दस्तावेज़ों में मिल जाएगा कि मुनरो के भी सात हज़ार सिपाहियों में से आठ सौ सैंतालीस सिपाही हताहत हुए थे, जिनमें अधिकांश हिंदुस्तानी थे. यही हिंदुस्तानी सैनिक थे जो ‘आग और लपटें उगलती दीवार’ बनकर इस तरह अटल ख़ड़े रहे थे कि देशी पक्ष के सैनिकों का मनोबल तार-तार हो गया था……तो दोनों तरफ़ के हिंदुस्तानी सिपाहियों में क्या फ़र्क़ था ?
उधर सख़्त, श्रेणीबद्ध अनुशासन था, पगार और तरक़्क़ी की निश्चित सुरक्षा थी, सबका एक स्पष्ट और सामान्य लक्ष्य था. मरने और घायल होनेवाले एक-एक सैनिक का हिसाब रखा जाता था. इधर अलग-अलग नायकों द्वारा फ़ौरी तौर पर जुटाए गए भाड़े के अस्थायी सैनिकों की भीड़ थी, जो लड़ाई के मक़सद और अपनी पगार के लिए सिर्फ़ अपने-अपने नायकों की ओर देखते थे. लड़ाई में काम आने या गंभीर रूप से घायल हो जाने पर उनके परिवार की या उनकी ख़बर लेनेवाला कोई नहीं था.
बक्सर के मैदान में हिंदुस्तानी पक्ष की फ़ौज के मारे जानेवाले सैनिकों की लाशें कब तक सड़ती रही होंगी ? और फ़ौज के मोरचा छोड़कर भागने पर वहाँ से न उठ पानेवाले घायलों का क्या हुआ होगा ? कभी नहीं मालूम होगा. बहू जब दोनों कलाइयों से एक-एककर चूड़ियाँ उतार रही थी तब से लेकर ज़िंदगी भर उसे कभी निश्चित नहीं होगा कि वह चूड़ियाँ पहनने की हक़दार है या नहीं.
हिंदुस्तानी पक्ष में लड़ने और जान देनेवाले सिपाहियों तथा लड़ाई के नियंताओं के बीच किसी तरह का भावात्मक रिश्ता न कभी था, न होगा. यहाँ तो सैनिकों की भीड़ भी तीन अलग ख़ेमों में बँटी हुई थी और तीनों ख़ेमों के बीच लगातार ख़ींचतान चल रही थी. कुछ रुहेले घुड़सवार और मुग़ल सरदार निजी फ़ायदे के लिए शुरू से पाला बदलने को तैयार थे. ख़ुद बादशाह शाह आलम इस खिचड़ी सेना की जीत के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं थे. वे तो कंपनी द्वारा दिल्ली में अपनी स्थिति सुदृढ़ कराने की शर्त पर मीर जाफर को बंगाल के नए नवाब की मान्यता देने को तैयार थे, जिसे कंपनी ने मीर कासिम को हटाकर दुबारा मसनद पर बिठाया था. शुजाउद्दौला और मीर कासिम के बीच भी मनमुटाव चला आ रहा था. एक बार तो शुजाउद्दौला ने, यह इल्ज़ाम लगाकर कि कासिम ने इतने सालों से बादशाह को कोई ख़िराज नहीं दिया था, उसे बंदी ही बना लिया था. जब कासिम ने किसी तरह अदायगी का बंदोबस्त किया, तो अवध में बादशाह के रख-रखाव पर हुए ख़र्च के नाम पर उसका एक बड़ा हिस्सा शुजा ने ख़ुद दबा लिया. कासिम हालात की नज़ाकत समझकर मन मसोसकर रह गया था. उधर शुजाउद्दौला का वज़ीर बेनी बहादुर अंदर-अंदर अँग्रेज़ों से मिला हुआ था और दोहरा खेल खेल रहा था. दिल से एकजुट होकर कोई काम कर पाने के लिए हिंदुस्तानी कभी नहीं जाने गए. संख्या-बल के अलावा और कोई बात नहीं थी, जो इस टिड्डीदल की विजय का भरोसा दिलाती.
इन सब के बावजूद यह उस अर्थ में ‘हिंदुस्तान’ की हार नहीं थी, जिस अर्थ में इंग्लैंड की जीत थी. मैं, यानी इतिहास, इस पर रोशनी डालने के लिए फिर हाज़िर हूँगा.
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