Monday, August 27, 2018

भूमिहार ब्राह्मणों का एक शक्तिशाली वर्ग है जो अयाचक ब्राम्हण में आता है। ब्राह्मणों का अभिन्न अंग भूमिहार -- आइये तथ्यों को देखते हैं कि वैदिक साहित्य, ऐतिहासिक साहित्य और लोक कथाएं क्या कहती हैं कैसे ब्राम्हण हैं ये; 1 – वैदिक साहित्य में भूमिहार या अयाचक ब्राम्हण -- ब्राह्मणों के कर्म विभाजन से मुख्यतः दो शाखाएं अस्तित्व में आयीं – प्रथम -- पौरोहित्यकर्मी या कर्मकांडी याचक द्वितीय -- अध्येता और यजमान अयाचक आसान शब्दो मे -- दान लेने वाला याचक और दान देने वाल अयाचक । अयाचक का कर्म -- मनुस्मृति के अनुसार - सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्र विदर्हति॥100॥ अर्थात - सैन्य और राज्य-संचालन, न्याय, नेतृत्व, सब लोगों पर आधिपत्य, वेद एवं शास्त्रादि का समुचित ज्ञान ब्राह्मण के पास ही हो सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष को।'' स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि : ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथा वच्चरितः व्रत:। क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथंचन॥ 13॥ अर्थात् - ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुरामजी के पास, "मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ," ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।'' इस तरह ब्रह्मास्त्र की विद्या अगर ब्राह्मण ही जान सकता है तो युद्ध-कार्य भी ब्राह्मणों का ही कार्य हुआ। अयाचक ब्राम्हण जो शस्त्र शिक्षा देते थे और राज्य कर्म करते थे वो अयाचक ब्राम्हण में आते थे।। एक अन्य उदाहरण -- महाभारत में अर्जुन ने युधिष्ठिर से शान्तिपर्व में कहा है कि: ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:। प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥अ.॥22॥ ''हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?' कुछ अन्य उदाहरण जिससे ये सिद्ध होता है कि कुछ क्षत्रिय से ब्राम्हण भी बने, कुछ अयाचक से याचक ब्राम्हण बने तो कुछ याचक से अयाचक -- 1- वाल्मीकिरामायण के के अयोध्या कांड बत्तीसवें सर्ग के २९-४३वें श्लोक में गर्ग गोत्रीय त्रिजट नामक ब्राह्मण की कथा से अयाचक से याचक बनने का सटीक उदाहरण मिलता है:- तत्रासीत् पिंगलो गार्ग्यः त्रिजटो नाम वै। द्विज; क्षतवृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली॥29॥ इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना आदि स्थितिजन्य गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं 2 - क्षत्रिय जो भार्गव वंश में सिम्मलित हुआ वह राजा दिवोदास का पुत्र मित्रायु था। मित्रायु के बंशज मैत्रेय कहलाये और उनसे मैत्रेय गण का प्रवर्तन हुआ। भार्गवों का तीसरा क्षत्रिय मूल का गण वैतहव्य अथवा यास्क कहलाता था। यास्क के द्वारा ही भार्गव वंश अलंकृत हुआ। इन्होंने निरूक्त नामक ग्रन्थ की रचना की। परशुराम के शत्रु सहस्रबाहु के प्रपौत्र का नाम वीतहव्य था। उसका कोई वंशज पुरोहित बनकर भार्गवों में सिम्मलित हो गया और उसके वंशज वैतहव्य अथवा यास्क कहलाने लगे। निष्कर्ष -- ब्राह्मणों के कर्म निर्धारण -- अध्यापनमध्यायनं च याजनं यजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्र जन्मन:॥10।75॥ मनुस्मृति के इस श्लोक के अनुसार ब्राह्मणों के छह कर्म हैं साधारण सी भाषा में कहें तो अध्ययन-अध्यापन (पढ़ना-पढाना), यज्ञ करना-कराना, और दान देना-लेना , इन कार्यों को दो भागों में बांटा गया है। धार्मिक कार्य और जीविका के कार्य अध्ययन, यज्ञ करना और दान देना धार्मिक कार्य हैं तथा अध्यापन, यज्ञ कराना (पौरोहित्य) एवं दान लेना ये तीन जीविका के कार्य हैं ब्राह्मणों के कार्य के साथ ही इनके दो विभाग बन गए एक ने ब्राह्मणों के शुद्ध धार्मिक कर्म (अध्ययन, यज्ञ और दान देना) अपनाये और दूसरे ने जीविका सम्बन्धी (अध्यापन, पौरोहित्य तथा दान लेना) कार्य जिस तरह यज्ञ के साथ दान देना अंतर्निहित है वैसे ही पौरोहित्य अर्थात यज्ञ करवाने के साथ दान लेना साधारण सामान्य भाषा में -- अयाचक ब्राह्मण:– जिन्होंने पुरोहिताई को अपनी आजीविका का साधन नहीं बनाया, जिनकी अजीविका का साधन कृषि, जमींदारी, राज पाट आदि थे। परंतु दोनों ही प्रकार के ब्राह्मणों में आजीविका छोड़ कर अन्य सभी बातों में समानता थी। साधना, स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन तपश्चर्या आदि। 

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