बंगाली कुलीन ब्राह्मण कुल पांच प्रसिद्ध गोत्रों में आते हैं जिनमें- शांडिल्य, भारद्वाज, कश्यप, वत्स और सावण्र्य या स्ववर्ण हैं। इन्हें यहां दो प्रमुख वर्गों में रखा गया है -राढ़ी और वरेन्द्र। बंगाल मंे इनके होने के प्राचीनतम प्रमाण कुमारगुप्त के ताम्रपत्रों से 433 ईस्वी में मिले हैं। एक ताम्रपत्र में राढ़ी ब्राह्मण द्वारा किसी जैन विहार को भूमिदान करने का उल्लेख है। वैसे पौराणिक एवं प्रागैतिहासिक ग्रंथों में भी इनके वहां होने का प्रमाण मिलता है। कुछ पारंपरिक ग्रंथों एवं कथाओं में भी, जिन्हें कुलग्रंथ या कुलपंजिका कहा जाता है, इनकी उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। बंगाल के राजाओं के दरबारी ग्रंथों में भी राढी ब्राह्मणों का जिक्र है। इनके प्रमुख लेखक हरि मिश्र, एदू मिश्र, वाचस्पति मिश्र, राजेन्द्रलाल मित्र हैं और ये लगभग 13वीं से 15वीं सदी के अभिलेख हैं।
कहा जाता है कि आदिसुर नामक किसी राजा को यज्ञ कराने हेतु योग्य वैदिक ब्राह्मणों की आवश्यकता थी और उसके राज्य में वैदिक विशेषज्ञ ब्राह्मण नहीं थे। (एदू और हरि मिश्र के आख्यान के आधार पर) उसने कोलांचल और कान्यकुब्ज के पांच ब्राह्मणों को यज्ञकार्य हेतु आमंत्रित किया। यह वृत्तांत आठवीं सदी का होगा। इतिहास के जानकारों के अनुसार आदिसुर बंगाल के बजाय उत्तरी बिहार का था। यह तर्क भी पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आदिसुर का राज्य मिथिला क्षेत्र के सन्निकट है और मिथिला में योग्य वैदिक ब्राह्मणों की कमी रही होगी।
कहा जाता है कि बंगाल के सेन राजाओं ने ब्राह्मणों को भूमि और धन खूब दिया। वे समाज मंे वैदिक प्रथाएं और मूल्य स्थापित करना चाहते थे। वे समाज में पूर्ण अनुशासन चाहते थे और यह अनुशासन उन्होंने ब्राह्मणों पर भी लागू किया। कुलीन ब्राह्मण उसे ही माना जाता था जिसके मातृ और पितृ दोनों पक्ष 14 पीढ़ियों तक कुलीन रहे हों। हालांकि ब्राह्मणों ने इसका विरोध भी किया, किंतु कुलीनता की यह प्रथा परंपरा में बदल ही गई।
बंगाल मंे जो भी राढ़ी ब्राह्मण हैं, उनके साथ प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। उनमें प्रमुख जातिनाम व गोत्र निम्नवत हैं:
1. मुखर्जी या मुखोपाध्याय (भारद्वाज गोत्र)
2. बनर्जी या बंदोपाध्याय (शांडिल्य गोत्र)
3. चटर्जी या चट्टोपाध्याय (कश्यप गोत्र)
4. गांगुली या गंगोपाध्याय (सावर्ण गोत्र)
इसके अतिरिक्त लाहिड़ी, सान्याल, मोइत्रा और बागची वरेंद्र समूह के राढ़ी ब्राह्मण हैं।
जो राढ़ी ब्राह्मण राढ़ क्षेत्र छोड़कर दूसरे राज्यों में चले गए, उनमें अधिकांशतः अपना जातिनाम ‘मिश्र’ लगाते हंै। इनमें भी प्रायः वे लोग हैं जिनका गोत्र कश्यप है। उत्तरी भारत के मिश्र जातिनाम के ब्राह्मणों में कश्यप गोत्र शामिल नहीं है। इस प्रकार की चर्चा मुझसे एक बार काशी विद्यापीठ से सेवानिवृत्त प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी जी से हो गई। वे ‘कश्यप’ गोत्र सुनते ही बोल पड़े कि इस जातिनाम ‘मिश्र’ में कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण हो ही नहीं सकता। वह या तो किसी की गद्दी यानी ‘नेवासा’ (ससुराल या ननिहाल में वंशहीनता की स्थिति में उसी वंश की संपत्ति और घर पर स्थायी रूप से निवास करने वाला) पर होगा या किसी अन्य कारण से अपना जातिनाम बदल लिया है। जब उन्हें पता लगा कि कुछ मिश्र लोग मूलतः राढी हैं तो उन्होंने कहा कि यही कारण है कि उन्हें कश्यप और मिश्र में तुल्यता का संदेह हुआ। राढ़ी तो मूलतः बंगाली ब्राह्मण हैं और मिश्र जातिनाम बंगाल में नहीं होता। प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी एक सुदीर्घ अध्येता रहे हैं। आज उनकी वय 85 से ऊपर की है। वे एक अत्यंत अच्छे और गंभीर लेखक रहे हैं। आप मनोविज्ञान, समाज विज्ञान और दर्शनशास्त्र में एम ए तथा डबल पीएच. डी हैं। उन्होंने भारतीय साधु समाज पर शोध किया था और उसके लिए विधिवत दीक्षा लेकर साधु समाज में एक लंबा समय बिताया था। उनकी पुस्तक ‘साधूज आॅफ इंडिया’ एक प्रसिद्ध और मान्यताप्राप्त ग्रंथ है जो अमेरिका के पुस्तकालयों में तथा विश्वविद्यालयों में चर्चित है।
महराजगंज के राढ़ी निश्चित रूप से इसी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित हैं। उनकी अधिकांश परंपराएं बंगाल के ब्राह्मणों से मिलती हैं। अंतर एक ही है कि यहां के राढ़ी मूलतः और अधिकांशतः शाकाहारी हैं। वे वैष्णव एवं शैव दोनों ही पंथों में विश्वास रखते हैं और आदिशक्ति दुर्गा उनकी कुल अधिष्ठात्री देवी हैं। वे ही उनकी अंतिम शरण हैं। महराजगंज के राढ़ी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित होकर कब और क्यों आए, इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। हो सकता है कि अतिरिक्त स्वतंत्रता, रिक्तता और अस्तित्व की तलाश में राढ़ को छोड़ दिया हो। किसी प्राकृतिक आपदा का संकेेत तो मिलता नहीं। यह भी कहा जाता है कि नवाव शुजाउद्दौला के समय युद्ध और धर्मपरिवर्तन से भयभीत होकर पलायन करना पड़ा हो।
महाराजगंज के राढ़ियांे की मान्यता के अनुसार उनके पूर्वज पहले सुगौटी में आकर बसे। यह गांव भैरव स्थान से लगभग एक किमी की दूरी पर छोटी सरयू के उत्तरी तट पर है। तब शायद बाढ़ का प्रकोप ज्यादा हुआ करता था। कालांतर में विष्णु और महेश दो सगे भाइयों ने एक और विस्थापन लिया। विष्णु ने महराजगंज के पास बांगर क्षेत्र को चुना और बस गए तथा महेश भैरोजी से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर पूर्व कछार क्षेत्र में बस गए। यहीं से विष्णु के नाम पर विष्णुपुर (विशुनपुर) तथा महेश के नाम पर महेशपुर आबाद हुआ। आज दोनों ही गांवों में इन्हीं के वंशजों की एक बड़ी आबादी है। अब समय परिवर्तित हो गया है, पहले इन्हें लोग मिश्र के बजाय राढ़ी कहकर ही बुलाते थे।
जैसा कि मैंने पहले कहा, राढ़ी ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व के साथ क्षत्रियत्व अधिक है। ये लोग बड़े अभिमानी, सुपठित, तार्किक और ज्ञानी थे। पंडिताई, यजमानी और व्यावसायिक पूजा-पाठ जैसे ब्राह्मणोचित कार्य में कभी संलग्न नहीं हुए। अधिकांशत: राढ़ी अच्छे किसान भी थे और इनके पास कृषियोग्य भूमि की अधिकता थी। जमींदार भी थे ये।
कहा जाता है कि आदिसुर नामक किसी राजा को यज्ञ कराने हेतु योग्य वैदिक ब्राह्मणों की आवश्यकता थी और उसके राज्य में वैदिक विशेषज्ञ ब्राह्मण नहीं थे। (एदू और हरि मिश्र के आख्यान के आधार पर) उसने कोलांचल और कान्यकुब्ज के पांच ब्राह्मणों को यज्ञकार्य हेतु आमंत्रित किया। यह वृत्तांत आठवीं सदी का होगा। इतिहास के जानकारों के अनुसार आदिसुर बंगाल के बजाय उत्तरी बिहार का था। यह तर्क भी पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आदिसुर का राज्य मिथिला क्षेत्र के सन्निकट है और मिथिला में योग्य वैदिक ब्राह्मणों की कमी रही होगी।
कहा जाता है कि बंगाल के सेन राजाओं ने ब्राह्मणों को भूमि और धन खूब दिया। वे समाज मंे वैदिक प्रथाएं और मूल्य स्थापित करना चाहते थे। वे समाज में पूर्ण अनुशासन चाहते थे और यह अनुशासन उन्होंने ब्राह्मणों पर भी लागू किया। कुलीन ब्राह्मण उसे ही माना जाता था जिसके मातृ और पितृ दोनों पक्ष 14 पीढ़ियों तक कुलीन रहे हों। हालांकि ब्राह्मणों ने इसका विरोध भी किया, किंतु कुलीनता की यह प्रथा परंपरा में बदल ही गई।
बंगाल मंे जो भी राढ़ी ब्राह्मण हैं, उनके साथ प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। उनमें प्रमुख जातिनाम व गोत्र निम्नवत हैं:
1. मुखर्जी या मुखोपाध्याय (भारद्वाज गोत्र)
2. बनर्जी या बंदोपाध्याय (शांडिल्य गोत्र)
3. चटर्जी या चट्टोपाध्याय (कश्यप गोत्र)
4. गांगुली या गंगोपाध्याय (सावर्ण गोत्र)
इसके अतिरिक्त लाहिड़ी, सान्याल, मोइत्रा और बागची वरेंद्र समूह के राढ़ी ब्राह्मण हैं।
जो राढ़ी ब्राह्मण राढ़ क्षेत्र छोड़कर दूसरे राज्यों में चले गए, उनमें अधिकांशतः अपना जातिनाम ‘मिश्र’ लगाते हंै। इनमें भी प्रायः वे लोग हैं जिनका गोत्र कश्यप है। उत्तरी भारत के मिश्र जातिनाम के ब्राह्मणों में कश्यप गोत्र शामिल नहीं है। इस प्रकार की चर्चा मुझसे एक बार काशी विद्यापीठ से सेवानिवृत्त प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी जी से हो गई। वे ‘कश्यप’ गोत्र सुनते ही बोल पड़े कि इस जातिनाम ‘मिश्र’ में कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण हो ही नहीं सकता। वह या तो किसी की गद्दी यानी ‘नेवासा’ (ससुराल या ननिहाल में वंशहीनता की स्थिति में उसी वंश की संपत्ति और घर पर स्थायी रूप से निवास करने वाला) पर होगा या किसी अन्य कारण से अपना जातिनाम बदल लिया है। जब उन्हें पता लगा कि कुछ मिश्र लोग मूलतः राढी हैं तो उन्होंने कहा कि यही कारण है कि उन्हें कश्यप और मिश्र में तुल्यता का संदेह हुआ। राढ़ी तो मूलतः बंगाली ब्राह्मण हैं और मिश्र जातिनाम बंगाल में नहीं होता। प्रो0 वंशीधर त्रिपाठी एक सुदीर्घ अध्येता रहे हैं। आज उनकी वय 85 से ऊपर की है। वे एक अत्यंत अच्छे और गंभीर लेखक रहे हैं। आप मनोविज्ञान, समाज विज्ञान और दर्शनशास्त्र में एम ए तथा डबल पीएच. डी हैं। उन्होंने भारतीय साधु समाज पर शोध किया था और उसके लिए विधिवत दीक्षा लेकर साधु समाज में एक लंबा समय बिताया था। उनकी पुस्तक ‘साधूज आॅफ इंडिया’ एक प्रसिद्ध और मान्यताप्राप्त ग्रंथ है जो अमेरिका के पुस्तकालयों में तथा विश्वविद्यालयों में चर्चित है।
महराजगंज के राढ़ी निश्चित रूप से इसी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित हैं। उनकी अधिकांश परंपराएं बंगाल के ब्राह्मणों से मिलती हैं। अंतर एक ही है कि यहां के राढ़ी मूलतः और अधिकांशतः शाकाहारी हैं। वे वैष्णव एवं शैव दोनों ही पंथों में विश्वास रखते हैं और आदिशक्ति दुर्गा उनकी कुल अधिष्ठात्री देवी हैं। वे ही उनकी अंतिम शरण हैं। महराजगंज के राढ़ी राढ़ क्षेत्र से विस्थापित होकर कब और क्यों आए, इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। हो सकता है कि अतिरिक्त स्वतंत्रता, रिक्तता और अस्तित्व की तलाश में राढ़ को छोड़ दिया हो। किसी प्राकृतिक आपदा का संकेेत तो मिलता नहीं। यह भी कहा जाता है कि नवाव शुजाउद्दौला के समय युद्ध और धर्मपरिवर्तन से भयभीत होकर पलायन करना पड़ा हो।
महाराजगंज के राढ़ियांे की मान्यता के अनुसार उनके पूर्वज पहले सुगौटी में आकर बसे। यह गांव भैरव स्थान से लगभग एक किमी की दूरी पर छोटी सरयू के उत्तरी तट पर है। तब शायद बाढ़ का प्रकोप ज्यादा हुआ करता था। कालांतर में विष्णु और महेश दो सगे भाइयों ने एक और विस्थापन लिया। विष्णु ने महराजगंज के पास बांगर क्षेत्र को चुना और बस गए तथा महेश भैरोजी से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर पूर्व कछार क्षेत्र में बस गए। यहीं से विष्णु के नाम पर विष्णुपुर (विशुनपुर) तथा महेश के नाम पर महेशपुर आबाद हुआ। आज दोनों ही गांवों में इन्हीं के वंशजों की एक बड़ी आबादी है। अब समय परिवर्तित हो गया है, पहले इन्हें लोग मिश्र के बजाय राढ़ी कहकर ही बुलाते थे।
जैसा कि मैंने पहले कहा, राढ़ी ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व के साथ क्षत्रियत्व अधिक है। ये लोग बड़े अभिमानी, सुपठित, तार्किक और ज्ञानी थे। पंडिताई, यजमानी और व्यावसायिक पूजा-पाठ जैसे ब्राह्मणोचित कार्य में कभी संलग्न नहीं हुए। अधिकांशत: राढ़ी अच्छे किसान भी थे और इनके पास कृषियोग्य भूमि की अधिकता थी। जमींदार भी थे ये।
No comments:
Post a Comment