बढ़हिया वत्स गोत्री और शांडिल्य गोत्री भुमिहार -
इस ग्राम में भगवती मां बाला त्रिपुर सुंदरी का प्रादुभवि कैसे हुआ, इसका इतिहास भी बड़ा रोचक है। शाक्तों के इतिहास में वह गौरवशाली दिवस था जब दो भाई श्री पृथु ठाकुर तथा श्री जय ठाकुर जगन्नाथपुरी को जाते हुए गंगा पार करके इस ग्राम में पहुंचे और रात्रि विश्राम के लिए यहाँ ठहर गए। ये सहोदर भ्राता मैथिल कुल भूषण सांडिल्य गोत्री दिग्वे भुमिहार थे। दरभंगा के समीप संदहपुर ग्राम में मैथिल ब्राह्ममणों के ’योग्य’ परिवार में इनका जन्म हुआ था। इसलिए इनका मूल दिघवैत संदहपु प्रख्यात हुआ। तंत्र शास्त्र के ये प्रकांड पंडित थे। बड़हिया ग्राम के जिस डीह पर वत्र्तमान त्रिपुर सुन्दर का मंदिर अवस्थित हैं, वहाँ इन लोगों ने मूषिका से विल्ली को पराजित होते देखा। इस वीर भूमि को देखकर इन्हें ज्ञान हो गया कि इस वीर भूमि पर माँ त्रिपुर सुन्दरी की अलौकिक शक्ति विराज रही है।
कुछ महीनों के बाद उक्त दोनों शाक्त बंधु जगन्नाथ जी के दर्शनोपरांत अपनी वापिसी की यात्रा में यहाँ ठहरकर उक्त तेजस्वी डीह की प्राप्ति का मार्ग ढूंढ़ने लगे। उस समय इस भू-भाग पर पालवंश (सातवीं शताब्दी) का एक प्रतापी इन्द्रधुम्न का आधिपत्य था और उनकी राजधानी लखीसराय स्टेशन के समीप ग्राम जयनगर में थी। वह अपने एक मात्र पुत्र की गलित कुष्ट व्याधि से उद्विग्न रहा करता था। दोनों शाक्त बंधु राजा से लिने जयनगर गए। इनके मसतक के ऊपर बिना आधार के तनी हुई सफ¢द चादर को देखकर जयनगर के लोग आश्चर्य चकित हो गए और इनकी महिमा से प्रभावित होकर लोगों ने राजा को इनके दर्शन में उपस्थित होने के लिए आग्रह किया। राजा ने इनसे पुत्र की जिन्दगी की भीख मांगी। इस आग्रह को स्वीकार कर दोनों शाक्त बंधुओं ने अपनी तंत्र-शक्ति से राजपुत्र को रोग मुक्त कर राजा से इस भू-भाग को प्राप्त कर लिया। इस भू-भाग पर बढ़ई जाति के लोग रह रहे थे। इसलिए यह भू-भाग बढ़ई जाति के लोग रह रहे थे। इसलिए यह भू-भाग बढ़ई ग्राम के नाम से जाना जाने लगा। कालान्तर में यह बड़हिया नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्री जय जय ठाकुर कर्म-काण्ड के प्रकांड विद्वान थे और पूजा कराने वाले याचक ब्राह्मण थे।और इनकी ख्याति इतनी फेल चुकी थी कि कर्म विशेष के अवसर पर आचार्यतव के लिए इनकी बुलाहट होने लगी। इन्हें जीने योग्य धन भी मिलने लगा। ये अपनी हिस्से की भूमि को भाई के नाम पर चढ़ाकर स्वयं पौरोहित्य करने लगे। फलतः इनके वंशज और पृथु ठाकुर के वंशज यहाँ क्रमशः मैथिल ब्राह्मण(पौराहित्य के कारण) और भूमिहार ब्राह्मण(भूमि मिलने के कारण) के नाम से पुकारे जाने लगे। श्री जय जय ठाकुर ने पूजा-पाठ में अपने सगे भाइयों से दान लेना उचित नहीं समझा, अतः इन्होंने इस कर्म हेतु वत्स गोत्री जलेवार ब्राह्मण को बुलाकर यहाँ बसाया।
ब्राह्मण वंश में प्रातः स्मरणीय एवं त्रिपुर सुन्दरी के प्रतिष्ठाता श्री श्रीधर ओझा(वत्स गोत्री) अवतरित हुए थे। इनकी जन्म-तिथि और काल के संबंध में कहीं कोई लिखित प्रमाण नहीं है। 1131 ई॰ में गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘भक्त चरित्रांक’ में इनके संबंध में कहा गया है कि ये बाल ब्रह्मचारी, सिद्ध तांत्रिक और श्मशानी थे। घर-परिवार से दूर रहकर ये गंगा के तटपर कुटिया में रहकर देवी के अनेक सिद्धियों को प्राप्तकर चुके थे। बड़हिया ग्राम-निर्माण के कई सौ वर्ष पूर्व से ही यहाँ देवी-साधना एवं धर्म-प्रचार में रत थे। उस समय इनकी ख्याति पूरे भारतवर्ष में फेल चुकी थी। समय-समय पर ये देश के विभिन्न भागों में पहुँचकर सिद्धियों से लोगों को चमत्कृत किया करते थे। कश्मीर की वैष्ण्वी देवी के प्रतिष्ठाता यहीं श्रीधर ओझा थे। वैष्णवी देवी की अवतार कथा में इनके नाम का उल्लेख हुआ है। बड़हिया ग्राम की त्रिपुर सुन्दरी की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले श्रीधर ओझा के जीवन-वृत में साम्य दीखता है। इस संबंध में देश के विद्वानों और अध्येताओं से गहन शोध् की अपेक्षा है। कश्मीर से लौटकर जब श्रीधर ओझा यहाँ आए, तब सुप्तावस्था में इन्हें एक दिन रात्रि में स्वप्न हुआ कि प्रातःकाल वह ज्योति स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी का दर्शन पावेंगे और वह ज्योति मृतिका के खप्पर में उन्हें गंगा में प्रवाहित होती दीख पडे़गी। इसी अवस्था में उनको यह भी प्रेरणा मिली की ज्योति स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी को प्रज्वलित शिखा के रूप में पावेंगे। उन्हें वह मृतिका पिन्ड में उनकी लीला भूमि में पधार कर पूज करें और इन्हीं भगवती की आराधना से संसार का दुःख दूर हो सकेगा।
प्रातः काल जब प्राची के क्षितिज पर भगवान भास्कर उदयीमान हो रहे थे तो उनके अरूण किरण-जाल में ज्योति स्वरूपा भगवती मृतिका के खप्पर में पुण्य सलिला गंगा के प्रवाह में तिरोहित होने लगी। श्री श्रीधर ओझा के तंत्र-बल, शुद्ध चित्त, प्रकांड पांडित्य और तेजो ललाट पर रीझ कर देवी उनके समक्ष सदेह उपस्थित हो गई और आह्लादित स्वर में उसने श्रीधर ओझा को आदेश दिया- इस पुण्य भूमि पर तुम सपरिवार निवास करो। जबतक तुम कश्मीर से सपरिवार लौटोगे नहीं, तब तक मैं छाया रूप में इस गंगा-तट पर विराजती रहूँगी। देवी के आदेश से वे अपने परिवार को लाने कश्मीर का यात्रा पर निकल पड़े। वैष्ण्वी मंदिर से तीन-चार मील की दूरी पर उनका परिवार रहता था। यहाँ रात्रि में एक सुखद स्वप्न में वैष्णों देवी ने उन्हें आर्शीवाद देते हुए कहा- मेरी प्रेरणा से ही तुम्हें बड़हिया ग्राम के गंगातट पर त्रिपुर सुन्दरी के दर्शन हुए हैं। यह बाला रूप में सदैव तुम्हारी जन्मभूमि में विराजती रहेंगी। मेर और मेर अंश स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी के कारण तुम्हारा यश भी सदैव अक्षुझण रहेगा। वैष्णव देवी से आशीवा्रद प्राप्त कर श्रीधर ओझा सपरिवार लौट आए। उन्होंने अपनी तंत्र-विद्या ओर आराधना शक्ति से पुनः देवी को सदेह उपस्थित किया। सविधि पजन के बाद उन्होंने देवी के इस गाँव में सदैव विराजने की प्रार्थना की। माँ त्रिपुर सुन्दरी ने दो शर्तों के साथ उनकी विनती स्वीकार कर ली। प्रथम शर्त के अनुसार माँ त्रिपुर सुन्दरी गंगा की मिट्टी की पिण्डी में शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार उस समय देवी प्रेरणा से मृतिका की चार पिण्डियाँ पधराई गई। इन्हीं चार पिण्डियों में क्रम से त्रिपुर सुन्दरी, महाकाली, महालक्षमी और महासरस्वती का पूजन-अर्चन होने लगा। श्रीधर ने भगवती के आदेशानुसार गंगा के तट पर जल-समाधि ले ली। उनकी फलीभूत साधना और अलौकिक विजय के कारण इस घाट का नाम ’विजय घाट’ पड़ गया। बाद में भक्तों ने उनकी समृति में उक्त चार पिण्डियों के उत्तरी भाग में एक मृतिका पिण्ड की स्थापना कर दी। एक बड़े मंदिर में अवस्थित अब कुल मिलाकर पाँच पिण्डियों का पूजन होता है।
स्थानीय श्री जगदम्बा हिन्दी पुस्तकालय की एक प्राचीन हस्तलिखित पोथी के अनुसार श्रीधर ओझा एक जलेवार ब्राह्मण थे। उनकी कई पीढि़याँ भक्ति और साधना के क्षेत्र्ा में ख्यात रहीं। आज भी श्रीधर ओझा के वंशज पूजा-पाठ से जीवकोपार्जन कर रहे हैं। कहा जाता है कि श्रीधर ओझा ने आस-पास के अन्य स्थानों में भी महाविद्याओं के प्रतीकों एवं विग्रहों की स्थापना की। उनमें हरूहर नदी के तट पर बड़हिया ग्राम-क्षेत्र में अवस्थित पाली ग्राम में परमेश्वरी की स्थापना की गई थी।
त्रिपुर सुन्दरी ने अनेक अवसरों पर यहाँ के लोगों को मुसीबतों से बचाया है। प्राचीन काल में बड़हिया ग्राम झाडि़यों से आच्छादित था जिनमें विषैले सर्प बरसात के मौसम में जल-प्लावन होने पर इस गाँव में चढ़ आते थे और उनके काटने से अनेक प्राणियों की अकाल मृत्यु हो जाया करती थी। श्रीधर ओझा ने त्रिपुर सुन्दरी से यह वरदान प्राप्त किया था कि यहाँ के जो निवासी जगदम्बा का स्मरण करते हुए श्रीधर के वरदान की योजना वाक्यों में करके एक हाथ से कूप का नीर खींच कर सर्प दंश से पीडि़त प्राणी को पान करायेंगे वह सर्प विष से तत्काल मुक्त हो जाएगा। यह मंत्र अत्यन्त सरल और साधारण है – हरा हरा हरात दोष-दोष निर्विष, दहाय त्रिपुर सुन्दरी के, आज्ञा श्रीधर ओझा के आज तक यह वरदान सफल हो रहा है। सर्प-विष-निवृत्ति के लिए इससे बढ़कर कोई महौषधि नहीं। इस मंदिर में पहुँच कर सर्प दंशनिवारण में देवी ने फतह सिंह नामक व्यक्ति को कामगार खाँ से गाँव की रक्षा करने का आदेश दिया। प्रातः काल वे देवी का आदेश मानकर युद्ध कँ मैदान में उतर गए। इनके शौर्य और पराक्रम से पराजित होकर खाँ बंधु ग्राम से भाग निकले। यह कोई गप नहीं, एक सच है, क्योंकि इस घटना का उल्लेख मुंगेर जिला के गजेटियार में आया है।
इस ग्राम में भगवती मां बाला त्रिपुर सुंदरी का प्रादुभवि कैसे हुआ, इसका इतिहास भी बड़ा रोचक है। शाक्तों के इतिहास में वह गौरवशाली दिवस था जब दो भाई श्री पृथु ठाकुर तथा श्री जय ठाकुर जगन्नाथपुरी को जाते हुए गंगा पार करके इस ग्राम में पहुंचे और रात्रि विश्राम के लिए यहाँ ठहर गए। ये सहोदर भ्राता मैथिल कुल भूषण सांडिल्य गोत्री दिग्वे भुमिहार थे। दरभंगा के समीप संदहपुर ग्राम में मैथिल ब्राह्ममणों के ’योग्य’ परिवार में इनका जन्म हुआ था। इसलिए इनका मूल दिघवैत संदहपु प्रख्यात हुआ। तंत्र शास्त्र के ये प्रकांड पंडित थे। बड़हिया ग्राम के जिस डीह पर वत्र्तमान त्रिपुर सुन्दर का मंदिर अवस्थित हैं, वहाँ इन लोगों ने मूषिका से विल्ली को पराजित होते देखा। इस वीर भूमि को देखकर इन्हें ज्ञान हो गया कि इस वीर भूमि पर माँ त्रिपुर सुन्दरी की अलौकिक शक्ति विराज रही है।
कुछ महीनों के बाद उक्त दोनों शाक्त बंधु जगन्नाथ जी के दर्शनोपरांत अपनी वापिसी की यात्रा में यहाँ ठहरकर उक्त तेजस्वी डीह की प्राप्ति का मार्ग ढूंढ़ने लगे। उस समय इस भू-भाग पर पालवंश (सातवीं शताब्दी) का एक प्रतापी इन्द्रधुम्न का आधिपत्य था और उनकी राजधानी लखीसराय स्टेशन के समीप ग्राम जयनगर में थी। वह अपने एक मात्र पुत्र की गलित कुष्ट व्याधि से उद्विग्न रहा करता था। दोनों शाक्त बंधु राजा से लिने जयनगर गए। इनके मसतक के ऊपर बिना आधार के तनी हुई सफ¢द चादर को देखकर जयनगर के लोग आश्चर्य चकित हो गए और इनकी महिमा से प्रभावित होकर लोगों ने राजा को इनके दर्शन में उपस्थित होने के लिए आग्रह किया। राजा ने इनसे पुत्र की जिन्दगी की भीख मांगी। इस आग्रह को स्वीकार कर दोनों शाक्त बंधुओं ने अपनी तंत्र-शक्ति से राजपुत्र को रोग मुक्त कर राजा से इस भू-भाग को प्राप्त कर लिया। इस भू-भाग पर बढ़ई जाति के लोग रह रहे थे। इसलिए यह भू-भाग बढ़ई जाति के लोग रह रहे थे। इसलिए यह भू-भाग बढ़ई ग्राम के नाम से जाना जाने लगा। कालान्तर में यह बड़हिया नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्री जय जय ठाकुर कर्म-काण्ड के प्रकांड विद्वान थे और पूजा कराने वाले याचक ब्राह्मण थे।और इनकी ख्याति इतनी फेल चुकी थी कि कर्म विशेष के अवसर पर आचार्यतव के लिए इनकी बुलाहट होने लगी। इन्हें जीने योग्य धन भी मिलने लगा। ये अपनी हिस्से की भूमि को भाई के नाम पर चढ़ाकर स्वयं पौरोहित्य करने लगे। फलतः इनके वंशज और पृथु ठाकुर के वंशज यहाँ क्रमशः मैथिल ब्राह्मण(पौराहित्य के कारण) और भूमिहार ब्राह्मण(भूमि मिलने के कारण) के नाम से पुकारे जाने लगे। श्री जय जय ठाकुर ने पूजा-पाठ में अपने सगे भाइयों से दान लेना उचित नहीं समझा, अतः इन्होंने इस कर्म हेतु वत्स गोत्री जलेवार ब्राह्मण को बुलाकर यहाँ बसाया।
ब्राह्मण वंश में प्रातः स्मरणीय एवं त्रिपुर सुन्दरी के प्रतिष्ठाता श्री श्रीधर ओझा(वत्स गोत्री) अवतरित हुए थे। इनकी जन्म-तिथि और काल के संबंध में कहीं कोई लिखित प्रमाण नहीं है। 1131 ई॰ में गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘भक्त चरित्रांक’ में इनके संबंध में कहा गया है कि ये बाल ब्रह्मचारी, सिद्ध तांत्रिक और श्मशानी थे। घर-परिवार से दूर रहकर ये गंगा के तटपर कुटिया में रहकर देवी के अनेक सिद्धियों को प्राप्तकर चुके थे। बड़हिया ग्राम-निर्माण के कई सौ वर्ष पूर्व से ही यहाँ देवी-साधना एवं धर्म-प्रचार में रत थे। उस समय इनकी ख्याति पूरे भारतवर्ष में फेल चुकी थी। समय-समय पर ये देश के विभिन्न भागों में पहुँचकर सिद्धियों से लोगों को चमत्कृत किया करते थे। कश्मीर की वैष्ण्वी देवी के प्रतिष्ठाता यहीं श्रीधर ओझा थे। वैष्णवी देवी की अवतार कथा में इनके नाम का उल्लेख हुआ है। बड़हिया ग्राम की त्रिपुर सुन्दरी की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले श्रीधर ओझा के जीवन-वृत में साम्य दीखता है। इस संबंध में देश के विद्वानों और अध्येताओं से गहन शोध् की अपेक्षा है। कश्मीर से लौटकर जब श्रीधर ओझा यहाँ आए, तब सुप्तावस्था में इन्हें एक दिन रात्रि में स्वप्न हुआ कि प्रातःकाल वह ज्योति स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी का दर्शन पावेंगे और वह ज्योति मृतिका के खप्पर में उन्हें गंगा में प्रवाहित होती दीख पडे़गी। इसी अवस्था में उनको यह भी प्रेरणा मिली की ज्योति स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी को प्रज्वलित शिखा के रूप में पावेंगे। उन्हें वह मृतिका पिन्ड में उनकी लीला भूमि में पधार कर पूज करें और इन्हीं भगवती की आराधना से संसार का दुःख दूर हो सकेगा।
प्रातः काल जब प्राची के क्षितिज पर भगवान भास्कर उदयीमान हो रहे थे तो उनके अरूण किरण-जाल में ज्योति स्वरूपा भगवती मृतिका के खप्पर में पुण्य सलिला गंगा के प्रवाह में तिरोहित होने लगी। श्री श्रीधर ओझा के तंत्र-बल, शुद्ध चित्त, प्रकांड पांडित्य और तेजो ललाट पर रीझ कर देवी उनके समक्ष सदेह उपस्थित हो गई और आह्लादित स्वर में उसने श्रीधर ओझा को आदेश दिया- इस पुण्य भूमि पर तुम सपरिवार निवास करो। जबतक तुम कश्मीर से सपरिवार लौटोगे नहीं, तब तक मैं छाया रूप में इस गंगा-तट पर विराजती रहूँगी। देवी के आदेश से वे अपने परिवार को लाने कश्मीर का यात्रा पर निकल पड़े। वैष्ण्वी मंदिर से तीन-चार मील की दूरी पर उनका परिवार रहता था। यहाँ रात्रि में एक सुखद स्वप्न में वैष्णों देवी ने उन्हें आर्शीवाद देते हुए कहा- मेरी प्रेरणा से ही तुम्हें बड़हिया ग्राम के गंगातट पर त्रिपुर सुन्दरी के दर्शन हुए हैं। यह बाला रूप में सदैव तुम्हारी जन्मभूमि में विराजती रहेंगी। मेर और मेर अंश स्वरूपा त्रिपुर सुन्दरी के कारण तुम्हारा यश भी सदैव अक्षुझण रहेगा। वैष्णव देवी से आशीवा्रद प्राप्त कर श्रीधर ओझा सपरिवार लौट आए। उन्होंने अपनी तंत्र-विद्या ओर आराधना शक्ति से पुनः देवी को सदेह उपस्थित किया। सविधि पजन के बाद उन्होंने देवी के इस गाँव में सदैव विराजने की प्रार्थना की। माँ त्रिपुर सुन्दरी ने दो शर्तों के साथ उनकी विनती स्वीकार कर ली। प्रथम शर्त के अनुसार माँ त्रिपुर सुन्दरी गंगा की मिट्टी की पिण्डी में शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार उस समय देवी प्रेरणा से मृतिका की चार पिण्डियाँ पधराई गई। इन्हीं चार पिण्डियों में क्रम से त्रिपुर सुन्दरी, महाकाली, महालक्षमी और महासरस्वती का पूजन-अर्चन होने लगा। श्रीधर ने भगवती के आदेशानुसार गंगा के तट पर जल-समाधि ले ली। उनकी फलीभूत साधना और अलौकिक विजय के कारण इस घाट का नाम ’विजय घाट’ पड़ गया। बाद में भक्तों ने उनकी समृति में उक्त चार पिण्डियों के उत्तरी भाग में एक मृतिका पिण्ड की स्थापना कर दी। एक बड़े मंदिर में अवस्थित अब कुल मिलाकर पाँच पिण्डियों का पूजन होता है।
स्थानीय श्री जगदम्बा हिन्दी पुस्तकालय की एक प्राचीन हस्तलिखित पोथी के अनुसार श्रीधर ओझा एक जलेवार ब्राह्मण थे। उनकी कई पीढि़याँ भक्ति और साधना के क्षेत्र्ा में ख्यात रहीं। आज भी श्रीधर ओझा के वंशज पूजा-पाठ से जीवकोपार्जन कर रहे हैं। कहा जाता है कि श्रीधर ओझा ने आस-पास के अन्य स्थानों में भी महाविद्याओं के प्रतीकों एवं विग्रहों की स्थापना की। उनमें हरूहर नदी के तट पर बड़हिया ग्राम-क्षेत्र में अवस्थित पाली ग्राम में परमेश्वरी की स्थापना की गई थी।
त्रिपुर सुन्दरी ने अनेक अवसरों पर यहाँ के लोगों को मुसीबतों से बचाया है। प्राचीन काल में बड़हिया ग्राम झाडि़यों से आच्छादित था जिनमें विषैले सर्प बरसात के मौसम में जल-प्लावन होने पर इस गाँव में चढ़ आते थे और उनके काटने से अनेक प्राणियों की अकाल मृत्यु हो जाया करती थी। श्रीधर ओझा ने त्रिपुर सुन्दरी से यह वरदान प्राप्त किया था कि यहाँ के जो निवासी जगदम्बा का स्मरण करते हुए श्रीधर के वरदान की योजना वाक्यों में करके एक हाथ से कूप का नीर खींच कर सर्प दंश से पीडि़त प्राणी को पान करायेंगे वह सर्प विष से तत्काल मुक्त हो जाएगा। यह मंत्र अत्यन्त सरल और साधारण है – हरा हरा हरात दोष-दोष निर्विष, दहाय त्रिपुर सुन्दरी के, आज्ञा श्रीधर ओझा के आज तक यह वरदान सफल हो रहा है। सर्प-विष-निवृत्ति के लिए इससे बढ़कर कोई महौषधि नहीं। इस मंदिर में पहुँच कर सर्प दंशनिवारण में देवी ने फतह सिंह नामक व्यक्ति को कामगार खाँ से गाँव की रक्षा करने का आदेश दिया। प्रातः काल वे देवी का आदेश मानकर युद्ध कँ मैदान में उतर गए। इनके शौर्य और पराक्रम से पराजित होकर खाँ बंधु ग्राम से भाग निकले। यह कोई गप नहीं, एक सच है, क्योंकि इस घटना का उल्लेख मुंगेर जिला के गजेटियार में आया है।
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Kya app jalewar bhramin ke bare me vistar se bta sakte hai
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