Tuesday, October 23, 2018


मेरे इस परिचय से मुझे जाहिर तौर पर श्रेष्ठता का बोध होता है और सुधारवादी लोगों के दृष्टिकोण से मैं ब्राह्मणवादी मानसिकता का आदमी बन जाता हूं. आज की शहरी जीवनशैली में बहुतों के लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं है वैसे ही आज मेरे लिए भी इस परिचय का मतलब नहीं रह गया है. रोजी, रोटी, संबंध और व्यवहार में इन विश्लेषणों का कोई उपयोग नहीं है. फिर भी क्या इस वर्गीकरण को खारिज किया जा सकता है ? एक बार कुछ दिनों के लिए मैंने भी अपनी जाति छोड़ दी थी. तब एक बुजुर्ग समाजवादी ने मुझे बहुत डांटा था. उसने कहा यह सब पागलपन क्यों कर रहे हो. हालांकि तब भी उसकी बात का मेरे ऊपर कोई खास असर नहीं हुआ था लेकिन आज मुझे लगता है कि उन्होंने सही कहा था. जाति छोड़ने का नाटक पागलपन ही है. ऐसा हम इसलिए करते हैं क्योंकि इस व्यवस्था में आये विकार हमें इससे अलग करने के लिए प्रेरित करते हैं. रास्ता क्या है? क्या हम अलग हो जाएं या फिर इसके विकार दूर करें?
हरियाणा में सगोत्रीय विवाह के कारण एक जोड़े की हत्या कर दी जाती है तो कुछ लोगों ने इसे बर्बरता करार दिया. मैं भी इसे बर्बरता मानता हूं लेकिन वैसे नहीं जैसे और लोग मान रहे हैं. गोत्र को गाली देते हुए मैं इसे बर्बरता नहीं कह सकता. यह वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव है कि हमारे लिए कुल, गोत्र आदि का मतलब समाप्त हो गया है. हम भी जाति और जनपद को उसी तरह गाली देने लगे हैं जैसे अंग्रेज बहादुर देकर चले गये. सजातीय गोत्र में शादी न करने के पीछे कारण यह है कि हम एक ही ऋषि की संतान हैं. इसलिए आज उस गोत्र का कोई भी व्यक्ति कितनी भी दूर क्यों न हो रिश्ता भाई-बहन का होता है. इसको कोई पोंगापंथी नजरिये से देखना चाहे तो यह उसकी समझ है मैं इसे दूसरे नजरिये से देखता हूं. हमारे बंधुत्व को बढ़ाने में यह एक कारगर औजार है. आज जब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के उपयोग से हमारी समझ छिन्न-भिन्न् करने की कोशिश की जा रही है ऐसे औजारों के बारे में हमें नये सिरे से सोचने और समझने की जरूरत है.
बहुत समय नहीं गुजरा जब योग और आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा के सामने तुच्छ और हीन माना जा रहा था. पिछले 10 सालों में ऐसा क्या हो गया कि योग और आयुर्वेद इलिट क्लास की चिकित्सा पद्धति बन बैठा. त्रिदोष और पंचमहाभूत की अवधारणा को हमने अचानक ही वैज्ञानिक मान्यता क्यों दे दी? क्योंकि पश्चिम ने उसे नये सिरे से अपना लिया. पश्चिम ने कहा कि योग और आयुर्वेद अच्छा है. फिर हमें भी होश आया कि योग-आयुर्वेद तो हमारा अपना है. नहीं तो समाजवादी अर्थव्यवस्था और सोच ने गांव-गांव से वैद्य परंपरा को खत्म कर दिया था. आज गांवों में वैद्य उपनाम बचे हैं लेकिन उस घर का आदमी अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मेहनत मजदूरी करता है. मैं यह नहीं कहता कि वैद्यकी में दोष नहीं आये होंगे. लेकिन दोष निवारण की जगह उस विधा को ही समाप्त कर देना कहां की बुद्धिमानी है?
कुछ इतिहासकार गोत्र, जाति व्यवस्था की मनमानी व्याख्या करते हैं. उनके अपनी जानकारी के स्रोत क्या हैं? वे वही समझते हैं जो उन्हें समझाया जाता है. इसलिए ऐसे इतिहासकारों को बहुत अहमियत देना हमारी कुंद समझ का ही उदाहरण है और कुछ नहीं. गोमांस खाने का जो सवाल रवीश कुमार ने अपने ब्लाग पर उठाया है, इसे मैं उनकी नासमझी ही कहूंगा कि बिना समझे औरों की ही तरह चार अक्षर पढ़कर उन्होंने इतनी बड़ी बात कह दी. गो का अर्थ गाय है लेकिन हमारे शरीर में भी एक गोस्थान है. जिसतक पहुंचने के लिए खेचरी मुद्रा का सहारा लेना पड़ता है. लंबे समय के अभ्यास के बाद हम अपने शरीर के भीतर ही एक ऐसे अमृत कोष को खोज लेते हैं कि हमारी भूख-प्यास पर नियंत्रण हो जाता है. हो सकता है इसे ही गोमांस भक्षण कहा जाता हो. मैं भी एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ हूं लेकिन मैंने गाय को कर्मणा मां के रूप में ही देखा है.
जाति और जनपद इस देश की एकता के दो सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं. वर्तमान चुनौतियों और समस्याओं का समाधान भी इसी व्यवस्था में छिपा है. जाति व्यवस्था का सबसे बड़ा योगदान यह था कि जन्म से आपको रोजगार की गारंटी होती थी. अगर आपमें क्षमता होती थी तो आप नये तरह के रोजगार को अपना सकते थे, उसके लिए कोई रोक-टोक नहीं होती थी. मैं पत्रकार न रहूं तो पूजा-पाठ कराने का परंपरागत व्यवसाय मुझे विरासत में मिला है लेकिन उसे ही करने की मेरे ऊपर कोई बाध्यता नहीं है. इसी तरह भूमंडलीकरण के इस युग में अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए हम पुनः जनपद व्यवस्था की ओऱ लौंटेंगे. मनुष्य का मानसिक विस्तार जितना अधिक है उसकी शारीरिक क्षमता उतनी ही सीमित. भूमंडलीकरण के इस युग में हम अपने लिए कोई मोहल्ला क्यों खोजते हैं? क्योंकि भूमंडलीकरण हमसे हमारी पहचान छीन लेता है और मोहल्ला, गांव और जनपद हमें हमारी पहचान देता है.
गोत्र को गालीदेनेवाले गोत्र को जैसा समझते हैं, वह वैसा है नहीं. गोत्र के निहितार्थ बिल्कुल अलग हैं. भूमंडलीकरण पर 10 साल से काम करते हुए मुझे यही समझ में आ रहा है कि हमारे बीच से ही कुछ लोगों को तैयार कर दिया गया है जो अपनी ही जड़ पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं. ऐसा करते हुए उन्हें लगता है कि वे कोई क्रांति कर रहे हैं इसलिए ये लोग किसी भी आलोचना-प्रत्यालोचना से रुकनेवाले नहीं. लेकिन वह समय आ रहा है जब हम खोज-खोज कर जाति, गोत्र, जनपद की सीमाओं को अपना आधार बना लेगें. जो ऐसा नहीं करेगा लोग समझेंगे इसकी समझ में खोट है. भूमंडलीकरण ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार कर दी है. ठीक वैसे ही जैसे एलोपैथी ने आयुर्वेद का रास्ता साफ कर दिया था.

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