काशी नरेश
भोले बाला के जीवित संस्करण हैं - काशी नरेश। राह-बाट कहीं भी मुलाकात हो, आप ‘हर-हर महादेव’ की आवाज लगाइए, वे स्वयं आपको सलाम करेंगे। काशी की जनता अपने इस नरेश का जितना सम्मान करती है उतना किसी का नहीं। एक बार जब सारिपुत्त-महामोद्गल्यायन की अस्थियाँ सारनाथ आयी थीं, उस समय माननीय पन्त जी से लेकर विदेशों के अनेक राजदूत, सिक्कम के राजकुमार, मन्त्री और अधिकारी उपस्थित थे। काशी की जनता उन्हें देखती रही। लेकिन ज्यों ही महाराज बनारस आये और अस्थि कलश हाथ में लिया - ‘हर-हर महादेव’ के नारों से सारा सारनाथ काँप उठा। महाराजा साहब के पीछे-पीछे भीड़ चल पड़ी। अन्य महानुभावों का वही महत्त्व हो गया जो लँगड़े आम के आगे खरबूजे का हो जाता है।
काशी के नागरिक काशी नरेश के आगे बड़ों-बड़ों को बामुलाहिजा गरदनियाँ दे देते हैं। यही वजह है जब जहाँ मौका मिला ‘हर-हर महादेव’ के नारों से उनका स्वागत करते हैं। एक बार की बात है, कुछ गुरु लोग भाँग छानकर दुर्गाजी के मन्दिर के पास मैदान में निपटान देने जा रहे थे। हाथ में हँड़िया, तन पर लँगोट और कान पर यज्ञोपवीत चढ़ा था। ठीक इसी समय महाराजा साहब की मोटर आ गयी। ऐसी हालत में उनसे आँखें चुरा लेना स्वाभाविक धर्म नहीं माना जाता। गुरु लोगों ने आव देखा न ताव, हँड़िया नीचे रख दोनों हाथ उठाकर ‘हर-हर महादेव’ की आवाज बुलन्द कर ही दी। भले ही महाराजा साहब ने उन लोगों को न देखा हो, पर आदत के अनुसार हाथ उठाकर उन्होंने भी अभिवादन किया। उनकी इस सतर्कता से काशी की जनता निहाल हो जाती है।
स्वयं महाराजा साहब भी बनारसियों से कम मुहब्बत नहीं करते। उस पार की सारी जमीन, दुर्गाजी मन्दिर, लंका, वेदव्यासजी की भूमि बनारसियों को नहाने-निबटने, भाँग छानने और तफरीह करने के लिए छोड़ दी है। साल में एक बार काफी धूमधाम से महीनों तक रामलीला करवाते हैं। उन दिनों बनारस की आधी जनता गहरेबाज पर सवार होकर उस पार पहुँचती है। साल में स्वयं एक बार महाराजा भरत-मिलाप देखने चले आते हैं। विश्वनाथ दर्शन या कोठी पर आराम करने भी आते-जाते रहते हैं। बनारसी जनता से काशी के इस राजा का सम्पर्क बहुत दिनों से इस प्रकार स्थापित है और आगे रहेगा भी।
अन्य राजा
काशी नरेश के अलावा काशी में कुछ ऐसे भी राजा हुए जो आज भी राजा के नाम से पुकारे जाते हैं। मसलन राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, राजा औसानसिंह, राजा बलदेवदास बिड़ला और राजा मोतीचन्द। इन लोगों को ब्रिटिश सरकार की ओर से राजा की उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं और तब से इनके नाम के आगे यह शब्द जुड़ा हुआ है। इनमें राजा बलदेवदास और राजा मोतीचन्द ने काशी की जनता से सम्पर्क स्थापित कर कुछ सेवा-कार्य भी किया है। कुछ ऐसे स्मारक बनवाये हैं कि आगे आनेवाली पीढ़ी भी इनका यशोगान करती रहेगी।
यों काशी में अनेक राजाओं की कोठियाँ मौजूद हैं और काशी के निर्माण में लगभग सभी ने भाग लिया है, पर जनता उन नरेशों को अधिक मान्यता नहीं देती। काशीवासी मौज-पानी लेने के लिए प्रसिद्ध हैं। इसके लिए वे अपना सब कुछ लुटा देने को तैयार रहते हैं। जो लोग इनके इस आनन्द में शरीक होते हैं, वे ही इनके लिए राजा के तुल्य हैं। महाराजा कुमार विजयानगरम् इसी कोटि के राजाओं में हैं। काशी की जनता इन्हें ‘राजा इजानगर’ कहती है। कहा जाता है लक्सा की रामलीला का प्रारम्भ स्वयं इन्होंने करवाया था। उन दिनों चार ब्राह्मण के लड़के और लड़कियाँ खोजकर प्रत्येक वर्ष राम-लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न और उनकी पत्नियों के लिए चुने जाते थे। बाकायदा विवाह आदि समस्त कार्य रामलीला के अन्तर्गत किया जाता था। इसके पश्चात सम्पूर्ण लीला में उनसे अभिनय करवाकर उन्हें छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार प्रति वर्ष चार ब्राह्मण बच्चों का विवाह ब्राह्मण कुमारियों के साथ हो जाता था और उनके माता-पिता इस खर्च से बच जाते थे।
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