Monday, July 8, 2019

3 जून, 1922 के 'मिथिला मिहिर' नामक मैथिलों के पत्र में एक मैथिल ने यों लिखा था -'दरभंगा संचारि कोसपूर्व, भागीरथी के ओहिपार तक दक्षिण में रहनिहार अधिकांश मैथिल लोकनित निश्‍चय कलेलन्हि जेओ लोकनि भूमिहारे थिकाह, किंवा वैह सभ मैथिल थीक। किएक तं हुनकालोकनि ओकरा सभसं साधारणतया सिद्धान्न भोजनादिक घनिष्ठ व्यवहार करहल छथि।' सारांश यह है कि दरभंगा से 4 कोस पूर्व से ले कर दक्षिण में गंगापार तक के मैथिलों और भूमिहारों में कोई भेद नहीं है, दोनों का खान-पान आदि एक ही साथ है। पर, दुर्दशा ऐसी हो रही है कि घर-घर में फूट है और विद्या से - केवल संस्कृत विद्या से ही - प्राय: सम्बन्ध छूटता जा रहा है! जो संस्कृत ब्राह्मणों की बपौती - सच्ची बपौती - थी उसे किसी ने जमींदारी और बबुआई से मदांध हो कर लात मारी तो औरों ने - पुरोहित, पुजारी और पंडों ने - शेष जनता को मूर्ख और अन्धपरम्परा का भक्‍त देख पुरोहिती, गुरुवाई के ही मद में चूर हो उसका तिरस्कार किया! जब गुरु, व्यास तथा पुरोहित कहलानेवालों ने अपनी एक अलग जाति ही बना ली और जब उनके मन में नीच स्वार्थ - केवल जैसे हो तैसे पैसा झटकने का स्वार्थ - समा गया एवं साथ-साथ विलासप्रियता तथा आलस्य भगवान से भी घनिष्ठ मित्रता हो गई, तो उन्होंने सोचा कि कौन सा उपाय करें जिससे पढ़ने-पढ़ाने के महान क्लेश से पिंड छूटे, पैसे भी पूर्ववत मिला ही करें और माल मारने का भी पूरा मौका प्राप्त हो। उन्होंने युक्‍ति ढूँढ़ निकाली कि जो लोग पुरोहिती आदि कर्मों द्वारा अपने जीवन का निर्वाह नहीं करते प्रथम वह लोग ही विद्याविमुख किए जाएँ। फिर तो कोई टोकने और जाँचनेवाला रहेगा ही नहीं! इसलिए जो चाहेंगे करेंगे। इस सिद्धांत के अनुसार प्रथम यजमानों को यह कह कर पढ़ने-पढ़ाने से अलग किया कि आपको क्या कहीं पुरोहिती करनी, आचार्य बनना, पुजारी होना या पत्र उलटना है कि आप संस्कृत विद्या के लिए माथा मारने को तैयार हैं? इस भिखमंगी विद्या को पढ़ कर आप क्या करेंगे? क्या भीख माँगनी है? इत्यादि। इस प्रकार यजमान लोग संस्कृत विद्या से और अतएव कर्मकांड से पूरे अनभिज्ञ हो गए! तो फिर क्या था, यार लोगों की बन आई और रहा-सहा पढ़ना-पढ़ाना लगभग एकबारगी छोड़कर गुरु पुरोहित भी प्राय: निरक्षर भट्टाचार्य ही बन गए! 99 नहीं तो 90 प्रति सैकड़ा ऐसे पुरोहित और गुरु मिलेंगे जिनका काम अधिक से अधिक दुर्गा, सत्यनारायण, शीघ्रबोध और मुहूर्तचिंतामणि के कुछ ही श्‍लोकों के आधार पर चलता है! बाकी से वे लोग नाता तोड़ बैठे हैं! खूबी यह है कि इन पूर्वोक्‍त तीन-चार पोथियों का भी यथार्थ ज्ञान शायद ही किसी-किसी को है। इस पर भी तुर्रा यह है कि अपने सामने किसी को कुछ समझते भी नहीं! इसीलिए यदि कोई विज्ञ पुरुष समझाना चाहे तो उसके पास इस विचार से जाना तो दूर रहा विपरीत युद्ध के लिए कमर कस लेते हैं। यदि मूर्खतावश नष्ट-भ्रष्ट प्राचीन परिपाटी का फिर से कोई सुधार शास्त्रीय रीति के अनुसार करना चाहे तो उसकी दुर्दशा होती है! मूर्ख शिरोमणि पुरोहितों और गुरुओं ने अज्ञ यजमानों और शिष्यों के कान यह कह कर भर दिए हैं कि अमुक संस्कार तथा क्रिया-कर्म बाप-दादे के समय से ऐसा ही चला आता है, क्या आप अब नया रास्ता गढ़ेंगे? फिर क्या है? सुधारकों और विज्ञों की कौन सुने? उनका उपदेश तो 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' हो जाता है - उलटे उन्हीं को उल्लू बनना पड़ता है! एक बात यह भी देखी जा रही है कि नवरात्र के दिनों में प्राय: कृषक तथा अन्यान्य गृहस्थ किसी कामना-सिद्धि या कल्याण के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करवाते हैं। इसी तरह अधिकांश स्थानों में अधिमास के समय पार्थवेश्‍वर की पूजा और बिल्वपत्र चढ़ाने की रीति है। पर तमाशा क्या होता है कि जिन पुरोहित, गुरु कहलानेवालों को दुर्गा के श्‍लोक बाँचने तक की भी योग्यता नहीं होती, उनकी शुद्धि-अशुद्धियों की तो बात ही न्यारी, वे भी दस-पंद्रह पाठों तक के संकल्प प्रतिदिन के लिए करा लेते हैं! जिन्हें कुछ बाँचने की गम है उनकी बात भी विचित्र है। चाहे जितने भी पाठ कराने के लिए यजमान खड़े हो जाएँ, वे नकार करना नहीं जानते, सभी का संकल्प करा लेंगे चाहे पाठ एक ही दो करें! इसी तरह अधिमास के पार्थवेश्‍वर पूजा संकल्प को भी समझ लेना चाहिए! चाहे दस-बीस यजमानों ने अलग एक-एक, सवा-सवा लक्ष पूजन का ही संकल्प क्यों न कराया हो, पर केवल एक ही सवा लक्ष का पूजन कर के दक्षिणा सभी के सिर पर सवार हो कर वसूल की जावेगी! इस अनर्थ का प्रधान कारण एक तो स्वार्थी तथा अपढ़ पुरोहित आदि की, चाहे किसी भी तरह से, पैसा कमाने की दुर्बुद्धि है और दूसरे यजमानों की प्रचंड मूर्खता तथा विवेक भ्रष्टता है, जिस कारण वह यह भी नहीं विचार सकते कि जिन हजरत से पूजा-पाठ का संकल्प करवा रहे हैं या उनमें उसकी पूर्ण योग्यता भी है या नहीं, और योग्यता है भी तो प्रथम से ही और यजमानों के उसी पूजा-पाठवाले संकल्पों से लदे होने के कारण उन्हें अवकाश है या नहीं। परंतु वे लोग अन्धपरम्परा के इस तरह वशीभूत हो रहे हैं कि उन्होंने चाहे जैसे हो उन पूजा-पाठों के संकल्पों को करा ही देना अपना कर्तव्य समझ रखा है! फिर चाहे पूजा-पाठ हो या नहीं, यह देखना उन्हें पसंद नहीं! यदि किसी कारणवश कभी नहीं करा सके तो वर्षों उन्हें, और नहीं तो उनके घर की मूर्खतम स्त्रियों को बराबर इसकी चिंता बनी रहती है। इस मध्य में यदि कहीं किन्हीं लड़के-बच्चों को किसी रोग ने आ घेरा तो चट कल्पना कर लेतीं और घरवालों को निश्‍चय कर देती हैं कि बस, हर साल होने वाली पूजा इस वर्ष न हुई। इसी से अमुक देवी-देवता रुष्ट हैं, जिससे यह कष्ट है! भला इस अंधेर का कहीं ठिकाना है! यदि यजमान विचार से नहीं तो और ही कारणों से, विशेष कर आर्थिक परिस्थितियों के कारण ही इस पूजा-पाठ से कभी किसी तरह पिंड भी छुड़ाना चाहें तो स्वयं कई वर्षों से लगातार पैसे ठगनेवाले पुरोहित, गुरु या व्यास महाराज ही नित्य जा-जा कर दरबार करते और गले पर सवार होते हैं कि यजमान, हर साल हमें कुछ मिल जाता था, इस वर्ष आप क्यों चुप हैं? यजमान साहब एक-दो दिन तो इधर-उधर भागते हैं, पर विचार के पक्के न होने के कारण ही अन्त में हार कर उनको कुछ करना ही पड़ता है। क्या ही लीला है! ये पूजा-पाठ सिर्फ पैसे कमाने के द्वार हो रहे हैं, यजमान चाहे चूल्हे में जावे! यदि यजमान के कल्याण की बात रहती तो फिर करनेवाले क्यों उसके गले पर सवार हो नाकों दम करते? जिसे आवश्यकता होती है वही दौड़ा करता है। यह तो नहीं देखा कि रोगी की फिक्र ही नहीं और वैद्य उसके पिंड पड़े! और यदि ऐसा कोई करता है तो उसकी कदर ही जाती रहती है। पर, यहाँ की गंगा तो उलटी बहती है। इसे ही कहते हैं पथभ्रष्टता। धन्य रे हिंदू समाज और धन्य रे पुरोहित, गुरु एवं व्यासों की करतूत!

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