Monday, October 1, 2018

सदियों से बसे महाराष्ट्रीयों के लिए यह उत्सव जितना अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर था उससे ज्यादा काशी में अपने संबंधों को कृतज्ञतापूर्वक याद करने का। महाराष्ट्र के संतों से काशी का उतना ही नाता रहा, जितना उसके योद्धाओं और वीर पुरुषों का। रानी लक्ष्मीबाई का यह जन्मस्थान छत्रपति शिवाजी को बहुत प्रिय रहा। आगरा में औरंगजेब की कैद से भागते समय शिवाजी के काशी आने की चर्चा कुछ इतिहासकारों ने की है। काशी के आचार्य गागा भट्ट को उन्होंने राज्याभिषेक के लिए आमंत्रित किया। शिवाजी के गुरू संत रामदास ने दो बार की अपनी काशी यात्रा के दौरान मंगला गौरी मोहल्ले में राम जानकी मंदिर की स्थापना की, जो स्वामीजी द्वारा धुले में स्थापित मंदिर का प्रतिरूप है। आज भी यहां पूजा महाराष्ट्रीय पुजारियों द्वारा ही की जाती है। महाराष्ट्र के दूसरे महान संत एकनाथजी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथों 'नाथ भागवत' व 'रुक्मिणी स्वयंवर' की रचना काशी के आत्मावीरेश्वर मंदिर (संकठा घाट) के पास रहते हुए की। 1857 के गदर के दौरान तात्या टोपे की सेना द्वारा बनवाया गणेश दीक्षित लेन का तारक मठ आज भी मौजूद है।
गुप्तकाल से ही इस पुण्यक्षेत्र और विद्या क्षेत्र में महाराष्ट्रीयों की आमद-रफ्त जारी है-महाराष्ट्र के पंडितों के विशेष अनुराग के साथ जिन्हें धनी-मानियों ने जीविका की समस्या कभी नहीं होने दी। चार शताब्दियों में रोजगार-धंधे के सिलसिले में महाराष्ट्र से जो भी बाहर निकले उनमें सबसे अधिक काशी जाकर बसे। आज यहां 900 से ज्यादा महाराष्ट्रीय परिवार उन्हींकी संतान हैं। गाय घाट, पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, ब्रह्मा घाट, दुर्गा घाट और अस्सी घाट में घनी बसाहट के साथ 'मराठी गली' नाम से शहर में मराठियों का एक मोहल्ला ही है। गणेशोत्सव के दौरान शहर के मंडपों में स्थापित होने वाली गणेश प्रतिमाओं में दो दर्जन से ज्यादा काशी मराठा गणेश उत्सव समिति के मराठी मंडलों की होती हैं। बालासाहेब ठाकरे से मिलने की यादें अभी भी संजोए और यदा-कदा मुंबई के मराठी अखबारों में लिखते रहने वाले घासी टोला के ज्योतिषी उपेंद्र सहस्रबुधे जैसे कितने ही लोग हैं जिन्हें अपनी मराठी जड़ों जितना ही गर्व काशी से अपने संबंधों पर है। महाराष्ट्र की काशी कहलाने वाले वई से आए सहस्रबुधे वंश की यह नौंवी पीढ़ी है।
सान फ्रांसिस्को में बसे महेश काले हमें 'सुबहे-बनारस' के दिव्य अनुभव के बारे में बताने लगे। काले का पुश्तैनी घर इतिहास प्रसिद्ध नाना फडणवीस के वाडा से ज्यादा दूर नहीं है। पेशवाओं के सबसे प्रसिद्ध सेनानी के परिवार के नाम इस वाडा के अलावा दो छोटे घाट और दो शिव व गणेश मंदिर हैं। मौजूदा वारिस महेंद्र पेशवा वर्ष में एक बार काशी जरूर आते हैं। फणनवीस वाडा और काशी महाराष्ट्र भवन तीर्थयात्रा के लिए काशी आने वालों के लिए आज अतिथिगृह के रूप में काम आते हैं। अखिल भारतीय महाराष्ट्र तीर्थ पुरोहित महासंघ के पदाधिकारी गजधर कृष्ण देव इन तीर्थयात्रियों के लिए सबसे प्रमुख संपर्क सूत्र हैं, जबकि काशी मराठी समाज और महाराष्ट्र मंडल जैसी संस्थाएं काशी वासियों से संपर्क बनाने के पुल। जाने-माने पहलवान कोण भट्ट और अताले, शास्त्रीय गायक महेश काले, पुरातत्वविद नीलू पी. जोशी और संगीतकार रेवती साकलकर अपने उत्कर्ष का श्रेय काशी को ही देती हैं।
महाराष्ट्र की अमिट छाप
काशी के इस स्वागत के बदले महाराष्ट्र ने बहुत कुछ दिया? 17वीं शताब्दी में जब काशी मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों से कराह रही थी, मराठा शासक उसके पुनर्निर्माण में हाथ बंटा रहे थे। काशी के महापौर रामगोपाल मोहले बताते हैं, 'महाराष्ट्रवासियों ने अपनी अलग पहचान बनाई है।' यह पहचान जीवन के हर क्षेत्र में है। काशी के 80 में से कम से 25 घाट मराठा शासकों के ही निर्माण या पुनर्निर्माण करवाए हुए हैं। यह कार्य 18वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों-पेशवाई के पुनरोत्थान काल में, तकरीबन उन्हीं दिनों शुरू हुआ जब महाराष्ट्रवासी काशी में बसने शुरू हुए। इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने काशी के भग्न विश्वनाथ मंदिर की ही तरह मणिकर्णिका व दशाश्वमेध घाट का भी पुनर्निर्माण कराया। सबसे ज्यादा घाटों का निर्माण बाजीराव पेशवा के शासनकाल में हुआ। इनमें ग्वालियर की महारानी बायजाबाई का सिंधिया घाट, पेशवाओं के बाजीराव घाट और अग्नीश्वर घाट और भोसले राजा का भोसला घाट शामिल हैं। कई मंदिरों का निर्माण या जीर्णोद्धार उन्हींकी देन है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी बडोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड की ही बनवाई हुई है। विनोबा भावे, गजानन माधव 'मुक्तिबोध' और जयंत नार्लिकर को काशी उसी गर्व से अपना कहती है जैसे लाल बहादुर शास्त्री, मदनमोहन मालवीय, प्रेमचंद और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को।
काशीवासी अभिमान से याद करते हैं कि जब महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने शिवाजी महाराज को छत्रिय मानते से इनकार कर उनके राज्याभिषेक से इनकार कर दिया था, काशी के आचार्य गागा भट्ट ने इस चुनौती को स्वीकार किया। चार सदियों से रहते महाराष्ट्रीय काशी में दूध में शक्कर की तरह मिल गए। एक महाराष्ट्रीय संस्कृत विद्वान बताने लगे कि कुछ वर्ष पहले जब एक राजनीतिक दल अपने हमलों से मुंबई के उत्तर भारतीयों के लिए आतंक बना हुआ था, खैरियत पूछने के लिए महाराष्ट्र से कई फोन आए। 1934 से यहां बसे मराठी परिवार के चार्टर्ड अकाउंटेंट अनिरुद्ध पुसलकर से बातचीत याद आती है 'खतरे का कभी ख्याल तक नहीं आया।' विश्वविद्यालय के मराठी विभाग के छात्र ने बताया, 'हमें कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं। काशी में ही एक छोटा महाराष्ट्र मौजूद है।' बालपन का साथी आनंद पुरंदरे हो, बीएचयू के प्रफेसर रानाडे या पत्रकारीय संगी नावडजी- बनारस में बचपन और युवावस्था का हिस्सा बिताने वाले इस लेखक की महसूसी बात है-घाटों से जुड़ी गलियों में सदियों से रह रहे मराठी मानुस घरों में पूरणपोली, अनरसा, चकली और श्रीखंड जीमते जिस तरह माईबोली मराठी बोलते हैं गली में निकलते ही हलवाई की दुकान पर कचौड़ी-जलेबी व लस्सी का भोग लगाने के बाद, पान घुलाकर मीठी भोजपुरी में बतियाते खांटी बनारसी बन जाते हैं।
अनन्य हिंदी प्रेम
महाराष्ट्रीयों के लिए महाराष्ट्र के बाहर अगर कोई सबसे पूज्य स्थान है तो काशी। मुंबई में वालकेश्वर और भूलेश्वर इलाकों के वासी खुद को काशीवासी कहकर प्रसन्न होते हैं। खुद वई में काशी विश्वेश्वर मंदिर के साथ एक छोटी काशी ही मौजूद है। लिपि की समानता के कारण महाराष्ट्रीयों ने हिंदी को जिस सहजता से आत्मसात किया उतना और किसी भाषा को नहीं। शिवाजी को हिंदी प्रेम पिता शहाजी से प्राप्त हुआ, जिनके दरबार में देव कवि काशीवाले सहित काशी के कई कवि थे। कवि भूषण तो शिवाजी के कारण ही अमर हुए हैं। शिवाजी के पुत्र संभाजी ने तो कई पुस्तकें हिंदी में लिखीं। महाराष्ट्र में बाद के राजाओं ने यह रीत कायम रखी।
हिंदी राजधानी काशी में हिंदी पत्रकारिता या लेखन में आने वालों में सबसे बड़ी तादाद मराठीभाषियों की ही है जिन्होंने हिंदी को कुछ शीर्ष संपादक दिए। 1845 में हिंदी क्षेत्र से छपे पहले अखबार राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिंद' के 'बनारस अखबार' का संपादक गोविंद रघुनाथ थत्ते को माना जाता है। लोकमान्य तिलक के हिंदी 'केसरी' के लिए प्रेरणा 1905 की काशी यात्रा ही थी। इसकी कमान उन्होंने माधवराव सप्रे को सौंपी, जिनकी कर्मभूमि भले मध्य प्रदेश रही, पर काशी से अटूट रिश्ते के साथ। हिंदी पत्रकारिता में काशी के 'आज' के बाबूराव विष्णु पराडकर का योगदान कौन भूल सकता है! पं. लक्ष्मीनारायण गर्दे काशी के अखबारों के अलावा कलकत्ते के 'भारत मित्र' और मुंबई के 'वेंटकेश्वर समाचार' के भी संपादक रहे। रघुनाथ खाडिलकर ने पराडकरजी के निधन के बाद 'आज' के प्रधान संपादक बनने से पहले 'केसरी' में एक छोटी पारी खेली। गिनते जाइए-सखाराम गोविंद देऊस्कर, दामोदर विष्णु सप्रे, नारायण व्यंकटेश दामले, गोविंदराव मराठे, मंगलमाधव पराडकर, महादेव गोविंद कानिटकर, गोविंद नरहरि बैजापुरकर, अशोक पराडकर, काशीनाथ गोविंद जोगलेकर, बी. डी. खांडेकर, शंकर माधव सप्रे, माधवराव पराडकर, रामचंद्र नरहर बापट, मनोहर खाडिलकर ...।
पांडित्य परंपरा
नारायण भट्ट का भट्ट कुल अपूर्व विद्वानों से भरा है। पं. दामोदर शास्त्री का शास्त्रार्थ महारत आज भी याद किया जाता है। संस्कृत, व्याकरण व अलंकार शास्त्र हो या न्याय, कर्मकांड, वेद-वेदांत, पुराण, आयुर्वेद व तंत्र शास्त्र- काशी की विद्वत परंपरा नीलकंठ शास्त्री गोरे, पं, गणपति शास्त्री हेब्बार, पं. माधव बाल शास्त्री दातार, पं. जनार्दन शास्त्री खुंटे, पं. रामचंद्र शास्त्री रटाटे, पं. माधव शास्त्री भंडारी, पं. गोपाल शास्त्री नेने, पं. अनंत शास्त्री फडके, पं. नारायण शास्त्री ख्रिस्ते, केशव शास्त्री मराठे, तात्या शास्त्री, बाल शास्त्री, बापूदेव शास्त्री, राघव भट्ट, गागा भट्ट, विश्वनाथ भट्ट रानाडे सरीखे महाराष्ट्रीय विद्वानों से भरी है। वैदिक परंपरा तो महाराष्ट्रीय वैदिकों बिना अधूरी ही है। पेशवाई शाही खजाने से हर वर्ष तीन लाख रुपये ब्राह्मणों की दक्षिणा में खर्च होते थे। काशी में पेशवा के प्रतिनिधियों का काम ही था ब्राह्मण भोज करवाना और मंदिर व घाट बनवाना। महाराष्ट्रीय ब्राह्मण-जो पेशवाओं के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते उनके लिए उन्होंने नीची ब्रह्मपुरी सहित कई ब्रह्मपुरियां बनाईं। वेदाध्ययन के लिए जागीरें देने के साथ वे मूर्धन्य वैदिकों को स्वर्ण मुद्राओं से भी सम्मानित करते रहे। दिनकर अन्ना जोशी, मामा पेंडशे, डोंगरेजी और विनायकभट काले की वेद पाठशाला सहित यहां की कई वेद पाठशालाएं अपने अस्तित्व के लिए पेशवाओं की ही ऋणी हैं। काशी में वसंत पूजा की परंपरा पेशवाई की ही आरंभ की हुई है। मराठों ने कई बार काशी पर कब्जे की योजना बनाई, पर खुद काशीवासियों के विरोध के कारण वे इसपर अमल नहीं कर पाए।
दादासाहब फालके का अज्ञातवास
भारतीय सिनेमा के पितामह दादासाहब फालके ने जीवन के उत्तर काल के दो वर्ष काशी में अज्ञातवास में गुजारे, जिस दौरान उनके निधन की अफवाह फैल गई थी। मई, 1920 में अपनी हिंदुस्तान फिल्म्स कंपनी के साझीदारों से विवाद के बाद इस्तीफा देकर फालके ने फिल्म जगत से नाता तोड़ लिया था। 1920-1922 का यह अरसा उन्होंने काशी में ब्रह्माघाट के सरदार आंग्रेवाडा में लगभग निस्संग गुजारा। 1920 में काशी में कांग्रेस के महाधिवेशन में लोकमान्य गंगाधर तिलक काशी आए तो उनसे मिले। फालके उस समय अपने मित्र नारायण हरि आप्टे की मदद से अर्धआत्मवृत्त 'रंगभूमि' लिख रहे थे। तिलक ने रंगमंच बनवाने की पेशकश की, पर उनके असमय निधन से यह काम पूरा नहीं हो सकता। महाराष्ट्र लौटकर फालके ने विभिन्न शहरों में इस नाटक का प्रदर्शन किया।
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काशी से गहरा नाता
- महाराष्ट्र की तरह काशी में सार्वजनिक गणेशोत्सव (भैरोनाथ पर) की परंपरा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की ही शुरू की हुई है। तिलक के हिंदी 'केसरी' की प्रेरणा 1905 की उनकी काशी यात्रा ही थी।
- शिवाजी के आगरा में औरंगजेब की कैद से भागते समय काशी आने की चर्चा मिलती है। आगरा में उन्होंने औरंगजेब से काशीवास की अनुमति मांगी थी।
- 1857 के विद्रोह की नायिका रानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी के अस्सी क्षेत्र के भदैनी में पेशवा बाजीराव के कर्मचारी मोरोपंत तांबे तथा भागीरथीबाई के घर में 19 नवंबर, 1835 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, परंतु प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। लक्ष्मीबाई का घर आज स्मारक और काशी का मुख्य आकर्षण है।
- रायगड में शिवाजी का राज्याभिषेक करने वाले आचार्य गागा भट्ट काशी के थे।
- समर्थ रामदास ने दो बार काशी यात्रा की।
- संत एकनाथजी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथों 'नाथ भागवत' व 'रुक्मिणी स्वयंवर' की रचना यहीं की।
- हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा बाबूराव विष्णु पराडकर महाराष्ट्रीय थे, जबकि 'बनारस अखबार' के संपादक गोविंद रघुनाथ थत्ते हिंदी क्षेत्र से छपे पहले अखबार के संपादक।
- काशी के डिविजनल कमिश्नर नितिन रमेश गोकर्ण मुंबईकर हैं।
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अटूट हैं काशी और महाराष्ट्र के रिश्ते
मुंबई विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में उच्च डिग्री और फिर आईएएस-वाराणसी के डिविजनल कमिश्नर नितिन रमेश गोकर्ण ने अपने कामों से काशीवासियों के दिलों में विशेष स्थान बनाया है। विमल मिश्र ने महाराष्ट्र वासियों द्वारा पहली बार काशी में सार्वजनिक रूप से मनाए गए गुढी पाडवा के संदर्भ में उनसे बातचीत की।
उत्सव का प्रतिसाद कैसा रहा?
अद्भुत। इस तरह का कार्यक्रम पहली बार होने के बावजूद घाट पूरी तरह ठसाठस भरे थे। इस कार्यक्रम ने काशी और महाराष्ट्र के प्राचीन संबंधों को नई दिशा दी है।
काशी की मुख्य धारा में महाराष्ट्रवासियों का स्थान और योगदान क्या है?
काशी उदार और सर्वसमावेशी है। काशी वैसा ही कास्मोपोलिटन शहर है जैसा मुंबई। घाट हों, मंदिर हों या सार्वजनिक जीवन-महाराष्ट्रीय काशी की संस्कृति में समरस हो गए हैं। अध्यात्म की प्रबलता वाले इस शहर में बांध लेने वाला अद्भुत गुण है यह बात 23 वर्ष मुंबई में बिताने के बाद भी मैं कह सकता हूं।
काशी की छवि को किस तरह से और निखारा जा सकता है?
काशी में हर वर्ष 55 लाख से ज्यादा पर्यटक आते हैं। हमारी योजना 'हर-हर गंगे' जैसा उत्सव नियमित रूप से आयोजित करने की है। बल्कि हम ऐसे आयोजन यहां सदियों से रह रहे हर प्रमुख क्षेत्र के वासियों के लिए करने की कोशिश करेंगे।
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