Tuesday, October 9, 2018

हमारी पीढी को यहाँ स्त्री की आँख से धनबाद से लेकर राज्य और राष्ट्रीय राजनीति के गैंग्स्टर मिजाज को समझने में मदद मिलेगी, और यह भी समझने में कि यदि कोइ स्त्री इन पगडंडियों पर चलने के निर्णय से उतरी तो उसे किन संघर्षों से गुजरना पड़ता रहा है , अपमान और  पुरुष वासना की अंधी गलियाँ उसे स्त्री होने का   अहसास बार -बार दिलाती हैं. उसे स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं से लेकर मंत्री , मुख्यमंत्री , राष्ट्रपति तक स्त्री होने की उसकी औकात बताते रहे हैं . ६० -७० के दशक से राजनीति के गलियारे आज भी शायद बहुत बदले नहीं हैं. इस आत्मकथा में अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बना लेनी की कहानी है  और ' हां या ना कहने के चुनाव' की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष की भी कहानी है. इस जीवन -कथा की स्त्री उत्पीडित है, लेकिन हर घटना में अनिवार्यतः नहीं.   इस आत्मकथा के कुछ प्रसंग आउटलुक के लिए रमणिका जी एक इन्टरव्यु में पहले व्यक्त हो चुके हैं )

दहशतजदा धनबाद और मुक्ति की छटपटाहट

धनबाद! कोयले की नगरी धनबाद! मज़दूरों और मालिकों की नगरी धनबाद! गरीबी और अमीरी के मापदण्ड तोड़ती, माफिया और पहलवानों के भय को भोगती,भ्रष्टाचार  के बटखरे पर सबसे भारी उतरने वाली,राजनीति की बड़ी-बड़ी हस्तियों का आकर्षण  केंद्र,आकांक्षाओं की धुरी,पैंतरेबाजी के लिए प्रसिद्ध अखाड़ा,सरकारों को बदलने, उलटने-पलटने, मन्त्रिायों के विभाग और मुख्यमंत्रियों के बनने-बनाने, हटने-हटाने की मंत्रणाओं का गढ़। इनके कार्यान्वयन हेतु धन जुटाने का अजस्र स्रोत  भी यही धनबाद। इस शहर में गॉडडफादर भी जबरदस्त थे। सबसे बड़े गॉडडफादर थे बी.पी. सिन्हा,मज़दूर नेता। आई.एन.टी.यू.सी.,कांग्रेस पार्टी (सत्ता पार्टी) से सम्बद्ध ‘कोलियरी मजदूर संघ’ यूनियन के अध्यक्ष थे। उनके विरोधियों का भी एक भारी-भरकम मजमा था। सारी नौकरशाही इन गॉडडफादरों  की ताबेदारी करती थी, खासकर बी.पी. सिन्हा की। दरअसल कोयला एशिया  में सबसे बड़ा रोजगार देने वाला उद्योग था, जहाँ मजदूर लाखों की तादाद में काम करते थे। वहाँ सैकड़ों की तादाद में नेता थे और हजारों की तादाद में दलाल। नौकरशाही की भी एक बड़ी फौज़ थी। इन सबसे तालमेल रखने वाले थे गॉडडफादर । नेता और अफसर, अक्सर इनके तलवे चाटते थे। मजदूर एवं उन मजदूरों के छोटे-बड़े नेता इनकी जागीर थे। ये उन्हें जितना ज्यादा से ज्यादा भुना सकते थे, भुनाते थे। मालिकों का नुकसान न हो,मजदूरों को भी कुछ टुकड़े मिलते रहें,यही यहाँ के नेताओं, अफसरों और दलालों की तिकडि़यों का धन्धा था। मजदूरों की गरीबी पर ये दिन-प्रतिदिन अमीर से अमीर हो रहे थे। दिनों-दिन रूतबा बढ़ रहा था इनका। कभी-कभार कोई चालाक अफसर इन दोनों गुटों को लड़वा भी दिया करता था पर प्रायः अफसर इनके बाहर नहीं जा सकते थे। ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रमोशन सब के पैरवीकार यही गॉडडफादर थे। ये राजधानी पटना के एजेन्ट थे। कोई भी नया अफसर आता, खासकर श्रम विभाग काµउसे बी.पी. सिन्हा के यहाँ हाजरी देनी ही होती थी। उनके यहाँ आयोजित रात्रि भोज और शराब पार्टियों में जाकर, साथ में शराब पीना और आगे की राजनीति, स्ट्रेटेजी या यूनियन की कार्यनीति, सभी तो इनके यहाँ तय होती थी। यहाँ कोयले की सबसे बड़ी यूनियन ‘इन्टक’ से सम्बद्ध ‘कोलियरी मजदूर संघ’ थी, जिसके सिरमौर बी.पी. सिन्हा ही थे। (बाद में इसका नाम बदल कर राष्ट्रीय  कोलियरी मजदूर सभा कर दिया गया जो आज तक चला आ रहा है) बी.पी. सिन्हा के यहाँ आयोजित पार्टियों में कोलियरी मालिक भी शामिल रहते थे, इसलिए मालिकों से सम्बन्धों के संदर्भ में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सभी हिदायतें, इन्हीं पार्टियों में दी जाती थीं। पुराने अफसरों के जरिए  भी नये अफसरों को यह हिन्ट मिल जाता था कि क्या करना है,किस मालिक से कैसे पेश  आना है और किस हद तक मज़दूरों के मुद्दों की पक्षधरता करनी है।


बड़ा चन्दा करना हो तो पटना के सभी लीडर-जन बी.पी. सिन्हा के घर आ जाते थे,वहीं कोलियरियों के मालिक व ठेकेदार, जिनमें ज्यादा यूनियन के लीडर ही होते थे,जमा हो जाते,और तय राशि पटना से आए नेताओं को दे दी जाती थी. कुछ सिन्हा साहब भी रख लेते थे ,अपने छुटभैयों में बांटने के लिएु, बाकी अपने या अपने खास लोगों के लिए।सबसे पहले जयप्रकाश  नारायण ने धनबाद में ‘हिन्द मज़दूर सभा’ (एच.एम.एस.) से सम्बद्ध यूनियन का गठन किया था। बाद में उन्होंने इस यूनियन की दो शाखाएं बर्ड कम्पनी की दोकोलियरियों,सिरका तथा अरगड्डा,जो हजारीबाग जिला में पड़ती हैं, में भी खोल दी थीं। उन दिनों इमामुल हई खान भी उनके साथ थे। बाद में बी.पी. सिन्हा ने उनसे अलग होकर इन्टक से सम्बद्ध कोलियरी मजदूर संघ नामक यूनियन बना ली। कुछ कोलियरियों पर इमामुल हई खान का भी दबदबा बना रहा। हई खान की यूनियन एच.एम.एस. से सम्बद्ध थी।

फ्लोरा स्मिथ का रेखांकन


इसी धनबाद में एक बंगाली लेबर लीडर को काले पानी की सजा हुई थी। वे एक ईमानदार नेता थे, जो मालिकों के आगे बिके नहीं थे। मारपीट में मालिक के अतिरिक्त मारे तो ज्यादा मजदूर ही गये थे, पर वे मालिकों पर मजदूरों की हत्या करने का जुर्म साबित नहीं कर सके थे। उलटे लेबर लीडर को ही सजा भोगनी पड़ी थी।
इन्टक में ही दो खेमे थे, जिनमें प्रायः हिंसक संघर्ष  भी हो जाया करते थे। हत्या तो आम बात थी। इन्टक चूंकि कांग्रेस से सम्बद्ध थी, इसलिए सत्ता में उसका दखल था। पटना किसके हाथ में रहे,लड़ाई यही थी। मालिक किसका आदेश  मानें,झगड़ा यहाँ था। जहाँ तक मज़दूरों के हक का सवाल था,वह इंटक के लिए खास मायने नहीं रखता था। मालिक ही मज़दूरों का चन्दा और यूनियन की सदस्यता काट कर दफ्तर में भिजवा देते थे। दरअसल यूनियन के प्रायः सभी नेता व कई सरकारी अफसर भी, सच कहा जाए तो बी.पी. सिन्हा के प्रति ही वफादार थे और उन्हीं की कृपा  से ठेकेदारियां भी करते थे। बस, जो साहब (बी.पी. सिन्हा को सभी साहब कह कर सम्बोधित करते थे) ने एग्रीमेंट कर दिया ,वह मज़दूर से लेकर मालिक, ठेकेदार, अफसर और सरकारी श्रम मशीनरी को मंजूर करना पड़ता था। बड़े-बड़े लठैत यूनियन के कार्यकर्ता थे,उनके खिलाफ बेचारा कौन मजदूर बोलेगा? जो बोलेगा पिट जाएगा या नौकरी से बर्खास्त हो जाएगा।

कांग्रेस पार्टी में बी.पी. सिन्हा के खिलाफ रंगलाल चैधरी सक्रिय थे, जो धनबाद कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। वे एकदम विशुद्ध  शाकाहारी भूमिहार नेता थे। यूनियन के भीतर राम नारायण शर्मा ,जो लोकसभा सदस्य भी चुने जा चुके थे,बी.पी. सिन्हा के विरोधी गुट में थे। वे यूनियन के जनरल सेक्रेटरी थे। बी.पी. सिन्हा अध्यक्ष थे। राम नारायण शर्मा ईमानदारी के लिए मशहूर थे और वे बी.पी. सिन्हा के गलत समझौतों का विरोध भी करते थे। कान्ती भाई (गुजराती) और दास गुप्ता भी यूनियन में थे और बी.पी. विरोधी थे,पर वे मुखर नहीं हो पाते थे। उन्होंने बाद में कोयला की फेडरेशन बनाकर खुद को फेडरेशन का अध्यक्ष और दासगुप्ता को महामन्त्री बना दिया था। वे असन्तुष्ट , यानी बी.पी. लॉबी के विरोधियों तथा बिहार के बाहर के कोयला प्रतिनिधियों के समर्थन से जीत जाते थे। फेडरेशन के स्तर पर वे ठेकेदारों को यूनियन में लाने के विरोधी थे,पर जहाँ सारा संगठन ही ठेकेदारों को हाथ में हो, तो वहाँ फेडरेशन के एक-दो नेताओं की कौन परवाह करता?ऐसे एक बार बी.पी. सिन्हा ने धनबाद से बर्ड कम्पनी के एक बड़े अफसर प्राण प्रसाद को धनबाद से सांसद का चुनाव लड़वाया था। उस चुनाव में लोगों को साइकिल भी बांटे थे। इस पर भी प्राण प्रसाद बुरी तरह पराजित हुए थे और उनकी जमानत जब्त हो गई थी। रामनारायण शर्मा ही सदैव कांग्रेस से जीतते थे,वे ही अन्ततः जीते। बी.पी. सिन्हा की जनता में नहीं चली।

बड़ी-बड़ी अंग्रेजी कम्पनियों  के अतिरिक्त वोरा, चंचनी और अग्रवाल बड़े खदान मालिकों में थे। कुछ ठाकुर,कुछ भूमिहार, जो पहले ठेकेदारों के यहाँ पहलवानी करने आए थे,छोटी-मोटी ठेकेदारियां लेकर बाद में मालिकों को भ कर खुद ही मालिक बन बैठे थे। वे लेबर लीडर भी थे। शंकर दयाल सिंह, सतदेव सिंह, सूरजदेव सिंह आदि पहले पहलवान के रूप में ही बी.पी. सिन्हा की शरण में धनबाद आए थे,फिर ठेके लिए और बाद में खदानें हड़प कर मालिक बन गए।अन्त में तो अपनी स्वतन्त्रा सत्ता कायम करने के बाद, सभी के सभी मुख्यतः जातीय आधार पर या जिला-जवार के नाम पर बी. पी. सिन्हा के खिलाफ हो गये या इन्होंने अपने स्वतंत्र गुट व खेमे बना लिये। इन सबके तार पटना से जुड़े थे। धीरे-धीरे इन्होंने राजनीति में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया और कांग्रेस पार्टी में अपनी जाति के नेताओं और मंत्रियों से जुड़कर अपनी पैठ बना ली। शंकरदयाल सिंह जैसे लोग, तो न केवल जिला बोर्ड के अध्यक्ष बन गये बल्कि बिहार सरकार में केबिनेट मंत्री  भी बन गये थे। उनके भाई सतदेव सिंह कोलयरियों के मालिक थे और शंकर दयाल सिंह मालिक तो थे ही, मजदूर नेता और सरकार में मंत्री  भी थे। धनबाद एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों, बल्कि कहा जाए बंगाल तक बड़ी-बड़ी अंग्रेजी कंपनियों के अतिरिक्त राजस्थान के मारवाड़ी और गुजरात के चंचनी और व्होरा ग्रुप की भी कई-कई खदानें थीं। खदानों में स्थानीय लोगों की बजाय बाहरी लोग ज्यादा थे। खासकर प्रबन्धन में या ठेकेदारियों में आरा, छपरा, बलिया, भोजपुर, दरभंगा और गया के लोग थे या फिर पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी और बंगाली। इनके सारे के सारे मजदूर या तो स्थानीय होते थे या फिर मध्य प्रदेश  के रायगढ़, बिलासपुर, उड़ीसा के गंजाम जिला, बंगाल के पुरूलिया और उत्तर प्रदेश  के गोरखपुर से लाए जाते थे।  प्रायः बिहार के पलामू, गया, भोजपुर, आरा, छपरा व मुंगेर से भी मजदूर लाए जाते थे, जो मजदूर-कम-लठघर (ठेकेदारों की तरफ से) दोनों होते थे अपने डील-डौल के कारण, खास कर गोरखपुर और पलामू के लेबर मालिक के लिए लठैती भी करते थे। छोटानागपुर के लोग यानी वर्तमान झारखण्ड के लोग प्रायः ठेकेदारियों में खटते थे।
सब ठेकेदार अपने-अपने पहलवान रखते थे, जिनका मकसद था यूनियनों को उभरने न देना, खासकर इन्टक विरोधी यूनियनों को। इन्टक सम्बद्ध यूनियनों में प्रायः ठेकेदार ही यूनियन के लीडर होते थे।



जब हम 1960 में धनबाद आए तो बी. पी. सिन्हा इन्हीं जमातों के नेता थे और इनके मार्फत कोलियरी मलिकों और मजूदरों, दोनों पर अपना दबदबा बनाए रखते थे। लेकिन धीरे-धीरे सबने अपनी स्वतन्त्र सत्ता कायम करनी शुरू कर दी। के. बी. सहाय के बाद संविद की सरकारें बननी शुरू हो गईं और इनमें से कुछ नेता कांग्रेस और इन्टक छोड़कर जनता दल में भी चले गये। कांग्रेसी सरकार में तो पांच साल में दो-दो तीन-तीन बार मुख्यमंत्री बदलने लगे थे, यानी राजनीति में अस्थिरता आ गई थी। कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने खासकर मोहन कुमार मंगलम, जो कोयला मंत्री  थे और इंदिरा गांधी, दो बातों से काफी विचलित थे। एक बात तो यह कि धनबाद, जो कोयला क्षेत्र का केन्द्र था, के पैसे का पटना की कांग्रेस सरकारों के मुख्यमंत्रियों या सरकारों को हटाने या बनाने में जबरदस्त दखल था। बाद में दूसरे दलों के लोग भी धनबाद के खजाने में हिस्सा बंटा कर सरकार को बनाने-गिराने लगे थे। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए इस ‘सरकार भंजक केन्द्र’ को तोड़ना जरूरी हो गया था।

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दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि देश  के विकास के लिए बिजली की सख्त जरूरत थी, रेलों के विस्तार की जरूरत थी, जिसके लिए उर्जा का एकमात्र स्रोत  कोयले की खदानें थीं, जिनके विस्तार की बहुत आवश्यकता  थी। इसकी पूर्ति के लिए धन की जरूरत थी। सरकार ने कोलियरी मालिकों से कोयला खदानों के विस्तार की पेशकश  की थी। कोयला बोर्ड में सरकारी नुमाइंदों के अतिरिक्त कोलियरी मालिक भी शामिल  होते थे और मजदूर नेता भी। कोलियरी मालिकों ने कोलियरियों के विस्तार के लिए पर्याप्त पूंजी लगाने में असमर्थता जाहिर की थी। ऐसे भी सरकार के पास ये रिपोर्ट थी कि कोलियरी मालिक कोलियरियों का उत्खनन बहुत ही अवैज्ञानिक ढंग से कर रहे हैं। वे कम पूँजी लगाकर ज्यादा मुनाफा पाने के लिए ऊपर  की परतों से कोयला निकाल कर, नीचे बची हुई परतों को ओवरवर्डेन से ढक देते थे और अंडरग्राउंड खदानों के कोयले में आग लगने अथवा पानी भर जाने से बचाने की बजाय उन्हें ढँक कर नया मुहाना खोल देते थे। खदानों की कटाई भी वर्टिकल होती थी और भूगर्भ खदानों को बालू भरे बिना छोड़ दिया जा रहा था। आग बुझाने के लिए भी बालू केवल कागजों में ढोया जाता था।

ऐसे हालात में सरकार ने खदानों के सरकारीकरण का फैसला किया। चूंकि  स्टील कारखानों के लिए कोयले की सख्त जरूरत थी ,जिसमें केवल कोकिंग कोल ही इस्तेमाल हो सकता था, इसलिए सरकार ने सन् 1970 में पहले केवल कोकिंग कोल वाली खदानों का ही सरकारीकरण किया, जिसमें धनबाद की सारी और बंगाल की अधिकांश  खदानें चली गईं। इस प्रकार धनबाद में ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ (बी.सी.सी.एल.) बनी।
इन्टक का नेतृत्व  भौंचक रह गया, क्योंकि उनकी सारी कमाई तो कोलियरी मालिकों से होती थी। इन्टक के जितने भी ठेकेदार या मजदूर लीडर थे वे सब के सब रातों-रात कोलियरियों के स्टाफ बन गये। सबके भाई-भतीजे और लठैत-पहलवान, मुंशी  या मजदूर बन गये। असली मज़दूर खदेड़े जाने लगे। अफसर, पुलिस और प्रशासन की मदद से, यहाँ तक कि कोर्ट के जजों की मदद से नये-नये लोग काम पाने लगे और पुराने लोग भगाये जाने लगे। नौकरी की इस भ्रष्ट  मिलीभगत में लाखों रुपए के वारे-न्यारे होने लगे। स्थानीय और असली मजदूर हक्के-बक्के रह गए। उनकी आँखों के सामने लूटी जा रही थी उनकी नौकरियाँ और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। उनके अपने ही नेता उन्हें बेच रहे थे। बस, एक दिन सब्र का बाँध फूट गया,खासकर स्थानीय मजदूरों और किसानों का। मजदूर स्पष्ट  रूप से दो खेमों में बंट गया,बाहरी और स्थानीय अर्थात् देशज । 
ठेकेदारी के जमाने से ही ए. के. राय की यूनियन धनबाद में अपने पाँव पसार चुकी थी और इन्टक की कोलियरी मजदूर संघ (बाद में राष्ट्रीय  कोलियरी मजदूर संघ) एवं ‘बिहार कोलियरी मजदूर सभा’ में प्रायः रोज हिंसक झड़पें होने लगी थीं। इन्टक के अधिकांश  लीडर सूदखोर थे। ए. के. राय की यूनियन, जो सी. आई. टी. यू. से सम्बद्ध  थी, ठेकेदारी और सूदखोरी के विरुद्ध लड़ाई के साथ-साथ लोकल की बहाली और विस्थपितों की लड़ाई भी लड़ रही थी। ए. के. राय पहले पेशे  से इंजीनियर थे लेकिन मजदूरों की दुर्दशा  देख कर वे नौकरी छोड़ कर मजदूर संगठन से जुड़ गए। उन दिनों विनोद बिहारी महतो एक नामी वकील थे और शिबू  सोरेन छोटानागपुर के उभरते आदिवासी नेता, जो अलग झारखण्ड की माँग कर रहे थे। तीनों एकजुट हुए और एक बड़ा संघर्ष  चला। खासकर कोलियरियों के सरकारी होने के बाद। इस संघर्ष  के नारे थे स्थानीय लोगों को नौकरी दो, विस्थापितों  का पुनर्वास करो, नौकरी दो। ये लड़ाइयाँ बहुत लम्बी चलीं। हालांकि बाद में शिबू  सोरेन ए.के. राय से अलग हो गये लेकिन विनोद बिहारी महतो आजीवन ए. के. राय के साथ रहे।

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