Sunday, October 21, 2018

असुरों से बार – बार युद्ध करके देवता बोखला चुके थे, क्योकि असुराचार्य शुक्राचार्य संजीवनी विद्या जानते थे । जिससे वह असुरों को मरने के बाद भी फिर से जिन्दा कर देते थे । इसलिए देवताओं ने षड्यंत्र करके अपने गुरु बृहस्पति से संजीवनी विद्या का तोड़ जानने का आग्रह किया । बृहस्पति ने अपने पुत्र कच को शिष्य बनाकर शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिए भेजा ।

संजीवनी विद्या सीखने के दौरान कच और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी आपस में प्रेम करने लगे । लेकिन जब असुरों को पता चला कि बृहस्पति ने चालाकी से अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिए भेजा है तो उन्होंने कच को मार डाला । कच के मृत्यु की बात जब देवयानी को पता चली तो वह बिलख – बिलखकर रोने लगी । शुक्राचार्य से अपनी प्रिय पुत्री का ऐसे विलाप करते देखा नहीं गया । अतः अपनी पुत्री के आग्रह करने पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से कच को फिर से जीवनदान दे दिया ।

इस तरह असुरों ने कई बार कच को मृत्यु के घाट उतार दिया और देवयानी के आग्रह करने पर शुक्राचार्य ने उसे जीवनदान दिया ।



आखिर एक दिन परेशान होकर शुक्राचार्य ने कच को संजीवनी विद्या सीखा ही दी । अपना उद्देश्य पूरा होने पर जब कच वापस देवताओं के पास जाने लगा तो देवयानी ने भी उसके साथ चलने का आग्रह किया । किन्तु कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया । इस बात से देवयानी उस पर बहुत क्रोधित हुई और उसने उसे श्राप दे दिया कि “तुम्हे तुम्हारी विद्या कभी फलवती नहीं होगी ।”

इसपर कच ने भी पलटकर देवयानी को श्राप दे डाला कि “कभी भी कोई ऋषि कुमार तुमसे विवाह नहीं करेगा ।”
वासना की तृप्ति | राजा ययाति की कथा
शर्मिष्ठा और देवयानी की लड़ाई
ययाति और शर्मिष्ठा का एकांत मिलन
अमरावती में चन्द्रवंश में राजा नहुष हुआ करते थे । राजा नहुष के छः पुत्र याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति और कृति थे । याति प्रारम्भ से ही विरक्त स्वभाव के थे अतः महाराज नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति को उत्तराधिकारी घोषित कर राजगद्दी पर बिठा दिया ।

तदोपरान्त राजा ययाति का विवाह असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ । देवयानी के साथ उसकी सखी शर्मिष्ठा दासी के रूप में आई । शर्मिष्ठा भी राजभवन में रहकर देवयानी और महाराज की सेवा करने लगी । आगे चलकर राजा ययाति शर्मिष्ठा की सुन्दरता पर मोहित हो गये । उसने याचना पूर्वक उनसे ऋतुकाल में पुत्र रत्न प्राप्ति की कामना की । इस बात के लिए राजा ययाति ने पहले ही देत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी कि वह देवयानी के अलावा किसी भी परनारी पर दृष्टि नहीं डालेंगे । किन्तु फिर भी उन्होंने शर्मिष्ठा के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उससे समागम करके तीन वर्ष में तीन पुत्र रत्न प्रदान किये ।
जब यह बात देवयानी को पता चली तो उसने अपने पिता शुक्राचार्य को बता दिया । राजा ययाति द्वारा अपनी प्रतिज्ञा तोड़े जाने पर शुक्राचार्य ने उसे शुक्रहीन अर्थात वृद्धत्व का श्राप दे डाला ।

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अब महाराज की सारी शक्तियां क्षीण हो चुकी थी । देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र होने के बाद भी महाराज की वासना ज्यों की त्यों बनी हुई थी । अपने यौवन के छीन जाने से राजा ययाति बड़ी ही पीड़ा और काम पिपासा के दौर से गुजर रहे थे । वासना ने उनके मन पर इस तरह डेरा जमा रखा था कि उन्हें राजकाज भी नहीं सूझ रहा था लेकिन श्राप के कारण वृद्ध बने ययाति भीतर ही भीतर अपनी ही मौत का मातम मना रहे थे ।

तभी एक दिन मृत्यु ने उनके द्वार पर दस्तक दी । आंखे खुली तो देखा कि सामने यमराज खड़े बोल रहे थे – “राजा ययाति ! तुम्हारी आयु पूरी हो चुकी है । परलोक गमन की तैयारी कर लो ।”

यह सुनकर ययाति बोखला उठा । उसे कुछ न सुझा । वह यम से जीवन की याचना करने लगा । अनुनय – विनय करने लगा । ययाति बोला – “ हे यम ! आप जानते है, मेरी श्राप के कारण यह दशा हुई है । कृपा कर मुझे जीवन दान दे । अभी मेरी सारी इच्छाएं अधूरी है ।” आखिर ययाति की वासना याचना बनकर निकल ही आई ।

यम बोले – “ ऐसा नहीं हो सकता ययाति ! हर मनुष्य के जीवन का एक निश्चित समय होता है । उस आयु भोग के बाद सबको विदा होना पड़ता है । यही शाश्वत नियम है ।”

ययाति गिडगिडाकर बोला – “ हे प्रभो ! सभी पृथ्वी वासियों की मृत्यु आपके अधीन है । आप काल के भी महाकाल कहे जाते है । यदि आप कृपा करे तो मेरा जीवन संभव है ।”

राजा के बहुत अनुनय – विनय करने पर यमराज मान गये । उन्होंने ययाति के सामने एक प्रस्ताव रखा कि “ हे राजन ! एक उपाय है । यदि तुम्हारे पुत्रो में से कोई पुत्र तुम्हे अपना यौवन प्रदान करे तो तुम सुखपूर्वक जीवित रहकर अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी कर सकते हो ।”

यह सुनकर विषयों के चिंतन में लिप्त और मन का गुलाम ययाति निर्लज्ज होकर अपने पुत्रो से यौवन की याचना करने लगा । अधिकांश पुत्रों ने इस अवस्था में वासना के वशीभूत अपने पिता को क्रोध पूर्वक दुत्कार कर अपना यौवन देने से मना कर दिया । किन्तु राजा ययाति की दासी शर्मिष्ठा के सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपने पिता की अवस्था पर दया आ गई । उसने आगे बढ़कर पितृभक्ति दिखाई और अपना यौवन देने के लिए तैयार हो गया ।

पुरु के त्याग को देखकर यमराज को आश्चर्य हुआ । उन्होंने इसका कारण पूछा तो पुरु बोला – “ सांसारिक भोगों की आसक्ति ठीक नहीं । क्योंकि मैं अपने पिता की दशा देख सकता हूँ और यह दशा कल मेरी भी हो सकती है । पुरु की दूरदर्शिता को देख यम ने उसे जीवन मुक्ति का आशीर्वाद दिया और ययाति को सौ वर्ष की आयु प्रदान की ।

सौ वर्ष बाद जब यमराज फिर लौटे तो उन्होंने देखा कि राजा ययाति कई रानियाँ और सैकड़ो बच्चे पैदा करने के बाद भी अतृप्त दिखाई दिए । ययाति ने फिर से वही अतृप्त इच्छाएँ पूरी करने के लिए जीवनदान देने की याचना की । यमराज ने फिर से वही प्रस्ताव रखा । इस बार भी ययाति ने अपने पुत्रों से वासना और भोगों की पूर्ति के लिए आयु और भोग की याचना की । पैदा हुए पुत्रों मेंसे फिर से एक पुत्र ने अपनी आयु और भोग अपने पिता को देना श्रेयस्कर समझा ।

इस प्रकार यह प्रसंग दस बार पुनरावर्तित हुआ और राजा ययाति अपने दस पुत्रों के यौवन से सौ – सौ करके एक हजार वर्ष तक जीवित रहे और सांसारिक वासनाओं के भोग में लिप्त बने रहे । जब एक सहस्त्र वर्ष तक भोग – लिप्सा में लिप्त करने पर भी ययाति को कोई तृप्ति नहीं मिली तो विषय वासना से उनको घृणा हो गई । जब अंतिम बार यमराज का आगमन हुआ तब राजा ययाति ने पश्चाताप व्यक्त करते हुए यम देवता से कहा –


भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥


अर्थात – भोगों को हमने नहीं भोगा बल्कि भोगों ने हमें भोग लिया है । हमने तप नहीं किया बल्कि हम स्वयम ही तप्त हो गये है । काल समाप्त नहीं हुआ बल्कि हम ही समाप्त हो गये है और तृष्णा कभी जीर्ण नहीं हुई बल्कि हम ही जीर्ण हो गये है ।

हे देव ! भोग और वासनाओं के कुचक्र में फसकर मैंने अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ ही बर्बाद किया है । इस तरह अपनी बची हुई आयु अपने पुत्र पुरु को लौटाकर वह वन में तपस्या करने चला गया
राजा ययाति, देवयानी से विवाह करके शर्मिष्ठा को साथ लिए अपनी राजधानी लौटे । वहाँ पहुंचकर राजा ययाति ने देवयानी को अपने अन्तःपुर में स्थान दिया तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को अपने उद्यान में महल बनवाकर सभी सुविधाओं के साथ रखा । देवायनी अक्सर उद्यान में विहार के लिए शर्मिष्ठा के पास आ जाती थी । इस तरह कई वर्ष व्यतीत हो गये । इस बीच देवयानी के भी बच्चे हो गये ।

एक दिन यौवन से परिपूर्ण और आभूषणों से सुसज्जित शर्मिष्ठा ऋतुकाल अवस्था में स्नान आदि से निवृत होकर अपने उद्यान के वृक्ष की शाखा पकड़े विचार मग्न थी । अपने रूप – यौवन को दर्पण में निहारकर उसका मन पति के लिए मचल उठा । वह दुखी होकर बोली – “ हे अशोकवृक्ष ! तुम सबके ह्रदय का शोक दूर करने वाले ! क्या तुम मुझे भी मेरे पति का दर्शन करवाकर मेरे भी मन का शोक दूर कर सकते हो ?”



इस तरह शर्मिष्ठा मन ही मन वृक्ष से बाते करते हुए बोली – “ मैं ऋतुकाल में हूँ किन्तु अभी तक मैंने अपने पति का वरण नहीं किया है । यह कैसी विडम्बना है ? देवयानी तो पुत्रवती हो चुकी है किन्तु मेरी यह सुन्दरता और जवानी व्यर्थ ही जा रही है । क्या मुझे भी महाराज को ही पति के रूप में वरण करना चाहिए । क्या महाराज मुझे स्वीकार करेंगे । क्या वह मुझे इस समय एकांत में दर्शन देंगे ।”

शर्मिष्ठा यह सब सोच ही रही थी कि संयोग से उसी समय राजा ययाति महल से बाहर निकले । अशोक उद्यान में शर्मिष्ठा को अकेले टहलते देख वह रुक गये । तभी शर्मिष्ठा की नजर महाराज पर पड़ी । अपना मनोरथ पूर्ण होता देख वह आगे बढ़ी और महाराज को एकांत में ले गई ।

शर्मिष्ठा बोली – “ हे नहुष नंदन ! आप भली प्रकार जानते है कि मैं आपके महल में पूरी तरह से सुरक्षित हूँ, अतः मुझे मेरी पवित्रता का प्रणाम देने की कोई आवश्यकता नहीं । आप यह भी जानते है महाराज कि मेरा कुल, शील और स्वभाव क्या है । जिस तरह देवयानी आपके साथ विवाह करके आई उसी प्रकार मैं भी आपके यहाँ दासी बनकर आई हूँ । अतः आप मेरे भी स्वामी है । अतः मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि मेरे ऋतुकाल को सार्थक करें महाराज !”



यह सुनकर राजा ययाति बोला – “हे देत्य पुत्री शर्मिष्ठे ! मैं जानता हूँ कि तुम पूर्ण रूप से निर्दोष हो और सुशील हो । किन्तु जब देवयानी के साथ मेरा विवाह हुआ था उस समय मैंने देत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी कि मैं देवयानी के अलावा किसी और नारी से सम्बन्ध नहीं रखूँगा । अब यदि मैंने अपना वचन तोड़ा तो वह अवश्य नाराज होंगे ।

यह सुनकर महाराज को समझाते हुए शर्मिष्ठा बोली – “ हे राजन ! जब बात प्राणों की हो तो वचन का कोई मोल नहीं रह जाता और किसी के प्राण बचाने के लिए बोला गया असत्य, असत्य नहीं होता ।”

ययाति बोले – “ हे शर्मिष्ठे ! मैं राजा हूँ और सत्य पूर्वक प्रजा का हित साधन करना मेरा कर्तव्य है । यदि मैं झूठ बोलने लगा तो ठीक नहीं होगा ।”

शर्मिष्ठा बोली – “ हे महाराज ! जिस तरह आप मेरी सखी के लिए पति है उसी तरह मेरे लिए भी आप पति है । सखी के विवाह के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली अन्य कन्याओं का विवाह स्वतः हो जाता है । अतः मैं उसकी सखी और सेविका आपकी भी पत्नी हूँ । और वैसे भी शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी आपको यह कहकर सौंपा है कि आप मेरा पालन – पोषण और सम्मान करें । उनके वचन के अनुसार आपने तीनों समय दान की घोषणा की है लेकिन यदि आप मेरी विनती ठुकराते है तो आपकी घोषणा झूठी सिद्ध होगी ।



इतना सुनकर राजा ययाति ने शर्मिष्ठा की बातों को उचित समझा और नियमानुसार उसे अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया । इसके बाद राजा ययाति ने इच्छानुसार शर्मिष्ठा के साथ समागम करके उसे गर्भधारण करवाया । इस तरह शर्मिष्ठा ने प्रथम सुकुमार को जन्म दिया ।

जब यह बात देवयानी को पता चली कि शर्मिष्ठा के पुत्र हुआ है तो वह शर्मिष्ठा के पास आई और बोली – “ अरे शर्मिष्ठा ! तुमने कामावेग में आकर ये क्या कर डाला ? किसके है ये बच्चे ?”

शर्मिष्ठा बोली – “ अरे नहीं सखी ! ये तो एक बड़े ही विद्वान और धर्मात्मा ऋषि आये थे, उनसे मैंने धर्मपूर्वक काम की याचना की तो उनसे मुझे ये संतान प्राप्ति हुई । इस तरह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी का क्रोध शांत कर दिया ।”

इस तरह देवयानी से ययाति को यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए और शर्मिष्ठा से द्रह्यु, अनु और पुरु तीन पुत्र हुए ।

एक दिन देवयानी जब महाराज ययाति के साथ वन विहार के लिए गई तो उसने देखा कि महाराज के समान रूप और लक्षणों से संपन्न कुमार खेल रहे है । उसने उनसे उनके माता – पिता के बारे में पूछा तो उन नन्हे कुमारों ने सब बता दिया । सच्चाई जानकर देवयानी तिलमिला उठी । वह उसी समय अपने पिता देत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गई और राजा ययाति के धोखे के बारे में बताया ।

उसके बाद शुक्राचार्य ने ययाति को शुक्रहीन अर्थात वृद्धत्व का श्राप दे डाला ।



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