‘चोरी भेल चोरी, हम्मर माछक झोरी,ज्यॉं पूछथिन बौआक माय, तs कहबनि चोर ल गेल
मिथिला के एक लोकप्रिय लोकगीत का मुखड़ा है ये. ज़्यादा पुराना तो नहीं लेकिन बचपन में हम इसे खूब गाते थे. स्कूल के दिनों में एक बार धोती-कुर्ता पहनकर इस गीत पर अभिनय करने का मौका भी मिला, जिसमें हर अंतरे के बाद ‘चोरी भेल…’ का मुखड़ा आते ही हथेली से माथा पीटना होता था. दो अंतरों वाले इस गाने का सार ये है कि हजरत को सोकर उठते ही बौआ की मां यानि धर्मपत्नी से दरभंगा जाकर मछली लाने का आदेश मिलता है. साथ में धमकी भी कि अगर मछली लेकर नहीं आये तो घर में दंगे की पूरी संभावना है. और इतने जतन से खरीदी गयी मछली को चोर ले गया. यूं सुनने में ये गाना हास्य रस का लगता है लेकिन इसमें निहित करूणा और पीड़ा को कोई मैथिल ही समझ सकता है. माछ की गठरी हाथ से निकल जाना किसी मैथिल के लिए कितनी पीड़दायी हो सकती है ये समझने के लिए मिथिला की सांस्कृतिक विरासत और उसमें मछली की प्रमुखता को जानना बहुत ज़रूरी है.
दरअसल, पान, मखान और मछली के बिना मिथिला की कोई भी चर्चा पूरी नहीं हो सकती. पान और मखान तो कहते हैं स्वर्ग में भी प्राप्य नहीं है और मछली का सेवन धरती पर स्वर्ग में विचरण के समान सुख देने वाला है. “जम्बीरनीरपरिपूरितमत्स्यखंडे” (जमीरी नींबू के रस से परिपूर्ण मछली के टुकड़ों) के सामने तो मैथिल अमृत तक को तुच्छ समझते हैं. हां तली मछली के टुकड़े के साथ जमीरी नींबू का होना आवश्यक है यहां.
मैथिलों का मछली प्रेम वर्ग निरपेक्ष है क्योंकि मैथिल डिक्शनरी में मछली की गिनती मांसाहार में होती ही नहीं. मछली को यहां पानी फल कहा जाता है. इसलिए इसका सेवन ब्राह्मण परिवारों में भी उतनी ही प्रचुरता से होता रहा है. ब्राह्मण विवाह में बारातियों के लिए मछली ज़रूर बनाई जाती है. विवाह की वेदी पर बैठने के पूर्व दूल्हे को उसकी सालियां और सलहजें बड़े मनुहार से जो भोजन कराती हैं, उसमें तली और झोल वाली मछली भी शामिल होती है. ब्राह्मण घरों में चिकन और अंडे का प्रवेश हाल फिलहाल तक ज़रूर वर्जित रहा क्योंकि इन्हें विजातीय समझा जाता था.
मैथिल घर में मछली का आना आयोजन नहीं उत्सव हो जाया करता है जिसमें सबकी भागीदारी समाहित होती है. सबसे पहले मछली के टुकड़ों को साफ कर नमक और हल्दी मिलाकर थोड़ी देर ढक कर रखा जाएगा. उसके बाद बाकी मसाले मिलाकर शुरु होता है मछली के टुकड़े तलने का कार्यक्रम. मेन कोर्स के पहले मछली के तले टुकड़े स्टार्टर बनते हैं. अगर लायी गयी मछली को चीरने पर अंदर से अंडे निकल गये तो अंडों के बड़े या पकौड़े दूसरी स्टार्टर डिश बन जाते हैं. झोल के लिए पहले प्याज़, अदरक वगैरा के साथ पिसे जीरे को भुना जाता है फिर उसमें सरसों और टमाटर डालकर झोल बनाया जाता है. चावल और मछली के मेन कोर्स के बाद स्वीट डिश के तौर पर भोजन की समाप्ति दही के साथ की जाती है. साथ में अगर रसगुल्ले भी हों तो कहना ही क्या.
माना जाता है कि मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी दरभंगा दरअसल ‘द्वारबंग’ (यानि बंगाल के द्वार) का अपभ्रंश है. मिथिला और बंगाल की संस्कृतियों में भी काफी समानताएं रही हैं जो पारिवारिक संबोधनों (पीसी, पीसा वगैरा) और बंग्ला और मैथिली की मिलती जुलती लिपि में भी देखी जा सकती है. माछ प्रेम भी इसी परस्पर समानता की एक कड़ी है. यही नहीं, प्याज़, टमाटर और सरसों के साथ मछली का झोल बनाने की विधि भी करीब-करीब एक सी है. अंतर बस ये कि मैथिल रोहू के दीवाने हैं तो बंगालियों को ईलिच के सामन दूसरी मछली नज़र नहीं आती.
मैथिलों के लिए चूंकि मछली से ज़्यादा देर तक दूर रह पाना संभव नहीं होता तो पाबंदी के दिनों का हर समापन मछली के साथ ही होता आया है. मृत्यु शोक में तेरहीं के भोज तक खाने-पीने का प्रतिबंध मानने के अगले दिन परिवार के लोग मछली खाकर जीवन के पुरानी गति पर लौटने की शुरुआत करते हैं. दिवाली से लेकर छठ के बीच पूजा पाठ के चलते मछली खाने पर रोक के बाद लोग सबसे पहले मछली ही लेकर आते हैं. मेरे पैतृक गांव में तो छठ के घाट से लौटते समय ही मछली लेते हुए घर आने के परंपरा है. नवजात शिशु के जन्म के छठे दिन की पूजा यानि छठी के दिन मां को भी मछली ज़रूर खिलाई जाती है. हालांकि ये मान्यता है कि जिन महीनों के अंग्रेज़ी नाम में आर ना हो (मई, जून, जुलाई, अगस्त) उनमें मछली नहीं खानी चाहिए.
मछलियों की प्रजाति की विविधता भी हर भोजन में अलग सा स्वाद लेकर आती है. बड़े कांटे और खूब गूदे वाले रोहू को मछलियों का राजा होने का गौरव मिला है. रोहू के हर भाग के खाने का स्वाद अलग है, पेट, पीठ, पूंछ और सिर यानि मूड़ा. रोहू का मूड़ा खा पाना हर किसी के बस का होता भी नहीं, लेकिन जो इसके स्वाद को सात् लेते हैं वो फिर किसी और मछली की चाहना नहीं रखते क्योंकि एक मूड़े में कई तरह के स्वाद समाहित होते हैं. इसके अलावा भी मांगुर, सिंघी, कबई, बुआरी, पोठी, झिंगा, चिंचड़ी और ईंच्चा जैसी मछलियां मौसम और जेब के हिसाब से खायी जाती हैं. मांगुर में सबसे ज़्यादा प्रोटीन होता है तो बुआरी सर्दी के मौसम में भी आसानी से मिलती है. कबई के बारे में कहते हैं कि वो तले जाने तक भी ज़िंदा रहती है तो सींग वाली सिंघा मछली कई बार अपनी जान बचाने के लिए उछलकर काटने वाले को भी घायल कर सकती है. पोठी को पूरे का पूरा यूं ही तलकर उसका स्वाद भुने चिवड़े के साथ पकौड़े के तौर पर भी लिया जा सकता है.
मैथिल परिवारों में खेतों और घर के साथ पोखरों का भी बंटवारा होता आया है. संपन्न गृहस्थ के लिए जैसे अन्न खरीदकर खाना लज्जा का विषय हुआ करता था वैसे ही मछली खरीदकर खाना भी उनके शान के खिलाफ था. थोड़े अंतराल के बाद तालाब में जाल डाले जाते और पकड़ी गयी कुल मछलियों में से अपने मेहनताने का हिस्सा निकालकर मछुआरे बाकी पाटीदारों को सौंप देते.
नागार्जुन ने तो पोखर और माछ को वर्ग संघर्ष का निमित्त बनाकर ‘वरुण के बेटे‘ के नाम से लगभग 100 पृष्ठों का लघु उपन्यास ही लिख डाला. गढ़ोखर यानि गढ़पोखर के स्वामित्व को लेकर मछुआरों और ज़मींदारों के बीच की लड़ाई की कहानी है वरुण के बेटे. खुरखुन, मंगल और मधुरी जैसे मछुआरों की जीवन रेखा और बिक्री के बाद गढ़ोखर को नये रूप में ढालने के लिए इन्हीं मछुआरों को उससे बेदखल करने की नये मालिकों के कवायद के बीच जन्म संघर्ष की गाथा. यूं मछली प्रसंग नागार्जुन के हर गद्य में मौजूद है. उनकी कविताओं में भी मछली के प्रतीकों को लेकर कई प्रयोग किए गये हैं. उन्होंने ‘तालाब की मछलियां’ नाम का कविता संग्रह भी रचा है. दरभंगा में बाबा नागार्जुन जब पहली बार मेरे घर आये थे तो एक दिन पहले खबर भेजकर मांगुर माछ ही बनाने की फरमाइश की थी.
मैथिल यूं भी खाने के इतने शौकीन होते हैं कि उनकी खुशकिस्मती भी अच्छा भोजन पकाने वाली पत्नी से ही जुड़ी है. मैथिल साहित्य के प्रथम आधिकारिक ग्रंथ वर्ण रत्नाकर में मत्स्य भोजन का विषद वर्णन है. उससे भी पहले का एक दोहा 12वीं शताब्दी में रचे गये प्राकृत पैंगलं का है जिसमे खाने का वर्णन ऐसा है कि उसी से विद्वानों ने उसे आरंभिक मैथिली साहित्य का दर्जा दे दिया है. आधुनिक मैथिली में उस दोहे का अनुवाद करें तो अर्थ कुछ ऐसा निकलता है, ‘अरबा चाउरक भात, केराक पात गायक घिउ, संगहि दूध, भुन्ना माछ, पटुआ साग, आदि व्यंजन कांता अर्थात गुणवान स्त्री दैत छथि, पुण्यवान पुरुष खाइत छथि. ‘ यानि केले के पत्ते पर गाय के घी के संग अरवा चावल का भात, भुन्ना मछली और पटुआ के साग का भोजन गुणी स्त्रियां परोसती हैं और पुण्यवान पुरुष को ऐसा भोजन खाने को मिलता है.
यूं खाने पीने की परंपरा में भूगोल की महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता. मिथिला तालाब प्रधान क्षेत्र है. अकेले दरभंगा शहरी क्षेत्र में आठ बड़े तालाब हैं. ग्रामीण और दूसरे शहरों में कई और. छोटे-छोटे पोखरों की तो गिनती नहीं. मैथिल किसान ज़्यादातर धान की खेती करते हैं वहीं इस क्षेत्र में दलहन की पैदावार कम रही है. तो एक तरह से इस इलाके के लोगों के शरीर में प्रोटीन पहुंचाने की ज़िम्मेदारी मछली उठाती रही है. तभी मैथिल समाज में पुण्य और कीर्ति दोनों की प्राप्ति के लिए पोखर खुदवाने और फिर यज्ञ कर उसे पूरे समाज को सौंपने का प्रचलन लंबे समय से रहा है. हालांकि शहरीकरण और उससे उपजे अतिक्रमण के प्रभाव से मिथिला के पोखर भी बचे नहीं रह सके. कईयों को पाट कर उनपर घर बना लिए गये हैं. कभी मछली खरीदकर खाने को अपनी शान के खिलाफ समझने वाले संपन्न मैथिल परिवार भी अब इसे खरीदने पर मजबूर हैं. लेकिन मिथिला का मछली प्रेम अब भी उसी जगह कायम है.
जो खाने में इतना प्रिय हो उसके प्रतीक संस्कृति और विरासत में तो यत्र-तत्र दिखने ही हैं. सो मिथिला को लोक परंपरा में मछली अपने विविध रूपों में हमेशा विराजमान दिखी है. दरभंगा राज के स्थापत्य का इतिहास सोलहवीं शताब्दी के एक ब्राह्मण परिवार तक जाता है. अकबर के शासन काल में पंडित महेश ठाकुर ने इस इलाके में कर वसूलने की ज़िम्मेदारी ली थी और धीरे-धीरे उनके वंशजों ने इस इलाके में ज़मींदार राजा के रुप में अपना वर्चस्व स्थापित किया. इस शासन की आखिरी कड़ी आज़ादी के समय राजा कामेश्वर सिंह तक जाकर खत्म होती है. दरभंगा राज का प्रतीक चिह्न ही मछली है. राज परिसर के हर महत्वपूर्ण द्वार और भवन पर मछली के चित्र देखे जा सकते हैं.
मिथिला या मधुबनी पेंटिंग में भी मछली के साथ कई प्रयोग दिखाई देते हैं. इस कला में पौराणिक कथाओं और दृश्यों को चित्र के माध्यम से दिखाने की परंपरा रही है. इस क्रम में मछली को उर्वरता का प्रतीक माना गया है. विष्णु का मत्स्यावतार भी मिथिला पेंटिंग का मौजूं विषय रहा है. मछलियों को बार्डर के तौर पर भी मूल कथानक के साथ उकेरा जाता रहा है. नवविवाहित युगल के कमरे यानि कोहबर की सज्जा मछलियों के चित्र के बगैर कभी पूर्ण नहीं हो पाती. इस क्रम में मछली को कामोत्तेजना और उर्वरता का प्रतीक माना गया है.किसी पूजन या हवन के मौके पर भीगे चावल को पीस कर बनाए गये अहिपन(अल्पना) में भी मछली का चित्रण प्रमुखता से किया जाता है.
हालांकि मछली खाकर घर से निकलने को मैथिल खराब जतरा (सायत) मानते हैं. लेकिन मछली देखकर घर छोड़ना शुभ माना जाता है. वैसे भी मछली के गरिष्ठ भोजन के बाद पैर फैलाकर सोने का जी करता है, घर छोड़कर कौन जाना चाहेगा भला.
स्थानीय कहावतों में मछली कई रूपों में नज़र आती है. मसलन काम से पहले अधीरता दिखाने वालों के लिए कहा जाता है, ‘पोखरि में माछ, नौ-नौ कुट्टी बखरा’ यानि मछली अभी पोखर में ही है और बंटवारा पहले ही हो गया. या फिर मीन या वर्ग भेद को उजागर करता ये कहावत ‘मूरा खाय मीरा, पुच्छी खाय गुलाम’. वैसे किसी भी मैथिल से उसके जन्मस्थान का परिचय पूछिये तो वो ये चार पंक्तियां ज़रूर सुनायेगा,
‘पग पग पोखरि माछ मखान
सरस बोल मुसकी मुख पान
विद्या वैभव शांति प्रतीक
ललित धाम मिथिलांचल थीक ‘
तभी प्रवासी मैथिल नये परिवेश में रहने-सोने की व्यवस्था कर लेने बाद सबसे पहले उस जगह की खोज शुरु करता है जहां से ताज़ा रोहू और मांगुर मछलि
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