परन्तुमनु भगवान् और याज्ञवल्क्य महर्षि दोनों महर्षियों का यह सिद्धान्त हैं कि जो सन्तान एकानन्तर अनुलोम से उत्पन्न होती हैं, अर्थात् ब्राह्मण पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में, क्षत्रिय से वैश्य स्त्री में, वैश्य से शूद्रा स्त्री में वह क्रम से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हुआ करती हैं। क्योंकि मनुजी ने लिखा हैं :
स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान् सुतान्।
सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान!॥ 6॥
पुत्रा ये नन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तुमातृदोषात्प्रचक्षते॥ 14। अ. 10 मनु
अर्थ यह कि ''जो सन्तानें अनन्तर स्त्री से अर्थात् ब्राह्मण पिता से क्षत्रिया स्त्री में इत्यादि रीति उत्पन्न होती हैं, वहाँ वीर्य को प्रबल न मानकर वे मातृपक्ष की अर्थात् जो जाति माता की होती हैं उसी जातिवाली समझी जाती हैं। जो सन्तानें पूर्वोक्त रीति से उत्पन्न होती हैं उसमें मातृपक्ष को ही प्रबल मानकर वे उसी जातिवाली कहलाती हैं जिस जाति की माता होती हैं।'' जो याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91वें श्लोक में लिखा हैं कि :
विप्रान्मूध्र्दावसिक्त (भिषिक्तो) हि क्षत्रियायां विश: स्त्रियाम्।
अर्थात् ''ब्राह्मण' पिता में क्षत्रिया स्त्री में मूध्र्दाभिषिक्त संज्ञावाला बालक उत्पन्न होता हैं।'' उसका भी यही अर्थ हैं। क्योंकि मनुजी के अनुसार उसे क्षत्रिय होना चाहिए और 'मूध्र्दाभिषिक्त' क्षत्रिय को ही कहते हैं। इसीलिए अमरकोष में क्षत्रियों के पर्याय में भी मूध्र्दाभिषिक्त शब्द आया हैं, जैसा कि प्रथम भी दिखला चुके हैं कि 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियो विराट्' अर्थात् मूध्र्दाभिषिक्त, बाहुज, राजन्य, क्षत्रिय और विराट् ये सब क्षत्रियों की संज्ञाएँ हैं। इसलिए वाल्मीकि रामायण के अयोधयाकाण्ड में श्रीरामजी ने भरत को मूध्र्दाभिषिक्त कहा हैं 'नतु मूध्र्दाभिषिक्तनाम्' अर्थात् जब उन्होंने यह प्रण किया हैं कि यदि आप अयोध्या को न लौट चलेंगे तो हम अनशन करके शरीर यही छोड़ देंगे, तो रामजी ने उत्तर दिया हैं कि अनशन करके शरीर छोड़ देना ब्राह्मणों का कर्म हैं, न कि मूध्र्दाभिषिक्तों अर्थात् क्षत्रियों का। इसलिए ऐसा करना आपको उचित नहीं हैं। महाभारत में सैकड़ों जगह मूध्र्दाभिषिक्त शब्द क्षत्रियों के लिए आया हैं और उसके साथ अन्य स्कन्दपुराण प्रभृति ग्रन्थों के देखने से भी स्पष्ट हैं कि ब्राह्मण पिता और क्षत्रिया स्त्री से उत्पन्न बालक क्षत्रिय ही होता हैं। इसके लिए कम से कम एक सौ वाक्य और दृष्टान्त केवल महाभारत में ही मिलते हैं। इसलिए अनुलोम सन्तान अलग नहीं होती।
स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान् सुतान्।
सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान!॥ 6॥
पुत्रा ये नन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तुमातृदोषात्प्रचक्षते॥ 14। अ. 10 मनु
अर्थ यह कि ''जो सन्तानें अनन्तर स्त्री से अर्थात् ब्राह्मण पिता से क्षत्रिया स्त्री में इत्यादि रीति उत्पन्न होती हैं, वहाँ वीर्य को प्रबल न मानकर वे मातृपक्ष की अर्थात् जो जाति माता की होती हैं उसी जातिवाली समझी जाती हैं। जो सन्तानें पूर्वोक्त रीति से उत्पन्न होती हैं उसमें मातृपक्ष को ही प्रबल मानकर वे उसी जातिवाली कहलाती हैं जिस जाति की माता होती हैं।'' जो याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91वें श्लोक में लिखा हैं कि :
विप्रान्मूध्र्दावसिक्त (भिषिक्तो) हि क्षत्रियायां विश: स्त्रियाम्।
अर्थात् ''ब्राह्मण' पिता में क्षत्रिया स्त्री में मूध्र्दाभिषिक्त संज्ञावाला बालक उत्पन्न होता हैं।'' उसका भी यही अर्थ हैं। क्योंकि मनुजी के अनुसार उसे क्षत्रिय होना चाहिए और 'मूध्र्दाभिषिक्त' क्षत्रिय को ही कहते हैं। इसीलिए अमरकोष में क्षत्रियों के पर्याय में भी मूध्र्दाभिषिक्त शब्द आया हैं, जैसा कि प्रथम भी दिखला चुके हैं कि 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियो विराट्' अर्थात् मूध्र्दाभिषिक्त, बाहुज, राजन्य, क्षत्रिय और विराट् ये सब क्षत्रियों की संज्ञाएँ हैं। इसलिए वाल्मीकि रामायण के अयोधयाकाण्ड में श्रीरामजी ने भरत को मूध्र्दाभिषिक्त कहा हैं 'नतु मूध्र्दाभिषिक्तनाम्' अर्थात् जब उन्होंने यह प्रण किया हैं कि यदि आप अयोध्या को न लौट चलेंगे तो हम अनशन करके शरीर यही छोड़ देंगे, तो रामजी ने उत्तर दिया हैं कि अनशन करके शरीर छोड़ देना ब्राह्मणों का कर्म हैं, न कि मूध्र्दाभिषिक्तों अर्थात् क्षत्रियों का। इसलिए ऐसा करना आपको उचित नहीं हैं। महाभारत में सैकड़ों जगह मूध्र्दाभिषिक्त शब्द क्षत्रियों के लिए आया हैं और उसके साथ अन्य स्कन्दपुराण प्रभृति ग्रन्थों के देखने से भी स्पष्ट हैं कि ब्राह्मण पिता और क्षत्रिया स्त्री से उत्पन्न बालक क्षत्रिय ही होता हैं। इसके लिए कम से कम एक सौ वाक्य और दृष्टान्त केवल महाभारत में ही मिलते हैं। इसलिए अनुलोम सन्तान अलग नहीं होती।
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