सकरवार भूमिहार सांकृत गोत्रवाले के पूर्वज काम देव मिश्र ,धाम देव मिश्र द्वारा स्थापित मां भगवती देवी का मंदिर
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
आस्था व विश्वास का प्रतीक रेवतीपुर गांव के मध्य में स्थित मां भगवती देवी का मंदिर श्रद्धालुओं के सभी मुरादों को पूरा करने के कारण पूरे क्षेत्र में चर्चित है। बारहों महीने यहां अखंड दीपक जला करता है। बीच बीच में सवा माह का हरिकीर्तन हुआ करता है। जो भी सच्चे मन से मां के दरबार में आता है। वह खाली हाथ नहीं जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन से ही यहां पर श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है। प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में भक्त मां के दरबार में हाजिरी लगाने आ रहे है।
मान्यता है कि मुस्लिम शासन काल में काम देव मिश्र व धाम देव मिश्र ने फत्तेहपुर सिकरी से मां की मूर्ति लाकर यहां पर स्थापित किए। ब्रिटिश हुकूमत में अकाल पड़ जाने के कारण लोगों को भूखे मरने की नौबत आ गयी थी परंतु इस दशा में भी तत्कालीन प्रशासन ने लोगों से लगान वसूलने का फरमान जारी कर दिया। इससे लोगों में हड़कंप मच गया था। तभी मां ने एक वृद्धा का रूप धारण करके पूरे गांव का लगान अंग्रेजों के पास ले जाकर चुकाया और लोगों को इस मुसीबत से छुटकारा दिलाई। किदवंतियों के अनुसार बलिबंड खां पहलवान के उपर मां का आशीर्वाद था। वह मां के अनन्य भक्त थे। उन्होने स्वप्न में मां का दर्शन भी किया था। इस तरह यह धाम समरसता व भाईचारे का भी प्रतीक है।
👑👑मां डुमरेजनी मंदिर, डुमराँव 👑👑
प्रस्तुति अरविन्द रॉय (मेरा गांव)
दक्षिण टोला डुमराँव वत्स गोत्र दोनवार भूमिहार ब्राह्मण की एक पुरानी बस्ती है इसी से १ km दूर दक्षिणी पूर्वी छोर पर काव नदी के किनारे है कोलाहल से दूर शान्त एकान्त में मां डुमरेजनी का मंदिर स्थित है l मनौतियों के साथ मां के दरबार में हाजिरी लगाने वाले भक्तों की न सिर्फ झोली भरती है, बल्कि माता आज भी स्तीत्व की रक्षा करने का संदेश देती हैं। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है। भस्म हुई माता की राख और मिट्टी का ढेर है। मिट्टी की पिंडी की लोग आराधना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि कोई दिल से माता से कुछ मांगे, तो उसकी मुरादें पूरी होती हैं। आज भी मंदिर घने पेड़ों से घिरा है और आबादी से अलग है। फिर भी हर दिन लोग यहां पूजा अर्चना के लिए आते हैं। स्तीत्व के लिए भस्म हुई थी माता: लगभग पांच सौ वर्ष पहले डुमरांव घने जंगलों से घिरा हुआ था। उस वक्त सड़कें नहीं थी। काव नदी और जंगलों के बीच से रास्ता भोजपुर घाट होते हुए उतरप्रदेश को जोड़ता था। इसी रास्ते पर चेरो जाति का किला था। चेरों का इस इलाके में आतंक था। लूटमार उनका पेशा है। डुमरांव प्रखंड के अरैला गांव के कौशिक गोत्रीय ब्रह्मण परिवार में डुमरेजनी का जन्म हुआ था। उनकी शादी यूपी के द्रोणवार ब्रह्मण रामचंद्र पांडेय से हुई थी। बिदाई कराकर रामचंद्र घोडे पर होकर इसी रास्ते से गुजर रहे थे। पीछे डुमरेजनी की डोली चल रही थी। जैसे ही चेरो के इलाके में पहुंचे। चेरों ने लूट की नीयत से हमला बोल दिया। पति के साथ डुमरेजनी भी चंडी का रुप धारण कर भिड़ गईं। पति के गिरते ही डुमरेजनी का हौंसला जवाब देने लगा। डुमरेजनी स्तीत्व की रक्षा के लिए अपने आप को भस्म कर लिया। नारी शक्ति का यह रुप लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बन गया। समय के साथ दिखने लगा प्रभाव: कुछ समय बाद माता का प्रभाव इलाके में दिखने लगा। चेरो का सम्राज्य भी माता की कुदृष्टि के कारण खत्म हो गया। 19 वीं सदी के उतराद्ध में दक्षिण टोला के कुछ लोगों के प्रयास से पूजा अर्चना शुरू हुई। पहले माता का छोटा मंदिर बना। लोगों का मंदिर में आना जाना शुरू हुआ। लोगों में माता के प्रति आस्था बढ़ती गई। माता की कृपा से रीवा नरेश रमण सिंह को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। संतान के रुप में मनौती पूरा होने पर 1898 में महारानी ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके बाद से आस्था जो जन सैलाब उमडा,उसका कदमताल आज भी जारी है। श्रावणी पूर्णिमा को होती है विशेष पूजा: समय के साथ चेरो का आतंक खत्म हो गया। चेरो जाति के लोगों के किले का अवशेष भी मंदिर के समीप है। अब घने जंगल नहीं है। लेकिन घने पेड़ों के कारण जंगल होने का अहसास होता है। मंदिर के पूरब से काव नदी गुजरती है। श्रावणी पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां विशेष पूजा का आयोजन होता है। इस पूजा में अलग-अलग प्रदेशों से भक्त पहुंचते हैं।
आरती सुबह सात बजे और संध्या साढ़े छह बजे नियमित रुप से होती है। आरती के बाद मंदिर में ताला बंद नहीं होता है। माता सबकी दुख हरती है। कोई यहां से खाली हाथ नहीं लौटता।
"जय डुमरेजनी माई"
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
आस्था व विश्वास का प्रतीक रेवतीपुर गांव के मध्य में स्थित मां भगवती देवी का मंदिर श्रद्धालुओं के सभी मुरादों को पूरा करने के कारण पूरे क्षेत्र में चर्चित है। बारहों महीने यहां अखंड दीपक जला करता है। बीच बीच में सवा माह का हरिकीर्तन हुआ करता है। जो भी सच्चे मन से मां के दरबार में आता है। वह खाली हाथ नहीं जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन से ही यहां पर श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है। प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में भक्त मां के दरबार में हाजिरी लगाने आ रहे है।
मान्यता है कि मुस्लिम शासन काल में काम देव मिश्र व धाम देव मिश्र ने फत्तेहपुर सिकरी से मां की मूर्ति लाकर यहां पर स्थापित किए। ब्रिटिश हुकूमत में अकाल पड़ जाने के कारण लोगों को भूखे मरने की नौबत आ गयी थी परंतु इस दशा में भी तत्कालीन प्रशासन ने लोगों से लगान वसूलने का फरमान जारी कर दिया। इससे लोगों में हड़कंप मच गया था। तभी मां ने एक वृद्धा का रूप धारण करके पूरे गांव का लगान अंग्रेजों के पास ले जाकर चुकाया और लोगों को इस मुसीबत से छुटकारा दिलाई। किदवंतियों के अनुसार बलिबंड खां पहलवान के उपर मां का आशीर्वाद था। वह मां के अनन्य भक्त थे। उन्होने स्वप्न में मां का दर्शन भी किया था। इस तरह यह धाम समरसता व भाईचारे का भी प्रतीक है।
👑👑मां डुमरेजनी मंदिर, डुमराँव 👑👑
प्रस्तुति अरविन्द रॉय (मेरा गांव)
दक्षिण टोला डुमराँव वत्स गोत्र दोनवार भूमिहार ब्राह्मण की एक पुरानी बस्ती है इसी से १ km दूर दक्षिणी पूर्वी छोर पर काव नदी के किनारे है कोलाहल से दूर शान्त एकान्त में मां डुमरेजनी का मंदिर स्थित है l मनौतियों के साथ मां के दरबार में हाजिरी लगाने वाले भक्तों की न सिर्फ झोली भरती है, बल्कि माता आज भी स्तीत्व की रक्षा करने का संदेश देती हैं। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है। भस्म हुई माता की राख और मिट्टी का ढेर है। मिट्टी की पिंडी की लोग आराधना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि कोई दिल से माता से कुछ मांगे, तो उसकी मुरादें पूरी होती हैं। आज भी मंदिर घने पेड़ों से घिरा है और आबादी से अलग है। फिर भी हर दिन लोग यहां पूजा अर्चना के लिए आते हैं। स्तीत्व के लिए भस्म हुई थी माता: लगभग पांच सौ वर्ष पहले डुमरांव घने जंगलों से घिरा हुआ था। उस वक्त सड़कें नहीं थी। काव नदी और जंगलों के बीच से रास्ता भोजपुर घाट होते हुए उतरप्रदेश को जोड़ता था। इसी रास्ते पर चेरो जाति का किला था। चेरों का इस इलाके में आतंक था। लूटमार उनका पेशा है। डुमरांव प्रखंड के अरैला गांव के कौशिक गोत्रीय ब्रह्मण परिवार में डुमरेजनी का जन्म हुआ था। उनकी शादी यूपी के द्रोणवार ब्रह्मण रामचंद्र पांडेय से हुई थी। बिदाई कराकर रामचंद्र घोडे पर होकर इसी रास्ते से गुजर रहे थे। पीछे डुमरेजनी की डोली चल रही थी। जैसे ही चेरो के इलाके में पहुंचे। चेरों ने लूट की नीयत से हमला बोल दिया। पति के साथ डुमरेजनी भी चंडी का रुप धारण कर भिड़ गईं। पति के गिरते ही डुमरेजनी का हौंसला जवाब देने लगा। डुमरेजनी स्तीत्व की रक्षा के लिए अपने आप को भस्म कर लिया। नारी शक्ति का यह रुप लोगों के बीच चर्चा का केंद्र बन गया। समय के साथ दिखने लगा प्रभाव: कुछ समय बाद माता का प्रभाव इलाके में दिखने लगा। चेरो का सम्राज्य भी माता की कुदृष्टि के कारण खत्म हो गया। 19 वीं सदी के उतराद्ध में दक्षिण टोला के कुछ लोगों के प्रयास से पूजा अर्चना शुरू हुई। पहले माता का छोटा मंदिर बना। लोगों का मंदिर में आना जाना शुरू हुआ। लोगों में माता के प्रति आस्था बढ़ती गई। माता की कृपा से रीवा नरेश रमण सिंह को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। संतान के रुप में मनौती पूरा होने पर 1898 में महारानी ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके बाद से आस्था जो जन सैलाब उमडा,उसका कदमताल आज भी जारी है। श्रावणी पूर्णिमा को होती है विशेष पूजा: समय के साथ चेरो का आतंक खत्म हो गया। चेरो जाति के लोगों के किले का अवशेष भी मंदिर के समीप है। अब घने जंगल नहीं है। लेकिन घने पेड़ों के कारण जंगल होने का अहसास होता है। मंदिर के पूरब से काव नदी गुजरती है। श्रावणी पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां विशेष पूजा का आयोजन होता है। इस पूजा में अलग-अलग प्रदेशों से भक्त पहुंचते हैं।
आरती सुबह सात बजे और संध्या साढ़े छह बजे नियमित रुप से होती है। आरती के बाद मंदिर में ताला बंद नहीं होता है। माता सबकी दुख हरती है। कोई यहां से खाली हाथ नहीं लौटता।
"जय डुमरेजनी माई"
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