सामान्यत: आठ ऋषियों के नाम पर मूल आठ गौत्र ऋषि माने जाते हैं, जिनके वंश के पुरुषों के नाम पर अन्य गौत्र बनाए गए। ‘महाभारत” के शांतिपर्व (297/17-18) में मूल चार गौत्र बताए गए हैं- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु, जबकि जैन ग्रंथों में 7 गौत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ। इनमें हर एक के अलग-अलग भेद बताए गए हैं- जैसे कौशिक-कौशिक कात्यायन, दर्भ कात्यायन, वल्कलिन, पाक्षिण, लोधाक्ष, लोहितायन (दिव्यावदन-331-12,14) विवाह निश्चित करते समय गौत्र के साथ-साथ प्रवर का भी ख्याल रखना जरूरी है। प्रवर भी प्राचीन ऋषियों के नाम है तथापि अंतर यह है कि गौत्र का संबंध रक्त से है, जबकि प्रवर से आध्यात्मिक संबंध है। प्रवर की गणना गौत्रों के अंतर्गत की जाने से जाति से संगौत्र बहिर्विवाहकी धारणा प्रवरों के लिए भी लागू होने लगी। वर-वधू का एक वर्ण होते हुए भी उनके भिन्न-भिन्न गौत्र और प्रवर होना आवश्यक है (मनुस्मृति- 3/5)। मत्स्यपुराण (4/2) में ब्राह्मण के साथ संगौत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है। गौतमधर्म सूत्र (4/2) में भी असमान प्रवर विवाह का निर्देश दिया गया है। (असमान प्रवरैर्विगत) आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्” (समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए)। गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है । 1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है । 2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है । 3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है । 4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है । 5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है । गोत्रों की उत्पत्ति- एक समय और एक स्थान पर गोत्रों की उत्पत्ति नहीं हुई है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में धार्मिक ग्रन्थों एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा । धार्मिक आधार- महाभारत के शान्तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्यप, वशिष्ठ तथा भृगु । बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे । उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था । एक क्षत्रिय या वैश्य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्चारण करता था । अत: सभी स्वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए । शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्परागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई । समाजशास्त्रिय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति के निम्न आधार बताए हैं- 1. परिवार के मूल निवास स्थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ । 2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने । 3. परिवार के इष्ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए । 4. कबिलों के महत्वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने । समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्त बताए गए गोत्रों की उत्पत्ति के आधार बहुत ही महत्वपूर्ण है । सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति उपरोक्त आधारों पर ही हुई है ।
Saturday, August 4, 2018
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