वाराणसी. पेशवा बाजीराव नहीं होते तो आज का बनारस नहीं होता। आज जब मस्तानी के साथ गाढे प्रेम और काशीबाई के साथ पेशवा बाजीराव बल्लाड की कथित बेवफाई की कहानी रुपहले परदे पर चमक बिखेर रही है, इतिहास एक बार फिर से करवटें बदल रहा है। देश की सांस्कृतिक राजधानी बनारस के पन्नों को पलटें तो साफ़ नजर आता है कि पेशवा बाजीराव ने काशीबाई के साथ-साथ काशी नगरी से भी अटूट प्रेम किया था। शायद वह काशीबाई का प्रेम ही था कि पेशवा बाजीराव ने अपार शक्ति संपन्न होने के बावजूद काशी को अपने कब्जे में करने का ख्याल भी कभी मन में नहीं लाया। वो बाजीराव ही थे जिन्होंने महातीर्थ काशी को बनाया सजाया और उसमे ढेर सारे रंग भर दिए। शायद यही वजह थी कि बाजीराव की मृत्यु के बाद काशीबाई की आँखें बनारस के घाटों, गलियों, चौराहों और मंदिरों में अपने बाजीराव के पदचिन्हों को ढूंढती रही। इतिहासकार बताते हैं कि एक बार बाजीराव, मस्तानी के साथ भी बनारस आये थे।
काशीबाई के साथ यहाँ भी हुई दगाबाजी
बाजीराव की मृत्यु के बाद 1746 में काशीबाई सेना की एक टुकड़ी के साथ बनारस आईं। राजा बनारस बलवंत सिंह के एक भाई दासाराम ने खुद को काशीबाई के हवाले कर दिया,
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