चुनार के किल्¨दार आगामीर क¨ घूस देकर अपनी अ¨र मिला भी लिया, किन्तु किल्¨ पर अधिकार ह¨ने से पूर्व ही शुजाउद्द©ला क¨ इस षडयन्त्र्ा का पता चल गया। शुजाउद्द©ला ने गाजीपुर के फजल अली खाँ क¨ बुलाया तथा बनारस व अन्य सरकार¨ं का शासन प्रबन्ध भी उसे देने का प्रस्ताव किया। इधर बलवन्त सिंह ने अपनी सहायता के लिए पटना से मराठ¨ं की सेना बुलाई। फजल अली खाँ ने बलवन्त सिंह की इन गतिविधियांेे क¨ जानने के पश्चात उसे समूल नष्ट करने के लिए नवाब से दस लाख रूपये तथा एक वर्ष के लिए दस हजार- घुड़सवार¨ं की मांग की।13 इसी समय दिल्ली पर अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण की सूचना मिली। इस परिस्थिति में मुगल साम्राज्य के वजीर ने नवाब तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तिय¨ं क¨ तत्काल सहायता हेतु आने की मार्मिक अपील की।14 अतः शुजाउद्द©ला ने बनारस के राजा से समझ©ता करना ही उचित समझा जिसके परिणामस्वरूप बलवन्त सिंह ने तत्काल पांच लाख रूपये भेंट स्वरूप नवाब क¨ दिये तथा पांच लाख रूपये अधिक राजस्व वार्षिक देना स्वीकार किया। इस पर नवाब ने राजा क¨ परगना भद¨ही क¨ भी जागीर के रूप में दिया।15 इसके पश्चात् नवाब फैजाबाद ल©टे।16
राजा बलवन्त सिंह उक्त संकट से बचने के पश्चात् पुनः अपनी विस्तारवादी नीति के क्रियान्वयन एवं अपनी शक्ति क¨ बढ़ाने में जुट गये। सर्वप्रथम राजा ने गाजीपुर के फजल अली खाँ क¨ उनकी जागीर से निष्कासित कराने में सफलता मिली तथा गाजीपुर सरकार का भू-भाग भी इजारे में प्राप्त कर लिया।17 उसने 1758-59 ई0 में सूबा बिहार में च©सा की जमींदारी व किला तथा 1759-1760 में सूबा इलाहाबाद के सरकार तरहर में स्थित परगना कन्तित पर भी अधिकार कर लिया।18
यद्यपि बलवन्त सिंह ने नवाब के प्रतिद्वन्दी मुहम्मद कुली खाँ क¨ बन्दी बनाने में सहायता की19 किन्तु द¨न¨ं के सम्बन्ध अच्छे न रहे। नवाब राजा बलवन्त सिंह क¨ बन्दी बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा। राजा भी नवाब से सदैव सतर्क रहा इसी कारण जब नवाब बनारस मुगल बादशाह से मिलने आये त¨ बलवन्त सिंह बिन्ध्य की पहाडि़य¨ं मंे चला गया।
जब नवाब बंगाल के पदच्यूत मीर कासिम को पुनः प्रतिष्ठित करना चाहते हैं अ©र मुगल सम्राट अ©र बंगाल के नवाब के साथ बनारस पहुँचे त¨ बलवन्त सिंह पुनः परिवार सहित लतीफ के किल्¨ में भाग गये। ल्¨किन बहुत प्रयास के बाद नवाब की सहायता के लिए 2000 घुड़सवार व 5000 पैदल सैनिक¨ं के साथ नवाब वजीर की सेना में सम्मिलित हुआ। किन्तु राज्य की गतिविधिय¨ं नवाब की दृष्टि में सन्देहास्पद रही। अतएव पटना पर अधिकार करने के प्रयास में असफल ह¨ने पर नवाब ने राजा बलवन्त सिंह क¨ अपनी सेना से अलग करके गाजीपुर के परगना मुहम्मदाबाद में अमला नामक ग्राम में अंग्रेज¨ं के विरूद्ध सुरक्षा म¨र्चा बनाने के लिए भेज दिया। किन्तु बक्सर के युद्ध में नवाब के पराजय का समाचार मिलते ही राजा भी रामनगर ल©ट आये इस समय तक मुगल सम्राट शाह आलम अंग्रेज¨ं की शरण आ चुका था। अतः राजा ने भी अंग्रेज¨ं का संरक्षण प्राप्त करना चाहा। उसने बिहार के नायब नाजिम राजा सिताब राय के माध्यम से मेजर मुनर¨ क¨ बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए बधाई सन्देश तथा उपहार के रूप में ग्यारह स¨ने की मुहरें भेजी थी। इलाहाबाद की संधि के पश्चात् भी नवाब, बलवन्त सिंह क¨ दण्डित करने के प्रयास में लगा रहा। किन्तु अंग्रेज¨ं के हस्तक्ष्¨प के कारण उसमें सफल न हुआ अ©र 1770 ई0 तक बलवन्त सिंह का आजीवन अपनी जमींदारी पर अधिकार बना रहा।
राजा बलवन्त सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र्ा चेत सिंह, नवाब की इच्छा के विरूद्ध, अंग्रेज¨ं के हस्तक्ष्¨प के कारण बनारस के जमींदार बने। इस परिवर्तन का लाभ नवाब क¨ केवल भेंट के रूप में कुछ धनराशि तथा जमींदारी के वार्षिक वृद्धि के रूप मंे मिला। राजा चेतसिंह का भी नवाब से अच्छा सम्बन्ध नहीं रहा। वह अपनी सुरक्षा एवं अस्तित्व के लिए अंग्रेज¨ं पर अधिक निर्भर करता था अ©र गर्वनर जनरल क¨ अधिक महत्व देता था।
सन् 1773 ई0 में जब वारेन हेस्टिंग्स एक नवाब, र¨हिल्ला, अफगान¨ं की समस्या पर वार्तालाप करने हेतु बनारस आये त¨, राजा के गर्वनर जनरल की प्राथमिकता दी तथा नवाब अपने स्वागत में राजा की अनुपस्थिति पर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ। नवाब के गर्वनर जनरल से वार्तालाप में राजा क¨ निष्कासित करने की अनुमति भी मांगी ल्¨किन गर्वनर जनरल ने इसकी अनुमति नहीं दी अपितु उससे ही राजा अ©र उसके उत्तराधिकारिय¨ं के लिए 2248443 रुपये वार्षिक राजस्व की शर्त पर जमींदारी प्रदान करने की सनद दिलवायी।27 इस प्रकार राजा चेतसिंह भी अंग्रेज¨ं के संरक्षण के कारण सुरक्षित रहा अ©र उसने नवाब-वजीर की सनद पाकर वैधानिक रूप से जमींदारी पर वंशानुगत अधिकार प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार नवाब शुजाउद्द©ला अ©र बनारस के बलवन्त सिंह व चेतसिंह का सम्बन्ध परस्पर संदेहास्पद रहा, जिसके परिणामस्वरूप अन्त में नवाब का बनारस पर से नियन्त्र्ाण समाप्त ह¨ गया।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव- अवध के प्रथम द¨ नवाब, पृ0 31-32
2. सैय्यद नजमुल रजा रिजवी-18वीं सदी के जमींदार (उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में), पृ0 21
3. वही
4. वही, पृ0 20-21
5. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव- अवध के प्रथम द¨ नवाब, पृ0 203
6. बलवन्तनामा, पृ0 21
7. सैय्यद नजमुल रजा रिजवी- अठारहवीं सदी के जमींदार, पृ0 21
8. बलवन्तनामा, पृ0 21-22
9. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव- अवध के प्रथम द¨ नवाब, पृ0 204
10. वही, पृ0 204-205
11. बलवन्तनामा, पृ0 31
12. सैयद नजमुल रजा रिजवी- अठारहवीं सदी के जमींदार, पृ0 22
13. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव- शुजाउद्द©ला, खण्ड-1, पृष्ठ 33
14. वही
15. बलवन्तनामा, पृष्ठ 38, 39, अ¨ल्ढम, भाग-1 पृष्ठ 102
16. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव- शुजाउद्द©ला, खण्ड-1 पृष्ठ 34
17. बलवन्तनामा, पृष्ठ 40-41, अ¨ल्ढम, भाग-1 पृष्ठ 102
18. वही, पृष्ठ 41-43, वही, पृष्ठ 102-103
19. वही, पृष्ठ 43-46

Thursday, July 4, 2019

 Bombay, two studies were carried out in 1823 and 1829. The first study was narrow in scope and relied on the collectors for the acquisition of data. The second study used district judges for the collection of data. According to this study, there were 1,705 schools with 35,153 pupils in the population of 4,681,735.
In Bengal, three studies about the Indian education system were conducted by William Adam Bentinck. The first report (July, 1835) was based on the review of earlier studies on Indian education. Adam referred to a Minute by a member of the General Committee of Public Instruction and inferred that there were 100,000 schools in Bengal and Behar, thus there would be a village school for every 400 people. The second report (December, 1835) contained a comprehensive survey of one thana in the district of Rajshahi. The third report (April, 1838) covered five of the nineteen districts of Bengal and Bihar.
There could be some statistical issues with the Madras and Bombay studies in terms of methodology. These studies did not include all existing schools and pupils, especially pupils under domestic guidance. In Bengal, at the time of the survey, the Indian local schools were on the decline because of the political anarchy and instability. Despite these issues, the reports gave a fair picture of Indian education. All the reports suggest that pre-British India had a comprehensive network of education and schools were available at the village leve Prendergast, who was a member of the Bombay Governor’s Council, in his Minute of 1821 admits that: “There is hardly a village, great or small, throughout our territories, in which there is not at least one school, and in large villages more, many in every town and in large cities in every division; where young natives are taught reading, writing, and arithmetic, upon a system so economical, from a handful or two of grain, or perhaps a rupee per month to the school teacher…”
How can we compare the educational facilities available in India in pre-British times with those of European countries at that time? For this we need to refer to the Fifth Educational Report of the Bombay Society: “There are probably as great a proportion of persons in India who can read, write and keep simple accounts as are to be found in European countries.”
Sir Thomas Munro, in his report on indigenous education in Madras (1821), made such comparison and concluded that “the state of education here was higher than it was in most European countries at no very distant period.” Thus, it is just a myth constructed, strengthened and popularised by the British that pre-British India was a land of illiterate people.

Glimpse of the history of Rajshahi city

The memorable elements of ancient Varendra and its traditions, which have so far been discovered, are not quite exhausted. If the excavation following modern scientific methods is conducted at Naoda, Deopara, Mandail, Vijoyn-agar, Achinghat, Agradigun, Beharail, Amair, Aranagar, Ghatnagar, Dhanora and Bandhardhibi a lot of unexplored information may be unearthed.
Rampur-Boalia, which implies the city of Rajshahi, has obviously started lagging behind as a victim to the jaundiced eye of the rulers after seceding from India. Of course, it started regaining its lost glory when the kings, zamindars and landlords of this region began building educational and cultural institutions out of their graciousness. Needless to say, this trend of advancement is still going on.
There is a long background of building the city of Rajshahi. Rajshahi at the initial stage developed including two villages, Rampur and Boalia. We get some information about the antiquity of these villages in the prominent work, Seer Al Mutakh Kharin of Sayed Golam Hussain Khan Tabtayee.
He mentions the dwellers of Murshidabad become very afraid of Marhatta attack towards the middle of 18th century. To save their life they took shelter at Rampur-Boalia across the river Ganges (the Padma) and started settling there building their dwelling houses.
These villages, Rampur and Boalia became familiar as thana and then as district. Before it was the district town, the main administrative head quarter of this vicinity was at Natore, endowed with the glorious reminiscences of Rani Bhabani. We come to know from the report of W. W. Hunter, published in 1976; rivers and canals flowing through the vicinity of Natore became silted towards the beginning of the 19th century. Water-flow in the town was hindered. Marshes, as they were filled with stagnant water, became mosquito producing places and the attack of malaria increased at a alarming rate.
Though Natore was one of the attractive trade centers, tradesmen fron the outside could not come with a view to trading because the depth of the rivers and canals flowing through the vicinity decreased to a great extent. For the reason, the administrative head quarter was shifted from Natore to Rampur-Boalia (later on familiar as Rajshahi), which was a healthy place located on the bank of the river Padma in 1825.
With the change of geographical spot, Rajshahi started developing as a complete town in a hurry. The kingsm, zamindars, landlords, usurers, teachers and scholars of Natore, Dighapatia, Puthia, Dubalhati, Balihar and so on and so forth came forward to build dozens of educational, literary and cultural and social welfare institutions and centers at their at their own effort and gracious contributions. We get a lot of social, cultural and educational organizations, institutions and centers during the period. A charitable dispensary was setup for the public welfare.
Another dispensary rendering medical facility was established in 1863. Then a native doctor was paid 72 pounds (72 Tk) yearly against his salary. The patients could get medicine and equipments free of costs from the dinpensary. Others expenses were borne from the people’s welfare fund of Prasannanath Roy, king of Dighapatia. A lot of money was spent from this fund when fever and cholera attacked the inhabitants in an epidemic form in 1871.
The town became at the same time the temporary residence of the kings and the zamindars of the district. They felt an urge of establishing educational institutions. So many educational, technical and trade institutions were established that the town later on became familiar as the city of education.
One of the main objectives of the educational institution, built first in the city of Rajshahi, was to inspire the natives in learning English. This would help spreading learning English as well as various facilities would be possible to get in the field of administration. With this end in view, a couple of Europeans and some local persons interested in education established Boalia English School at their own effort and expenditure in 1828. After some years, the school fell in distress when those European employees were transferred elsewhere and at the same time the local people were not interested to learn English any more. Yet the school was running somehow. At some stage, it received a grant of Tk 300/- from the government.
BoaliaEnglishSchool was revived when William Lord Bentink, Governor General, reformed education policy. At the advice of Governor General, Sir William Adam paid a visit to Rajshahi. After visiting some Chatushpathi (Sanskrit school) in the town, he came to visit the school and became very shock to find it in utterly miserable condition. Adam mentioned in his report, lack of good administration was responsible for this distress. Sri Kalinath Chowdhury writes about this school in the Rajshahir Sankhipta Itihas (A Short History of Rajshahi). A Zilla School was established at Boalia at June 20, 1836 and Saradaprasad Bose was appointed Headmaster of it.
There was 171 students in total in this school towards the end of the year 1837. Of them, 164 were Hindu, 5 were Christian and 2 were Muslim students. From another report we come to know, the length of the roof of that school was 54 ft and width was 20 ft. There was a veranda all around it. There were eight classes in total in the school. Lower classes were divided into sections and were imparted education to them accordingly.
It was mentioned earlier that the spreading of learning English was the target of the contemporary government. It was express also in Adam’s report vividly. He mentioned, he found three teachers working in that school, one for English, one for Bengali and the rest one was an assistant teacher.  The English teacher was paid Tk 80/- a month as his salary, the Bengali teacher and the assistant teacher received Tk 8/- and Tk 20/- respectively.
It is known from the DPI report published in the 1858 that brick built buildings were made for both government and non-government fund was provided by Prasannanath Roy, zamindar of Dighapatia and Anandanath Roy, king of Natore. Unfortunately, the Padma devoured the schools within a decade. Under the leadership of the erstwhile Magistrate of Rajshahi, all the furniture of the school shifted elsewhere. The school was re-established in the town in 1862. Kings, zamindars and benevolent personalities contributed most of the fund that time also, though the government provided a share of the fund.
In the year 1873, the school was named in RajshahiCollegiateSchool including two sections as school section and college section. The school section provided education up to entrance examination and the college section provided education up to First Arts (FA). In the college section, the number of students started increasing more than expectation.
At the initial stage the college enjoyed the status of second class in 1873. But after only five years, the college raise its status in the first class in consideration of its results and number of students in 1878. Mr FT Dawdling was appointed first Principal of the college. Besides Arts and Science in the graduate level, the college got affiliation from Kolkata University to teach the students in the post graduate level. O’Malley provided a list of donors who donated a handsome amount of money for the constructions of the college, in his book, Descriptions of Rajshahi District: When it was raised to the status of a second grade college, this was due to the generosity of Raja Hara Nath Ray Bahadur of Dubalhati, who made over to Government an estate yeilding an income of Rs 5000/- a year. In 1878 it was made a first grade college, the additional expenditure of one and half lakhs, which Raja Promadanath Ray of Dighapatia gave through Rajshahi Association. Institution was given up to the standard of the M.A Examination of the Calcutta University.
Needless to say, the role played by Rajshahi Collegiate School and Rajshahi College in this region created wide response in the field of spreading education in Bengal at that time. Nripendranathchandra, former teacher