अस्तु, इसी प्रकार तगा या त्यागी ब्राह्मणों का विशेष विवरण यों हैं कि महाराज आदि शूर ने 999 शकाब्द में कान्यकुब्ज देश से पाँच गोत्र के पाँच ब्राह्मणों को वहाँ बुलाकर यज्ञ करवाया और युक्ति से उन्हें वहाँ स्थापित किया। जिनके उस बंगदेशान्तर्गत गौड़ देश में (ढाका, राजशाही, मुर्शदाबाद प्रभृति प्रान्तों का नाम गौड़ देश हैं) कई भिन्न-भिन्न कारणों के वश दो दल हो गये, जो गंगा के इस और उस पार में बारेन्द्र और राढ़ देश में बसे। इसलिए बारेन्द्रीय और राढ़ीय कहलाये। उन्हीं में से मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुक भट्ट बारेन्द्र श्रेणी के ब्राह्मण थे। अतएव अपनी टीका के प्रारम्भ में ही वे लिखते हैं कि :
गौडे नन्दवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्दयां कुले।
श्रीमद्भट्टदिवाकरस्य तनय: कुल्लूकभट्टो भवत्॥
जिसका अर्थ यह हैं कि गौड़ देश के वारेन्द्र श्रेणी के ब्राह्मणों के नन्दवासा नामक कुल में श्रीमद्भट्ट के पुत्र कुल्लूकभट्ट हुए।
जब कन्नौज से इस देश में ब्राह्मण आये तो, उनके विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं कि वे लोग फिर गौड़ देश से कन्नौज में लौटे। परन्तु उनके देशवालों में मगधऔर बंगादि देशों में जाने के कारण उनका सत्कार न किया। इसलिए फिर लौट गये और गौड़ देश में ही स्थित हुए। किसी का मत उनके वहाँ ठहरने के विषय में भिन्न ही हैं और किसी का और ही। यह बात 'गौड़ हितकारी' मासिक पत्र के देखने से स्पष्ट विदित होती हैं, जो मैनपुरी से निकलता हैं। उसमें 'गौड़ देश में ब्राह्मण' शीर्षक लेख में जो अप्रैल सन् 1915 ई. से प्रतिमास प्रकाशित होने लगा हैं, बहुत से प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इन बातों को दिखलाया हैं। उसी पत्र के सितम्बर सन् 1915 ई. के अंक के दूसरे पृष्ठ में लिखा हैं कि ''बल्लालसेन के पिता विजयसेन के पश्चात् बल्लालसेन ने राढ़ी एवं वारेन्द्र श्रेणी विभाग, एवं वारेन्द्र कुल में कौलीन मर्यादा स्थापित की एवं राढ़ीय श्रेणी में दानत्यागी कुलीन ब्राह्मणों का आदर-सत्कार किया।'' कहते हैं कि ''बल्लालसेन ने एक स्वर्ण निर्मित गोमूर्ति दान की। परन्तु कतिपय राढ़ी ब्राह्मणों ने इस स्वर्ण निर्मित धेनु के टुकड़े-टुकड़े करके स्वस्वभाव ग्रहण किया। इससे बल्लालसेन को दु:ख हुआ और दानग्राही ब्राह्मणों को उन्होंने समाज से बहिष्कृत कर दिया।'' इससे उस समय गौड़ देशीय राढ़ीय ब्राह्मणों का एक दल दान त्यागी था और दूसरा दानग्राही ऐसा प्रतीत होता हैं। इसके अनन्तर, ऐसा मालूम होता हैं कि जब यवनों का आधिपत्य बंगदेश में विशेष हुआ जिसके आज तक अनेक प्रमाण हैं और जो बात इतिहासज्ञों से छिपी नहीं हैं, तब, अथवा अन्य उन्हीं कारणों से, जिनका वर्णन अन्य ब्राह्मणों के विषय में पूर्व कर चुके हैं, वे गौड़ देशीय ब्राह्मण गौड़ देश से पश्चिम को चले हैं। परन्तु कान्यकुब्ज प्रभृति ब्राह्मणों ने बंगादि देशों में जाने और रहने से अपने पास रहने नहीं दिया हैं। इसलिए और कुरुक्षेत्र के पास के देशों को किसी और कारण से भी अनुकूल जानकर वे गौड़ देश के दोनों दलवाले दानत्यागी और ग्राही ब्राह्मण वहीं रह गये हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह हैं कि जहाँ अन्य गौड़ पाए जाते हैं वहीं तगे लोग भी। 'कान्यकुब्जा द्विजा: सर्वे' यह प्रसिद्ध होने और उन्हीं के एक दल के पीछे से गौड़ नाम वाला प्रसिद्ध और पंच द्राविणों तक विस्तृत होने से प्रथम जिन पाँच दलों का नाम कान्यकुब्ज था, वे ही अब गौड़ कहलाये। जैसे सूर्य वंश का नाम पीछे से रघुवंश भी हुआ। इसी से शक्ति संगम तन्त्र में 'पंचगौड़ा:' इत्यादि लिखा हैं, जिसे लोग सह्याद्रि खण्ड और भविष्यपुराण का बताते हैं।
अस्तु, बल्लालसेन के समय में दान त्याग से उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। इसलिए वे लोग दान त्यागी कहलाने लगे और दूसरे लोग ज्यों के त्यों कहलाते थे। परन्तु जब गौड़ देश से कुरुक्षेत्र के आसपास आ बसे, तो अन्य ब्राह्मण तो पूर्वोक्त नियमानुसार गौड़ देश के नाम से गौड़ कहलाने लगे और दान त्यागी लोग गौड़ दान त्यागी, जो बिगड़ते-बिगड़ते काल पाकर गौड़ त्यागी होकर फिर त्यागी, तागी, तगा इत्यादि हो गया। इसलिए अब वे लोग गौड़ तगा या तगा कहलाते हैं। यदि उनमें भी कहीं ब्राह्मण शब्द से घृणा हैं, तो उसका कारण दिखला ही चुके हैं। वे लोग बड़े-बड़े जमींदार हैं, और उनके व्यवहार राजसी हो रहे हैं। गौड़ों में जो आदि गौड़ कहलाते हैं उनका भी यही अर्थ हैं कि जिनको आदि शूर ने गौड़ देश में बुलाया था अथवा जो प्रथम गौड़ देश में गये, या वहाँ से प्रथम आकर इन देशों में बसे। इन दान त्यागी गौड़ों के विवाह सम्बन्धदि प्राय: अन्त गौड़ों के साथ सहारनपुर, अम्बाला आदि जिलों में होते हैं। परन्तु महियाल लोग तो अन्य सरस्वतों के यहाँ अपने पुत्रों का ही प्राय: विवाह करते, अपने को उनसे श्रेष्ठ समझते और प्राय: लड़कियाँ उन्हें नहीं देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत के-(1) भूमिहार, (2) दान त्यागी या तगे, (3) महियाल, (4) जमींदार (5) पश्चिम आदि नामधारी अयाचक ब्राह्मण ही इस समय एक-से हैं और इनके आचार, विचार, नाम और प्रतिष्ठा इत्यादि भी समान ही हैं।
इसी प्रकार यदि बंगदेशीय ब्राह्मणों को देखिये तो वहाँ भी दो दल हैं, अयाचक लोग देवशर्मा कहे जाते हैं, तथा याचक दलवाले भट्टाचार्य एवं दक्षिण में अयाचक लोग प्राय: राव कहलाते हैं तथा याचक दल वाले भट्ट। महाराष्ट्र के चितपावन लोग, जिनमें लोकमान्य तिलक हुए हैं, अयाचक ही हैं। गुजरात देश के नागरों का हाल कह ही चुके हैं। उस गुजरात में मुझे बहुत से ऐसे ब्राह्मण मिले, जिनकी वंश-परम्परा की पदवी अयाची हैं, जिसका अर्थ अयाचक हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में भी इन जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों को छोड़कर और भी प्राय: बहुत से ऐसे ब्राह्मण सर्यूपार और कान्यकुब्ज देश में अधिकतर पाये जाते हैं, जो प्रतिग्रह से घृणा करते हुए केवल कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही जीविका करते और कुलीन समझे जाते हैं। मैथिलों में भी प्राय: श्रेत्रिय तथा अन्य भी बहुत से अयाचक ही हैं एवं उत्कल ब्राह्मणों में भी बहुत से अयाचक ही हैं, जो जाजपुर स्थान के नाम से जाजपुरी कहे जाते हैं और पडया भी। इसी तरह इस समय की कान्यकुब्जों में बहुत से दान त्यागी ब्राह्मण जगद्वंशी और धनंजयी कहलाते हैं।
यद्यपि इन सबों के साथ भूमिहार, जमींदार, तगे और महियाल आदि अयाचक विप्रों के खान-पान आदि नहीं हैं, तथापि इस कथन का तात्पर्य यह हैं कि जो अनादि काल से याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण कहलाते थे, उनका इस समय भी किसी भी देश या प्रान्त में अभाव नहीं हैं। अत: इनमें से जिनके वंश उज्ज्वल या आचार-व्यवहार अच्छे हो, उनके साथ खान-पान, विवाह आदि करने में कोई हर्ज नहीं हैं।
अस्तु, यह बात सिद्ध हो गयी कि ब्राह्मणों की सभी नूतन संज्ञाएँ यवन काल में प्रचलित हो गयीं। तदनुसार भूमिहार, तगा (दानत्यागी) और महियाल संज्ञाएँ भी उसी काल में पड़ीं। और यह भी सिद्ध हो गया कि प्रथम भूमिहार और तगा (दानत्यागी) संज्ञा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के ही एक-एक दल की हुई और भूमिहारादि शब्दों के अर्थ भी विदित हो गये। इसलिए जो लोग ऐसी कुकल्पना करते हैं कि ''जब मदारपुर के ब्राह्मण लोग भूमि को हार गये, तो उनका नाम भूमिहार पड़ा'' वह अज्ञानपूर्ण हैं क्योंकि व्याकरणादि भी इस अर्थ की पूर्वोक्त रीति से स्थान नहीं दे सकते। और यदि हारने पर ही नाम पड़ा तो जब मदारपुर के अधिपति थे उस समय लड़ाई से पूर्व काल में वे लोग क्योंकर भूमिहार कहे गये? और पीछे भी भूमिहार क्यों कहा गया? क्योंकि आपकी सुबुद्धि में तो यह असम्भव बात समाई हैं कि सभी मर गये। और गर्भू तो लड़ाई में था ही नहीं, क्योंकि उसकी माता अपने पिता के घर या अन्यत्र थीं और वह गर्भ में था। क्या आपको कहीं ऐसा भी मिला हैं कि लड़ाई में सभी मार डाले गये? क्या आजकल के समय में भी कोई भी कादर न था। इसलिए ये सब कुकल्पना मात्र हैं। वास्तव अर्थ तो पूर्व में ही दिखला चुके हैं। यदि 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से आपके इस कल्पित अर्थ को स्वीकार कर भी ले, तो भी भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में कोई हर्ज नहीं हैं। क्योंकि पूर्वोक्त रीति से जो युद्ध में इधर-उधर भाग गये, वही ब्राह्मण भूमिहार कहलाये। यदि 'भूम्या भूमेर्वा हारा भूमिहार:' अर्थात् जो भूमि के हार रूप हो वे ब्राह्मण भूमिहार कहलाते हैं। जैसे भूमिसुर या भूसुर का अर्थ भूमि सम्बन्धी (अर्थात् इस लोक का) सुर यानी देवता हैं, अत: ब्राह्मण भूसुर कहलाते हैं। जैसे पति स्त्री का भूषण रूप होने के कारण उसका हार कहलाता हैं, वैसे ही पृथ्वी रूप स्त्री के पति होने से यह अयाचक ब्राह्मण भी भूमिहार कहलाने लगे, ऐसी कल्पना आप करते, तो आपकी बुद्धिमानी की प्रशंसा की जाती।
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