Friday, October 5, 2018

इस विश्वविद्यालय से सम्बद्ध विद्धानों में 'रक्षित', 'विरोचन', 'ज्ञानपद', बुद्ध, 'जेतारि', 'रत्नाकर', 'शान्ति', 'ज्ञानश्री', 'मित्र', 'रत्न', 'ब्रज' एवं 'अभयंकर' के नाम प्रसिद्ध है। इनकी रचनायें बौद्ध साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु 'दीपंकर' ने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की। इस शिक्षा केन्द्र में लगभग 3,000 अध्यापक कार्यरत थे। छात्रों के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। यहां पर विदेशों से भी छात्र अध्ययन हेतु आते थे। सम्भवतः तिब्बत के छात्रों की संख्या सर्वाधिक थी

राजकीय संरक्षण प्राप्त विक्रमशिला आवासीय विश्वविद्यालय था जहां छात्रों के नि:शुल्क रहने, खाने पीने और शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी। वर्ष 1960 में पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रो0 बी पी सिन्हा के नेतृत्व में 50 शिक्षकों और छात्रों की टीम ने करीब दस वर्षों तक विभिन्न चरणों में खुदाई की जिसमें महत्वपूर्ण पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए। इसके बाद भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग की ओर से वर्ष 1972 से लेकर 1982  दस वर्षों तक खुदाई का काम चला।
करीब 100 एकड़ के अधिग्रहित क्षेत्र में की गई खुदाई में मुख्य स्तूप, मनौती स्तूप, तिब्बती धर्मशाला, छात्रावास परिसर, वातानुकुलित पुस्तकालय, प्रवेश द्वार, ध्यान कक्षों के अलावा हिन्दु मंदिर के स्थाई अवशेष प्राप्त हुए। खुदाई के क्रम में करीब छह हजार से अधिक चलंत अवशेष मिले जिनमें से करीब 400 की संख्या में अवशेषों को विक्रमशिला पुरातात्विक संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। बांकि अवशेष स्कल्पचर शेड में रखे गये हैं।भागलपुर के पूर्वी भाग के एक ब्राह्मण कुल के शांतरक्षित (जन्म 650 ई.  ) , जिसे उनके मित्र ईत्सिंग भंगल या भगल नाम से पुकारते थे. राहुल सांकृत्यायन के अनुसार  भागलपुर के सहोर गांव के निवासी एवं अतिश के  कुल के ही पूर्वज थे. लेखक के अनुसार भंगल या भगल के कारण ही भागलपुर नाम पडा. तिब्बती राजा ति सोड दे सेन के आमंत्रण पर 75 वर्ष की आयु में शांतरक्षित वहां गए. 25 वर्षों तक वहां रहकर दर्जनों बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया. उनका देहांत वहीं 762 ई. में हुआ. तिब्बती राजा ने उनके सम्मान में साम्ये नामक विहार बनवाया.
राहुल जी के अनुसार अतिश का जन्म, ईत्सिंग के सहपाठी शांतरक्षित के गांव सहोर ( भागलपुर ) में उन्हीं के वंश में  981 ई. में हुआ था. इनका समय  विग्रहपाल- II, महीपाल एवं नयपाल शासकों का था. तिब्बती राजा के दूत नारि त्सो सुम पने के आग्रह पर वे वहां गए.

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