के बाद उन्हीं उत्पन्न स्त्री-पुरुष व्यक्तियों द्वारा मैथुनी सृष्टि हुई और यद्यपि मानसिक सृष्टि में भी वर्णों का विभाग था, जैसा कि अभी कह चुके हैं, अत: उसके अनुसार भी जातियों का नियम हो सकता हैं, या था। तथापि आजकल के जीवों में मुख आदि से उत्पत्ति नहीं पाई जाती हैं। इसलिए महर्षियों ने 'मुख से जो उत्पन्न हुआ उसे ब्राह्मण कहते हैं' इत्यादि जातियों का लक्षण न करके 'ब्राह्मण्यां ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मण: स्मृत:' (हारीतस्मृतिं 1, अ. 15) अर्थात् 'ब्राह्मणी के रज और ब्राह्मण के वीर्य से जो विधिवत् उत्पन्न होता हैं उसे ब्राह्मण कहते हैं, इत्यादि रूप ही लक्षण किया हैं। ऐसी दशा में किसी का यह कथन कि 'क्योंकि तुम दान नहीं लेते और पुरोहिती नहीं करते हो, अत: ब्राह्मण नहीं हो केवल मूर्खता हैं। क्योंकि जब उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से हैं तो उसकी ब्राह्मणता में सन्देह ही क्या हो सकता हैं? हाँ इतना अवश्य हो सकता हैं कि यदि वह ब्राह्मणोचित कर्म न करेगा तो पतित अथवा हीन ब्राह्मण समझा जा सकता हैं। परन्तु प्रतिग्रहादि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं, प्रत्युत ब्राह्मणतत्त्व को सत्यानाश में मिलानेवाले हैं। जैसा कि मनुजी ने कहा हैं और अन्यत्रा भी लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कन्दपु.
अर्थ यह हैं कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणता) का नाश हो जाता हैं। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को निन्दित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।' इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी लिये जाये तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जायेगा? क्योंकि कर्म करने से जाति मानना विधाख्रमयों का सिद्धान्त और अनभिज्ञता हैं। सनातन धर्म का तो अटल सिद्धान्त हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिये या न करिये। श्रुति भी यही कहती हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात् 8 वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन संस्कार कराकर उसे पढ़ायें।' मनुजी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमे ब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात् 'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी ब्राह्मणता-सम्पादक कर्म नहीं किये हैं और न भविष्यत् का ही निश्चय हैं, तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया हैं। इसलिए यही सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वन्दनादि हैं, न कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।
प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कन्दपु.
अर्थ यह हैं कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणता) का नाश हो जाता हैं। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को निन्दित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।' इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी लिये जाये तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जायेगा? क्योंकि कर्म करने से जाति मानना विधाख्रमयों का सिद्धान्त और अनभिज्ञता हैं। सनातन धर्म का तो अटल सिद्धान्त हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिये या न करिये। श्रुति भी यही कहती हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात् 8 वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन संस्कार कराकर उसे पढ़ायें।' मनुजी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमे ब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात् 'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी ब्राह्मणता-सम्पादक कर्म नहीं किये हैं और न भविष्यत् का ही निश्चय हैं, तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया हैं। इसलिए यही सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वन्दनादि हैं, न कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।
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