Tuesday, September 11, 2018

भारतीय इतिहास के किसी अन्य पक्षों ने इतना विवाद पैदा नहीं किया होगा जितना भारत में सामाजिक संबंधों के इतिहास ने पैदा किया है। पश्चिम के भारतविद्वान और पश्चिम से प्रभावित हमारे देश के विद्वानों को जाति विभेद, छुआछूत, धार्मिक रूढ़िवादिता, दहेज और सती प्रथा के इन पिछड़ेपन के विशेष साक्ष्यों ने बुरी तरह से जकड़ लिया है। अनेक भारतविदों के लिए ये सामाजिक बुराईयां भारत को परिभाषित करने में उनकी रचनाओं में खास केंद्रबिंदू बनीं।

औपनिवेशिक युग में इसने ब्रिटिशों और उनके यूरोपियन अन्य सहयोगियों की सेवा की। सामाजिक विभाजन और असमानतायें उपनिवेशिकों के शस्त्रागार के सुविधाजनक औजार थे। एक ओर एक समुदाय को दूसरे के विरूद्ध उकसाके अनेक लाभ पाये जा सकते हैं तो दूसरी ओर, यह प्रभाव डालने के लिए मनोवैज्ञानिक हथियार थे कि भारत एक ऐसा भूभाग था जहां विशालरूप से घिन्नौने सामाजिक रिवाज थे और कि प्रबुद्ध विदेशी ही उनका निराकरण करने में सक्षम थे। भारत की सामाजिक बुराईयां घृणात्मक व्यंग के साथ सोची विचारी जाती थीं और बहुदा एक गहरी शर्म और निकृष्टता की भावना पैदा करती थी।

इस प्रकार की उपनिवेशिक धारणा के कठोर तत्व पश्चिम के भारतीय शास्त्रा के परिदृश्य को शासित करते रहे। उदार, गतिशील और सार्वभौम मानवीय मूल्यों को गले लगाने वाले पश्चिम को कठोर, अपरिवर्तनशील, घृणित मान्यताओं और मूल्यों वाले पूर्व के विरोध में प्रस्तुत किया गया।

यह थोड़ा आश्चर्यजनक है इसलिए कि भारत के विज्ञान, ऐतिहासिक गतिविज्ञान और संदर्भ, जिन्होंने इन सामाजिक रिवाजों को पैदा किया, को समझने में और उनसे मुक्ति के उपचार पाने में अयोग्य रहे। बहुत से इतिहासकार और समाजशास्त्राी मौन रहकर यह स्वीकार करते प्रतीत होते हैं कि समाज का जातिभेद भारत का अद्वितीय लक्षण है और मनुस्मृति लिखे जाने के जमाने से भारतीय समाज बड़े रूप से अपरिवर्तित रहा जिसने इन सामाजिक असमानताओं को अपनी स्वीकृति प्रदान की।

परंतु जातीय विभाजन न तो अद्वितीय रूप से भारतीय है और जैसा कि विश्वास किया जाता है न ही भारतीय समाज सामाजिकरूप से गतिहीन ही था। सभी गैर समानतावादी समाजों में जिनमें सम्पत्ति और राजनैतिक शक्ति का असमान वितरण होता है, किसी न किसी रूप में असमानतायें पैदा होती रहीं हैं और उनका अर्थ उच्च कुलों को प्रायः वंशानुगत एवं वैधानिक लाभ या समाज समर्थित भेदभाव धर्मतंत्रा में निचले स्तर के लोगों के खिलाफ प्राप्त हो जाता है।

जातिवादी विभाजन वास्तव में, अधिकांश देशों के इतिहास में पाया जाता है, चाहे अमेरिका महाद्वीप या अफ्रीका, यूरोप या एशिया की किसी भी जगह में। कुछ समाजों में जाति विभाजन अपेक्षाकृत सरल थे, और कुछ में अत्यंत जटिल थे। उदाहरण के लिए पूर्वी अफ्रीका में कुछ कृषक समाज भूमिस्वामियों और भूमिहीन कबीलों में बंटे हुए थे जिन्होंने जाति समान लक्षण ग्रहण कर लिए थे। 15 वीं सदी में मैक्सिको के अजतेक समाज में पुरोहितों और योद्धाओं को विशेष लाभ प्राप्त थे। ऐसा ही मध्यकालीन जापान में सुमराई, कुलीन योद्धा, और धर्म पुरोहित के साथ भी था। शुद्धता और दूषण के विचार जापान में वैसे ही थे जैसे कि भारत में और जो ’’गंदे’’ कामों को करते थे उन्हें जात बाहर माना जाता था।

प्राचीन सम्यताओं में रोमन सभ्यता इससे भी अधिक विभाजित थी जहां राज्य समर्थित दासप्रथा के अतिरिक्त कानूनों में वर्णित जाति समान सभी प्रकार की असमानतायें विद्यमान थीं। ईसाई काल में भी यूरोपियन सामंतवाद ने सभी तरह के वंशानुगत लाभ शूरमाओं और भूस्वामी नबावों को दे रखे थे, कुछ कुछ भारत के राजपूत और ठाकुरों जैसे, और राजवंशियों में तय की गई शादियों में दहेज प्रथा भारत के समान ही प्रचलित थी। संपूर्ण यूरोप में हस्तकारों के विरूद्ध भेदभाव एक सामान्य बात थी और 19 वीं शताब्दी तक तो जर्मनी में हस्तकारों के लिए अलग न्याय व्यवस्था से ही उन्हें न्याय पाने के लिए जाना पड़ता था। वे कुलीन जनों एवं भूमिधारियों के न्यायालयों में अर्जी तक नहीं लगा सकते थे। /उदाहरण के लिए विथोवन ने अनेक पत्रा जर्मन न्याय विभाग को लिखे थे कि उसे द्वितीय दर्जे का नागरिक न माना जाये कि जर्मनी के उत्कृष्ट संगीतज्ञ के नाते उसे बेहतर व्यवहार मिलना चाहिए।/

अनेक प्राचीन और मध्यकालीन समाजों के अध्ययन से एक सामान्य नमूना सामने आता है कि पुरोहित /धर्मगुरू/ और योद्धा मिलकर एक विशिष्ठ कुलीन वर्ग का निर्माण करते थे। मध्यकालीन समाजों में सामाजिक सुविधायें समाज की श्रेणी के आधार पर भिन्न भिन्न होतीं और कृषि प्रधान समाज में भूस्वामित्व से करीब से जुड़ा हुआ होता था।

उदाहरण के लिए सामुदायिक मालिकाने के तौर और मिलजुलकर खेती करने वाले समाजों में हमें जाति समान भेदभाव देखने नहीं मिलते, जहां वस्तु और सेवा, वस्तु विनिमय के आधार पर जरूरतें पूरी कर लीं जातीं थीं और ऐसे समाजों में किसी को किसी प्रकार का आदेश नहीं दिया जाता था। ऐसी पंचायतें, एक समय संपूर्ण भारत में रहीं होगीं और कुछ तो पहाड़ों /हिमांचल और उत्तर पूर्व के भागों, आसाम और त्रिपुरा, साथ साथ मध्य भारत केे कुछ हिस्सों और उड़ीसा/ मंे अभी अभी तक अस्तित्वमान रहीं हैं। इन समाजों में लिंग भेद का प्रभाव बहुत ही कम दिखलाई पड़ता है।

अग्रहोरा गांवों के गरीब लोगों पर ब्राह्मणों के प्रभुत्व, संपत्ति के अधिकारों में बढ़त, राज्य की शक्तिशाली नौकरशाही और अधिकारिक तथा वंशानुगत शासक कुलवंशों के आगमन से भारत में, जात और लिंग भेदभाव अधिक बढ़ा। परंतु यह प्रक्रिया न तो अनुरेखीय थी और न ही अनुपलट। जैसे ही पुराने राजकुल पलट दिये जाते, पूर्ववर्ती जातीय समीकरण और जातीय धर्मतंत्राता को चुनौतियों का सामना करना पड़ता और उन्हें परिवर्तित होना पड़ता था।

भारत के अनेक भागों में इस प्रक्रिया ने ठोस रूप धारण करने में अनेक शताब्दियों का समय लिया और जातीय जड़ता बहुत बाद की परिघटना रही हो बजाय सामान्य तौर पर बताये जाने के। यह भ्रम कि जात विभाजन हमेशा कठोर रूप से लागू किया जाता रहा हो या कि जात संबंधी जड़ता के लिए कोई चुनौति नहीं रही हो, ऐसा भारतीय ऐतिहासिक अभिलेखों के अवलोकन से प्रगट नहीं होता।

इस पर भी जोर दिया जाना चाहिए कि जातीय वरीयता ही केवल माध्यम था जिसमें पुराने काल के समाजों में सामाजिक असमानतायें प्रगट होतीं थीं। /इसलिए यह कहना कितना व्यंगात्मक है कि दास रखने वाला ग्रीस पश्चिम के विद्वानों के द्वारा दुनियां के प्रथम ’’जनतंत्रात्मक’’ समाज की तरह से आदर पाता रहा होगा। परंतु, प्राचीन भारत को उसके अबोध्य कुरीतियों के लिए बदनाम किया जाता रहा है।/

भारत में जातीय भेदभाव के स्तर और श्रेणियां समय के साथ बदलती रहीं और जातीय तथा सामाजिक गुटों का नीचे या उपर या दोनों होना होता रहा होगा। मनुस्मिृति में उल्लेखित ढांचे को मानने से कोई यह भी नतीजा निकाल लेगा कि जाति विभेद पत्थर की लकीर समान अमिट था, उसे कठोरतापूर्वक लागू किया जाता था और जातीय गतिशीलता की संभावनायें शून्य थीं। परंतु इतिहास के अभिलेखों के अवलोकन एक दूसरी ही कहानी कहते हैं।

उपनिषदकाल में ही ब्राह्मण और क्षत्रिय के मध्य तनाव व्याप्त थे और उपनिषादिक ग्रंथों में सुस्पष्ट ऋचायें हैं कि कैसे एक प्रबुद्ध क्षत्रिय विद्वान आध्यात्मिक और दार्शनिक ज्ञान में ब्राह्मण को पार कर सकता था। महाभारत में, ब्राह्मण योद्धा का भी उल्लेख आता है। इस प्रकार से जातीय विभाजन पूरी तौर पर पत्थर की लकीर समान कठोर नहीं था।

उपनिषादिक ग्रंथों में ब्राह्मणों की परजीवितता की आलोचना भी मिलती है। सामाजिक समीक्षक मानते थे कि जो अपने सामाजिक कर्तव्यों से च्युत हो जाता था वह जातिगत लाभों से वंचित हो जाता था।
यह एक महत्वपूर्ण नुक्ता है जो इस बात को इंगित करता है कि व्यक्तिगत लाभ और सामाजिक दायित्व दोनों के बीच एक सामाजिक समझौता होता था। राजा शक्ति और आदर पा सकता और प्रजा पर अनेक आदेश लागू कर सकता था परंतु उसे जनता की आक्रमणकारियों से सुरक्षा, पक्षपात रहित न्याय, सिंचाई सुविधाओं का विकास और सड़कों के निर्माण कार्य के कर्तव्यों को पूरा करना होता था। इन आकांक्षाओं की असफलताओं की दशा में विद्रोह और राजकुल के उत्थान एवं पतन का कुछ ही पीढ़ियों में सामना करना पड़ता था।

ब्राह्मणवादी प्रधानता और कठोरता की चुनौतियां

उपनिषदों में ईश्वर संबंधी मत विभिन्नताओं के उल्लेख हैं। ब्राह्मणों के पूजन पाठ या अनुष्ठान आत्म मुक्ति के लिए आवश्यक नहीं। व्यक्ति देवीदेवता एवं पूजन विधि का चुनाव कर सकता था। इसी पक्षपातरहित दृष्टिकोण ने वैकल्पिक नजरियांे के बढ़ने में न केवल धार्मिक परंपराओं वरन् सामाजिक ढांचे संबंधी सिद्धांतों की भी मदद की थी।

पुरोहित वर्ग की विशाल शक्ति और निरंकुशवादी शासन और ब्राह्मण प्रधानता को बौद्धकाल में अनेक क्षेत्रों से सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। संभवतया ये चुनौतियां उस समय सर्वोच्च उंचाईं छू रहीं थीं। मूलतः ये चुनौतियां नास्तिक लोकायतों, अज्ञेयवादी जैनों और शास्त्रा विरोधी बौद्धों की ओर से थीं जो समाज का पुनर्गठन भेदभाववादी कम और अधिक मानवीय आधार पर करना चाहते थे।

यद्यपि बौद्धों को पूरी तरह से वर्ण व्यवस्था का विरोधी मान लेना गलत होगा क्योंकि इस बात के साक्ष्य हैं कि उन्होंने संघों के बाहर समाज में जातिगत भेदभाव को स्वीकार किया था। उस काल में भारतीय समाज के रूपांकन में केवल जाति की ही भूमिका नहीं होती थी। इस तथ्य को सुनिश्चित करने में बौद्धों ने अन्य दूसरों के साथ निःसंदेह अहम भूमिका निभाई थी। इसे भुला दिया गया है कि कैसे गैर क्षत्रियों और गैर ब्राह्मणों में से उनके शासक अभर आये थे। नंद, मौर्य, कलिंग और गुप्ता भारत में शासक वंशों के ज्वलंत उदाहरण हैं। आगे चलकर यही शासक वंश कुलीन और वंशानुगत रूप से स्थापित हुए थे जबकि ये क्षत्रिय पृष्ठभूमि से नहीं थे और न ही ब्राह्मण पृष्ठभूमि से।

/एक बार इनमें से कुछ ने अपने को स्थापित कर लिया तब शासक कुलीनों की तरह उन्होंने क्षत्रिय आवरण - रहन सहन - धारण कर लिया और समय बीतने पर उनके सत्ता में आने से जो मूलभूत परिवर्तन आये उनने भी सामाजिक रूढ़िवादिता और मृतप्रायः मूल धाराओं को बदल दिया। इन परिवर्तनों ने उनके उत्थान में योगदान दिया था।/

यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिंदू समाज की मनुस्मृति वर्णित प्राचीन चार वर्ण व्यवस्था यदि कोई ग्रीक इतिहासकार मैगस्थनीज के ब्यौरों से देखे तो व्यवहारिक रूप से वर्ण व्यवस्था कोई अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होती। मौर्य कालीन भारत के वर्णन में मैगस्थनीज समाज में सात स्तरीय सामाजिक व्यवस्था को सूचीबद्ध करता प्रतीत होता है। वह पुरोहित और दार्शनिक के बीच अंतर करता भी प्रतीत होता है। /पुरोहित को वह बहुत उंची श्रेणी में रखता है फिर चाहे वह पुरोहित ब्राह्मण, जैन या बौद्ध हो।/ और, न्यायालय के नौकरशाहों जैसे लेखापाल, कर संग्राहक एवं न्यायधीश पर खास ध्यान देता है। वह कृषक को भी मनुस्मृति की अपेक्षा उंचा स्थान देता है। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि लड़ाईयों के दौरान किस प्रकार से किसानों को बिना नुकसान पहुंचाये सुरक्षित रखा जाता था।

मैगस्थनीज के अनुसार दार्शनिकों - वे चाहे बा्रह्मण या जैन या बौद्ध हों का दायित्व था कि वे जनता की नीति, कृषि, स्वास्थ्य और संस्कृति के संबंध में राजा को सलाह दिया करें। बारंबार असफल सलाह की दशा में दार्शनिकों को दीं गईं सुविधाओं में कटौती बल्कि यहां तक कि देश निकाला या मृत्यु दण्ड तक भी दिया जा सकता था। इस प्रकार से यद्यपि अनेक ब्राह्मण निर्लज्य चापलूसों की तरह अपनी सुविधायें लेते रहे हों परंतु दूसरे विज्ञान, दर्शनशास्त्रा और संस्कृति के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। सामाजिक गतिशीलता संभव थी क्योंकि शिक्षा केवल ब्राह्मणों के लिए नहीं थी और जैन एवं बौद्ध संघों में समाज के विभिन्न स्तर के पुरुषों एवं स्त्रिायों को प्रवेश दिया जाता रहा था। /ज्योत्सना कामथ 1187 सदी के एक आलेख का हवाला देतीं हैं कि जैन साध्वियां पुरुष साधु के समान स्वतंत्राता का उपभोग करतीं थीं/ और उत्तरवर्ती संघों में महिलाओं के लिए अलग गणपूर्ति होती थी जिससे पुरुष बहुसंख्यक सभा कोई ऐसा निर्णय न ले सके कि जिसका समर्थन महिलायें न करतीं हों। कालांतर संघ बिखर गए और उनकी बौद्धिक उर्जा एवं समतावादी वृत्ति नष्ट होती गई जिससे गंगा के मैदानों में ब्राह्मणों ने क्रमशः अपने प्रभाव और शक्ति को बढ़ा लिया था। परंतु 6 से 7 वीं सदी तक के गुप्ताकालीन लेख प्रगट करते हैं कि बंगाल में भूमि अनुदान को जो कि मैगस्थनीज के नजरिये से मेल खाते हैं कि भारतीय समाज किस प्रकार का बना हुआ था। वरिष्ठ न्याय प्रशासक की सामाजिक श्रेणी /जो किसी भी जाति से आया हो/ निश्चित तौर पर, पुरोहित से उंचीं होती थी।

/उड़ीसा, राजस्थान, मध्य और दक्षिण भारत के हिस्सों में यह पद्धति बहुत बाद तक कायम रही। इसके अतिरिक्त, ज्यों ज्यों समाज जाति कठोरता की ओर बढ़ता गया, यह तो न्याय प्रशासक ही था जो वंशानुगत जाति स्तर प्राप्त कर सका और समाज का सर्वोपरि लाभदायी प्रतिनिधि बन सका। कुछ उदाहरणों में ये प्रशासक जातियां अन्य लाभदायी जातियों से घुली मिलीं थीं यथा क्षत्रिय या ब्राह्मण या वे जिनसे उनको समतुल्य व्यवहार मिलता था और ऐतिहासिक भेदभाव उनके मध्य धंुधले हो गए थे/

गुप्ताकालीन भूमि अनुदान आदेशों की यह बात उल्लेखनीय है कि जाति की पहिचानों को इन आदेशों में आम तौर पर छोड़ दिया गया था बनिस्पत उनके खास उल्लेख करने के। यदि जाति सामाजिक श्रेणी की तरह इतनी ही महत्वपूर्ण या प्रभावशाली होती तो कोई इसके विरुद्ध अवश्य होता। कर संग्रह एवं भूमापन में सबसे महत्वपूर्ण लोग सम्मलित होते थे। इन अधिकारियों की श्रेणियों का उल्लेख उनकी जाति उल्लेख बिना दिया गया है। ग्रामीणों के भी नाम प्रायः उनकी जाति के बिना दिये जाते थे। बहुत ही कम ऐसे संदर्भ हैं जिनमें उनके ब्राह्मण होने का उल्लेख है। भू अनुदान अभिलेख बतलाते हैं कि अनुदान देने से पहिले गांव के कुछ महत्वपूर्ण लोगों से अधिकारियों द्वारा सलाह मशविरा लिया जाता था। यद्यपि इन सलाहगारों में ब्राह्मणों का भी लेखा है तथापि समानरूप से दूसरी ग्रामीण श्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है यथा ’’कुतुमबिन’’ और ’’महतारा’’ जो या तो ग्रामीण अधिकारी रहे होंगे या फिर प्रभावशाली भूस्वामी। विश्व मोहन झा ने /देखिए संदर्भ, नीचे/ कुतुमबिन और महतारा को जातिरहित स्वतंत्रा श्रेणी बतलाया है जिसमें ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण दोनों समानरूप से सम्मलित माने गए थे।

कुछ इशारे सलाहकार समितियों की ओर भी हैं जिनमें मुख्य कारीगर, मुख्य लेखाकार, वाणिज्यिक, और अन्य समुदाय के लोग अध्यक्ष होते थे। यह भी प्रतीत होता है कि प्रशासनिक परिवर्तनों से नए नए पद बनते रहते थे, पुराने पद खत्म हो जाते थे और विभिन्न अधिकारियों की श्रेणियों में परिवर्तन भी होते रहते थे। 5 से 7 वीं तक की तीन शताब्दियों तक फैले बंगाल के भू अनुदानों के आदेशों के विश्लेषण से इन और दूसरे परिवर्तनों का पता चलता है यथा प्रविधि संबंधी सलाहकार समिति के संवैधानिक परिवर्तन, शहरी और ग्रामीण निवासियों के विभिन्न समुदायों के स्तर में परिवर्तन के कारण राजनैतिक समीकरणों एवं आर्थिक स्तर के बदलाव आदि।

पश्चिमबाग, बंगाल के भू आबंटन के अभिलेख में ब्राह्मणों को कर देनदार बताया गया है और सामान्य ब्राह्मण किसी भी प्रकार से अलग दिखलाई नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए एक शिक्षक या वैदिक विद्वान् 10 पटका जमीन का अधिकार और ब्राह्मण केवल 2 पटका जमीन का हकदार होता था और यह 2 पटका कायस्त लेखपाल या वैद्य से कम होता था। बढ़ई, कुम्हार या कारीगर को अन्य सेवा समुदायों से उपर माना जाता था। ऐसी मान्यता भू अनुदान संबंधी थी।

पश्चिमबाग का शिलालेख माली, बढ़ई, कुम्हार, लुहार, राजमिस्त्राी और मठ सेवा के सफाईदार के लिए भू अनुदान का वर्णन करता है और यह स्पष्ट करता है कि जब भी मंदिर या मठ के लिए भूखंड स्वीकृत किया जाता था तो उन अनुदानों में पुरोहितों के लिए कोई विशेष लाभ नहीं मिलता था। तलचर की भौमकारा घोषणा मंे बौद्ध मंदिर और उसके व्यवस्थापन के लिए भूदान संबंधी उसी प्रकार के संदर्भों को बतलाया है।

राजस्थान, पाली और कालीकत्ती, कर्नाटक के 12 वीं सदी के भू अनुदान संबंधी अध्ययन यह बतलाता है कि भू अनुदान की समयावधि सीमित होती थी यद्यपि प्रारंभिक तौर पर घोषणा जीवन भर या पीढ़ी दर पीढ़ी की हुआ करती थी। भू अनुदान का स्वामित्व हस्तांतरित होता था और एक से दूसरे लाभार्थी को पांच या दस वर्ष बाद भी हस्तांतरित किया जाता था। ऐसा भी लगता है कि इनका चयन श्रेणी के आधार पर होता था बनिस्पत किसी जातिगत संबंधों के आधार के।

यह कतई स्पष्ट नहीं है कि प्रशासनिक श्रेणियां जन्माधारित होतीं थी या नहीं। उड़ीसा में खासकर इसके विपरीत के ही साक्ष्य हैं। साधारण किसान सैनिक पद तक उपर उठ सकता था और संभवतया ऐसी ही स्थिति प्रशासनिक पदों में भी होती रही होगी। मायाधर मनसिन्हा /नीचे संदर्भ देखें/बताते हैं कि पदोन्नति के निर्धारण में सामाजिक स्थिति एवं राजनैतिक संबंधों के अतिरिक्त व्यक्तिगत सुदृढ़ता, गुणवत्ता और प्रशिक्षण के मिले जुले प्रभावों की भी भूमिका होती थी। कर्नाटक में, इस बात के साक्ष्य हैं कि मुख्य प्रशासकों में कुछ महिलायें भी थीं। ज्योति कामथ - नीचे संदर्भ दिया है।


ब्राह्मणिक उत्थान

तब भी, ब्राह्मणों को भू अनुदानों के द्वारा अधिक लाभदायी होने के बीज भी बोये जाते रहे हैं। कुछ उदाहरणों में हजारों ब्राह््मणों को पड़ती जमीन के अधिकार अनुदान में दिए जाते थे। दूसरी तरफ, ब्राह्मणों को राज्य प्रशासन के स्थानीय प्रशासक नियुक्त किया जाता रहा। बिहार में, वे छोटे किसानों की अध्यक्षता करते रहे जो लगभग भूमिहीन अधिया बटिया किसान या बंधक मजदूर थे। इन्हें अग्रहार गांव कहा जाता था। ये गांव विचित्रारूप से छोटे और बड़े गांव जहां बड़े भूपति और अनेक जातियों के लोग रहा करते थे, के उप नगर समान होते थे। बिहार में, ये अग्रहारा गांव बिखरे हुए बसे होते थे और यह पूरी तौर पर संभव है कि इनमें दमित सामाजिक संबंधों और सबसे ज्यादा उर्जावान जाति प्रधान भेदभाव और शोषण के नमूने पैदा हो गए हों।

/जबकि शुरू के गुप्तकालीन अभिलेख ग्रामीण सलाहकार समितियों का उल्लेख करते हैं जो शासक और हस्तकारों एवं कास्तकारों के बीच मध्यस्थता करते थे, ऐसा प्रतीत होता है कि ये समितियां कम महत्व की हो गईं हों अथवा अग्रहारा की बढ़त से विलुप्त हो गईं हों। उसके बाद ही ब्राह्मण राज्य शासन और ग्रामीणों के बीच माध्यम मात्रा रह गए हों और कालांतर में इस स्थिति ने ब्राह्मणों को सामाजिक एवं राजनैतिक प्राधान्य का मौका दिया हो। यह भी प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों के अधिकार और सत्ता में बढ़त के साथ ही साथ सबसे बड़ी घटना तो अछूतों के पैदा होने से शुरू हुई हो।/

परंतु इन प्रयासों ने भारत के अन्य स्थानों में फैलने में समय लिया पहले बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश में और भारत के अन्य स्थानों में धीरे धीरे। जो भी हो परंतु बिलकुल ऐसा ही पूरे भारत में नहीं हुआ और कुछ भाग तो अछूते ही रह गए थे। भारत के अन्य भागों के अग्रहारा गांवों में, ब्राह्मणों ने स्थानीय प्रशासन एवं कर वसूली को तो लिया पर वहां बिहार के समान छोटे किसानों की स्थिति दयनीय नहीं हो पाई थी। शोषण और दबाव की श्रेणी का संबंध भूमि स्वामित्व की दूरी से संबंधित रहा था।

उदाहरण के लिए दक्षिण कर्नाटक के कालीकत्ती में 13 वीं सदी के बाद ब्राह्मणों का दबदबा प्रगट हुआ जब अधिकृत ब्राह्मणों को किसानों से कर इक्ट्ठा करने का अधिकार प्राप्त हुआ। यह आदेश एक ओर ब्राइ्मणों के लिए तनाव और झंझटों से परिपूर्ण था परंतु दूसरी ओर कर चुकाने वाले ग्रामीणों पर बिना किसी गंभीर परिवर्तन के।

यद्यपि जातिवादी व्यवस्था का एक कारक ब्राह्मणवाद भी था, परंतुु वह सबसे महत्वपूर्ण कारक नहीं था। इस्लामी आक्रमण और ब्रिटिश उपनिवेशीकरण एवं इक्कोलाजिकल परिवर्तनों के दबाव ने इसमें बराबरी की भागीदारी की थी, यदि अन्य बहुत से मौकों पर निर्णयकारी योगदान न भी दिया हो तो।
उड़ीसा के उदाहरण में नौकरशाही की घनीभूतता और उसके एक लाभदायी समूह में बदलाव और 14 से 15 वीं सदी में खासकर जातियां प्रगट होने लगीं थीं जब नदियों के तलछट उपर आने के कारण हम समुद्र के व्यापार में सामान्य उतार देखते हैं। उसी समय ब्राह्मण प्रधानता की बढ़त को जयपुर के राजा मानसिंह और मुगल सेनाओं के द्वारा धार्मिक और सैन्य हार के परिदृश्य में देखते हैं। ये सब कारण उड़िया समाज के विनाश के रहे होंगे और जातिगत रूढ़िगतता के कारण बने होंगे।

/और अधिक विस्तार के लिए उड़ीसा का इतिहासः एक परिचय को देखिए।/

इस्लामी आक्रमण के दबाव

दुर्भाग्य से, इतिहासकारों ने भारत में सामाजिक संबंधों के बनने में इन बाहरी कारणों के प्रभाव की जानबूझकर उपेक्षा की। परंतु हमें ज्ञात है कि इस्लामी आक्रमणों ने उपमहाद्वीप की राजनैतिक और सामाजिक जिंदगी में स्मरणीय परिवर्तन पैदा किये थे और खासकर गंगा के मैदानों में इसलिए यह अतिशियोक्ति पूर्ण आश्चर्य होगा भारतीय समाज के ढांचे पर इन आक्रमणों का कोई प्रभाव न रहा। जबकि कुछ समाज विश्लेषक इस्लामी शासनकाल में हिंदू समाज का विश्लेषण ऐसा करते हैं कि जैसे वह इस्लामिक आक्रमणों से अछूता रहा हो और अपने ही खोल में बंद रहा हो। अन्य कुछ विचारक काल्पनिक सामान्यीकरण करते हैं कि इस्लाम एक समतावादी विश्वास था जबकि हिंदुस्तान में जाति भेदभाव व्याप्त था।

क्योंकि इस्लाम दुनिया के उन हिस्सों में विकसित हुआ जहां सुस्थापित कृषि संभव ही नहीं थी अर्थात अरब के रेगिस्तान में - जहां सामाजिक विभाजन ठीक वैसे ही उत्पन्न नहीं हो सके जैसे कि भारत जैसे सुस्थापित कृषि प्रधान समाज में। रेगिस्तान के युद्धरत घुमंतू कबीलों के लिए इस्लाम अपेक्षाकृत इक्ट्ठा करने वाला एवं प्रगतिशील मत रहा हो जिसने पानी और व्यापारिक अधिकार की लड़ाईंयां खत्म कर दी हों। भारतीय अभिलेखों की मात्रा एक उपरी झलक इस बात की पुष्टि कर सकती है क्योंकि सल्तनतकाल के दौरान की बढ़ती हुई अस्थिरता के मध्य कुछ दासकुल सामाजिक कुलीनता के स्तर तक आश्चर्यजनकरूप से उठ खड़े हुए थे। परंतु विस्तारवादी विजयेताओं के हाथों में इस्लाम तबाही और आतंक का हथियार ज्यादा था बनिस्पत सामाजिक न्याय या समानता के।

भारत में इस्लामीकाल का शासन अपनी समग्रता में इस उपमहाद्वीप में सामाजिक सामंजस्य एवं समानता देने वाला नहीं था। आस्था आधारित आध्यात्मिक इस्लामी सिद्धांत केवल ’’भगवान’’ के समक्ष समानता का दावा कर सकता था अर्थात् मृत्यु पश्चात् समानता। परंतु पृथ्वी पर परिवर्तित मुस्लिमों के हालात सामाजिक वास्तविकताओं और राजनैतिक समीकरणों पर आश्रित होते थे बजाय एक अभौतिक एवं समानता के दूरगामी इस्लामी वादे के।

भारी आर्थिक और राजनैतिक दबाव के दौरान गरीबों के पास केवल एक ही विकल्प ’’भगवान’’ के समक्ष आत्म समर्पण करने का रहता था जो अपने अर्थ में धर्मगुरू के सामने अपनी स्वतंत्राता का बलिदान करना होता था। धर्मगुरू सदैव शासक की ओर देखा करता और उनका ही समर्थन करता रहता था। जब कभी पादरी राजसत्ता का प्रतिरोध करता तो बहुदा सामाजिक उन्नति के बजाय सामाजिक रूढ़िगतता और पुराणपंथता की ओर आमुख हुआ करता था।

कमोवेश इस्लामी शासन की शुरूआत से ही उपमहाद्वीप में असमानताओं का विस्तार हुआ। कुछ अपवाद, थोड़ी देर के लिए बंगाल और कश्मीर छोड़कर, भूमिकर अभिलेख बतलाते हैं कि इस्लामी शासकों ने विशेषतया कृषकों पर उंचे दरों के कर लगाये थे। यदि इस्लाम पूर्व के समय में औसत कर 10 प्र.श. से अधिकतम 20 प्र.श. था - औसतन 15 से 16 प्र.श. तो उसे मुगलकाल के दौरान 33 प्र.श. या उससे अधिक तक बढाया गया था। ध्यान दीजिए यहां तक कि मनुस्मृति ने किसानों पर 1/6 भाग तक की कर सीमा निश्चित की थी - लगभग 16 प्र.श.।
पक्षपाती जजिया कर पर सभी इस्लामी शासकों ने जोर न भी दिया हो, पहले के अनेक आक्रमणकारियों ने उस पर जोर दिया था और दिल्ली सल्तनत के एक दरबारी इतिहासकार से भी ज्यादा इतिहासकारों ने किसानों के विद्रोह के बुरी तरह से कुचले जाने और उनसे जबरिया कर वसूले जाने का वर्णन किया था। शहरी विद्रोह भी कम नहीं थे और अरब इतिहासकार इब्नबतूता ने बतलाया कि विद्रोहियों को कितनी क्रूरतापूर्वक कुचला गया था। विद्रोहियों के सजा के मायने थे नवजवान लोगों की हानि खासकर जवान औरतें, और बच्चों की दासता, गांवों और शहरों में नरसंहार अथवा जबरिया निकाला जाना, मंदिरों, पाठशालाओं और अन्य सांस्कृतिक संगठनों का विनाश या विकृति और राजदरबारों में नियुक्ति के अवसरों का निषेध। इस्लाम शासन की शुरू की शताब्दियों में उनका स्थानीय लोगों पर अविश्वास इतना गहरा था कि वास्तव में, लगभग सभी प्रशासनिक पदों को विदेशियांे ने अपने हाथ में ही रखा।

/रोमिला थापर ने बतलाया कि इस्लामी आक्रमणों के पूर्व हिंदू शासकों ने भी अपने विरोधियों के मंदिरों को विकृत किया क्योंकि मंदिरों में भारी संपदा इक्ट्ठी होती थी। यह भी बताया कि इनमें से कुछ मंदिरों की व्यवस्था बुरी तरह से बेइमान थी। इस्लामी आक्रांताओं एवं विजेताओं के आक्रमणों के दौरान मंदिरों के धन की डकैतियां ऐसे मंदिरों के विनाश का कारण बनी थीं। जो भी हो, इस्लामी आक्रमणता के दौरान इन कुकृत्यों की गहनता और बारंबारता में बढ़ोत्तरी हुई थी।/

इसको भी देखा जाना चाहिए कि सभी मंदिर संपदा के संग्रहकत्र्ता नहीं थे अथवा वे बेईमान ब्राह्मणों के आधीन नहीं थे। अनेक मंदिर स्थानीय निवासियों के सांस्कृतिक महत्व के हुआ करते थे और अनेकों का गैर ब्राह्मणों के द्वारा रख रखाव किया जाता था। उदाहरण के लिए बुंदेलखंड, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उड़ीसा में बड़ी संख्या में ऐसे मंदिर हैं जो न केवल इस्लामी आक्रमण से बचे रहे वरन् हिंदू राजाओं की लड़ाईयों से भी अछूते रहे। गुप्तकाल के बिखरे हुए अवशेष हैं। परंतु गंगा
के मैदानों में इस्लाम पूर्व के समय का कुछ भी शेष नहीं रहा है। साफ तौर पर उत्तरी भारत की सांस्कृतिक संपदा के विनाश के राजनैतिक कारक थे। कोई भी अनुमान का सकता है कि हठीली और उग्र प्रजा का दमन खासकर सांस्कृतिक धरोहरों जो उन्हें गर्व और स्वाभिमान देती थीं के विनाश से होता था और इस प्रकार से विदेशी शासकों को वे चुनौतियां भी देते रहते थे।

किसी भी दशा में, मूर्तियों का चेहरा, प्रजनन अंग और स्तन को तोड़ने एवं विकृत करने की कोई समानान्तर घटना पूर्वकाल मेें नहीं दिखलाई देती। इस बात के बहुत थोड़े ही साक्ष्य हैं कि लड़ाई में हारे गये लोगों को इतने बड़े पैमाने पर कत्ल किया या बंधक बनाया गया हो जितना कि इस्लामी आक्रमणों के दौरान किया जाता था।

उदाहरण के लिए अफगानिस्तान का क्षेत्रा जहां एक समय हिंदू और बौद्धों की बड़ी जनसंख्या होती थी, ने हिंदूओं के कत्ल किए जाने के लिए नाम कमाया था इसलिए उसका ’’हिंदूकुश’’ नाम पड़ा था और विजेताओं के अभिलेखों में अनियंत्रित विनाश की घटनाओं के संदर्भ पाये जाते हैं। जो भी हो गंगा के मैदान में हिंदू जनता ने शासकों के लिए कर देने का आधार बनाये रखा था शायद इसलिए हिंदू जनता की स्वतंत्राता और उंची दर के करों के उनके प्रतिरोध को कुचलना आवश्यक हो गया था। बड़े तौर पर शिक्षा और संस्कृति के पुराने केंद्रों के समूचे विनाश, नालंदा और विक्रमशिला के पुस्कालयों का अग्नि दाह, बौद्धों को बड़े पैमाने पर इस्लाम में परिवर्तन और जिन्होंने भी प्रतिरोध किया उन्हें क्रूरतम प्रतिहिंसा के कारनामों में महसूस किया जा सकता है।

भारत में सामाजिक संबंधों पर इस्लामी आक्रमण का सबसे बड़ी क्षति पहुंचाने वाला प्रभाव था दास प्रथा। उपमहाद्वीप में, दास प्रथा को अभूतपूर्व रूप से लागू किया गया था। पूर्वी समाजों के विपरीत ऐसा प्रतीत होता है कि दास प्रथा ने पश्चिमी दुनिया के इतिहास के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी और कुरान में दास प्रथा के समर्थन के उद्धण मौजूद हैं। इस्लामकाल के मध्य उप सहारन अफ्रीका में दासों ने नमक और तांबे की खदानों में मेहनत की और सहारन मार्गों में कुलियों की तरह से सेवा की ऐसी जगहों पर जहां उंट और गद्हों की पहुंच नहीं हो पाती थी।

स्काॅट लेवी, विस्कांसिन विश्वविद्यालय, ने मध्यकालीन समरकंद के न्यायिक अभिलेखों के माध्यम से दासों की उपस्थिति को बतलाया था। भारत के अनेक स्त्रोत्ों से भी यही स्पष्ट होता है कि मुगलकाल तक के गजनवीं के आक्रमणों से हजारों पुरुष, स्त्राी और बच्चों को ईरान और मध्य एशिया के दास बाजारों तक पैदल ही ले जाया जाता था अर्थात् उत्तर पश्चिम भारत की सीमाओं के उस पार उनके कौटुम्बिक सहायता के बिना।

/यद्यपि यूरोप में ईसाई युग की शुरूआत से राज्य समर्थित दास प्रथा का अंत हो गया था, जो प्राचीन रोम की दासप्रथा का छाया स्वरूप अमेरिका में पैदा हुई और दासों से पूरे कैरेबियन और दक्षिणी अमेरिका में काम लिया जाने लगा था। भारत के अपने दास बाजारों में पोर्तगीज विख्यात थे। यद्यपि यूरोप में दासप्रथा प्रतिबंधित थी परंतु यूरोपियन कंपनियों ने विशाल लाभांश दास प्रथा से ही कमाये थे। दुनिया के इस्लामी हिस्सों में दासप्रथा प्रतिबंधित नहीं थी।

दासप्रथा ने संभवतया जौहर और सती प्रथा को सैन्य जातियों में बढ़ावा दिया था। इस बात के कुछ ही अभिलेख हैं कि इस्लामी आक्रमणों के पहिले इस प्रथा को बड़े पैमाने पर माना जाता रहा हो। इस्लामी आक्रांताओं की मार काट ने युद्ध नैतिकताओं के मान दण्डों को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था। पहले के युद्धों में दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी था कि किसानों की रक्षा, स्त्रिायों, बच्चों और वृद्ध जनों का शांतिपूर्वक रहन सहन और कैदियों को दास बनाने या युद्ध में समर्पणकरने वालों को नुकसान न पहुंचाया जाना जैसे निषेधात्मक राज्याज्ञायें हुआ करती थीं। परंतु आक्रांताओं को तो हारी हुई जनता को हर प्रकार की यातनाओं को देने में शायद ही कोई दुख होता हो। ऐसे वातावरण में यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि स्वाभिमानी राजपूतों के लिए ’’जौहर’’ एक गौरवशाली विकल्प की तरह ही रहा हो।

/यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ऐसी व्यक्तिगत या सामूहिक आत्म हत्यायें दुनियां के अन्य जगहों में अनजानी नहीं थीं। कभी कभी वे स्वेच्छिक कर्म होते, जैसा कि भारतीय रीति रिवाजों में बतलाया गया, और दूसरे समय में तो वे पूरी तौर पर बाध्यकारी हुआ करते थे। वाईकिंगों में यह रिवाज था कि योद्धा की जवान रखैलें मृत वाईकिंग योद्धा की चिता में शामिल हों। उपरी सूडान और निचले ईजिप्त के प्राचीन नूबिया में वहां के अभिलेखों के अनुसार नूबियन राजा की मृत्यु पर सामुहिक आत्म हत्यायें होती थीं और नूबियन योद्धों में जौहर एवं सती जैसे रिवाज के संकेत मिलते हैं। समानतररूप से जापानी हाराकारी प्रथा है - आदर के लिए आत्म हत्या की और समुराईयों /कुलीन योद्धा/ के बीच सेपुका प्रथा है। चीन में कुईंग साम्राज्यशाही में विधवाओं की स्वेच्छिक आत्म हत्या, यद्यपि बहुत ही कम, पाई जाती थी। चेल्स के अभिलेख हैं और रोमनों के नरबलि के भी हैं। 15 वी सदी के अजतेकों में हार गए लोगों के बलिदान की प्रथा में तो किसी प्रकार की स्वेच्छिकता प्रगट नहीं होती और उस प्रथा को युद्ध मंे विजेता होने के समारोह का कानून सम्मत दर्जा प्राप्त था।

पश्चिमी जगत के नारीवादी विद्वान भारत में सती प्रथा को लिंग भेद का वीभत्स रूप मानते हैं, उन्हें ईसाई दुनिया में ’’जादूगरनियों’’ को जलाये जाने जो स्त्रिायों के लिए अधिक खतरनाक है, को देखना चाहिए। केवल डायन होने का आरोप एक स्त्राी को खुले आम फांसी के तख्ते पर ले जा सकता था और अमेरिका की ’’सालेम’’ - डायन की सजा, ईसाई दुनिया की डायन जलाने की प्रथा का ही एक हिस्सा था जिसे कालांतर में नये इंग्लैंड ले जाया गया था।/

तब भी भारत में इस्लामीशासन समाज में वर्गों के बिना नहीं रहा। उस समय नगरों में विकास हुआ, व्यापार तेजी से बढ़ा, सामाजिक गतिशीलता के अवसर पैदा हुए और हस्तकारों और वाणिज्यिकों ने विशेष लाभ पाये।

इस्लामी शासकों के आने से व्यापारिक समुदायों को लाभ मिला। उनकी नीति व्यापार पर कम दर के करों की थी क्योंकि राज्याश्रय व्यापारी और साहूकार उनके हित में थे। स्काॅट लेवी ने बताया कि 13 वीं सदी के अंत से और दिल्ली सल्तनत के समूचे दौरान में मुस्लिम कुलीनजन देशज् साहूकारी संस्थानों पर आश्रित रहते आये थे /उन्हें ’’तारीखे फर्ज’’ में शाह या मुलतानी कहा।/ ये घरेलु साहूकार किसानों, हस्तकारों और उत्पादकों को बीज और अन्य आवश्यक वस्तुएं उधार देते और बदले में उनके उत्पाद में भागीदारी करते थे। बाकी वे नगद खरीददारी करते और उस नगद का एक हिस्सा राज्य कोषालय कर माध्यम से वापिस प्राप्त कर लेते थे।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत में पैदा और पले हुए इस्लामी राजा हिंसा या आतंक पर कम विश्वास करते थे बल्कि स्थानीय जनता के विभिन्न भागों से खासकर हिंदू कुलीनजनों से सहयोग एवं मित्रावतता की इच्छा रखते थे। इनमें से कुछ मैत्रियां बाध्यकारी थीं परंतु दूसरी ओर राजशाही के सहयोगियों के लिए लाभदायी थी।

शादियों के द्वारा सामान्यः और राजनैतिक सुविधाओं के आधार पर मित्रातायें मजबूत की गईं। हिंदू शासकों के साथ सैन्य संधियां अनेक इस्लामी शासकों के लिए अपरिहार्य थीं। अकबर के बाद मुगल खासकर जयपुर और बीकानेर राजपूतों पर विश्वास करते रहे जिन्हें गंगा के मैदान से इक्ट्ठे किए जाने वाले करों में भागीदारी करने का अधिकार भी दिया गया था। यद्यपि दरबार के कार्यों में हिंदुओं से सांख्यकी और एक दूसरे से जातीय विभिन्नता पर कुशलतापूर्वक तालमेल रखते हुए भेदभाव रखा जाता था, हिंदुओं के एक हिस्से पर जीत हासिल करके मुगल समप्रभुता को बनाये रखने के लिए।

इसलिए केवल धार्मिक विपरीतता के नजरिये से भारत में इस्लामी शासन की अनेक शताब्दियों को देखना गलत होगा। पर यह भी समानरूप से गलत होगा इस्लामी मत /जो भारत में पैदा हुए वे भी/ के द्वारा लम्बे काल के शासन को पूरी तौर से एक दयालु या सौम्य होने अथवा पूर्ववर्ती हिंदू राजाओं के शासन से कोई अंतर को न देखना। क्योंकि सर्वाधिक कर लगाने से शासक प्रबुद्ध और किसानों एवं कारीगरों तथा आम जनता के बीच का अंतर बढ़ता गया और इस्लामी शासन के अन्य पक्ष भी थे जिन्होंने सामाजिक गतिशीलता को सीमित किया था, खासकर दमनकारी सल्तनतों के शासनकाल के दौरान।

अनेक इस्लामी शासकों के लिए, ब्राह्मणों द्वारा शासित अग्रहारों से कर एकत्रित करने के लिए सबसे सुयोग्य थे और सामाजिक चुनौतियों पर सल्तनत की भारी शक्ति खर्च होने के कारण कर इक्ट्ठा करने की राजकीय क्षमता कमजोर हो गई थी। दास बना लिए जाने का भय और दरबार की नियुक्तियों में भेदभाव ने हिंदू समाज को बेहद अंतरमुखी बना दिया था। प्रशासनिक श्रेणी के कार्य के अभाव में जातीय भक्ति को बल मिला और इस प्रकार से जातिप्रथा को इस्लामी शासन ने वास्तव में, मजबूत होने में मदद की। ऐसे कोई भी साक्ष्य मौजूद नहीं हैं कि इस्लामी शासन ने अछूत प्रथा के समाप्त करने में कोई कदम उठाये हों।

अछूत और भेदभाव की समस्या के संबंध में उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य में जहां पूरी पांच सदियों तक इस्लामी शासन कायम रहा पर खास ध्यान देने की आवश्यकता है। सिंध और पश्चिमी पंजाब जहां लगभग पूरी की पूरी जनता इस्लाम परिवर्तित हो गई थी में यह देखना महत्वपूर्ण है कि छोटे कर्मचारियों जैसे द्वारपाल, को कभी भी परिवर्तित नहीं किया गया और वे बुरी तरह से दलित एवं अलग ही बने रहे। इस बात के भी प्रमाण हैं कि मुस्लिमों ने अपने ढंग की जाति पैदा कर ली थी। रोमिला थापर ने बतलाया कि सईद, शेख और अशरफ जैसे विदेशी मुसलमानों ने किसानों और कारीगरों के वर्ग से आये मुस्लिमों से अपने आप को अलग ही रखा था। इस विभाजन का एक कारण भाषा की भिन्नता भी थी। बीजापुर के प्रबुद्ध मुस्लिम उर्दू बोलते थे जबकि साधारण मुस्लिम कन्नड़। जरिना भट्टी ने अपने एक लेख में, ’’सोसियल स्ट्र्ेटिफिकेशन इन मुस्लिमस्’’ में अशरफ और गैर अशरफ मुसलमानों में जातिगत भेदभाव और रक्त शुद्धता की धारणा जो हिंदू समाज की जाति प्रथा और विभेद के समान थी, का विवरण दिया है। संड्र्ा मैकाले ने ’’कास्ट क्लास इन ईरान’’ में सामाजिक अंतर का ब्यौरा दिया है जो भारत के बिलकुल समानान्तर है। टिप्पणी को भी देखिए।

समय के साथ इस्लामी शासन ने भारत में शक्तिशाली और ज्यादा सुदृढ़ कुलीनवर्ग पैदा किया जिसने साधारण जनता के सामाजिक पतोन्मुखी बदलाहटों के प्रतिरोध को बहुत कठिन कर दिया था। खासकर दार्शनिक चुनाव, धार्मिक बहुवाद और स्थानीय एवं प्रादेशिक स्वतंत्राता; धर्म, लिंग समानता, काम संबंधी चुनाव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता के संबंध में। उदाहरण के लिए, इस्लाम के आने के पूर्व स्त्रिायों को पहनावे और आने जाने की अधिक स्वतंत्राता प्राप्त थी। 11 वीं सदी के भारतीय जीवन के इतिहासकार अलबरूनी आश्चर्य प्रगट करते हैं कि पंजाब के हिंदू पुरु

सेटिलमेंटः सोसायटी एंड पोलीटी इन अर्ली मेडिवल रुरल इंडिया - विश्व मोहन, सोसियल साइंस प्रोबिंग, वाल्युम 11/12,
पाॅलिटिक्स, कल्चर एंड ’’काॅस्ट’’ इन अर्ली तामिलनाडू - टी.के.वेंक्टेशसुब्रामन्यम, सोसियल साइंस प्रोबिंग, वाल्युम 11/12,
ए हिस्ट्र्ी आॅफ सिविलाईजेशन इन एन्सीयेंट इंडिया - आर.सी. दत्त।
सोशियल स्ट्र्क्चरस् आॅफ इंडियन विलेजः ए स्टडी आॅफ रूरल बिहार - हितुकार झा,
हिस्ट्र्ी आॅफ उड़िया लिटरेचर - मायाधर मानसिन्हा, साहित्य एकाडेमी, नई दिल्ली,
बुलेटिन आॅफ दा इंडियन हिस्टारिकल रिव्यु - इंडियन कौंसिल आॅफ हिस्टोरिकल रिसर्च,
इंडिया एज अलबरूनी साॅ इट - विनोद कुमार,
मनुस्मृति टू मधुस्मृति - मधु किस्बर,
हिंदुस्तान विहाईन्ड हिंदूकुश, इंडियन इन दा स्लेव ट्र्ेड, जनरल आॅफ दा राॅयल एशियाटिक सोसायटी स्काॅट लेवी; दा इंडियन मर्चेंट डियस्पोरा इन अर्ली माॅर्डन सेंट्र्ल एशिया एंड ईरानः ईरानियन स्टडीज्, 32.4,
चाचानामा - फुतुइल बुल्डनः अनुवाद, उद्धण, परशियन और अरबी किताबें,
किलों और मंदिरों का विनाश, हारी हुईं सेनाओं की हत्या, मंदिरों की संपदा की लूट और दिल्ली सल्तनतों के बारे में परशियन/अरबिक इतिहासकारों ने दास बनाने के बारे में जैसा विवरण लिखा है - उदाहरणों के लिए देखिए ताजुएमहासिर और तबाकतएनासिरी।
स्पेशिल लाईफ इन मेडिवल कर्नाटक - ज्योत्सना काॅमथ,
सोशियल स्ट्र्ेटिफिकेशन अमंग मुस्लिम इन इंडिया ’’काॅस्ट इट्स ट्वंटियथ सेंचुरी अवतार’’ पुस्तक से - एम.एम.श्रीनिवास, वाईकिंग, नई दिल्ली, 1999, पृष्ठ 249 से 253 - जरीना भट्टी,
दा काॅस्ट/क्लास सिस्टम इन ईरान /फ्राम ईरानियन-परशियन इस्लाम एंड सोल आॅफ ए नेशन - संड्र्ा मैकाले, डुटन बुक्स, पेंगुअन गु्रपस् , न्यूयार्क, 1996, 34-35,
इस्लाम थाॅटः ए क्रिटिकल सर्वे /एडवेंट आॅफ इस्लाम एंड लेटर फ्युडलिज्म/

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