अथकाश्यपमाख्यास्ये गोत्रां तु मुनिसम्मतम्।
पूर्ववंशावलि दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रायम्॥ 1॥
मदारादिपुराख्यस्य भुइहाराद्विजास्तु ये।
तेभ्यश्चयवनेन्द्रैश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥ इत्यादि।
अर्थात् ''कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की पूर्व रचित 360 वंशावलियों को देखकर उनके अनुसार ही काश्यप गोत्र का विवरण लिखते हैं। मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों और मुसलमानों से युद्ध हुआ'', इत्यादि। एक-दो नहीं, किन्तु 360 वंशावलियाँ यदि इस बात को स्वीकार करती हैं कि वर्तमान कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के काश्यप गोत्र से जो दूबे, तिवारी, अवस्थी, दीक्षित, अग्निहोत्री और मिश्र प्रभृति उपाधियों (आस्पदों या पदवियों) वाले ब्राह्मण हैं, वे सभी भूमिहार ब्राह्मणों की सन्तान हैं, तो फिर यही सिद्ध हो गया कि सम्पूर्ण कान्यकुब्जवंश ही इस बात को स्पष्ट रूप से मानता हैं कि ये जमींदार या भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण ही क्या बल्कि बहुत से कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पूर्वज हैं। यह बात जिस कान्यकुब्ज वंशावली को आप देखेंगे उसी में काश्यप गोत्र के निरूपण में पायेंगे।
भारतमित्रा के सम्पादक पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी प्रभृति की सम्मति दिखला ही चुके हैं, जिन्होंने स्पष्ट ही लिख दिया हैं कि भूमिहारों के ब्राह्मण होने में सन्देह नहीं किया जा सकता। और इस बात को उन्होंने खूब ही सिद्ध किया हैं, जो दिखला ही चुके हैं। इससे निर्विवाद सिद्ध हो गया कि जैसे सम्पूर्ण मैथिल समाज इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को खुले रूप से मानता हैं, वैसे ही कान्यकुब्ज और सर्यूपारी समाज भी। सो भी एक प्रकार से नहीं किन्तु हर प्रकार से। और इतने ही ब्राह्मणों के साथ ही इनका घनिष्ठ सम्बन्ध भी हैं, क्योंकि इस देश में ये ब्राह्मण ही पाये जाते हैं। इसके सिवाय बंगाली ब्राह्मणों की सम्मति के बारे में भी हम यह कहते हैं कि वारेन्द्र या राढ़ीय श्रेणी के ब्राह्मण दुर्गादास लहेरी महाशय ने जो पुस्तक 'पृथ्वीवीर इतिहास' नामक वंगभाषा में लिखी और श्री धीरेन्द्रनाथ लहेरी ने हावड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित की हैं, उसके द्वितीय खण्ड के अध्याय 22 के 347वें पृष्ठ में जो कुछ लिखा हैं वह इस प्रकार हैं :
काशी में सर्यूपारी ब्राह्मण सभा की तरफ से स्थापित पाठशाला के अध्यक्ष, भदैनी निवासी पं. विजयानन्द त्रिपाठी ने जो पंक्तिपावन परिचय नामक सर्यूपारियों का इतिहास लिखा हैं, उसके अन्त में जब काशी के प्रसिद्ध सर्यूपारियों के नाम गिनायेहैं, तो सबसे प्रथम महाराजाधिराज द्विजराज श्रीमत्प्रभुनारायणसिंह काशी नरेश को लिखा हैं। उसके बाद स्वामी मनीषानन्द (हरिनाथ शास्त्री), श्री सुधाकर द्विवेदी, पं. विन्धयेश्वरी प्रसाद द्विवेदी, पं. चन्द्रभूषण चतुर्वेदी, श्री शिवकुमार शास्त्री, पं. नकछेदरामजी,
पं. रामभवनजी, पं. कुबेरपतिजी प्रभृति को उसी श्रेणी में गिनाया हैं
उसी पुस्तक के 28वें पृष्ठ में भी आपने लिखा हैं कि ''मुझे यह दिखलाना हैं कि काशी में सर्यूपारियों का दृढ़ निवास कब से हुआ। काशी का राजा जिसका नाम नहीं जानते, कदाचित् जयचन्द के समय में हुआ हो, गोहरण के क्रोधा से एक मुसलमान को प्रतिदिन मारता था। स्वप्न में एक तपस्वी ने उसके इस कार्य की निन्दा की और उसके राज्यनाश की भविष्यवाणी कही। उसने यज्ञ किया और चारों दिशाओं से ब्राह्मणों को बुलाया। उनमें से एक श्रीकृष्ण मिश्र सर्यूपारी थे। उनको धोखे से पान में लपेटकर एक ग्राम का दान पत्र दिया। वे ही श्रीकृष्णमिश्रजी महाराज बरिवण्ड सिंह के पूर्वज थे।'' इन बरिवण्ड सिंहजी का ही नाम बलवन्त सिंह भी था, जो वर्तमान काशिराज के पूर्वज थे।
पूर्ववंशावलि दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रायम्॥ 1॥
मदारादिपुराख्यस्य भुइहाराद्विजास्तु ये।
तेभ्यश्चयवनेन्द्रैश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥ इत्यादि।
अर्थात् ''कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की पूर्व रचित 360 वंशावलियों को देखकर उनके अनुसार ही काश्यप गोत्र का विवरण लिखते हैं। मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों और मुसलमानों से युद्ध हुआ'', इत्यादि। एक-दो नहीं, किन्तु 360 वंशावलियाँ यदि इस बात को स्वीकार करती हैं कि वर्तमान कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के काश्यप गोत्र से जो दूबे, तिवारी, अवस्थी, दीक्षित, अग्निहोत्री और मिश्र प्रभृति उपाधियों (आस्पदों या पदवियों) वाले ब्राह्मण हैं, वे सभी भूमिहार ब्राह्मणों की सन्तान हैं, तो फिर यही सिद्ध हो गया कि सम्पूर्ण कान्यकुब्जवंश ही इस बात को स्पष्ट रूप से मानता हैं कि ये जमींदार या भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण ही क्या बल्कि बहुत से कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पूर्वज हैं। यह बात जिस कान्यकुब्ज वंशावली को आप देखेंगे उसी में काश्यप गोत्र के निरूपण में पायेंगे।
भारतमित्रा के सम्पादक पं. अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी प्रभृति की सम्मति दिखला ही चुके हैं, जिन्होंने स्पष्ट ही लिख दिया हैं कि भूमिहारों के ब्राह्मण होने में सन्देह नहीं किया जा सकता। और इस बात को उन्होंने खूब ही सिद्ध किया हैं, जो दिखला ही चुके हैं। इससे निर्विवाद सिद्ध हो गया कि जैसे सम्पूर्ण मैथिल समाज इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को खुले रूप से मानता हैं, वैसे ही कान्यकुब्ज और सर्यूपारी समाज भी। सो भी एक प्रकार से नहीं किन्तु हर प्रकार से। और इतने ही ब्राह्मणों के साथ ही इनका घनिष्ठ सम्बन्ध भी हैं, क्योंकि इस देश में ये ब्राह्मण ही पाये जाते हैं। इसके सिवाय बंगाली ब्राह्मणों की सम्मति के बारे में भी हम यह कहते हैं कि वारेन्द्र या राढ़ीय श्रेणी के ब्राह्मण दुर्गादास लहेरी महाशय ने जो पुस्तक 'पृथ्वीवीर इतिहास' नामक वंगभाषा में लिखी और श्री धीरेन्द्रनाथ लहेरी ने हावड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित की हैं, उसके द्वितीय खण्ड के अध्याय 22 के 347वें पृष्ठ में जो कुछ लिखा हैं वह इस प्रकार हैं :
काशी में सर्यूपारी ब्राह्मण सभा की तरफ से स्थापित पाठशाला के अध्यक्ष, भदैनी निवासी पं. विजयानन्द त्रिपाठी ने जो पंक्तिपावन परिचय नामक सर्यूपारियों का इतिहास लिखा हैं, उसके अन्त में जब काशी के प्रसिद्ध सर्यूपारियों के नाम गिनायेहैं, तो सबसे प्रथम महाराजाधिराज द्विजराज श्रीमत्प्रभुनारायणसिंह काशी नरेश को लिखा हैं। उसके बाद स्वामी मनीषानन्द (हरिनाथ शास्त्री), श्री सुधाकर द्विवेदी, पं. विन्धयेश्वरी प्रसाद द्विवेदी, पं. चन्द्रभूषण चतुर्वेदी, श्री शिवकुमार शास्त्री, पं. नकछेदरामजी,
पं. रामभवनजी, पं. कुबेरपतिजी प्रभृति को उसी श्रेणी में गिनाया हैं
उसी पुस्तक के 28वें पृष्ठ में भी आपने लिखा हैं कि ''मुझे यह दिखलाना हैं कि काशी में सर्यूपारियों का दृढ़ निवास कब से हुआ। काशी का राजा जिसका नाम नहीं जानते, कदाचित् जयचन्द के समय में हुआ हो, गोहरण के क्रोधा से एक मुसलमान को प्रतिदिन मारता था। स्वप्न में एक तपस्वी ने उसके इस कार्य की निन्दा की और उसके राज्यनाश की भविष्यवाणी कही। उसने यज्ञ किया और चारों दिशाओं से ब्राह्मणों को बुलाया। उनमें से एक श्रीकृष्ण मिश्र सर्यूपारी थे। उनको धोखे से पान में लपेटकर एक ग्राम का दान पत्र दिया। वे ही श्रीकृष्णमिश्रजी महाराज बरिवण्ड सिंह के पूर्वज थे।'' इन बरिवण्ड सिंहजी का ही नाम बलवन्त सिंह भी था, जो वर्तमान काशिराज के पूर्वज थे।
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