जाति की संरचना को विस्तृत स्वरुप में वर्ण व्यवस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। परम्परागत सामाजिक ढ़ाचे में सर्वोच्च स्थान ब्राम्हण जातियों को प्राप्त था परन्तु ब्राह्मण जातियां भी विभिन्न उपजातियों में विभाजित थी। १८ वीं शताब्दी के पूर्व अनेक ब्राम्हण उपजातियाँ मेवाड़ में विद्यमान थी, तथापि १९ वीं शताब्दी में अनेक ब्राह्मण परिवार जीविका की खोज में अन्य राज्यों व प्रान्तों से आकर मेवाड़ में बस गये थे। इसमें बागड़ से बागड़िया, जोधपुर से जोधपुरिया, सिरोही से सिरोहिया आदि मुख्य रहे थे। इसके अतिरिक्त मेवाड़ के महाराणाओं ने भी अनेक ब्राम्हण परिवारों को उनके व्यवसायात्मक कौशल व सामाजिक धार्मिक कर्म कराने हेतु आमंत्रित कर मेवाड़ में बसाया था। गुजरात राज्य से पारख और भ मेवाड़ा ब्राम्हण, उत्तर प्रदेश से कन्नौजिया, सास्वत गौड़, श्री गौड़ आदि इनके उदाहरण हैं। ब्राह्मणों की इन उपजातियों में पारख, भट्ट, कन्नौजिया, सास्वत, गौड़, मेनारिया, पालीवाल आदि मुख्य मानी जाती थी। यह सभी उपजातियाँ मूल में ब्राम्हण जाति होते हुए भी उनके खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्ध न रखने के कारण अलग-अलग जातियाँ कहलाती थी। इन सभी ब्राम्हण जातियां में पारस्परिक खान-पान सम्बन्ध कच्चे और पक्के भोजन झ्र१ करने वाली जातियों की श्रेणी में विभक्त था। पक्का भोजन करने वाले ब्राह्मणों की श्रेणी उच्च मानी जाती थी। पक्के पाकी ब्राह्मण अन्य जातियाँ के यहाँ बना भोजन नहीं खाते थे और कच्चा भोजन करने वाले ठघन्याती ब्राह्मण' द्विज जातियों ( ब्राह्मण, राजपूत तथा वैश्य-महाजन) के यहाँ बना हुआ भोजन ग्रहण कर सकते थे। ब्राह्मण जातियों में मांस-मदिरा सेवन करने वाले जाति-भ्रष्ट माने जाते थे किन्तु इनकी संख्या नगण्य रही थी। ब्राह्मण जाति की आन्तरिक रचना अवंटक, गौत्र तथा प्रवरों में विभक्त थी। वैवाहिक सम्बन्धों के लिए जाति के अन्दर भी गौत्र एवं प्रवर का ध्यान रखा जाता था। एक ही गौत्र व प्रवर के स्री-पुरुष पारस्परिक विवाह नहीं कर सकते थे। किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों में विकृतियां आने लगी। खंडित व्यवहारों के कारण सामाजिक राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने मैं यह जाति असमर्थ रही अथवा उनकी अन्तर्नियंत्रण प्रणाली ने सामाजिक नेतृत्व में पछाड़ दिया। फिर भी समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मणों का महत्व था।
अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राम्हणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थी। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राम्हणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई। जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थीं, जिसका उपयोग ब्राम्हण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हे राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राम्हण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे। बख्शीखाना के ठनाम-बहियों ' से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट; द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल' ब्राह्मण रहे थे जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हे धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तो के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी जिन्हे मेवाड़ में ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राजज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की रही हैं। राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्रमांण बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य (कणिका-भिक्षा) करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे।
राजकीय सेवाओं में भी ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी। मेवाड़ में पाणेरी ब्राम्हण महाराजाओं के धर्मकोष, रसोड़े (पाकशाला) तथा आंगिया री ओवरी (कपड़ा विभाग) में कार्य करते थे। राज्य पत्रों को संस्कृत में लिखवाने तथा राजनीतिक कार्यों के लिए भ व नागर जाति के ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। उदाहरण के लिए महाराणा अरिसिंह के प्रधान अमरचन्द बड़वा (सना ब्राह्मण) महाराजा हमीरसिंह के अर्द्धशासन काल तक राज्य की महत्वपूर्ण सेवाओं में रहा। राज्य परिवार के सदस्यों को शिक्षा देने के लिए भी ब्राह्मण नियुक्त किये जाते है जिनको राज्य द्वारा वेतन अथवा भूमि प्रदान की जाती थी। जनाती ड्योढ़ी पर चौबिसा जाति के ड्योढ़ीदार तथा आमेरा जाति के लोग कामदार (लिपिक) का कार्य करते है। सामान्यत: सैनिक सेवा के लिए ब्राह्मणों की नियुक्ति नही की जाती थी, फिर भी अनेक कुलीन वर्ग के ब्राह्मण सेनाधिकारी के पदों पर पैतृक परम्परा के रुप में सेवा करते थे।
मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों में व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रुप में अपना रखा था।
सामान्यत: श्रीमाली ब्राम्हण दुध बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्त्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नही माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि-व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थी।
सेवक तथा काटिया नामक दो जातियाँ ब्राम्हणों में अन्य जाति की सेवा तथा अशौच भोजन करनेवाली निम्न जातियाँ मानी जाती रही थीं। सेवक जाति जो जैन मंदिरों में अपनी सेवा देते थे उन्हे कहीं कहीं भोजाक भी कहा जाता था।
१९ वीं शताब्दी में ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न व्यवसाय अपना लेने के बावजूद वे प्राचीन परम्पराओं को बनाये रखने पर जोर देते रहे। समाज में ब्राह्मणों को सम्मान प्राप्त था। राजकीय सम्मान के रुप में उन्हें महाराज, विप्रराज, गुसाई आदि सम्बोधनों से सम्बोधित किया जाता था। मेवाड़ के महाराणा ब्राम्हणों को हिन्दू-संस्कृति का संरक्षक और स्वंय को उसका पोषक मानते थे तथा सामन्त भी उन्हे पर्याप्त सम्मान देते थे। विपरांगत ब्राह्मणों को तो बाहर से आमंत्रित कर राज्य में बसाया जाता था।
१९ वीं शताब्दी के अंतिम काल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार, नये माध्यम वर्ग का अभ्युदय, प्रशासनिक नियुक्तियों की नीति में परिवर्त्तन तथा अंग्रेजी नियमों के प्रचलन के फलस्वरुप ब्राम्हणों की सामाजिक स्थिति आन्तरिक परिवर्त्तन प्रारम्भ होने लगा तथा ब्राम्हणों के नेतृत्व को चुनौती उत्पन्न हो गयी किन्तु बाह्य रुप में ब्राह्मणों का सामाजिक-धार्मिक प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं आया।
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राजपूत : कुल तथा अन्तर्जातीय विवाह व्यवस्था
सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राम्हणों के बाद समाज में राजपूतों का काफी वर्च था।
राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था :
१. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य वंश
२. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र वंश
३. वशिष्ट ॠषि द्वारा आबू यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश
इन्ही तीन वंशों में, जिससे १६ कुल सुर्यवशीय, १६ कुल चन्द्रवंशीय औप ४ अग्निवशीय थे ; सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामुहिक रुप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल १३ कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कही राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा (मेवाड़ का शासक) के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था।
विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्चोच परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह का सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनो वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।
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दासया चाकर राजपूतों का स्थान
राजपूत जाति श्रेणी में दास अथवा चाकर राजपूतों की इकाई आलोच्य कालीन समाज में एक स्थान रखती थी। राजपूतों द्वारा अन्य जाति का स्रियों को रखैल (उपपत्नी) रखने की प्रथा और निर्धन बच्चे-बच्चियों का
क्रम-विक्रम के रिवाज ने भी इस जाति के उद्भव तथा विकास में योगदान दिया। गोला राजपूतों को उच्चतर राजपूत कन्याओं के विवाह में दहेज के रुप में भेजा जाता था। इस पर राजपूत का प्रतिष्ठा निर्भर करती थी कि उसने कन्या-विवाह में कितने दास-दासी (दावड़े-दावड़ी) प्रदान किये है। इन दास-दासियों का प्रयोग शासक, जागीरदार तथा सम्पन्न राजपूत अपने प्रशासकीय, व्यवस्थापकीय तथा काम-तृप्ति के लिए करते थे। दास-दासियों के विवाह की एक औपचारिकता पुरी कर दी जाती थी जिससे स्वामी से उत्पन्न पुत्र का पिता मात्र विवाहित पति कहलाता रहे।
राजपूत लोग इस जाति का स्रियों के साथ खान-पान में छूत नही मानते थे जबकि पुरुषों के साथ खान-पान व्यवहार की स्थिति भिन्न थी। दास-राजपूतों की सामाजिक प्रतिष्ठा और स्तरीकरण शासक अथवा स्वामी से उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों की दूरी और समीपता पर निर्भर रहता था। यह सम्बन्ध ही दासों की आर्थिक स्थिति को व्यक्त करते थे। कई दास राजपूत अपनी योग्यता और स्वामीकृपा के द्वारा जावि में उपेक्षित होते हुए भी अपना सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और सम्मान रखते थे।
राजपूतों के सीमित व्यवसाय तथा उसके परिणाम सामान्यत: राजकीय सेवा अथवा सामन्ती सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना राजपूत अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। अत: प्रशासकीय कार्य और सैनिक सेवा इनके जीविकोपार्जन
का मुख्य साधन था। १८ वीं शताब्धी के पूर्वार्द्ध तक मेवाड़ी राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की अखण्डता तथा सार्वभौमिकता के लिए मुगलों तथा मराठों के दाँत खट्टे किये तथा अपने प्राणों का आहुति देकर आदर्श प्रस्तुत किये।
किन्तु १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से निरन्तर युद्धों पारस्परिक ईर्ष्या और आर्थिक विपन्नता ने राजपूतों के राजनीतिक संगठन में विघटन उप्पन्न कर दिया अपनी गौरवशाली परम्पराओं को भूलकर कुल वैमनस्य और विद्वेष के अन्धकार में डूबने लगे। अधिकांश समय वे घृणित संगति अथवा देव-दासियों की चापलूसी में नष्ट करते थे। मद्य व अफीम के अति-सेवन के परिणामस्वरुप उनमें कई दुर्गुण उत्पन्न होते गये थे। अपनी झूठी और दम्भपूर्ण प्रवृत्ति एवं जीर्ण गौरव निर्वाह हेतु वे कुछ भी करने को तैयार थे।
अंग्ल-मेवाड़ संधि के बाद राजपूतों के लिए सैनिक सेवा का व्यापक क्षेत्र संकुचित तथा सीमित हो गया। प्रशासकीय सेवाओं में अन्य जातियों का प्रभाव बढ़ जाने के कारण अब राजपूतों की स्थिति में परिवर्तन आने लगा। व्यापार-वाणिज्य तथा धन-सम्पत्ति अर्जित करने के अन्य व्यवसायों में रुचि न होने के कारण अब राजपूतों को कृषि-कार्य अपनाने पर विवश होना पड़ा। ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व अधिकांश जागीरदार राजपूत थे और उनकी भूमि पर अन्य काश्तकार खेति करते थे। लेकिन अब इन कृषिकरनी
जागीरदारों की तीन आर्थिक श्रेणियाँ हो गई थी -
१. दूसरों से खेती कराने वाले बड़े जागीरदार
२. स्वयं और दूसरों काश्तकारों के साथ खेती करने वाले मध्यम जागीरदार तथा
३. अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाले जागीरदार
महाराणा और सामन्तों ने कृषि-कार्य करने वाले राजपूतों को भूमिकर से सम्बंधित अनेक रियायतें दी। अन्य जाति के किसानों की अपेक्षा उनसे भूमि कर कम लिया जाता था तथा अन्य करों में भी छूट दी गई थी। प्रथम श्रेणी के जागीरदारों की आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्त्तन नहीं हुआ था किन्तु अन्य दो श्रेणीयों की स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी।
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अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन, पूजा-पाठ, ज्योतिष कार्य इत्यादि व्यवसाय ब्राम्हणों की परम्परागत वृत्तियाँ मानी जाती थी। शिक्षा का काम करने वाले ब्राह्मणों को सामान्यत: राज्य से वेतन अथवा भूमि दी जाती थी। अधिकांश ब्राम्हणों की अजीविका का मुख्य साधन मंदिरों में देवार्चन व पूजा-पाठ का परम्परागत व्यवसाय था। अधिकांश मंदिरों के साथ, राज्य अथवा सामन्तों द्वारा प्रदान की गई। जागीर अथवा भूमि जुड़ी हुई थीं, जिसका उपयोग ब्राम्हण पुजारी करते थे। इसके अतिरिक्त उन्हे राज्य तथा जनता से नकद चढ़ावा भी मिलता रहता था। वेदाभ्यासी व शास्रपाठी ब्राह्मण सम्पूर्ण राज्य में गिने-चुने रहे थे। ज्यादातर ब्राम्हण निरक्षर श्रेणी में थे और व्यवहारों व नियमों में रुढिवादी थे। समाज के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों का सम्पादन कराने के लिए प्रत्येक जाति और कुटुम्ब के पुरोहित हुआ करते थे। बख्शीखाना के ठनाम-बहियों ' से ज्ञात होता है कि ये पुरोहित लोग अपने यजमानों से भेंट; द्रव्य तथा वार्षिक यजमानी प्राप्त करते थे। राज्य अथवा राज्य के सभी ठिकानों के पुरोहित ठबड़ा पालीवाल' ब्राह्मण रहे थे जिन्हें राज्य अथवा ठिकाने की ओर से भूमि का अनुदान मिलता रहता था। महाराणा के पुरोहित राज्य में बड़े पुरोहित कहलाते थे, जिन्हे धार्मिक स्तर पर उच्च एवं प्रथम श्रेणी के सामन्तो के समान प्रतिष्ठा प्राप्त थी। ब्राह्मणों की एक अन्य श्रेणी मृतक संस्कार और क्रिया-कर्म करवाती थी जिन्हे मेवाड़ में ठकर्मान्त्री ब्राह्मण' कहा जाता था। कर्मान्त्री ब्राह्मण, पुरोहितों की श्रेणी से निम्न माने जाते थे। औदिच्य, भट्ट, आमेटा आदि ब्राह्मण ज्योतिष और कथा-वाचक का कार्य करते थे। राज्य द्वारा इस कार्य के लिए द्रव्य और भूमि के साथ-साथ राजज्योतिष, कथा-भट्ट, कथा-व्यास आदि का सम्मान भी दिया जाता था। इसके पश्चात् तृतीय श्रेणी पुजारी और पंचागपाठी ब्राह्मणों की रही हैं। राज्य के प्रत्येक मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता था। पंचागपाठी ब्राह्मण ग्रमांण बस्तियों व शहरों में बस्ती-कार्य (कणिका-भिक्षा) करते थे। आचार्य लोग वैद्यक का कार्य करते थे।
राजकीय सेवाओं में भी ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी। मेवाड़ में पाणेरी ब्राम्हण महाराजाओं के धर्मकोष, रसोड़े (पाकशाला) तथा आंगिया री ओवरी (कपड़ा विभाग) में कार्य करते थे। राज्य पत्रों को संस्कृत में लिखवाने तथा राजनीतिक कार्यों के लिए भ व नागर जाति के ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। उदाहरण के लिए महाराणा अरिसिंह के प्रधान अमरचन्द बड़वा (सना ब्राह्मण) महाराजा हमीरसिंह के अर्द्धशासन काल तक राज्य की महत्वपूर्ण सेवाओं में रहा। राज्य परिवार के सदस्यों को शिक्षा देने के लिए भी ब्राह्मण नियुक्त किये जाते है जिनको राज्य द्वारा वेतन अथवा भूमि प्रदान की जाती थी। जनाती ड्योढ़ी पर चौबिसा जाति के ड्योढ़ीदार तथा आमेरा जाति के लोग कामदार (लिपिक) का कार्य करते है। सामान्यत: सैनिक सेवा के लिए ब्राह्मणों की नियुक्ति नही की जाती थी, फिर भी अनेक कुलीन वर्ग के ब्राह्मण सेनाधिकारी के पदों पर पैतृक परम्परा के रुप में सेवा करते थे।
मेवाड़ के कुछ ब्राह्मणों में व्यापार-वाणिज्य को पैतृक व्यवसाय के रुप में अपना रखा था।
सामान्यत: श्रीमाली ब्राम्हण दुध बेचने तथा हलवाई का धन्धा करते थे तथा पारख व नागर ब्राह्मण हीरे-जवाहरात परखने व गोटा किनारी बेचने का काम करते थे। भीलवाड़ा के खण्डेलवाल ब्राह्मण व उदयपुर में नागर, पारख व श्रीमालियों के अनेक परिवार अभी भी अपना पैतृक कार्य करते थे। किन्तु वर्त्तमान शताब्दी के प्रथम दो-तीन दशकों तक ब्राह्मणों द्वारा व्यापार-वाणिज्य का कार्य उत्तम नही माना जाता था। ग्रामीण ब्राह्मण कृषि-व्यवसाय को भी अपना चुके थे। धार्मिक और राज्य सेवा के बदले भूमि दी जाती थी, उस भूमि को प्राप्त कर कालान्तर में ये ब्राह्मण लघु कृषक बन जाते थे। कृषि करने वाले ब्राह्मणों को भूमि-कर के मामले में सुविधाएँ प्रदान की जाती थी।
सेवक तथा काटिया नामक दो जातियाँ ब्राम्हणों में अन्य जाति की सेवा तथा अशौच भोजन करनेवाली निम्न जातियाँ मानी जाती रही थीं। सेवक जाति जो जैन मंदिरों में अपनी सेवा देते थे उन्हे कहीं कहीं भोजाक भी कहा जाता था।
१९ वीं शताब्दी में ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न व्यवसाय अपना लेने के बावजूद वे प्राचीन परम्पराओं को बनाये रखने पर जोर देते रहे। समाज में ब्राह्मणों को सम्मान प्राप्त था। राजकीय सम्मान के रुप में उन्हें महाराज, विप्रराज, गुसाई आदि सम्बोधनों से सम्बोधित किया जाता था। मेवाड़ के महाराणा ब्राम्हणों को हिन्दू-संस्कृति का संरक्षक और स्वंय को उसका पोषक मानते थे तथा सामन्त भी उन्हे पर्याप्त सम्मान देते थे। विपरांगत ब्राह्मणों को तो बाहर से आमंत्रित कर राज्य में बसाया जाता था।
१९ वीं शताब्दी के अंतिम काल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार, नये माध्यम वर्ग का अभ्युदय, प्रशासनिक नियुक्तियों की नीति में परिवर्त्तन तथा अंग्रेजी नियमों के प्रचलन के फलस्वरुप ब्राम्हणों की सामाजिक स्थिति आन्तरिक परिवर्त्तन प्रारम्भ होने लगा तथा ब्राम्हणों के नेतृत्व को चुनौती उत्पन्न हो गयी किन्तु बाह्य रुप में ब्राह्मणों का सामाजिक-धार्मिक प्रतिष्ठा में कोई अन्तर नहीं आया।
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राजपूत : कुल तथा अन्तर्जातीय विवाह व्यवस्था
सामन्ती व्यवस्था पर आधारित समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान था। राज परिवार तथा शासक जाति से सम्बंधित होने के कारण ब्राम्हणों के बाद समाज में राजपूतों का काफी वर्च था।
राजपूत अपने को तीन वंश में से किसी एक से सम्बंधित करता था :
१. अयोध्या के राजा राम से उत्पन्न सूर्य वंश
२. द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण से उत्पन्न चन्द्र वंश
३. वशिष्ट ॠषि द्वारा आबू यज्ञ से उत्पन्न अग्निवंश
इन्ही तीन वंशों में, जिससे १६ कुल सुर्यवशीय, १६ कुल चन्द्रवंशीय औप ४ अग्निवशीय थे ; सम्पूर्ण जाति वर्गीकृत थी। सामुहिक रुप से ये छत्तीस-कुल कहलाते थे। लेकिन मेवाड़ में केवल १३ कुल ही विद्यमान थे। यह कुल व्यवस्था पुन: खापों और खापों से पैतृक जागीर के मुखिया के नाम पर उप-खापों में विभाजित थी। मेवाड़ के महाराणा के सिसोदिया कुल सदस्य होने के कारण राजपूत जातियों में सिसोदिया कुल का विशेष महत्व था। यदि कही राजपूत-जातीयता का संशय उत्पन्न हो जाता तो राणा (मेवाड़ का शासक) के निर्णय को अंतिम मान लिया जाता था। राज्य के शेष राजपूत कुलों की प्रतिष्ठा का स्तर उनकी जागीरों तथा महाराणा द्वारा दिये जाने वाले सम्मान द्वारा निर्धारित होता था।
विवाह सम्बन्ध की दृष्टि से उच्चोच परम्परा विद्यमान थी। एक ही वंश के राजपूत-कुल परम्पर विवाह का सकते थे। अग्निवंशीय राजपूत का पुत्र सूर्य और चन्द्र की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था जबकि सूर्य वंशीय राजपूत पुत्र के लिए अन्य दोनो वंश से सम्बन्ध हो सकते थे। खान-पान व्यवहार में वंश भेद व्याप्त नहीं था।
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दासया चाकर राजपूतों का स्थान
राजपूत जाति श्रेणी में दास अथवा चाकर राजपूतों की इकाई आलोच्य कालीन समाज में एक स्थान रखती थी। राजपूतों द्वारा अन्य जाति का स्रियों को रखैल (उपपत्नी) रखने की प्रथा और निर्धन बच्चे-बच्चियों का
क्रम-विक्रम के रिवाज ने भी इस जाति के उद्भव तथा विकास में योगदान दिया। गोला राजपूतों को उच्चतर राजपूत कन्याओं के विवाह में दहेज के रुप में भेजा जाता था। इस पर राजपूत का प्रतिष्ठा निर्भर करती थी कि उसने कन्या-विवाह में कितने दास-दासी (दावड़े-दावड़ी) प्रदान किये है। इन दास-दासियों का प्रयोग शासक, जागीरदार तथा सम्पन्न राजपूत अपने प्रशासकीय, व्यवस्थापकीय तथा काम-तृप्ति के लिए करते थे। दास-दासियों के विवाह की एक औपचारिकता पुरी कर दी जाती थी जिससे स्वामी से उत्पन्न पुत्र का पिता मात्र विवाहित पति कहलाता रहे।
राजपूत लोग इस जाति का स्रियों के साथ खान-पान में छूत नही मानते थे जबकि पुरुषों के साथ खान-पान व्यवहार की स्थिति भिन्न थी। दास-राजपूतों की सामाजिक प्रतिष्ठा और स्तरीकरण शासक अथवा स्वामी से उसके व्यक्तिगत सम्बन्धों की दूरी और समीपता पर निर्भर रहता था। यह सम्बन्ध ही दासों की आर्थिक स्थिति को व्यक्त करते थे। कई दास राजपूत अपनी योग्यता और स्वामीकृपा के द्वारा जावि में उपेक्षित होते हुए भी अपना सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और सम्मान रखते थे।
राजपूतों के सीमित व्यवसाय तथा उसके परिणाम सामान्यत: राजकीय सेवा अथवा सामन्ती सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यवसाय को अपनाना राजपूत अपने कुल की प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे। अत: प्रशासकीय कार्य और सैनिक सेवा इनके जीविकोपार्जन
का मुख्य साधन था। १८ वीं शताब्धी के पूर्वार्द्ध तक मेवाड़ी राजपूतों ने अपनी मातृभूमि की अखण्डता तथा सार्वभौमिकता के लिए मुगलों तथा मराठों के दाँत खट्टे किये तथा अपने प्राणों का आहुति देकर आदर्श प्रस्तुत किये।
किन्तु १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से निरन्तर युद्धों पारस्परिक ईर्ष्या और आर्थिक विपन्नता ने राजपूतों के राजनीतिक संगठन में विघटन उप्पन्न कर दिया अपनी गौरवशाली परम्पराओं को भूलकर कुल वैमनस्य और विद्वेष के अन्धकार में डूबने लगे। अधिकांश समय वे घृणित संगति अथवा देव-दासियों की चापलूसी में नष्ट करते थे। मद्य व अफीम के अति-सेवन के परिणामस्वरुप उनमें कई दुर्गुण उत्पन्न होते गये थे। अपनी झूठी और दम्भपूर्ण प्रवृत्ति एवं जीर्ण गौरव निर्वाह हेतु वे कुछ भी करने को तैयार थे।
अंग्ल-मेवाड़ संधि के बाद राजपूतों के लिए सैनिक सेवा का व्यापक क्षेत्र संकुचित तथा सीमित हो गया। प्रशासकीय सेवाओं में अन्य जातियों का प्रभाव बढ़ जाने के कारण अब राजपूतों की स्थिति में परिवर्तन आने लगा। व्यापार-वाणिज्य तथा धन-सम्पत्ति अर्जित करने के अन्य व्यवसायों में रुचि न होने के कारण अब राजपूतों को कृषि-कार्य अपनाने पर विवश होना पड़ा। ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व अधिकांश जागीरदार राजपूत थे और उनकी भूमि पर अन्य काश्तकार खेति करते थे। लेकिन अब इन कृषिकरनी
जागीरदारों की तीन आर्थिक श्रेणियाँ हो गई थी -
१. दूसरों से खेती कराने वाले बड़े जागीरदार
२. स्वयं और दूसरों काश्तकारों के साथ खेती करने वाले मध्यम जागीरदार तथा
३. अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाले जागीरदार
महाराणा और सामन्तों ने कृषि-कार्य करने वाले राजपूतों को भूमिकर से सम्बंधित अनेक रियायतें दी। अन्य जाति के किसानों की अपेक्षा उनसे भूमि कर कम लिया जाता था तथा अन्य करों में भी छूट दी गई थी। प्रथम श्रेणी के जागीरदारों की आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्त्तन नहीं हुआ था किन्तु अन्य दो श्रेणीयों की स्थिति पहले जैसी नहीं रह गयी।
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